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द्रव्य-गुण- पर्याय
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डॉ. राकेशकुमार जैन
जैनदर्शन में संसार - परिभ्रमण का मुख्य कारण मोह को माना गया है। मोह का मुख्य कारण स्व-पर भेद-ज्ञान का अभाव है। भेद-ज्ञान करने हेतु स्व-परपदार्थों के द्रव्य-गुणपर्याय का सम्यक् परिज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है ।' द्रव्य-गुण-पर्याय के सम्यक् परिज्ञान के अभाव में हमारी दृष्टि कभी भी सम्यक् नहीं हो सकती । द्रव्य-गुण-पर्याय के सम्यग्ज्ञान से 'शून्य हमारी दृष्टि हमेशा मिथ्या ही बनी रहती है और इस विश्व को उसके विराट्स्वरूप में न देखकर, मनुष्यपर्याय मात्र में अहंकार - ममकार करके वह अत्यन्त संकुचितपने को प्राप्त होती है - इस मिथ्यादृष्टि को ही आचार्यों ने पर- समय' कहा है।
विश्व या लोक की परिभाषा - आगम में विश्व या लोक की परिभाषा सामान्यतया षडद्रव्यात्मकलोक......' अर्थात् 'छह द्रव्यों के समूह' की जाती है । परन्तु यह परिभाषा द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव में से मात्र द्रव्य को प्रधान करके की जाती है तथा क्षेत्र - काल - भाव की इसमें गौणता ही है । यद्यपि क्षेत्र - काल - भावादि का उक्त लोक की परिभाषा में अभाव नहीं होता, तथापि द्रव्य-विवक्षा में ही उन सबका अन्तर्भाव हो जाता है; अतः क्षेत्र की प्रधानता में पंचास्तिकायों के समूह को लोक कहते हैं, काल की प्रधानता में नौ पदार्थों के समूह को लोक कहते हैं और भाव की प्रधानता में सात तत्त्वों के समूह को लोक कहते हैं ऐसा भी हम कह सकते हैं
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पदार्थ का स्वरूप - इस विश्व में जो कोई भी जानने में आने वाला पदार्थ है; वह समस्त द्रव्य-मय, गुण-मय और पर्याय - मय है । दृश्यमान ज्ञेयभूत या अर्थभूत पदार्थ मूलतः द्रव्य - मय होते हैं, क्योंकि पदार्थ में मात्र एक द्रव्य या अनेक द्रव्यों का संयोग दिखायी देता है । तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिसमें द्रव्य न हों या वे द्रव्य - मय न हों। यद्यपि पदार्थ, पर्याय - - स्वरूप या गुण-स्वरूप भी हो सकते हैं, परन्तु गुण या पर्याय भी तो द्रव्य के ही आश्रित हैं अतः पदार्थों की द्रव्य-गुण- पर्यायमयता अबाधित है। पदार्थ या अर्थ की द्रव्य-गुण- पर्यायमयता - आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार गाथा 87 में द्रव्य, गुण और पर्याय - ऐसे तीन प्रकार का अर्थ कहा है।
अतः अर्थ शब्द का प्रयोग द्रव्य-गुण-पर्याय - इन तीनों के लिए प्रयुक्त होता है;
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