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द्रव्य के पर्यायवाची नाम
द्रव्य के पर्यायवाची नामों में निम्न मुख्य हैं- सत्, सत्त्व, सत्ता, अवान्तर-सत्ता, परिणामी, सामान्य, तद्भाव-सामान्य, सादृश्य-सामान्य, तिर्यक्-सामान्य, विस्तार-सामान्य, ऊर्ध्वता-सामान्य, त्रिकाली, ध्रुव, नित्य, अन्वय, उत्सर्ग, अनुवृत्ति, अर्थ, पदार्थ, वस्तु, चीज, प्रभु, विभु, प्रमेय, ज्ञेय, सप्रदेशी, प्रदेशवान्, विशेषवान्, गुणवान्, पर्यायवान्, गुणपर्यायवान्, अस्तित्ववान्, सत्तावान्, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवान्, स्वभाववान्, भाववान्, वीर्यवान्, गुणी, धर्मी, अस्ति, अस्तित्व, स्वरूपास्तित्व, अस्तिकाय, भाव, तत्त्व, परमार्थ, उपादान, कारण, कर्ता, व्यापक, स्वतन्त्र, स्वाधीन इत्यादि अनेक दृष्टियों से अनेक नाम
द्रव्य की स्वभावपरक शाब्दिक व्याख्या
'द्रव्य' शब्द 'द्रु' धातु से बना है, जिसका अर्थ -प्राप्त होना, प्राप्त करना, दौड़ना, जाना, गमन करना, अनुसरण करना, बहना, चलना, तरल होना, द्रवित होना, पिघलना, गलना, आदि है। इन सभी अर्थों का विचार किया जाये, तो 'द्रव्य' की इन क्रियाओं, परिणमनशीलता या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के आधार पर पंचास्तिकाय गाथा 9 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने द्रव्य की व्युत्पत्ति (निरुक्ति) सुन्दर रीति से स्पष्ट की हैद्रवति गच्छति सामान्यरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्च सद्भावपर्यायान् स्वभाव-विशेषानित्यनुगतार्थतया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् अर्थात् जो द्रवित होता है, प्राप्त होता है अर्थात् जो सामान्यरूप से या स्वरूप से उन-उन क्रमभावी और सहभावी सद्भावरूप स्वभाव-विशेषों में व्याप्त होता है, वह द्रव्य है – इस प्रकार अनुगत अर्थ वाली निरुक्ति (व्युत्पत्ति) से द्रव्य की व्याख्या की गई। इसी गाथा की आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा है कि - 'द्रवति स्वभावपर्यायान, गच्छति विभावपर्यायान्'ऐसा अर्थ करने का तात्पर्य यह है कि द्रव्य, अपनी स्वभाव-पर्यायों-रूप तो स्वयं द्रवित होता है, परन्तु विभाव-पर्यायों-रूप बाह्य निमित्त आदि की सापेक्षता में गमन करता है।"
'द्रव्य' इस शब्द में दो अर्थ छिपे हुए हैं - द्रवणशीलता और ध्रुवता। जगत् का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील होकर भी ध्रुव है। आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ, अपने गुणों और पर्यायों का कभी भी उल्लंघन नहीं करता; उसके प्रवाहित होने की नियत धारा है, जिसके आश्रय से वह प्रवाहित होता रहता है।
द्रव्य की शुद्धता से तात्पर्य-छह द्रव्यों को मल स्वरूप में देखने पर सर्वत्र शद्धता के ही दर्शन होते हैं, क्योंकि द्रव्य-दृष्टि से विचारें, तो द्रव्य में कभी अशुद्धता आती ही नहीं है; अशुद्धता हमेशा पर्याय तक ही सीमित होने से पर्यायदृष्टि का ही विषय बनती है। तात्पर्य यह है कि द्रव्य, यदि अन्य द्रव्यरूप हो जाए या द्रव्य में अन्य द्रव्य का प्रवेश हो
द्रव्य-गुण-पर्याय :: 245
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