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नहीं कहा है, बल्कि गुण और द्रव्य को भी शुद्ध कहा गया है, लेकिन यहाँ त्रैकालिक गुण या द्रव्य को शुद्ध नहीं कहा जा रहा है। मात्र जिससमय शुद्धपर्याय से परिणत है तथा जब शुद्धगुणों से युक्त है, तभी आत्मा को शुद्धात्मद्रव्य कहा जा रहा है - यह भी आगमोक्त शैली है, इसे समझना चाहिए, क्योंकि यदि शुद्धात्मद्रव्य का अर्थ त्रिकालशुद्ध परमपारिणामिकभाव किया जाता है, तो वह त्रिकालशुद्धगुणपर्यायों का ही आधारभूत माना जाएगा। यदि वह त्रिकाल शुद्ध है, तो उसके गुण भी त्रिकाल शुद्ध ही सम्भव हैं, पर्यायें भी त्रिकाल शुद्ध ही ली जाएँगी, वे भी परमपरिणामिकभावस्वरूप ही होंगी,
औपशमिक-क्षायोपशमिक-क्षयिकभावस्वरूप पर्यायों का इसमें अन्तर्भाव नहीं होगा - यह लाक्षणिक दृष्टि से सम्मत विचार है।
द्रव्य तो सदाकाल शुद्ध है - ऐसी भी विवक्षा आगम में आती है, परन्तु ऐसी भी विवक्षा आगम में विद्यमान है कि द्रव्य जिससमय शुद्धगुण-पर्यायों का आधारभूत बनता है, तभी वह शुद्ध है। शुद्धपर्याय से युक्त द्रव्य शुद्ध कहा जाता है। द्रव्य के प्रति-समय के परिणमन को 'पर्याय' कहा जाता है, जबकि प्रति-समय परिणमन करते हुए द्रव्य की उस समय उस पर्यायगत जो-जो विशेषताएँ होती हैं, उन्हें भी गुण कहते हैं । यही कारण है कि यदि द्रव्य का परिणमन शुद्ध है तो शुद्धपरिणमन के समय उसकी समस्त विशेषताएँ या गुण भी शुद्ध ही कहलाएँगे, परन्तु जब द्रव्य का परिणमन अशुद्ध है, तो उसकी समस्त विशेषताएँ या गुण भी अशुद्ध ही कहलाएँगे। यही कारण है कि शुद्ध या अशुद्ध गुणपर्याय के आधारभूत द्रव्य को भी शुद्ध या अशुद्ध कहा है।
मुक्तजीव में शुद्धद्रव्य के गुण-पर्याय तो शुद्ध हैं ही, लेकिन उनका द्रव्य भी शुद्ध, क्षेत्र भी शुद्ध, काल भी शुद्ध और भाव भी शुद्ध होता है; -इसी प्रकार संसारी जीव में अशुद्धद्रव्य के गुण-पर्याय भी अशुद्ध हैं तथा उसका द्रव्य भी अशुद्ध, क्षेत्र भी अशुद्ध, काल भी अशुद्ध और भाव भी अशुद्ध है, क्योंकि यदि हम स्व-द्रव्य को शुद्ध मानें, स्वक्षेत्र को शुद्ध मानें, स्व-काल को शुद्ध माने, स्वभाव को शुद्ध मानें और स्वद्रव्य के गुणों को भी शुद्ध मानें तो पर्याय के अशुद्ध होने का कोई कारण ही नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि द्रव्य-गुण-पर्याय का यह विषय जिनागम में अत्यन्त विस्तार के साथ व्याख्यायित किया गया है तथा उसे अत्यन्त प्रयोजनभूत भी माना गया है, उसके बिना मोक्षमार्ग की प्राप्ति होना अत्यन्त दुष्कर है। निर्विकल्प अनुभव से पूर्व विकल्पात्मकरूप से यदि आत्मा का निर्णय सम्यक् नहीं हुआ तो निर्विकल्पता भी कैसे साध्य हो सकती है?
सन्दर्भ
___ 1. द्रष्टव्य, तत्त्वप्रदीपिका प्रवचनसार 89
2. प्रवचनसार 93
256 :: जैनधर्म परिचय
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