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विभावपर्याय। द्रव्य और गुण दोनों की पर्यायें, इन दोनों प्रकार की होती हैं।
स्वभावपर्याय के दो भेद सम्भव हैं - द्रव्यस्वभावपर्याय और गुणस्वभावपर्याय।
द्रव्यस्वभावपर्याय के दो भेद हैं - सामान्यद्र व्यस्वभावपर्याय और विशेषद्रव्यस्वभावपर्याय। सामान्यद्रव्यस्वभावपर्याय सब द्रव्यों में समान है। विशेषद्रव्यस्वभाव-पर्याय के जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य की
अपेक्षा छह भेद हैं। कारण-कार्य की अपेक्षा विशेषद्रव्यस्वभावपर्याय दो प्रकार की हैं - विशेषद्र व्यकारणस्वभावपर्याय और विशेषद्र व्यकार्यस्वभावपर्याय । विशेषद्रव्यकारणस्वभावपर्याय तो अनादि-अनन्त एक-रूप शुद्ध है। लेकिन विशेषद्रव्यकार्यस्वभावपर्याय धर्म, अधर्म, आकाश और काल-द्रव्य की अनादि शुद्ध होती है और जीव की विशेषद्रव्य कार्यस्वभावपर्याय एक बार शुद्ध होने के बाद सादिअनन्तकाल के लिए शुद्ध हो जाती है। जबकि पुद्गलद्रव्य की कादाचित्क होने से सादिसान्त होती है। ऐसा भी माना जाता है कि कोई-कोई पुद्गल परमाणु त्रैकालिक शुद्ध भी होते हैं, क्योंकि वे कभी अशुद्ध स्कन्धपने को प्राप्त नहीं होते।
गुणस्वभावपर्याय के भी दो भेद हैं - सामान्यगुणस्वभावपर्याय और विशेषगुणस्वभावपर्याय। सामान्यगुणस्वभावपर्याय सब द्रव्यों में समान हैं । विशेषगुणस्वभावपर्याय के दो भेद हैं- अनादिशुद्धविशेषगुणस्वभावपर्याय और सादिशुद्धविशेषगुणस्वभावपर्याय। अनादिशुद्धविशेषगुणस्वभावपर्याय के चार मुख्यतः भेद हैं- धर्म, अधर्म, आकाश और काल-द्रव्य के विशेषगुण अनादि से शुद्ध हैं। जीव और पुद्गलद्रव्य के भी अनन्तविशेषगुण अनादिशुद्ध हैं। सादिशुद्धविशेषगुणस्वभावपर्याय के मुख्यत: दो भेद हैं- जीव और पुद्गलद्रव्य के सादिशुद्धविशेषगुणों की अपेक्षा ये भेद बनते हैं।
विभावपर्याय के दो भेद हैं- द्रव्यविभावपर्याय और गुणविभावपर्याय। द्रव्यविभावपर्याय के दो भेद हैं- जीवद्रव्यविभाव-पर्याय और पुद्गलद्रव्यविभाव-पर्याय । गुणविभावपर्याय के दो भेद हैं - जीवगुणविभावपर्याय और पुद्गलगुणविभाव-पर्याय।
3. अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय - 'अर्थपर्याय' और 'व्यंजनपर्याय' के रूप में दो प्रकार की पर्यायें मानी गई हैं। 57 . जो द्रव्य को क्रमपरिणाम से प्राप्त करते हैं अथवा प्राप्त किये जाते हैं, वे अर्थपर्याय हैं। अर्थपर्याय सूक्ष्म है, ज्ञानविषयक है; अतः शब्द से नहीं कही जा सकती। यह मात्र वर्तमानकालिक वस्तु को विषय करती है, इसलिए आचार्यों ने इसे 'ऋजुसूत्रनय' का विषय माना है।
वज्रशिला, स्तम्भादि में व्यञ्जन संज्ञा से उत्पन्न हुई पर्याय को व्यंजनपर्याय कहते हैं। व्यंजन-पर्याय स्थूल एवं शब्दगोचर है तथा अपेक्षाकृत स्थायी भी मानी जाती है। जैसे – मिट्टी की पिण्ड, स्थास, कोष, कुशल, घट और कपाल आदि पर्यायें व्यंजनपर्यायें
द्रव्य-गुण-पर्याय :: 253
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