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द्रव्य हैं। ___गुण - जैनदर्शन में गुण कोई पृथक् पदार्थ नहीं है (वैशेषिकदर्शन में गुण को पृथक् पदार्थ माना है) बल्कि द्रव्य की सहभावी विशेषताओं को ही गुण कहा गया है अथवा जो सम्पूर्ण द्रव्य में व्याप्त रहते हैं और उसकी समस्त पर्यायों में व्यापक रहते हैं; उन्हें गुण कहते हैं अथवा जो द्रव्य को द्रव्यान्तर से पृथक् करता है, वह गुण है।'
प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण होते हैं। गुणों को अनेक प्रकार से विभाजित कर सकते
1. स्वाभाविकगुण और वैभाविकगुण, 2. सामान्यगुण और विशेषगुण,' 3. साधारणगुण और असाधारणगुण,10 4. अनु-जीवी गुण और प्रति-जीवी गुण,11 5. गुणों के अन्य प्रकार से तीन भेद हैं- साधारण, असाधारण और साधारणासाधारण,2
6. एक और प्रकार से गुणों के चार भेद हैं- अनुजीवी, प्रतिजीवी, पर्यायशक्ति रूप और आपेक्षिक धर्मरूपा,
पर्याय – जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त हो, उसे पर्याय कहते हैं।4 अथवा गुणों की प्रतिसमय होनेवाली अवस्था का नाम पर्याय है'5 अथवा जो स्वभाव-विभाव-रूप से परिणमन करती है, वह पर्याय है। __पर्यायों के भेद अनेक प्रकार से किये जाते हैं; जैसे- द्रव्यपर्याय-गुणपर्याय, अर्थपर्यायव्यंजनपर्याय, स्वभावपर्याय-विभावपर्याय, शुद्धपर्याय-अशुद्धपर्याय, कारणशुद्धपर्यायकार्यशुद्धपर्याय, क्रमबद्धपर्याय या क्रमनियमितपर्याय आदि। फिर इनके भी उत्तरोत्तर भेदप्रभेद हैं।
वास्तव में द्रव्य और गुण अलग-अलग पदार्थ नहीं है, इस कारण द्रव्य के परिणमन में गुणों का परिणमन एवं द्रव्य के सर्व गुणों के अखण्ड परिणमन में द्रव्य का परिणमन अन्तर्गर्भित हो जाता है। जैसे पर्याय के दो भेद हैं- द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय। द्रव्य के परिणमन को द्रव्यपर्याय और गुण के परिणमन को गुणपर्याय कहते हैं, क्योंकि गुणों से भिन्न द्रव्य कोई अलग वस्तु नहीं है, इसी कारण प्रदेशत्व गुण के परिणमन को व्यंजनपर्याय और प्रदेशत्वगुण को छोड़कर अन्य गुणों के परिणमन को अर्थपर्याय कहा जाता है।18
इसी प्रकार तत्त्वतः गुण और पर्याय सर्वथा पृथक्-पृथक् सिद्ध नहीं होते, क्योंकि ये कथंचित् भेदाभेदात्मक हैं। यदि गुणों को सर्वथा नित्य और पर्यायों को सर्वथा अनित्य माना जाए, तो वस्तु में सर्व प्रकार से अर्थक्रियाकारित्व का विरोध आता है अर्थात् जगत् में कोई कार्य ही नहीं हो सकता; अत: गुण और पर्यायों से पृथक् द्रव्य नामक कोई वस्तु ही
द्रव्य-गुण-पर्याय :: 243
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