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प्रमाण, नय और निक्षेप
डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन
प्रमाण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भारतीय दर्शनों में विभिन्न दर्शन-पद्धतियों एवं उनकी विभिन्न समस्याओं से सम्बन्धित चिन्तन का क्रमबद्ध प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं होता। विशेष रूप से जैनदर्शन में प्रमाणमीमांसा का जैसा विशद, प्रौढ़ एवं गम्भीर विवेचन प्रमाण-प्रस्थापक आचार्यों ने किया है, वैसा मूल्यांकन भारतीय दर्शन के इतिहास-लेखकों ने नहीं किया है। अन्तरदार्शनिक पद्धतियों के साथ जैनदर्शन के ऐतिहासिक क्रम की तत्त्वाभिनिवेशी, तलस्पर्शी, वस्तुपाती दृष्टि जिस रूप में स्थापित होना चाहिए, उस रूप में नहीं हो पायी। यद्यपि जैनविद्या के गवेषक, समीक्षक एवं इतिहास-लेखक मनीषियों ने प्रमाणमीमांसा और तत्त्व-मीमांसा के अन्तर्गत सम्बन्धित विषयों पर ऐतिहासिक दृष्टि से प्रकाश डाला है, परन्तु वह भारतीय दर्शनों के ऐतिहासिक सन्दर्भ में मूल्यांकन हेतु अपर्याप्त है। आवश्यकता इस बात की है कि मूल ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययनपूर्वक जैनेतर एवं पाश्चात्य दर्शनों के साथ जैन प्रमाण-सिद्धान्तों की तुलनात्मक समीक्षा करते हुए भारतीय दर्शनों के इतिहास में मूल्यांकन हेतु ठोस कार्य-योजना तैयार की जानी चाहिए।
दार्शनिक-युग की प्रमाण-व्यवस्था से पूर्व प्रायः सभी भारतीय दर्शनों की दृष्टि के मूल में जड़ और चेतन की स्वतन्त्र वास्तविकता है। इनके स्वरूप और पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में दिए गये मन्तव्यों में जब अन्तर किया गया, तब उसके प्रामाणिक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए सभी दार्शनिक सम्प्रदायों ने कसौटी के रूप में अपनेअपने मानक निर्धारित किये। उस मानक का प्रारम्भिक रूप विद्या-अविद्या, ज्ञान-अज्ञान, सम्यक्-मिथ्या, अलौकिक-लौकिक, परा-अपरा विद्या आदि कुछ भी रहा हो, दार्शनिक युग में वह मानक प्रमाण-अप्रमाण के रूप में सभी सम्प्रदायों में मान्य हुआ, परन्तु उसके अन्तरंग स्वरूप में एकरूपता स्थापित नहीं हो सकी। प्रमाण शब्द प्रमिति-ज्ञान
और उसके साधन के लिए प्रयुक्त हुआ। 'प्रमाण' शब्द-प्रयोग से पूर्व प्रमाण के द्वारा किया जानेवाला कार्य, किन शब्दों के प्रयोग द्वारा किस रूप में किया जाता रहा, ज्ञान
और ज्ञान के साधनों का विकास कब हुआ, इसके आदि प्रवर्तक कौन हैं...? आदि 214 :: जैनधर्म परिचय
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