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समन्तभद्र की व्याख्या के प्रसंग में अकलंक की दृष्टि भी अनुत्तरित प्रतीत होती है । समन्तभद्र ने केवलज्ञान की पूर्ण - प्रत्यक्षता को ध्यान में रखकर लौकिक-दृष्टि से प्रत्यक्षप्रमाण की सीमा बाह्य - अर्थ तक विस्तृत कर दी। सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ अनुमेय होने से किसी के प्रत्यक्ष हैं, जैसे- अग्नि आदि । यहाँ समन्तभद्र द्वारा प्रयुक्त 'प्रत्यक्ष' पद स्पष्ट रूप से अतीन्द्रिय- प्रत्यक्ष - प्रमाण के साथ इन्द्रिय- प्रत्यक्ष - प्रमाण की ओर भी संकेत करता है । स्वयम्भूस्तोत्रम् में आए 'दृष्ट' और 'प्रत्यक्ष' पद प्रत्यक्षप्रमाण माने जाने की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं । विकसित प्रमाण युग में पाया जाने वाला अनुमान का सम्पूर्ण विवेचन क्रमभावी ज्ञान परोक्ष- प्रमाण के अन्तर्गत, समन्तभद्र के ग्रन्थों में पाया जाता है
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समन्तभद्र के बाद आचार्य सिद्धसेन ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद माने हैं । अन्यत्र उन्होंने स्वार्थ और परार्थ भेद भी किये हैं । अकलंक ने समन्तभद्र और सिद्धसेन के पद-चिह्नों पर चलते हुए उनके चिन्तन को प्रमुख आधार मानकर युगानुरूप प्रमाण भेद-व्यवस्था की स्थापना की । प्रत्यक्ष प्रमाण के मुख्य और सांव्यवहारिक ये दो भेद किये। मुख्य प्रत्यक्ष को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय-प्रत्यक्ष तथा एक स्थान पर प्रत्यक्ष के प्रादेशिक - प्रत्यक्ष, अनिन्द्रियप्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय- प्रत्यक्ष के रूप में तीन भेद किये हैं । तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वार्थसिद्धि की तरह प्रत्यक्ष के देश-प्रत्यक्ष और सर्व - प्रत्यक्ष भेद किये गए हैं । अकलंक द्वारा स्वीकृत अंशतः अविशद और अस्पष्ट होने की स्थिति में परोक्ष - प्रमाण के निम्नलिखित भेद - स्मरण / स्मृति, प्रत्यभिज्ञान / संज्ञा, तर्क / चिन्ता, अनुमान / अभिनिबोध और आगम / श्रुत परवर्ती प्रायः सभी जैन दार्शनिकों ने स्वीकृत किये हैं, जिनमें दर्शनान्तरों में मान्य द्वयाधिक प्रमाणों का अन्तर्भाव हो जाता है । श्वेताम्बर मान्य आगमों में ज्ञानों की चर्चा के साथ प्रमाण-भेदों का भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है। पं. सुखलाल संघवी ने अनुमान किया है कि श्वेताम्बर आगमों में प्रमाण- -भेदों की चर्चा बाद में प्रविष्ट हुई होगी।
प्रमाण का विषय एवं फल
प्रमाण का विषय द्रव्यपर्यायात्मक, सामान्यविशेषात्मक एवं उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है, जिसकी उपलब्धि एकान्त से नहीं हो सकती, क्योंकि अर्थ अनेकान्तात्मक है । इस विषय में प्रारम्भ से अद्यावधि कोई वैमत्य नहीं है । सभी ज्ञानों-प्रमाणों का फल अज्ञान का नाश है, यह विचार व्यक्त करते हुए समन्तभद्र ने युगपत् सर्वावभासक - ज्ञान -प्रमाण का फल उपेक्षा एवं क्रमभावी - ज्ञान- प्रमाण का फल उपेक्षा के साथ हेय और उपादेय बुद्धि को माना है । अकलंक और विद्यानन्द ने साक्षात् और परम्परा फल के रूप में प्रमाण के दो फल मानकर उन्हें कथंचित् प्रमाण से अभिन्न और भिन्न माना है तथा
220 :: जैनधर्म परिचय
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