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हुआ, तब से उसने अपने अन्तर्दर्शन की शक्तियों का आश्रय लेकर आत्मा, शरीर, मृत्यु, बाह्यजगत् और उसके कारणों के विषय में चिन्तन प्रारम्भ किया। देश, काल, परिस्थिति, अपरिपूर्ण ज्ञान एवं रुचि - भिन्नता के कारण उनके चिन्तन में मत - भिन्नताएँ उत्पन्न हुईं। उन मत - भिन्नताओं को सामान्य और विशेष में वर्गीकृत करके देखें, तब उनके मूल में समन्वय, समग्रता तथा विश्लेषण रूप आंशिक सत्यताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं । जब इनमें से प्रस्फुटित अवान्तर विचारधाराएँ विभिन्न मन्तव्यों को लेकर प्रमुखता से एकान्तिक पक्ष की ओर बढ़ने लगती हैं, तब अनेक वाद-विवाद उत्पन्न हो जाते हैं । अतीत के दार्शनिक साहित्य पर दृष्टिपात करें, तब इस तरह की अनेक विचारधाराओं का अस्तित्व पाया जाता है । जैसे ब्रह्माद्वैतवादियों का झुकाव सामान्य की ओर रहा है, जिन्होंने अन्तिम निष्कर्ष में भेदों को नकार दिया। बौद्धों ने अभेदों को मिथ्या बताया । अनेक द्रव्यों को मानने वाले सांख्य प्रकृति - पुरुषवाद के रूप में उनकी नित्यता और व्यापकता के एकान्त का परित्याग नहीं कर सके। किसी ने धर्म-धर्मी, गुण-गुणी आदि में एकान्त माना इत्यादि अनेक मतों में परस्पर विरोधी विचारधाराएँ दृष्टिगोचर होती हैं। इन सभी विरोधी दृष्टियों का समन्वय अहिंसा, समता, शान्ति, अपरिग्रह, सर्वोदय और वस्तु- - व्यवस्था के आलोक में मध्यस्थभाव से जैनदर्शन की अनेकान्त - दृष्टि ने किया है । इसी समग्र चिन्तन से स्याद्वाद प्रतिफलित हुआ तथा उससे नय - व्यवस्था । यही कारण है कि तीर्थंकरों के बाद आचार्यों द्वारा सृजित सम्पूर्ण वाङ्मय में अर्थाधिगम के लिए अनेकान्त दृष्टि का मूलाधार नय को भी प्रमाण की तरह स्वीकार किया गया है। आगमिक-साहित्य में विषय-वस्तु का विवेचन नय-दृष्टि से होता रहा है। धवला टीका में लिखा है कि जिनेन्द्र भगवान् के मत में नयवाद के बिना सूत्र - अर्थ आदि कुछभी नहीं कहा गया है। आचार्य यतिवृषभ ने यहाँ तक लिखा है कि जो व्यक्ति प्रमाण, नय और निक्षेप से पदार्थ की ठीक-ठीक समीक्षा नहीं करता, उसे अयुक्त पदार्थ भी युक्त और युक्त पदार्थ भी अयुक्त प्रतिभाषित होते हैं । समस्त वचन-प्रयोग और लोकव्यवहार नयाश्रित है ।
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तत्त्वाधिगम का उपाय : नय
जैनदर्शन में तत्त्वाधिगम के लिए समग्र वस्तु तत्त्व को विषय करने वाले प्रमाण की तरह तत्त्वों की आंशिक प्रमाणता के अधिगम के लिए नय को भी आवश्यक माना गया है । षट्खण्डागम में वस्तु व्यवस्था के लिए नय- विवक्षा की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया है। आचार्य समन्तभद्र ने प्रमाण और नय दोनों को वस्तु का प्रकाशक कहा है। आचार्य पूज्यपाद प्रमाण से ही नय की उत्पत्ति मानते हैं । अन्य दर्शनों में
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प्रमाण, नय और निक्षेप :: 223