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जो संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में स्थित वस्तु को निकालकर निश्चय में क्षेपण करता है, उसे निक्षेप कहते हैं। सभी जैनाचार्यों ने प्रायः यही अर्थ किया है। आचार्य पूज्यपाद ने निक्षेप की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि 'अप्रकृत का निराकरण करने के लिए और प्रकृत का निरूपण करने के लिए निक्षेप का कथन किया गया है, क्योंकि प्रकृत में किस शब्द का क्या अर्थ है, यह निक्षेप-विधि के द्वारा विस्तार से बतलाया जाता है।
निक्षेप के भेद
जब भी किसी सार्थक शब्द के सम्बन्ध में विचार किया जाता है, तब वह कम से कम चार प्रकार का ही हो सकता है। वे ही शब्द वाच्य-अर्थ-सामान्य की अपेक्षा से निक्षेप के रूप में चार प्रकार से व्यवस्थित हैं। वे हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। ये चार निक्षेप के भेद दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों द्वारा प्रारम्भ से अद्यावधि तक निर्विवाद रूप से स्वीकार किये गये हैं। अवगत हो नयों की तरह निक्षेप भी अनन्त हैं, जिनका अन्तर्भाव इन्हीं चार निक्षेपों में हो जाता है। षट्खण्डागम व धवला में इन चारों निक्षेपों के अतिरिक्त क्षेत्र और काल को भी संयुक्त कर वर्गणानिक्षेप के छह भेद स्वीकृत कर प्रत्येक प्रकरण की व्याख्या की गयी है।
वस्तुतः व्यावहारिक जगत् में पदार्थों का निक्षेप शब्द, ज्ञान और अर्थ तीन प्रकार से किया जाता है। जाति, गुण, क्रिया आदि निमित्तों को ध्यान में न रखकर किसी का कोई भी नाम रख देना नाम-निक्षेप है। जैसे-किसी व्यक्ति का नाम इन्द्र रखना। इसमें परम ऐश्वर्य रूप इन्दन क्रिया नहीं है, फिर भी इन्द्र कहलाता है। यह केवल शब्दात्मक अर्थ का आधार है। गुण, क्रिया आदि के आधार पर जिसका नामकरण हो चुका है, उसकी तदाकार या अतदाकर वस्तु में स्थापना करना, स्थापना-निक्षेप है। यथाइन्द्राकार प्रतिमा में इन्द्र की या शतरंज के मुहरों में हाथी, घोड़ा आदि की स्थापना करना । यहाँ ज्ञानात्मक अर्थ का आश्रय होता है। अतीत और अनागत पर्याय की योग्यता की दृष्टि से व्यवहार करना द्रव्य-निक्षेप है। जैसे–युवराज को राजा कहना अथवा जिसने राजपद छोड़ दिया है, उसे भी राजा कहना। वर्तमान पर्याय की दृष्टि से होने वाला व्यवहार भाव-निक्षेप है। जैसे-राज्य करने वाले को राजा कहना।
नाम और स्थापना निक्षेपों में संज्ञा रखे जाने के कारण दोनों एक-जैसे प्रतीत होते हैं, पर दोनों में बहुत अन्तर है। प्रथम में मात्र संज्ञा है, द्वितीय में गुण, क्रियादि के आधार पर रखे गये नाम से युक्त अप्रस्तुत पाषाण, काष्ठ आदि में स्थापना कर पूजा, आदर अनुग्रहादि की अभिलाषा की जाती है। द्रव्य और भाव की यद्यपि पृथक सत्ता नहीं है, फिर भी संज्ञा, लक्षण आदि की दृष्टि से इन दोनों में भिन्नता है। लोक
प्रमाण, नय और निक्षेप :: 237
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