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सम्यगेकान्त और सम्यगनेकान्त
एकान्त और अनेकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्या के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एक - देश को सयुक्तिक ग्रहण करने वाला सम्यगेकान्त है । एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकान्त है। एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक-विरोधिधर्मों का ग्रहण करने वाला सम्यगनेकान्त है तथा वस्तु को तत्, अतत् आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करना अर्थशून्य वचनविलास मिथ्या अनेकान्त है । सम्यगेकान्त नय कहलाता है तथा सम्यगनेकान्त प्रमाण । यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाये और एकान्त का लोप किया जाये, तो सम्यगेकान्त के अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह तत्समुदायरूप अनेकान्त का भी अभाव हो जाएगा। यदि एकान्त ही माना जाए तो अविनाभावी इतर - धर्मों का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्वलोप का प्रसंग उपस्थित होता है ।
न्यायविनिश्चय ग्रन्थ के अनुसार स्याद्वाद के द्वारा अनुमित अनेकान्तात्मक - अर्थतत्त्व से यह सिद्ध होता है कि उसके नित्यत्वादि - विशेष उसके अलग-अलग प्रतिपादक हैं वही नय हैं । स्याद्वादमंजरी में न्यायदर्शन के अनुमान के स्वरूप में अनुमान का निश्चायक तृतीय ज्ञान 'परामर्श' जैसे शब्दों का प्रयोग कर निश्चित प्रमाणांश को प्राप्त कराने वाली नीति को नय कहा गया है। आचार्य अकलंकदेव से पूर्व एवं परवर्ती जितने भी आचार्यों ने नय के स्वरूप का प्रतिपादन किया है, सभी का अन्तर्भाव इन्हीं लक्षणों में हो जाता है। वस्तुतः अनेकान्त की प्रतिपत्ति प्रमाण है एवं एकधर्म की प्रतिपत्ति नय है । इस दृष्टि से य के स्वरूप में सभी आचार्यों के प्रतिपादन में समानता है । विशेषता देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार उसके तार्किक, न्यायिक, आध्यात्मिक आदि प्रस्तुतीकरण में है ।
प्रमाण के अंश: नय
अनेकान्तात्मक वस्तु की सिद्धि प्रमाण और नय से होती है । अनेकान्त का मूल नय है। प्रमाण वस्तु के सभी धर्मों को विषय करता है, नय उनमें से किसी एक धर्म को विषय करता है । प्रमाण ज्ञान रूप है तथा वही अर्थपरिच्छेदक भी है। जैनेतर परम्पराओं में इन्द्रिय- व्यापार, ज्ञातृ-व्यापार, कारक- साकल्य सन्निकर्ष आदि को प्रमाण माना गया है, परन्तु उनमें अंशग्राहीरूप से नय की चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। जैनदर्शन
ज्ञान अर्थप्रमिति में अव्यवहित साक्षात् कारण है, जबकि इन्द्रिय- सन्निकर्षादि-व्यवहितपरम्परा से कारण हैं। इसलिए अव्यवहित कारण को ही प्रमा का जनक स्वीकार करना युक्ति-संगत है। दूसरे प्रमिति अर्थप्रकाशक अज्ञाननिवृत्तिरूप है, जो ज्ञान द्वारा ही सम्भव
प्रमाण, नय और निक्षेप :: 227
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