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समन्तभद्र का समर्थन किया है। विद्यानन्दि ने अज्ञाननिवृत्तिरूप स्वार्थ-व्यवसिति को प्रमाण-फल की व्याख्या में संयुक्त कर विशिष्ट बौद्धिकता का परिचय दिया है। __ जैन-प्रमाण-शास्त्र को समृद्ध और विकसित स्वरूप प्रदान करने वाले आचार्यों का उनके कृतित्व सहित कालक्रम से विस्तृत विवरण देना इस आलेख में सम्भव नहीं है। संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि उमास्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, अनन्तवीर्य, विद्यानन्दि, वसुनन्दि, माणिक्यनन्दि, वादीभसिंह, अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, अभयचन्द्रसूरि, मल्लिषेण एवं यशोविजय-18वीं शती आदि आचार्यों ने जैन-प्रमाण शास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
प्रमाणाभास
जैनदर्शन में ज्ञान को प्रमाण माना गया है। अतः प्रमाण और प्रमाणाभास भी ज्ञान के ही होंगे। प्रमाण के रहने पर ही प्रमाणाभास का अस्तित्व है। प्रमाण नहीं बनेगा, तब प्रमाणाभास भी कैसे बन सकता है? ... इस दृष्टि से प्रमेय मानने की अपेक्षा से कोई ज्ञान प्रमाणाभास नहीं है। बाह्य अर्थ को प्रमेय मानने की अपेक्षा से ज्ञान प्रमाण
और प्रमाणाभास दोनों होता है। जैसे-आकाश में केशमशकादि का ज्ञान होता है, वह प्रमाण भी है और प्रमाणाभास भी है। जितने अंश में वह संवादक है, उतने अंश में प्रमाण है और जितने अंश में विसंवादक है, उतने अंश में अप्रमाण है। वस्तुतः जो प्रमाण न होकर प्रमाण- जैसा प्रतिभासित होता है, उसे प्रमाणाभास कहते हैं। प्रमाण का यह आभास उसके स्वरूप, संख्या, विषय और फल के सम्बन्ध में हो सकता है, जिसका आचार्यों ने प्रमाण का स्वरूपाभास, संख्याभास, विषयाभास और फलाभास के रूप में उल्लेख किया है।
आगमिक युग में प्रमाणाभासों का ज्ञान मिथ्याज्ञानों के माध्यम से होता रहा है। तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा मति, श्रुत और अवधि ज्ञानों का विपर्यय ज्ञानों के रूप में भी होने का उल्लेख दार्शनिक युग के आचार्यों के लिए प्रमाणाभास-प्रतिपादन का महत्त्वपूर्ण आधार सिद्ध हुआ। मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान सम्यक् ही होने के कारण उनके प्रमाणाभास होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आचार्य माणिक्यनन्दि ने अस्वसंवेदी ज्ञान, निर्विकल्पक दर्शन, संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि को प्रमाणाभास कहा है। इस दृष्टि से अन्तरंग ज्ञान को ही सत्य मानने वाले ज्ञानाद्वैतवादियों, ज्ञान को क्षणिक मानने वाले विज्ञानाद्वैतवादियों आदि की प्रमाण-सम्बन्धी अवधारणाएँ व्यवहार में उपयोगी न होने के कारण प्रमाणाभास की कोटि में आ जाती हैं। कारकसाकल्य, सन्निकर्ष आदि भी प्रमाणाभास हैं, क्योंकि वे अचेतन होने से चेतन प्रमा के साधकतम नहीं हो सकते। प्रमाण के संख्याभास के अन्तर्गत प्रत्यक्षाभास, परोक्षाभास,
प्रमाण, नय और निक्षेप :: 221
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