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अर्थाधिगम के रूप में मात्र प्रमाण को ही स्वीकार किया गया है। जीवादि तत्त्वों के अन्य उपायों के रूप में निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान के साथ-साथ सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व और निक्षेपों का भी उल्लेख किया गया है। ज्ञात हो कि प्रमाण वस्तु के समग्र-अंशों को तो विषय करता है, पर वह विविध वादों को सुलझा नहीं सकता। नय ही विविध वादों और समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। अनन्तगुणों वाली वस्तु के अपने अभिप्राय के अनुसार आंशिक कथन करने वाला नय होने के कारण आपाततः अभिप्राय-भेद से नयों में परस्पर-विरोध-जैसा प्रतीत होता है, परन्तु अपेक्षा-भेद से कथन किया जाये, तब उनमें विरोध उपस्थित नहीं होता। सम्भवतः इसी जटिलता को देखकर यह कहा गया है कि जिनवर का नयचक्र अत्यन्त तीक्ष्णधारवाला और दुःसाध्य है। बिना समझे जो उसमें प्रवेश करता है, वह लाभ के बदले हानि उठाता है। आचार्यों ने नय का स्वरूप, भेदादि, प्रयोजन, फल एवं उनका सैद्धान्तिक-दार्शनिक तथा आगमिक विश्लेषण उपस्थित किये जाने के साथ साथ उसके वैशिष्ट्य पर भी गम्भीरता से प्रकाश डाला है । नय जीवादितत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ-बोध कराने वाला होता है। आचार्य पूज्यपाद और आ. अकलंक ने अधिगम के दो हेतुओं का निर्देश किया है-स्वाधिगम हेतु और पराधिगम हेतु। ज्ञान स्वाधिगम हेतु है, जो प्रमाण और नय रूप होता है और वचन पराधिगम हेतु है, स्याद्वादनयसंस्कृत-श्रुति के द्वारा जीवादिक की प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूप से जानी जाती है। लघीयस्त्रय में श्रुत के दो उपयोग बताये गये हैं-स्याद्वाद और नय।
नय का व्युत्पत्त्यर्थ
_ 'नय' शब्द ‘णी' प्रापणे धातु से कृदन्त का 'अच्' प्रत्यय संयुक्त करने पर निष्पन्न हुआ है। कर्तृवाच्य में इसकी व्युत्पत्ति ‘नयति प्राप्नोति वस्तुस्वरूपं यः स नयः' या 'जीवादीन् पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति, व्यंजयन्ति इति नयः' अथवा 'नानास्वभावेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तुं नयति प्रापयतीति वा नयः' की जाती है। कर्मवाच्य में नीयते, गम्यते, परिच्छिद्यते, ज्ञायतेऽनेन येन वा अर्थः स नयः' या नीयते एकविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिनियमगामिरिति नीतयो नयः' के रूप में की गयी है। आचार्य विद्यानन्दि ने 'नीयते गम्यते येन श्रुतांशो नयः। इन व्युत्पत्तियों के अनुसार कर्तृवाच्य में नय वह है, जो नीति से एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात् प्रतीति के विषय को प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहा गया है। कर्मवाच्यपरक व्युत्पत्ति के अनुसार जो श्रुत-प्रमाण द्वारा जाने गये अर्थ के किसी एक अंश या धर्म का कथन करता है, उसे नय कहते हैं।
नयों की इन व्युत्पत्तियों में नय का जो साधकतम करण है, उसे नय माना गया
224 :: जैनधर्म परिचय
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