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के साथ सम्पूर्ण बाह्य जगत् तक विस्तृत हो गया। इस युग में आचार्यों द्वारा अपने ग्रन्थों में हेय, उपादेय और ज्ञेय दृष्टि से विवेचन किया गया। उन्होंने हेय और उपादेय के विवेचन के लिए निश्चय और व्यवहार नयों का आश्रय लिया तथा ज्ञेय-दृष्टि से विवेचन के लिए द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों का आश्रय लिया। विक्रम की पाँचवीं शती में संकलित श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में ज्ञान के स्वतन्त्र विवेचन के साथ प्रमाण की भी स्वतन्त्र चर्चा की गयी।
पं. दलसुख मालवणिया और पं. महेन्द्रकमार न्यायाचार्य ने जैनदर्शन के साहित्यिक विकास को चार युगों में विभक्त किया है-1. आगम युग- विक्रम की पाँचवीं शती तक; 2. अनेकान्त-व्यवस्था युग-विक्रम की आठवीं शती तक; 3. प्रमाण-व्यवस्था यग-विक्रम की सत्रहवीं शती तक; और 4. नवीन न्याय युग- आधुनिक समय पर्यन्त। डॉ. दरबारी लाल कोठिया ने ई. 200 से ई. 650 तक आदिकाल अथवा समन्तभद्रकाल, ई. 650 से 1050 तक मध्यकाल अथवा अकलंक-काल एवं ई. 1050 से ई. 1700 तक अन्त्यकाल अथवा प्रभाचन्द्र-काल के रूप में जैन-न्याय के विकास का काल माना है। ये काल विभाजन प्रमाण की व्यवस्थित-स्थिति के सम्बन्ध में ठीक हैं; परन्तु प्रमाण-व्यवस्था के सूत्रपात के रूप में नहीं, क्योंकि ई. प्रथम के लगभग जब जैनेतर दर्शनों में संस्कृत भाषा में दर्शन के ग्रन्थों का प्रणयन हो रहा था, उस समय तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वामी ने पहली बार आगमिक युग की ज्ञान-चर्चा को प्रमाण-चर्चा के साथ संयुक्त कर प्रमाण के भेदादि का स्पष्ट प्रतिपादन किया, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं को मान्य हुआ।
वैदिक परम्परा के आद्य उपलब्ध ग्रन्थ ऋग्वेद में यथार्थ ज्ञान के लिए 'प्रमा' शब्द का प्रयोग पाया जाता है। सायण ने 'प्रमा' शब्द की व्याख्या में यज्ञवेदी की इयत्तापरिमाण के लिए प्रमाण तथा इयत्ता परिज्ञान के लिए प्रमिति शब्द का प्रयोग किया है। शतपथ ब्राह्मण एवं छान्दोग्य उपनिषद् में 'वाकोवाक्य' विद्या का उल्लेख है, जो बाद में तर्कविद्या के रूप में अभिहित हुई। ऐतरेय ब्राह्मण में 'युक्ति' शब्द का प्रयोग है। चरकसंहिता में 'प्रमाण' शब्द का स्पष्ट उल्लेख है। वेदों के परवर्ती उपनिषद्साहित्य में आत्म-निरूपण के समय जिन तार्किक-शब्दावलियों एवं वाक्यों का आश्रय लिया गया है, वे उत्तरवर्ती वैदिक दर्शनों के प्रमाण-मीमांसा के आधार स्तम्भ बने । उदाहरण के लिए वैशेषिक सूत्र में यथार्थ एवं अयथार्थ ज्ञान के लिए प्रयुक्त विद्या एवं अविद्या, पद उपनिषद् साहित्य में प्रयुक्त पराविद्या और अपराविद्या के विकसित रूप हैं। वाल्मीकि रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि में आत्म-विद्या के रूप में प्रतिष्ठित आन्वीक्षिकी विद्या को हेतु-शास्त्र, हेतु-विद्या, तर्क-विद्या, वाद-विद्या आदि नाम दिये गये। कौटिल्य ने भी आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं में उत्तम कहा है। वात्स्यायन
216 :: जैनधर्म परिचय
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