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प्रमाण का प्रामाण्य
अब प्रश्न यह होता है कि प्रमाण की प्रमाणता का ज्ञान कैसे हो कि यह प्रमाण वस्तुतः प्रमाण है। जैन दार्शनिकों ने, इसके लिए प्रतिपादित किया है कि प्रमाण की प्रमाणता (प्रामाण्य) का ज्ञान अभ्यास-दशा में स्वतः होता है तथा अनभ्यास-दशा में परतः होता है। जबकि प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति परतः होती है। इन्द्रियादि में दोष होने के कारण प्रमाण में जो अप्रामाण्य आता है, वह परत: उत्पन्न कहा जाता है। अप्रामाण्य-उत्पन्न अप्रामाण्य न हो, तो संशयादि के अभाव में प्रामाण्य ही रहता है। प्रामाण्य को जानने के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता न हो, तो उसे स्वतः-प्रामाण्य कहा जाता है। अभ्यास-दशा में प्रमेय का दोष रहित ज्ञान ही उसका स्वतः प्रामाण्य है। जब प्रमाण के प्रामाण्य को जानने के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता होती है, तो उसे परत:-प्रामाण्य कहा जाता है। अनभ्यास-दशा में या संशयादि की स्थिति में परतः प्रामाण्य होता है। यथा-अनुमान से जाने गये प्रमेय-ज्ञान का प्रत्यक्ष से प्रामाण्य जानना परत:-प्रामाण्य है।।
अन्त में यह कहा जा सकता है कि जैन प्रमाण-मीमांसा का तार्किक जगत् में पूर्ण व्यवस्थापन भले ही विलम्ब से हुआ हो, तथापि उसका भारतीय दर्शन में विशिष्ट महत्त्व है। ज्ञान को प्रमाण-रूप में प्रतिष्ठित कर जैन दार्शनिकों ने जहाँ आगम-सरणि को सुरक्षित रखा है, वहाँ उन्होंने प्रमाण को लौकिक जगत् के लिए उपादेय भी बनाया है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि को प्रमाण-रूप में प्रतिष्ठित कर जैन दार्शनिकों ने भारतीय दर्शन को महान् योगदान किया है। उनके द्वारा प्रतिपादित प्रमाण-लक्षण, हेतु-लक्षण एवं पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि हेतुओं का स्थापन भी भारतीय न्याय को महत्त्वपूर्ण अवदान है।
सन्दर्भ
1. प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः। -वात्स्यायनभाष्य, न्यायसूत्र 1.1.1 2. (1) हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्। -परीक्षामुख, 1.2
(2) अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम हि प्रमाणम्, अतो ज्ञानमेवेदम्। -वादिदेवसूरि,
प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1.3 3. प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत् प्रमाणं प्रमायां साधकतमम्।
-प्रभाचन्द्र, न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-1, माणिक्यचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, मुम्बई, 1938,
पृ. 48.10 एवं हेमचन्द्रकृत प्रमाणमीमांसा 1.1.1 4. (1) स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्। –समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र, 63
(2) प्रमाणं स्वपराभासि-ज्ञानं बाधविवर्जितम्। -सिद्धसेन, न्यायावतार, 1 5. (1) प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात्। -अष्टशती, अष्टसहस्री, सोलापुर,
212 :: जैनधर्म परिचय
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