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स्वीकार किया है। सहचर हेतु में वे सहभावी अविनाभाव का प्रतिपादन करते हैं। जैनदार्शनिकों का मन्तव्य है कि दो वस्तुओं या घटनाओं का जब कोई निश्चित क्रम हो, तो उनमें पूर्वभावी वस्तु या घटना के द्वारा पश्चाद्भावी वस्तु या घटना का अनुमान पूर्वचर हेतु से तथा पश्चात्भावी वस्तु या घटना के द्वारा पूर्वभावी का अनुमान उत्तरचर हेतु से सम्पन्न होता है। यथा-पूर्वभावी कृत्तिका नक्षत्र के उदय से जब पश्चात्भावी शकट नक्षत्र के उदय का अनुमान किया जाता है, तो कृत्तिका नक्षत्र पूर्वचर हेतु है, क्योंकि वह शकट (रोहिणी) नक्षत्र के ठीक पहले उदित होता है। यहाँ शकट (रोहिणी) नक्षत्र को देखकर यदि कृत्तिका नक्षत्र के एक मुहूर्त पूर्व उदय हो चुकने का अनुमान किया जाय, तो शकट नक्षत्र उत्तरचर हेतु होगा, क्योंकि वह कृत्तिका का पश्चात्भावी है। सहचर हेतु में साथ-साथ रहने वाले दो तत्त्वों में से एक के द्वारा दूसरे का अनुमान किया जाता है, यथा-आम्र फल को खाते समय रस का अनुभव कर उसमें रूप का अनुमान। रस और रूप साथ-साथ रहते हैं, जहाँ रस है, वहाँ रूप अवश्य होगा। अतः रस, रूप के अनुमान में सहचर हेतु है।
5. आगम-प्रमाण __ आगम-प्रमाण को अन्य दर्शनों में शब्द-प्रमाण के नाम से भी जाना जाता है, किन्तु जैन दर्शन में 'आगम' शब्द का प्रयोग प्रसिद्ध है। आप्त पुरुष के वचनों अथवा उनसे होने वाले प्रमेय अर्थ के ज्ञान को जैन दार्शनिक आगम-प्रमाण कहते हैं। आप्त के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए वादिदेवसरि कहते हैं कि जो पुरुष अभिधेय वस्तु को यथावस्थित (जो जैसी है, उसे वैसे ही) रूप से जानता है तथा जैसा जानता है, उसे वैसा कहता है-वह आप्त है। आप्त पुरुष लौकिक भी हो सकता है और लोकोत्तर भी। मातापिता, गुरुजन, सन्त आदि लौकिक आप्त पुरुष हैं तथा तीर्थंकर, अर्हन्त आदि लोकोत्तर आप्त हैं। आप्त पुरुष के वचनों से वस्तु का यथार्थ ज्ञान या सम्यग्ज्ञान होता है, इसलिए उनके वचनों को उपचार से प्रमाण माना गया है। जैनागम प्रमाण हैं, क्योंकि वे अर्हन्त प्रभु (आप्त) की वाणी हैं।
आगम-प्रमाण श्रुतज्ञान हैं। मतिज्ञान के आधार पर तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान-प्रमाण का प्रतिपादन हुआ है, किन्तु श्रुतज्ञान के आधार पर मात्र आगम-प्रमाण का निरूपण हुआ है। प्रमेय
'प्रमातुं योग्यं प्रमेयम्' अर्थात् जो जानने योग्य है अथवा सिद्ध करने योग्य है, वह प्रमेय है। 'प्र + माङ् + यत्' पूर्वक प्रमेय शब्द निष्पन्न हुआ है जो ज्ञेय का अर्थ भी
210 :: जैनधर्म परिचय
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