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देता है, किन्तु खास बात यह है कि प्रमेय ज्ञेय होकर भी हेय एवं उपादेय हो सकता
है।
संसार की प्रत्येक वस्तु प्रमेय है, और वे वस्तुएँ संख्या में अनन्त हैं। प्रत्येक वस्तु में अनन्त-गुण धर्म हैं, जिनके कारण जैन दार्शनिकों ने समस्त प्रमेयों को अनेकान्तात्मक कहा है। वह अनेकान्तात्मक प्रमेय सामान्य-विशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, नित्यानित्यात्मक, एकानेकात्मक आदि अनेक रूपों में जाना जाता है। जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु द्रव्य एवं पर्याय से युक्त मानी गयी है। द्रव्य सदा बना रहता है एवं उसकी पर्याय निरन्तर बदलती रहती है। पर्याय का उत्पाद एवं व्यय होता रहता है, द्रव्य ध्रुव रहता है। इस तरह वस्तु को जैन दर्शन उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त भी कहता है। द्रव्य के नित्य बने रहने एवं पर्याय के बदलते रहने के कारण वस्तु को नित्यानित्यात्मक भी स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिक वस्तु की सदृशता एवं भिन्नता के आधार पर उसे सामान्यविशेषात्मक भी प्रतिपादित करते हैं। एक वस्तु के जो धर्म अन्य वस्तुओं से अथवा उसी वस्तु की पूर्व एवं उत्तर पर्याय से सादृश्य रखते हैं, वे सामान्य तथा जो धर्म अन्य वस्तुओं से अथवा उस वस्तु की अन्य पर्यायों से भिन्नता बतलाते हैं, वे विशेष कहे गये हैं। प्रत्येक वस्तु में सामान्य एवं विशेष धर्म विद्यमान रहते हैं। वैशेषिक दर्शन में प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होता है। जैन दर्शन के अनुसार कोई सामान्य विशेष से रहित नहीं होता एवं कोई विशेष सामान्य से रहित नहीं होता। प्रमाण-फल
जैन दार्शनिक प्रमाण के फल को दो प्रकार का निरूपित करते हैं-1. साक्षात् फल एवं 2. परम्परा फल। प्रत्यक्ष, स्मृति आदि निवृत्ति है। परम्परा-फल दो प्रकार का है। केवलज्ञान का परम्परा-फल उपेक्षा बुद्धि तथा अन्य समस्त प्रमाणों का परम्परा-फल हान (त्यागना) उपादान (ग्रहण करना) एवं उपेक्षाबुद्धि है।
किसी प्रमेय का ज्ञान होने का अर्थ है-उस प्रमेय के सम्बन्ध में अज्ञान की निवृत्ति। प्रमाण एवं फल दोनों ज्ञानात्मक होने के कारण कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न माने गये हैं। जैन दार्शनिक कहते हैं कि यद्यपि प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति स्व-पर-व्यवसायी प्रमाण से अभिन्न प्रतीत होता है, तथापि प्रमाण साधन एवं अज्ञाननिवृत्ति साध्य है। इन दोनों में साध्य-साधन की प्रतीति होने से ये दोनों कथंचित भिन्न हैं। हान, उपादान एवं उपेक्षाबुद्धि रूप परम्परा-फल प्रमाण से कथंचित् भिन्न प्रतीत होता हुआ भी एक ही प्रमाता द्वारा दोनों का अनुभव होने से वे दोनों कथंचित् अभिन्न भी हैं। यदि प्रमाण एवं फल कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न न हों, तो प्रमाण एवं फल की व्यवस्था नहीं बन सकती।
न्याय :: 211
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