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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को प्रमाण रूप में प्रतिपादित कर जैन दार्शनिकों ने प्रमाण-जगत् को महान् योगदान किया है, क्योंकि प्रमाण का प्रयोजन हेयोपादेय अर्थ का ज्ञान कराना है, ताकि प्रमाता हेय वस्तु का त्याग एवं उपादेय का उपादान कर सके। स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान इस कार्य में समर्थ हैं, अतः ये दोनों प्रमाण रूप लोक-व्यवहार के लिए उपयोगी हैं। तर्क को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित कर जैन दार्शनिकों ने व्याप्ति के ग्राहक तत्त्व की समस्या का स्थायी समाधान खोज लिया है। फलतः तर्क-प्रमाण के बिना जैन दार्शनिक अनुमान-प्रमाण की प्रवृत्ति स्वीकार नहीं करते हैं। वैसे जैनदर्शन में स्मृति-प्रमाण का फल प्रत्यभिज्ञान है, प्रत्यभिज्ञान का फल तर्कप्रमाण है और तर्कप्रमाण का फल अनुमान-प्रमाण है। स्मृति-प्रमाण धारणा (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद) का फल है।
4. अनुमान-प्रमाण
चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त समस्त भारतीय दर्शन अनुमान-प्रमाण को अंगीकर करते हैं। अनुमान-प्रमाण का हमारे जीवन में बड़ा महत्त्व है। हमारी अनेक दैनिक गतिविधियाँ अनुमान-प्रमाण से संचालित हैं । जैन दार्शनिकों ने अनुमान-प्रमाण को परोक्ष-प्रमाण माना है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष के सदृश विशदात्मक या स्पष्ट नहीं होता और इसमें हेतु के द्वारा साध्य का ज्ञान किया जाता है। हेतु या साधन के द्वारा साध्य के ज्ञान को ही जैनदर्शन में अनुमान-प्रमाण कहा गया है; जैसे-धूम हेतु के द्वारा पर्वत में स्थित अग्नि साध्य का ज्ञान करना अनुमान है। एवं 'कृतकत्व' हेतु के द्वारा शब्द में 'अनित्यता' साध्य को सिद्ध करना अनुमान है। ___अनुमान के दो भेद प्रसिद्ध हैं-स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान। यद्यपि 'अनुयोगद्वार सूत्र' में अनुमान के पूर्ववत्, शेषवत् एवं दृष्टसाधर्म्यवत् नामक तीन भेद प्रतिपादित हैं, किन्तु जैन प्रमाण-मीमांसा में स्वार्थ एवं परार्थ भेद प्रतिष्ठित होने के पश्चात् इन तीन भेदों को महत्त्व नहीं मिला। स्वयं प्रमाता के लिए हेतु से साध्य का ज्ञान स्वार्थानुमान है तथा जब प्रमाता स्वार्थानुमान होने के पश्चात् किसी अन्य को हेतु आदि का कथन ही करके साध्य का ज्ञान कराता है, तो उसे परार्थानुमान कहा जाता है। __ स्वार्थानुमान में हेतु एवं साध्य दो महत्त्वपूर्ण घटक हैं। तीसरा घटक इनका पारस्परिक अविनाभाव सम्बन्ध अथवा व्याप्ति सम्बन्ध है, जिसके कारण हेतु द्वारा साध्य का ज्ञान होता है। अब प्रश्न होता है कि हेतु का जैन दर्शन में क्या स्वरूप है?...जैन दार्शनिकों ने अपनी प्रमाण-मीमांसा के द्वारा भारतीय दर्शन को जो महत्त्वपूर्ण योगदान किया है, उसमें हेतु-लक्षण का विशिष्ट स्थान है। वे हेतु का एक ही लक्षण प्रतिपादित करते हैं
न्याय :: 207
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