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हैं अर्थात् वे एक दूसरे से इस प्रकार सम्बन्धित हैं कि वास्तविक अन्योन्यक्रिया सम्भव है तो हम आशा कर सकते हैं कि रोचक एवं लाभकारी परिवर्धन होंगे।"
आदर्शवाद और यथार्थ
अणु के बारे में जैन दृष्टिकोण को ठीक से समझने के लिए जैन धर्म के यथार्थ के सम्बन्ध में अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है। अतः हम संक्षेप में अनेकान्तवादी यथार्थ के बारे में विचार करेंगे।
जैनधर्म ने शायद एक अद्वितीय ज्ञानमीमांसा पर आधारित अलौकिक विचार पद्धति विकसित की है जो अनुभववादी और अनुभवातीत अनुभव को मानवीय ज्ञान के क्षेत्र में रखती है। उसके अनुसार यथार्थ स्वअस्तित्ववादी, स्वसंगत और स्वसमाहित है। यह अपने अस्तित्व के लिए किसी बाह्य पदार्थ पर निर्भर नहीं करता। दूसरे, जैनधर्म सभी प्रकार की निरपेक्षता से स्वतन्त्र है। यह अनुभव की सामान्य ज्ञानमूलक परिभाषा को अमूर्त तर्क के सामने हेय नहीं मानता! तार्किक दृष्टिकोण का अनुभववादी दृष्टिकोण से घनिष्ट सम्बन्ध है। इस यथार्थवादी दृष्टिकोण का न केवल अन्य दर्शनों से अपितु विज्ञान से भी घनिष्ट सम्बन्ध है।
जैनदर्शन दुर्भाग्यवश पश्चिमी विद्वानों को आधुनिक वैज्ञानिक विचारों के सन्दर्भ में इस धर्म को परिभाषित करने के लिए आकृष्ट नहीं कर पाया। बौद्धधर्म और अन्य भारतीय दर्शन ऐसा कर पाये हैं। __ कई शाताब्दियों से पश्चिम में दार्शनिक धारणा कभी स्थायी नहीं रही, वह आदर्शवाद एवं यथार्थवाद के बीच झूलती रही है। प्रतीत होता है कि इन दोनों में अन्तर असमाधानपूर्ण रहा है क्योंकि ये हर व्यक्ति की प्रवृत्ति और झुकाव के कारण बँधी हुई है। परिणामस्वरूप एक प्रकार का अटल प्रतिरोध उत्पन्न हो गया है। कान्ट और होगेल आदि की परम्परा में शिक्षित दार्शनिक जिन्होंने भारतीय दर्शनों का अध्ययन किया है, भारतीय आदर्शवादी पद्धति की ओर अधिक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं।
अनेकान्त का स्वरूप अनेक और अन्त इन दो शब्दों से मिलकर बना हुआ अनेकान्त शब्द जैनदर्शन की विशिष्ट पहिचान है। अनेके अन्ताः धर्माः यस्यासौ अनेकान्तः।
जैन तत्त्व मीमांसा, पृ. 354
182 :: जैनधर्म परिचय
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