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प्रमाण-भेद
प्रमाण के दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष, एवं 2. परोक्ष। इन दो भेदों का सर्वप्रथम उल्लेख उमास्वामी के तत्त्वार्थ-सूत्र में हुआ है। इससे पूर्व अनुयोगद्वारसूत्र' एवं भगवतीसूत्र' में प्रमाण के चार भेद प्रतिपादित हैं- 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. उपमान, एवं 4. आगम। यह प्रमाण-विभाजन 'न्याय-सूत्र' एवं 'चरक संहिता' से प्रभावित है। 'नन्दीसूत्र' में ज्ञान के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष एवं परोक्ष। ज्ञान के ये दो भेद ही जैन नैयायिकों ने प्रमाण के भेद के रूप में प्रतिष्ठित किये हैं। प्रत्यक्ष के पुनः दो भेद हैं- सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक (मुख्य)। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं-इन्द्रिय निमित्त एवं अनिन्द्रिय निमित्त। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इनमें अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान विकल-प्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष। परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। सिद्धसेन ने न्यायावतार में परोक्ष-प्रमाण के अनुमान एवं आगम- ये दो भेद ही निरूपित किए हैं। वादिराज ने न्यायविनिश्चय-विवरण में इसका अनुसरण किया है, किन्तु वे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को अनुमान-प्रमाण के गौणभेदों में स्थान देते हैं। संक्षेप में प्रमुख प्रमाण-भेदों को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है
तत्त्वार्थसूत्र में प्राप्त प्रमाण-भेद
प्रमाण
प्रत्यक्ष
परोक्ष
श्रुतज्ञान
अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान मतिज्ञान उत्तरकालीन विभाजन (भट्ट अकलंक एवं उनके पश्चात्)
प्रमाण
प्रत्यक्ष
परोक्ष
सांव्यवहारिक
पारमार्थिक (मुख्य)
स्मृति
स्मृति
इन्द्रियनिमित्त
अनिन्द्रियनिमित्त
सकल प्रत्यक्ष
विकल प्रत्यक्ष
प्रत्यभिज्ञान
केवलज्ञान
अवधिज्ञान
मनःपर्ययज्ञान
तर्क
अनुमान
आगम
नोट:- सकल एवं विकल-प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग वादिदेवसूरि ने किया है।
न्याय :: 201
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