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सामान्य-विशेष स्वरूप परस्पर सापेक्ष है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ को सामान्य-विशेष उभयरूप मानना अनेकान्त-दर्शन है। इस प्रकार अनेकान्तवाद के आधार पर अस्तित्वनास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि अनेक धर्मों का समन्वय किया जा सकता है।
स्याद्वाद शब्द का अर्थ
स्याद्वाद में दो शब्दों का संयुक्तीकरण है, स्यात् और वाद। स्यात् का अर्थ पूर्व में कहा गया है, उस प्रकार अपेक्षा या दृष्टिकोण और वाद का अर्थ सिद्धान्त होता है। दोनों शब्दों का समुदित अर्थ होगा - सापेक्ष सिद्धान्त अर्थात् वह सिद्धान्त जो अपेक्षा को लेकर चलता है और भिन्न-भिन्न विचारों का एकीकरण करता है। अनेकान्तवाद, अपेक्षावाद, कथंचित्वाद, स्याद्वाद इन-सब का एक ही अर्थ है।अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में थोड़ा-सा अन्तर अवश्य है और वह अन्तर केवल इतना ही है कि अनेकान्त एक व्यापक विचार-पद्धति है और स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्त करने की निर्दोष भाषा-पद्धति है। स्याद्वाद की परिभाषा इन शब्दों में की गई है कि अपने अथवा दूसरे के विचारों, मन्तव्यों तथा कार्यों में तन्मूलक विभिन्न अपेक्षा या दृष्टिकोण का ध्यान रखना ही स्याद्वाद है। इसको अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि -
एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण। अन्तेन जयति जैनी-नीतिर्मन्थान-नेत्रमिव गोपी॥
___ -पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय अर्थात् –जिस प्रकार ग्वालिन मन्थन करने की रस्सी के दो छोरों में से कभी एक को और कभी दूसरे को खींचती है, उसी प्रकार अनेकान्त पद्धति भी कभी वस्तु के एक धर्म को मुख्यता देती है और कभी दूसरे धर्म को। इस प्रकार आचार्य श्री ने अत्यन्त कवित्वमयी भाषा में स्याद्वाद की परिभाषा की है। अष्टसहस्री में इसी को दार्शनिक शैली में प्रस्तुत किया है यथा
प्रत्यक्षादि प्रमाणाविरुद्धानेकात्मक वस्तु-प्रतिपादकः श्रुत स्कन्धात्मकः स्याद्वादः॥
- अष्टसहस्री
अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अविरुद्ध अनेकान्तात्मक वस्तु को प्रतिपादित करने वाली भाषा-श्रुत को स्याद्वाद कहा जाता है। वस्तु के वास्तविक एवं व्यावहारिक स्वरूप को समझने के लिए स्याद्वाद परम-आवश्यक है।
सप्तभंगी
स्याद्वाद का संरक्षण सप्तभंगी से होता है। सप्तभंगी अर्थात् वचन के सात प्रकारों का एक समुदाय। किसी भी पदार्थ के लिए अपेक्षा के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए सतत सात
194 :: जैनधर्म परिचय
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