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प्रमाणसंग्रह, तत्त्वार्थवार्तिक एवं अष्टशती की रचना की । इनके पूर्व सुमति (7वीं शती), पात्रस्वामी (7वीं शती) आदि दार्शनिकों के ग्रन्थ चर्चित रहे, किन्तु वे अभी अनुपलब्ध हैं। चौथी - पाँचवी शती में एक महान् जैन नैयायिक मल्लवादी क्षमाश्रमण हुए जिन्होंने 'द्वादशारनयचक्र' में तत्कालीन अन्य दार्शनिक मान्यताओं का 12 अध्यायों में खण्डन करते समय बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के प्रमाण - चिन्तन का भी खण्डन किया है, किन्तु उन्होंने जैनदर्शन की ओर से प्रमाण-व्यवस्था प्रस्तुत नहीं की । सिद्धसेन, समन्तभद्र (पाँचवीं शती), हरिभद्र सूरि (700-770 ई.) आदि की अधिकतर रचनाएँ मुख्यतः अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठापक रहीं ।
भट्ट अकलंक के अनन्तर विद्यानन्दि (775-840 ई.) की आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा एवं सत्यशासन - परीक्षा को महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। उनकी अष्टसहस्री एवं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीकाओं में भी प्रमाण-विषयक चर्चा सम्प्राप्त होती है । सिद्धर्षिगण ( 9वीं शती) की न्यायावतारविवृत्ति, अनन्तवीर्य (950-990 ई.) की सिद्धिविनिश्चय टीका, माणिक्यनन्दी ( 993-1053 ई.) के परीक्षामुख, वादिराज (1025 ई.) के न्यायविनिश्चयविवरण एवं प्रमाणनिर्णय, अभयदेवसूरि ( 10वीं शती) कृत तत्त्वबोधविधायिनी टीका ( सन्मतितर्कटीका), प्रभाचन्द्र (980-1065 ई.) विरचित न्यायकुमुदचन्द्र एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड, वादिदेवसूरि (1086 - 1169 ई.) विरचित प्रमाणनयतत्त्वालोक एवं उस पर टीकाग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकर, हेमचन्द्र (1088-1173 ई.) कृत प्रमाणमीमांसा आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं । इनके अतिरिक्त जिनेश्वरसूरि (10वीं11वीं शती) के प्रमालक्ष्य, चन्द्रसेनसूरि ( 11वीं-12वीं शती) रचित उत्पादादिसिद्धि, अनन्तवीर्य ( 11वीं-12वीं शती) विरचित टीकाग्रन्थ प्रमेयरत्नमाला, विमलदास रचित सप्तभंगी तरंगिणी, यशोविजय (17वीं शती) कृत जैनतर्कभाषा आदि ग्रन्थों को महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है, जिसमें प्रमाणों के द्वारा प्रमेय पदार्थ की परीक्षा की गयी है। इनके पश्चात् भी जैन न्यायविषयक ग्रन्थों का लेखन चलता रहा ।
जैन न्याय अत्यन्त समृद्ध है। जैनदर्शनानुसारी प्रमाणविषयक ग्रन्थों का समावेश तो जैनन्याय के प्रतिपादक ग्रन्थों में होता ही है, किन्तु जैनेतर प्रमेय - पदार्थों के खण्डन तथा जैन दर्शन में मान्य तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्तों के प्रतिपादन में भी प्रमाणों का उपयोग होने से तत्सम्बद्ध ग्रन्थ भी जैन न्याय के ग्रन्थ कहे जा सकते हैं। इसप्रकार जैनन्याय का फलक विस्तृत है ।
भारतीय चिन्तन- परम्परा में प्रायः प्रमेय पदार्थ को जानने का करण प्रमाण को अंगीकार किया गया है। 'प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि', 'मानाधीना मेयसिद्धि:', 'प्रमाणाधीनो हि प्रमेयाधिगमः' वाक्य इसी की पुष्टि करते हैं, किन्तु जैन दर्शन में प्रमाण के साथ
198 :: जैनधर्म परिचय
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