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सकते हैं। यहाँ जो स्यात् शब्द का प्रयोग हुआ है उसका विशिष्ट कार्य है । स्याद्वाद मंजरी' में आचार्य मल्लिषेण सूरि ने कहा है कि -
स्याद् इति अव्ययं अनेकान्त-द्योतकम् ॥ -- पृ. 15 स्याद् शब्द अव्यय स्वरूप है, वह न क्रियापद है और न ही अन्य । इस अव्यय का अर्थ अनेकान्त होता है, अर्थात् स्यात् का अर्थ सम्भावना या शायद नहीं होता है। स्याद् शब्द का अर्थ है निश्चित दृष्टिकोण । अनेकान्तवाद को द्योतित करने के लिए स्याद्वाद का प्रयोग किया जाता है, अर्थात् जब हम किसी वस्तु को नित्य बदल रहे हों, तब उसमें ऐसा कोई शब्द जोड़ना चाहिए, जिससे उस वस्तु में रहे हुए अनित्य धर्म का अभाव सूचित न होने पाए। उसके लिए पूर्वोक्त स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता है। स्यात् शब्द का अर्थ होता है अमुक अपेक्षा से, इसका पर्यावरण शब्द कथंचित् है । स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करने से वस्तु में रहे हुए नित्यत्व आदि शेष धर्मों का निषेध नहीं होता है।
स्व-पर चतुष्टय
अनन्तधर्मात्मक वस्तु में दो परस्पर विरोधी धर्मों के अस्तित्व का स्वीकार जैनदार्शनिकों की विशिष्टता है। एक ही पदार्थ एक ही समय में शीतल भी है और उसी समय में उष्ण भी है, इस संभावन को जैनदार्शनिकों ने नकारा नहीं है। उन्होंने अपेक्षा भेद से दोनों विरोधी धर्मों का सह-अस्तित्व स्वीकारा ही नहीं, अपितु सिद्ध भी किया है। एक पदार्थ अपने से अधिक शीतल पदार्थ की अपेक्षा से उष्ण है और अपने से अधिक उष्ण पदार्थ की अपेक्षा से शीतल भी है। इसी प्रकार सत् और असत् का अस्तित्व भी स्वीकारा है। द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव से विचार करने पर घट आदि सब पदार्थ स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से सत् हैं और दूसरों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से असत् हैं । यथापटना में शीतकाल में उत्पन्न मिट्टी का काला घड़ा द्रव्य से मिट्टी का है-मृत्तिका रूप है, किन्तु जलादि रूप नहीं है। क्षेत्र से पटना में बना हुआ है, दूसरे क्षेत्र का नहीं है। काल की अपेक्षा से शीत-काल में बना हुआ है, परन्तु दूसरी ऋतु का नहीं है। भाव की अपेक्षा से श्याम वर्ण का है, अनन्य वर्ण का नहीं है, अर्थात् स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव से द्रव्य सत् है और पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा से असत् है। __ वस्तु मात्र में सामान्य धर्म और विशेष धर्म भी रहे हुए हैं। भिन्न-भिन्न घटों में घटघट इस प्रकार की एकाकार बुद्धि उत्पन्न होती है। यह सूचित करती है कि सभी घटों में सामान्य धर्म, एकरूपता है। परन्तु अनेक घटों में अपना घट अथवा अमुक घट की पहचान होती है। इससे सभी घट एक-दूसरे से विशेषतया, भिन्नता, पृथकता वाले भी सिद्ध होते हैं। इस प्रकार सभी पदार्थ सामान्य-विशेष रूपवाले समझे जा सकते हैं। पदार्थ का यह
अनेकान्तवाद बनाम स्याद्वाद :: 193
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