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अर्थात् घड़े, मुकुट और सोने के चाहने वाले पुरुष घड़े के नाश, मुकुट के उत्पाद, और सोने की स्थिति में क्रम से शोक, हर्ष और माध्यस्थ्य-भाव रखते हैं तथा मैं दूध ही पीऊँगा, इस प्रकार का व्रत रखनेवाला पुरुष केवल दूध ही पीता है, दही नहीं खाता है, मैं आज दही ही खाऊँगा, इस प्रकार का नियम लेने वाला पुरुष केवल दही ही खाता है, दूध नहीं पीता है और गोरस का व्रत लेने वाला पुरुष दूध और दही नहीं खाता । अतः प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप है। इस प्रकार अनेक दृष्टान्तों से वस्तु की उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मकता सिद्ध की गई है।
वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता
जीव और अजीव दोनों वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक होती है। ये त्रिकाल-विषयक होने से धर्म अनन्त हैं। पदार्थ में सहभावी धर्मों को गुणरूप माना गया है और क्रमभावी धर्मों को पर्यायरूप माना गया है । वस्तु का स्वरूप ही सहभावी धर्म एवं कुभावी धर्मों का सहअस्तित्व है । ये दोनों धर्म अनन्त हैं, अतः वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है। जो अनन्तधर्मात्मक नहीं हैं, वे सत् नहीं है । वे सभी पदार्थ आकाश कुसुम की तरह असत् ही हैं ।
यहाँ हम जीव की विवक्षा करें, तो जीव में ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, आठ मध्यप्रदेशों की आत्मा के सहभावी धर्म हैं । सहभावी धर्मों को गुण भी कहते हैं । व्यवहारनय की अपेक्षा से साकारोपयोग एवं निराकारोपयोग जीव का लक्षण है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग जीव से कभी अलग नहीं होते हैं। चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शन के भेद से दर्शनोपयोग चार, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल, कुमति, कुश्रुत और कुअवधि - ज्ञान के भेद से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है । निश्चय - नय से शुद्ध अखंड केवलज्ञान ही जीव का लक्षण है। इस प्रकार निश्चय - नय एवं व्यवहार - नय की दृष्टि से जीव में अनन्तधर्मात्मकता सिद्ध होती है। इसी प्रकार अजीव पदार्थ घट में कच्चापन, पक्कापन, मोटापन, चौड़ापन, कम्बुग्रीवापन, जल-धारण, जल- आहरण, ज्ञेयपन, नयापन, पुरानापन आदि अनन्तधर्म रहते हैं । इस प्रकार विभिन्न नयों की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ में अनन्तधर्म विद्यमान हैं।
स्याद्वाद : एकभाषा पद्धति
वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, किन्तु अनन्तधर्मों का कथन करने वाली कोई भाषा नहीं है। भाषा की यह मर्यादा है। भाषा के द्वारा हम किसी एक अंश का ही कथन कर सकते हैं । वह एकांश सत्य तभी हो सकता है, जब वह अन्य अंशों के अस्तित्व को स्वीकार करें, अन्यथा वह भाषा भी असत्य हो जाती है। अतः अपना दृष्टिकोण बताते हुए भी अन्य दृष्टिकोणों के अस्तित्व की स्वीकृति भी आवश्यक है। इस प्रकार की निर्देश पद्धति को जैनदर्शन में स्याद्वाद कहा है। इस अर्थ में अनेकान्तवाद की कथन - शैली को स्याद्वाद कह
192 :: जैनधर्म परिचय
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