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ऐसे कई संवाद हमें भगवती सूत्र एवं अन्य आगम ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। इस तरह विभज्यवाद का मूलाधार विभाग करके उत्तर देना है। तथापि भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के विभज्यवाद में एक बड़ा अन्तर दिखायी देता है, वह है भगवान बुद्ध जब दो विरोधी धर्मों को घटाते हैं, तब वे दो विरोधी धर्म एक काल में किसी एक व्यक्ति के नहीं, बल्कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हैं, किन्तु भगवान महावीर ने विरोधी धर्मों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षाभेद से घटाए हैं। इसी कारण से विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद हुआ। अनेकान्तवाद विभज्यवाद का विकसित रूप है। ___ अनेकान्तवाद- भगवान महावीर के समय भिन्न-भिन्न अनेक वाद प्रचलित थे, अनेक दृष्टियाँ विद्यमान थीं। सभी अपने-अपने पक्ष को स्थापित करने में लगे हुए थे। जीव, जगत और ईश्वर के विषय में प्रश्न उठते थे। उनके नित्यत्व और अनित्यत्व के विषय में विवाद होते थे। जीव और शरीर के भेदाभेद को लेकर विवाद चलता था, इन सभी के उत्तरों के प्रति भगवान बुद्ध का दृष्टिकोण निषेधात्मक था, वे ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत कहते थे। इससे विपरीत भगवान महावीर स्वामी ने उन विरोधी वादों का समन्वय करके उनके स्वीकार में अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की।स्यावाद के भंगों की रचना में संजय बेलट्ठीपुत्र के विक्षेपवाद से मदद ली गई हो, ऐसा दार्शनिकों का मानना है।
दीघनिकाय (पृ. 22) में संजय बेलट्ठीपुत्र के मत का उल्लेख प्राप्त होता है। वे किसी भी तत्त्व के विषय में किसी निश्चित मत का प्रतिपादन नहीं करते थे। वहाँ कहा गया है कि यदि आप पूछे- क्या परलोक है?... और– यदि मैं जानूँ कि परलोक है, तो आपको बताऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता और मैं वैसा भी नहीं सकता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि यही नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं है। परलोक नहीं है, परलोक है भी और नहीं भी। परलोक न है और न नहीं है। इसी प्रकार देवता, कर्म, मुक्तपुरुष आदि विषयों की समीक्षा की गई है। इन विषयों में संजय अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, न अस्ति- न नास्ति इन चार कोटियों का निषेध करते हैं। इस प्रकार संजय किसी मत का प्रतिपादन नहीं करते हैं। इसी को बलदेव उपाध्याय ने अनेकान्तवाद होने की सम्भावना जतायी है, किन्तु अनेकान्तवाद इससे सर्वथा भिन्न है, किन्तु स्याद्वाद के भंगों का आधार के विषय में अधिक संशोधन आवश्यक है।
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वहइ।।
तस्स भुवणेक्कगुरुणो नमो अणेगंतवायस्स॥ (सन्मतितर्क. 3.69 टीका) ___ जिसके बिना लोक व्यवहार का निर्वाह करना भी सम्भव नहीं है, ऐसे भुवन के एकमात्र गुरु-तुल्य अनेकान्तवाद को नमस्कार हो।
अनेकान्तवाद की स्तुति करते हुए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क ग्रन्थ की टीका में प्रस्तुत गाथा उद्धृत की गई है। संसार के सभी व्यवहार में कहीं न कहीं अनेकान्तवाद का आश्रय अवश्य ही लेना पड़ता है। अनेकान्तवाद के बिना संसार का
अनेकान्तवाद बनाम स्याद्वाद :: 189
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