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तीर्थ यात्रा को आत्म-जागृति, तत्त्वज्ञान की विशुद्धि और इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी का प्रमुख साधन माना गया है, जैसा कि पं. आशाधर (13वीं सदी) ने कहा
है:
स्थूललक्षः क्रियास्तीर्थयात्राद्या दृग्विशुद्धये। (सागार. 2/84) मध्यकाल, विशेषतया 13वीं सदी से परवर्ती-कालों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, कन्नड़, राजस्थानी एवं हिन्दी में प्रचुर मात्रा में जैन-तीर्थ-यात्रा-साहित्य का प्रणयन किया गया, जिसमें से कुछ रचनाओं में सामूहिक रूप में तीर्थ-यात्राओं का वर्णन है और कुछ में एकल-विशेष तीर्थ-यात्रा का वर्णन । इन पंक्तियों के लेखक के पास ऐसी कुछ प्रकाशित एवं अप्रकाशित लगभग 50 रचनाओं की सूची है। स्थानाभाव के कारण जिनका विवरण प्रस्तुत करना यहाँ सम्भव नहीं। इनके अतिरिक्त उत्तर-मध्यकालीन एक अप्रकाशित पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि भी मेरे पास सुरक्षित है, जिसमें 44 जैन-तीर्थों की यात्रा के व्यक्तिगत अनुभव तथा वहाँ सुरक्षित कलापूर्ण हीरे-माणिक्य आदि की बहुमूल्य जैन-मूर्तियों का विवरणात्मक वर्णन किया गया है।
सम्मेद-शिखर-तीर्थ-सम्बन्धी यात्रा-वृत्तान्त भी कुछ आचार्य-लेखकों ने लिखे हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि 19वीं सदी के अन्तिम चरण तक इंजन वाले वेग-गामी यानवाहनों का प्रचलन नहीं था। अत: तीर्थयात्री या-तो पद-यात्रा करते थे अथवा भक्त -जनों के समूह के साथ बैलगाड़ियों में तीर्थयात्राएँ किया करते थे।
महाकवि बनारसीदास (वि. सं. 1698) ने अपने "अर्धकथानक" नाम के आत्मचरितग्रन्थ में शाहजादा सलीम के कृपापात्र तथा एक जगतसेठ के वंशज जौहरी हीराचन्द मुकीम की अपने जैन संघ के साथ सम्मेदशखर की यात्रा की रोचक चर्चा की है। यह यात्रा प्रयाग से चली थी। वह यात्री-संघ लगभग सात माह के बाद घर लौट सका था। मार्ग में उन्हें किन-किन कठिनाइयों तथा बीमारियों का सामना करना पड़ा था, उनका भी रोमांचक वर्णन इसमें किया गया है। (दे. अर्धकथा. 224-230)
एतद्विषयक एक अन्य अप्रकाशित पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है-"श्री सम्मेदसिखिर की यात्रा का समाचार" जिसके अनुसार मैनपुरी (उत्तरप्रदेश) से नगरसेठ साहू धनसिंह के नेतृत्व में 250 बैलगाडियों के साथ एक हजार यात्रियों ने वि. सं. 1867 कार्तिक वदी पंचमी, बुधवार को प्रस्थान किया था और सम्मेदशिखर के दर्शनादि करके माघ-सुदी 15 को मधुवन से लौटी थी। इस यात्रा में भी लगभग 7 माह का समय अवश्य लग गया होगा। (यह पाण्डुलिपि अद्यावधि अप्रकाशित है, जो जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार) में सुरक्षित है)।
तीर्थ-यात्रा सम्बन्धी एक अन्य पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है-"जैनबिद्री-मूलबिद्रीजात्रा" (भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति कृत), जिसमें भ. सुरेन्द्रकीर्ति ने जिज्ञासा एवं तीर्थभक्तिपूर्वक सोनागिर से लेकर मथुरा तक 44 तीर्थों की यात्रा-वन्दना कर उनके विषय में उन्हें 90 :: जैनधर्म परिचय
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