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प्रकार मात्र जानने-योग्य विषय है, ज्ञेय-तत्त्व-रूप है, उसी प्रकार सप्ततत्त्व मीमांसा मात्र ज्ञेय-रूप नहीं है। इसमें हेय-ज्ञेय-उपादेय तीनों रूपों का विवेचन किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो जीवों को अपने हित की दृष्टि से कौन-सी वस्तु मात्र जानने योग्य है, कौन-सी अपनाने योग्य है, और कौन-सी त्यागने-योग्य है-इसी को तत्त्वमीमांसा में बताया गया है। सीधे शब्दों में कहें तो आत्मा के हित-अहित की दृष्टि की प्रधानता से जैन दर्शन में तत्त्व-विवेचन किया गया है। इस तथ्य को जैनदर्शन में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है
“प्रदेशप्रचयात्कायः द्रवणाद् द्रव्यनामकाः।
परिच्छेद्यत्वतस्तेऽर्थाः तत्त्वं वस्तुस्वरूपतः।।" 14 अर्थात् प्रदेश प्रचय की दृष्टि से काय या अस्तिकाय, द्रवण की दृष्टि से 'द्रव्य', प्रमाण ज्ञान से जानने योग्य होने से 'अर्थ' या 'पदार्थ' तथा वस्तु-स्वरूप की दृष्टि से 'तत्त्व' संज्ञा दी गयी है। __ अतएव मोक्षमार्ग के प्रथम सोपान 'सम्यग्दर्शन' "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्'"5 कहकर मात्र तत्त्व या तत्त्वार्थ पक्ष को ही सम्यग्दर्शन के विषय में विवेचित किया गया है।
प्रथमतः 'तत्त्व' का लक्षण या परिभाषा को जानना प्रकरण-प्राप्त है। व्युत्पत्तिजन्य दृष्टि से 'तस्य भावस्तत्त्वम् 6 कहा गया है अर्थात् जिस वस्तु का जो भाव है, वही उसका 'तत्त्व' है। आचार्य अकलंकदेव वस्तु के असाधारण रूप स्व-तत्त्व को 'तत्त्व' संज्ञा देते हैं।" परिभाषा की दृष्टि से जीवादि पदार्थों का याथात्म्य ही 'तत्त्व'; है
"चेतनोऽचेतनो वार्थो यो यथैव व्यवस्थितः।
तथैव तस्य यो भावो याथात्म्यं तत्त्वमुच्यते।। 78 चूँकि तत्त्व शब्द मात्र भाववाची माना गया है तथा बिना पदार्थ के किसी भाव की सत्ता नहीं है। अत: कोई मात्र भावों को ही तत्त्व न मान ले, इसलिए 'तत्त्व' की जैनदर्शन में 'तत्त्वार्थ' संज्ञा भी दी गयी।
"तत्त्वेनार्यत इति तत्त्वार्थः। अर्यते गम्यते ज्ञायते इत्यर्थः तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थः। येन भावेनार्थो व्यवस्थितस्तेन भावेनार्थस्य ग्रहणं तत्त्वार्थः। 19
अर्थात् जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसी रूप से निश्चित करना या जानना वह तत्त्वार्थ कहलाता है। ___ अभिप्राय यह है कि जैसे उष्णता अग्नि में ही होती है। अग्नि के बिना नहीं पायी जाती है, इसी प्रकार जैनाभिमत तत्त्वविवेचन 'अर्थ' के बिना स्वतन्त्र नहीं है, परन्तु उसको पूर्णत: उपेक्षित नहीं किया गया है- इसी आशय के साथ 'तत्त्व' को 'तत्त्वार्थ' भी कहा गया है।
तत्त्व-मीमांसा :: 163
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