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'तत्त्व' या 'तत्त्वार्थ' की संख्या जैनदर्शन में सात मानी गयी है
जीवाजीवात्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम्।" 20 अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये सात तत्त्व या तत्त्वार्थ हैं।
इनका सामान्य परिचय निम्नानुसार है
1. जीव तत्त्व-ज्ञानदर्शनात्मक उपयोग लक्षण वाला 'जीव' है। चूंकि ज्ञानदर्शनात्मक उपयोग को ही 'चेतना' संज्ञा भी दी गयी है। अत: चेतना लक्षण वाला जीव है।ऐसा भी कहा गया है। यद्यपि लक्षण की दृष्टि से तो सभी जीव-द्रव्य इसमें आ जाते हैं; किन्तु तत्त्वविवेचन में प्रयोजन की मुख्यता है; अतः जो जाननेवाला है, वही 'जीवतत्त्व' के रूप में यहाँ गृहीत होगा। 'राम' संज्ञक व्यक्ति यदि अपने उपयोगलक्षण स्वरूप को जान रहा है, तो उसमें जीव-तत्त्व मात्र वही है। अन्य उपयोग लक्षण 'जीव' 'जीवद्रव्य' के अन्तर्गत आएँगे, जीवतत्त्व तो मात्र स्व-तत्त्व ही होगा।
2. अजीव तत्त्व- चेतना लक्षण रहित पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालपाँचों द्रव्य 'अजीव तत्त्व' हैं। ज्ञाता, जीव के लिए 'चैतन्य स्वभाव' इनमें नहीं है, अतः ये 'अजीव' हैं। जीव और अजीव के अतिरिक्त शेष पाँच 'तत्त्वों' या 'तत्त्वार्थों का वर्गीकरण 'द्रव्य' और 'भाव'-इन विशेष उपलक्षणों से किया गया है, जिसमें आत्मिक भाव की प्रधानता है, उसे 'भाव' उपलक्षण दिया गया है। तथा पौदगलिक द्रव्यकर्म की प्रधानता से जो विवेचन है, उसे 'द्रव्य' उपलक्षण दिया गया है। यहाँ 'द्रव्य' का अर्थ षड्द्रव्य-मीमांसा में विवक्षित द्रव्य से नहीं है।
3. आस्रवतत्त्व-कर्मों के आगमन के द्वार को 'आस्रव' कहा गया है। जीव के जिन भावों का निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि कर्म आते हैं, उन राग-द्वेष-मोह आदि रूप विकारी भावों को 'भावात्रव' कहा गया है; तथा ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्मों के आगमन को 'द्रव्यास्त्रव' कहा गया है।
4. बन्ध-तत्त्व-कर्मों का आत्मिक प्रदेशों से संश्लिष्ट होना बन्ध है। जीव के जिन भावों के कारण ज्ञानावरणादि कर्म आत्मिक प्रदेशों से संश्लिष्ट होकर बँधते हैं, उन भावों को 'भावबन्ध' कहते हैं; और आत्मिक प्रदेशों से संश्लिष्ट होने वाली पुद्गल-कर्म वर्गणाओं के संश्लेषण (बन्धन) को 'द्रव्य-बन्ध' कहा गया है।
5. संवर-तत्त्व-कर्मों के आगमन द्वार यानि 'आस्रव' का निरोध हो जाना, रुक जाना ही संवर-तत्त्व है। जीव के जिन आत्मिक भावों के कारण ज्ञानावरणादिक कर्मों का आगमन रुकता है, वे भाव 'भाव-संवर' कहे गये हैं तथा ज्ञानावरणादिक पौद्गलिक कर्मवर्गणाओं का आगमन निरुद्ध होना 'द्रव्य-संवर' है।
6. निर्जरा-तत्त्व- पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होना, आत्मिक प्रदेशों से उनका विश्लेषण होना ही 'निर्जरा तत्त्व' है। जीव के जिन तप आदि भावों के बल से पूर्वबद्ध
164 :: जैनधर्म परिचय
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