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प्रतिसमय के परिवर्तन का ज्ञान नहीं हो पाता है, बल्कि चार दिनों में हुए परिवर्तन को हम जान पाये हैं। किन्तु वह आम तो प्रति समय कुछ न कुछ बदला है तब जाकर वह चार दिन में हरे से पीला दिखाई दिया है। एकदम से तो हरे से पीला नहीं हो गया।
पर्याय के वर्गीकरण जैनदर्शन में कई प्रकार से बताये गये हैं; यथा1. द्रव्य पर्याय और गुण पर्याय 2. अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय इनका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है
1. द्रव्य पर्याय और गुण पर्याय- अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्यपर्याय कहलाती है। यह समान जातीय और असमान जातीय के भेद से दो प्रकार की मानी गयी है। जब 3-4 परमाणु रूप पुद्गल मिलकर स्कन्ध बनते हैं तो यह पुद्गल द्रव्यों के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली समान जातीय द्रव्य पर्यायें है। तथा भवान्तर को प्राप्त हुए जीव के शरीरादि नोकर्म रूप पुद्गल के साथ मनुष्य या देव आदि रूप जो पर्याय होती है, वह चेतन और अचेतन के मेल रूप होने के कारण असमानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है।
इसी प्रकार जिन पर्यायों में गुणों के द्वारा अन्वयरूप एकत्व का ज्ञान होता है, वे गुण-पर्यायें कहीं जाती हैं। जैसे कि आम के वर्ण गुण की हरे व पीले वर्ण रूप पर्यायें, जीव के ज्ञान गुण की मति-श्रुतज्ञान रूप पर्यायें।
गुण पर्याय के दो भेद हैं- स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय। उदाहरण स्वरूप द्रव्य-भाव कर्म रहित जीव के ज्ञानादि गुणों की केवलज्ञानादि रूप पर्यायें स्वभाव पर्यायें हैं तथा परमाणु रूप पुद्गल द्रव्य में स्थित स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णादि रूप पर्यायें भी स्वभाव पर्यायें हैं और जीव की मतिज्ञानादि रूप कर्मोदय प्रेरित पर्याय एवं पुद्गल की स्कन्ध रूप पर्याय विभाव पर्यायें हैं।"
2. अर्थपर्याय और व्यंजन पर्याय- जो षड्गुण हानि-वृद्धि रूप सूक्ष्म परिवर्तन होते हैं, वे अर्थ-पर्यायें हैं। ये ज्ञानगोचर तो हैं, किन्तु शब्दों से इनका प्ररूपण नहीं किया जा सकता है। इन्हें मात्र वर्तमानकाल से उपलक्षित एवं ऋजुसूत्रनय का विषय माना गया है तथा प्रदेशत्व गुण के कार्य को 'व्यंजन-पर्याय' कहते हैं। यथा-मिट्टी की पिण्ड स्थास, कोश, कुशूल, और घट आदि पर्यायें व्यंजन-पर्यायें हैं। सप्त-तत्त्व-मीमांसा
जैसे 'क्षेत्र' या 'प्रदेश' की प्रधानता से पंच अस्तिकायों का निरूपण जैनदर्शन में प्राप्त है, और 'द्रव्य' पक्ष की प्रधानता से षड्द्रव्यों की मीमांसा जैनदर्शन में की गयी है। उसी प्रकार 'भावपक्ष' की प्रधानता से 'सप्ततत्त्वों का विवेचन' मिलता है। साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि पंचास्तिकायों का प्ररूपण एवं षड्द्रव्यों का निरूपण जिस
162 :: जैनधर्म परिचय
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