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ज्ञानावरणादिक कर्म निर्जीण होते हैं, उन भावों को भाव-निर्जरा तथा पौद्गलिक ज्ञानावरणादिक कर्मवर्गणाओं का निर्जीण होना या आत्मप्रदेशों से विश्लेषित हो जाना (छूट जाना-अलग हो जाना) द्रव्य-निर्जरा है।
'निर्जरा तत्त्व' का अन्य दृष्टियों से भी वर्गीकरण जैन ग्रन्थों में मिलता है। यथा'सविपाक निर्जरा' और 'अविपाक निर्जरा'। ___आत्मप्रदेशों से बँधे हुए जो पुद्गल-कर्म उदय में आकर जीव को अपनी प्रकृति के अनुरूप शुभ या अशुभ फल देकर निर्जीण होते हैं, उन्हें 'सविपाक' या 'विपाकज' निर्जरा कहते हैं तथा जिन कर्मों का उदय-काल आ गया है या अभी नहीं आया है, ऐसे कर्मों को तप आदि प्रयोगों द्वारा बिना उनका फल पाये जब जीव निर्जरित कर देता है, तो उसको ‘अविपाक' निर्जरा कहते हैं। इनके बारे में जैनदर्शन में कुछ तुलनात्मक वैशिष्ट्य भी बतलाये गये हैं। सविपाक निर्जरा
अविपाक निर्जरा 1. केवल उदयागत कर्मों की ही होती है। 1. उदयागत एवं अनुदयागत-दोनों प्रकार
के कर्मों की होती है। 2. चारों गतियों के जीवों को होती है। 2. केवल सम्यग्दृष्टि व्रतधारी संयमी मनुष्यों
को ही होती है। 3. अकुशल जीवों के होने के कारण 3. इच्छानिरोधपूर्वक न होने के कारण इसके फलस्वरूप उन जीवों को या तो इस निर्जरावाले मिथ्यादृष्टि जीव नवीन कर्म-बन्ध अवश्य होता है। को मात्र प्रशस्त (शुभ प्रकृतियों का अतः इसे 'अकुशलानुबन्धा' कहा बन्ध) होता है। अतः इसे 'शुभानुबन्धा' गया है।
कहा गया है और सम्यग्दृष्टि जीवों को इच्छानिरोधपूर्वक होने से यह नवीन बन्ध का निमित्त नहीं होती है;
अत: इसे 'निरनुबन्धा' कहा गया है। 4. मोक्ष प्राप्ति की कारण नहीं है। 4. मोक्ष प्राप्ति की कारण है।
इनके अतिरिक्त 'अकाम निर्जरा' नाम से एक प्ररूपण 'निर्जरातत्त्व' का जैनदर्शन में प्राप्त होता है। इसके अनुसार मजबूरी या परतन्त्रता के कारण न चाहते हुए भी भूखप्यास सहने, ब्रह्मचर्य पालने, मल-मूत्र त्याग न कर पाने का कष्ट सहने आदि इन्द्रिय विषयों की निवृत्ति को धैर्यपूर्वक सह जाना 'अकाम निर्जरा' है। इसके परिणामस्वरूप भवनवासी व्यन्तर एवं ज्योतिषदेवों की आयु का बन्ध होना बताया गया है।
कभी अकाम निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुरतन धरै। (छहढाला)
तत्त्व-मीमांसा :: 165
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