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प्राप्त होता है-हेय, ज्ञेय और उपादेय रूप में। इनमें से अजीव तत्त्व ज्ञेय अर्थात् मात्र जानने योग्य है, उनमें न तो कोई छोड़ने योग्य (हेय) है और न ही ग्रहण करने या अपनाने योग्य (उपादेय) है। अजीव तत्त्व के अन्तर्गत आने वाले पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों को 'ये जीव अर्थात् मैं नहीं हूँ-ऐसा जानना ही मोक्षमार्ग एवं आत्महित में कार्यकारी है। 'आस्रव' और 'बन्ध' तत्त्व आत्मा के लिए दुःख के कारण और स्वयं दुःख-स्वरूप होने के कारण ‘हेय' अर्थात् छोड़ने-योग्य तत्त्व हैं। इनकी हेयता का बोध कराने के लिए ही इनकी चर्चा यहाँ की गयी है, जिससे कि जीव इनको दुःखदायी मानकर छोड़ दे। उपादेय तत्त्वों में 'जीव-तत्त्व' अनुभव करने व आत्मलाभ करने की दृष्टि से आश्रय योग्य 'परम-उपादेय' है, क्योंकि आत्मा अपने स्वभाव के अवलम्बन से ही दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है। 'संवर' और 'निर्जरा' तत्त्व मोक्षमार्ग रूप होने से प्रकट करने की अपेक्षा एकदेश-उपादेय हैं; क्योंकि संवर और निर्जरा की स्थिति के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है, तथा संवर और निर्जरा में ही स्थित बने रहेंगे तो भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। जब कि मोक्ष की प्राप्ति ही चरम लक्ष्य है। अतः प्रकट करने की अपेक्षा 'मोक्ष-तत्त्व' पूर्ण उपादेय है।
यहाँ पर यह जिज्ञासा सम्भव है कि मोक्ष-प्राप्ति में साधक संवर-निर्जरा एवं जीव तत्त्वों का ही विवेचन यहाँ किया जाना चाहिए था; ज्ञेय रूप अजीव, हेयरूप आस्रवबन्ध तत्त्वों का प्रतिपादन क्यों किया? इनके विवेचन से मोक्षार्थी जीव को क्या लाभ है? इसका सरल उत्तर जैनदर्शन में इस प्रकार दिया गया है"हेयतत्त्वपरिज्ञाने सति पश्चादुपादेयस्वीकारो भवतीति।"
(द्रव्यसंग्रह टीका गाथा 14) अर्थात् हेय तत्त्वों की भलीभाँति पहिचान हो जाने पर ही जीव उन्हें छोड़कर उपादेय तत्त्वों को अंगीकार करता है। __पं. जयचन्दजी छावड़ा ने इन सातों तत्त्वों के बारे में किस क्रम से, कैसे भावना करनी चाहिए। इसका सुन्दर निरूपण 'भावपाहुड़' ग्रन्थ की गाथा 114 की टीका में किया है। तदनुसार सर्वप्रथम जीवतत्त्व का स्वरूप जानकर 'यह जीव तत्त्व मैं हूँ'ऐसी आत्मभावना करनी चाहिए; फिर अजीव तत्त्वों की पहिचान कर 'ये मैं नहीं हूँ'ऐसा निर्णय करना चाहिए। तीसरे 'आस्रव' से ही जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है-ऐसा विचार कर आस्रवभावों को नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार बन्ध तत्त्व के कारण ही मुझमें राग-द्वेष आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हैं। अतः उनके सर्वथा त्याग की भावना करनी चाहिए। पाँचवें संवर-तत्त्व को 'ये मेरा अपना भाव है और इसी से मेरा संसार-परिभ्रमण मिटेगा'-ऐसी भावना करना चाहिए। इसी आत्म भाव से कर्मों
तत्त्व-मीमांसा :: 167
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