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मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति पुत्रों को प्राप्त होती है, किन्तु जैन कानून के अन्तर्गत पुत्र को माँ के अधीन माना गया है तथा माँ के अधिकार पहले माने गये हैं। इसका परिणाम यह है कि यदि सम्पत्ति माँ को प्राप्त होती है, तो पुत्र उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं कर सकेंगे और माँ को पुत्र के ऊपर बेसहारा रहकर नहीं जीना पड़ेगा। ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जो जैन कानून के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं । उपर्युक्त लिखे हुए विषयों में अब हम एक-एक की चर्चा करते हैं
__ 1. दत्तक एवं पुत्र विभाग- जैन कानून में केवल दो प्रकार के पुत्र ही माने गये हैं जिसमें पुत्र उसे माना गया, जो अपनी विवाहिता स्त्री से पैदा हुआ हो। दत्तक उसे माना गया, जिसे दत्तक विधि के अनुसार प्राप्त किया गया हो। यदि अपना पुत्र जीवित न हो, तो पुरुष अपने निमित्त गोद ले सकता है और यदि अपना पुत्र दुराचरण के कारण निकालकर उससे पुत्रत्व का रिश्ता समाप्त कर दिया हो, तो भी गोद लिया जा सकता है। इसी प्रकार यदि पति की मृत्यु हो गयी हो, तो विधवा स्त्री भी गोद ले सकती है। जैन कानून में प्रथम पुत्र को गोद नहीं देना चाहिए? ऐसे उल्लेख मिलते हैं। गोद लेने की विधि में कहा गया है कि प्रात:काल दत्तक लेने वाला पिता मन्दिर में जाकर भगवान की पूजा करे तथा परिवारीजन एवं समाज के लोगों को एकत्रित कर उनके समक्ष पुत्र जन्म का उत्सव मनाये और रिवाज के अनुसार पुत्र को माता-पिता गोद लेने वाले अगर स्त्री-पुरुष दोनों हैं, तो उनकी गोद में बच्चे को दें और उसके उपरान्त आतिथ्य आदि की व्यवस्था की जावे, तब गोद सम्पन्न मानी जाती है। दत्तक लेने का परिणाम यह होता है कि दत्तक पुत्र भी अपनी पत्नी से पैदा पुत्र के समकक्ष ही माना जाता है और उसे भी वही अधिकार प्राप्त होते हैं, जो एक पुत्र को प्राप्त होते हैं। पिता की मृत्यु के बाद पगड़ी बाँधने का उत्तरदायित्व पुत्र को प्राप्त होता है, चाहे वह दत्तक पुत्र ही क्यों न हो।
2. विवाह- जैन कानून के अन्तर्गत ऐसी कन्या से विवाह करना चाहिए, जो वर के गोत्र की न हो, परन्तु उसकी जाति की हो, आरोग्य, विद्यावती, शीलवती और उत्तम गुणों से सम्पन्न हो, रूपवती हो। वर से डील-डौल में न्यून हो, परन्तु यह आवश्यक नियम नहीं है। बुआ की लड़की, मामा की लड़की और साली के साथ विवाह करने का दोष नहीं माना गया है, किन्तु मौसी की लड़की, सासु की बहिन, गुरु की पुत्री से विवाह करना अनुचित माना गया है। यदि विवाह के पूर्व कन्या का स्वर्गवास हो जाये, तो खर्चा काटकर वह-सब वापिस कर देना चाहिए, जो उसके माता-पिता से प्राप्त हुआ था। विवाह को ब्राह्म-विवाह, दैव-विवाह, आर्ष-विवाह, प्राज्ञापत्य-विवाह, –ये चार धर्मविवाह कहलाते हैं और आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाह आदि चार अधर्मविवाह कहलाते हैं।
बुद्धिमान वर को अपने घर पर बुलाकर बहुमूल्य आभूषणों आदि सहित कन्या देना ब्राह्म-विवाह है। श्री जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने वाले सहधर्मी प्रतिष्ठाचार्य को पूजा
146 :: जैनधर्म परिचय
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