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के चक्षुदर्शन आदि चार भेद होते हैं
“स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदाः।" – (तत्त्वार्थसूत्र 2/9) 2. पुद्गल द्रव्य-जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण पाये जाते हैं, वह 'पुद्गल' है-"स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः" (तत्त्वार्थसूत्र, 5/23)। पुद्गलों में शब्द, बन्ध आदि विशेषताएँ भी पायी जाती हैं
"शब्द-बन्ध-सौम्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद तमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च।" (तत्त्वार्थसूत्र 5/24) अर्थात् शब्द, बन्ध (बँधना), सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद (टूटना), तम (अन्धकार), छाया, आतप (यथा सूर्य प्रकाश) और उद्योत (यथा चाँदनी) भी पुद्गलों में ही पायी जाने वाली विशेषताएँ हैं। ___पुद्गल शब्द में 'पुद्' का अर्थ है-पूर्ण होना, मिलना या जुड़ना तथा 'गल' का अर्थ है-गलना, हटना या टूटना। पुद्गल-परमाणु-स्कन्ध-अवस्था में निरन्तर मिलते और अलग होते रहते हैं। टूटने और जुड़ने की इस क्रिया को आधुनिक विज्ञान की भाषा में 'फ्यूजन' और 'फिसन' कह सकते हैं। छह द्रव्यों में ऐसी संश्लेषण (जुड़ना) एवं विश्लेषण (अलग होना) की सामर्थ्य मात्र पुद्गल द्रव्य में ही जैनदर्शन में मानी गयी है। अत: इसकी 'पूरण-गलन-स्वभावत्वाद् पुद्गलः' व्युत्पत्ति अन्वर्थक है। स्थूल दृष्टि से कहें, तो जगत् में जो कुछ भी हमें छूने, चखने, सूंघने और देखने में आता है, वह सभी पुद्गल ही है।
3. धर्मद्रव्य- स्वयं गतिशील होने वाले जीवों और पुद्गलों को जो गमन क्रिया में सहायक होता है, वह धर्म द्रव्य है। यह एक 'उदासीन-निमित्त' रूप होता है, 'प्रेरकनिमित्त' रूप नहीं। जैसे कि मछली की गमन-क्रिया में जल उदासीन-निमित्त होता
है।
4. अधर्मद्रव्य- स्वयं गतिपूर्वक रुकने वाले जीवों और पुद्गलों को जो ठहरने में सहायक होता है, वह अधर्मद्रव्य है। यह भी उसी प्रकार उदासीन निमित्त है, जैसे पथिक को ठहरने में छाया उदासीन-निमित्त होती है।
5. आकाश द्रव्य- आकाश का लक्षण जैनदर्शन में 'अवकाश' प्रदान करना या 'अवगाहना' देना है-“आकाशस्यावगाहः"- (तत्त्वार्थसूत्र 5/18)। द्रव्यसंग्रह में कहा है
अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आगासं।" (1/19) अर्थात् जो जीवादि पाँच द्रव्यों को रहने के लिए जगह देता है, वह आकाश द्रव्य है।
6. कालद्रव्य– जो सभी द्रव्यों की पर्यायों के परिवर्तन में निमित्त होता है, वह कालद्रव्य है। आचार्य उमास्वामी ने वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व ये पाँच
156 :: जैनधर्म परिचय
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