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समान हैं। जैनदर्शन में 'द्रव्य' का लक्षण 'सत्' माना गया है
"सद्व्य-लक्षणम्'– (तत्त्वार्थसूत्र, 5/29) और इस 'सत्' या सत्ता को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कहा गया है।
"उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्'- (तत्त्वार्थसूत्र 5/30) आगे इसी लक्षण को वे प्रकारान्तर से लिखते हुए कहते हैं
"गुण-पर्ययवद् द्रव्यम्"- (तत्त्वार्थसूत्र, 5/38) अर्थात् 'द्रव्य' गुणों एवं पर्यायों से युक्त होता है।
चूँकि उत्पाद (उत्पत्ति) और व्यय (विनाश)-ये दोनों ही पर्याय के धर्म हैं, जबकि गुण और द्रव्य 'ध्रौव्य' (अपरिणामी), अविनाशी, त्रिकाल अबाधित रहते हैं) हैं, अतः इन दोनों लक्षणों में कोई तात्त्विक भेद नहीं है।
वर्तमान जैन परम्परा में शासननायक भगवान महावीर स्वामी के बाद आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम 'द्रव्यमीमांसा' की समर्थ प्रस्तुति की है। उनके प्ररूपण इतने विशद एवं परिपूर्ण हैं कि आचार्य उमास्वामी के द्वारा कथित उपर्युक्त दोनों सूत्र आचार्य कुन्दकुन्द कथित द्रव्य-लक्षण का संक्षिप्त संस्कृत रूपान्तरण ही प्रतीत होते हैं। अन्य आचार्यों एवं मनीषियों ने भी इसी को आधार बनाकर अपनी विवेचना प्रस्तुत की है, अतः उपर्युक्त लक्षण को ही आधार बनाकर यहाँ संक्षिप्त विवेचन किया जाएगा। ___ 'द्रव्य' समष्टि-वाचक सत्ता है, जबकि 'गुण' और 'पर्याय' व्यष्टि-वाचक सत्ताएँ हैं। 'गुण' भेदरूप से व्यष्टिवाचक है और 'पर्यायें' परिवर्तन या क्षण-भंगुरता की अपेक्षा व्यष्टि-वाचक हैं। अभिप्राय यह है कि प्रत्येक द्रव्य अनन्त-गुणों और उनकी त्रिकालवर्ती अनन्तानन्त पर्यायों का पिण्ड है। द्रव्य का तिर्यक् सामान्य पक्ष 'गुण' है और ऊर्ध्वतासामान्य पक्ष पर्यायें हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो स्वभाव, शक्ति, सामर्थ्य रूप वस्तुपक्ष का प्रतिनिधित्व गुण करते हैं और परिवर्तन-काल-रूप वस्तु-पक्ष की प्रतिनिधि पर्यायें हैं।
द्रव्य छह माने गये हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश, और काल। इनका लक्षणात्मक स्वरूप निम्न प्रकार है।
1. जीव द्रव्य-इसका लक्षण ज्ञानदर्शनात्मक 'उपयोग' माना गया है-"उपयोगो लक्षणम्"-(तत्त्वार्थसूत्र 2/8) उपयोग के भी मूलतः ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग ये दो भेद माने गये हैं, और ज्ञानोपयोग के मतिज्ञान आदि आठ भेद एवं दर्शनोपयोग
तत्त्व-मीमांसा :: 155
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