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ऐसा धन धर्म-कार्यों में लगा देना उचित है। तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण की सम्पत्ति को उसकी विधवा या अन्य दामादों के अभाव में कोई ब्राह्मण ही ग्रहण कर सकेगा।
6. स्त्री-धन- जैन कानून में निम्न प्रकार के पाँच स्त्रीधन बताये गये हैं :
(क) अध्यग्नि- जो कुछ अग्नि और ब्राह्मणों की साक्षी में लड़की को दिया जाता है, अर्थात् वह आभूषण इत्यादि जो पुत्री को उसकी माता-पिता विवाह के समय देते हैं।
(ख) अध्यावनिक - (लाया हुआ) जो द्रव्य वधु अपने पिता के घर से अपने पिता और भाईयों के सम्मुख लावे।
(ग) प्रीति-दान- जो सम्पत्ति श्वसुर और सासु वधु को विवाह के समय देते हैं।
(घ) औदयिक (सौदयिक)- जो सम्पत्ति विवाह के पश्चात् माता-पिता या पति से मिले। __ (ङ) अन्वाध्येय - जो वस्तुएँ विवाह के समय अपनी या पति के कुटुम्ब की स्त्रियों ने दी हो। संक्षेपतः वधू को जो-कुछ विवाह के समय मिलता है, वह- सब उसका स्त्री-धन है।
(च) भरण पोषण- जैन कानून के अनुसार निम्न मनुष्य भरण-पोषण पाने के अधिकारी हैं :
1. जीवित तथा मृतक बालक, अर्थात् जीवित बालक और मृतक पुत्रों की सन्तान तथा विधवाएँ, यदि कोई हो;
2. वह मनुष्य जो भागाधिकार पाने के अयोग्य हो; 3. सबसे बड़े पुत्र के सम्पत्ति पाने की अवस्था में अन्य परिवार; 4. अविवाहित पुत्रियाँ और बहिनें;
5. विभाग होने के पश्चात् उत्पन्न हुए भाई, जबकि पिता की सम्पत्ति पर्याप्त न हो, परन्तु ऐसी दशा में केवल विवाह करा देने तक का भार बड़े भाईयों पर होता है। विवाह में स्वभावतः कुमार-अवस्था का विद्याध्ययन और भरण-पोषण भी शामिल समझना चाहिए;
6. विधवा बहुएँ उस अवस्था में जब वह सदाचारिणी और शीलवती हों; 7. ऐसी विधवा माता, जिसको व्यभिचार के कारण दायभाग नहीं मिला हो; 8. तीनों उच्च वर्गों के पुरुषों से जो शुद्र स्त्री के पुत्र हों; 9. माता और पिता जब वह दायभाग के अयोग्य हो। 10. दासीपुत्र।
7. संरक्षकता- जैन कानून में जो पुत्र और पुत्रियाँ वय प्राप्त नहीं हैं अर्थात् बालिग नहीं होते हैं, तो उनकी संरक्षकता के लिए निम्नलिखित अधिकारी मनुष्य क्रमानुसार बताए गये हैं :
1. पिता, 2. पितामह, 3. भाई, 4. चाचा, 5. पिता का गोत्रज, 6. धर्मगुरु, 7. नाना,
150 :: जैनधर्म परिचय
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