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किया, परन्तु अन्ततः अनेक कारण, जैसे- सुदूर देशों की यात्रा के कारण इस कमेटी का सपना पूरा नहीं हो सका। कुछ ऐसी स्थितियाँ बनी थीं, जिनके कारण जैनियों को विवश होना पड़ा था कि वे अपने कानून के बारे में सोचें। जिनमें 1867 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने जैन लोगों पर हिन्दू लॉ इसलिये लागू कर दिया क्योंकि जैनों का कोई अलग कानून ही नहीं है।
जैन कानून के सम्बन्ध में प्रेरक एवं सराहनीय कार्य स्व. बैरिस्टर चम्पतराय जी ने आज से लगभग 90 वर्ष पूर्व प्रारम्भ किया और लन्दन में उन्होंने वर्ष 1925 में 'जैन कानून' नामक पुस्तक तैयार की तथा उसकी भूमिका 26.6.1926 को अंग्रेजी में लिखी गयी। इस प्रकार जैन लॉ की आधारभूत इस समय केवल निम्नलिखित पुस्तकें हैं
1. भद्रबाहु संहिता-जो श्री भद्रबाहु स्वामी श्रुतकेवली के समय का (जिन्हें लगभग 2300 वर्ष हुए) न होकर बहुत काल-पश्चात् का संग्रह किया हुआ ग्रन्थ जान पड़ता है, जिस पर भी यह कई शताब्दियों पुराना है। इसकी रचना और प्रकाश सम्भवतः विक्रम संवत् 1657-1665 अथवा 1601-1609 ई. के अन्तर में होना प्रतीत होता है। यह पुस्तक उपासकाध्ययन के ऊपर निर्भर की गयी है। इसके रचयिता का नाम विदित नहीं है। ___2. अर्हन्नीति- यह श्वेताम्बरीय ग्रन्थ है, इसके सम्पादक का नाम और समय इसमें नहीं दिया गया है, किन्तु यह कुछ अधिक-कालीन ज्ञात नहीं होता है। परन्तु इसके अन्तिम श्लोक में सम्पादक ने स्वयं यह माना है कि जैसा सुना है, वैसा लिपिबद्ध किया।
3. वर्धमान-नीति-इसका सम्पादन श्री अमितगति आचार्य ने लगभग संवत् 1068 वि. या 1011 ई. में किया है। ये राजा भोज के समय में हुए थे। इसके और भद्रबाहु संहिता के कुछ श्लोक सर्वथा एक ही हैं। जैसे 30-34 जो भद्रबाहु संहिता में क्र. संख्या 55-56 पर उल्लिखित हैं। ___ इससे विदित होता है कि दोनों पुस्तकों के रचने में किसी प्राचीन ग्रन्थ की सहायता ली गई है। इससे इस बात का भी पता चलता है कि भद्रबाहु-संहिता यद्यपि वह लगभग 325 वर्ष की लिखी है, तो भी वह एक अधिक प्राचीन ग्रन्थ के आधार पर लिखी गयी है, जो सम्भवतः ईस्वी सन् के कई शताब्दि पूर्व के सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु स्वामी भद्रबाहु के समय में लिखी गयी होगी, जैसा इसके नाम से विदित होता है, क्योंकि इतने बड़े ग्रन्थ में वर्द्धमान नीति जैसे छोटी-सी पुस्तक की प्रतिलिपि किया जाना समुचित प्रतीत नहीं होता है।
4. इन्द्रनन्दी-जिन-संहिता- इसके रचयिता वसनन्दि इन्द्रनन्दि स्वामी हैं। यह पुस्तक भी उपासकाध्ययन अंग पर निर्भर है। विदित रहे कि उपासकाध्ययन अंग का लोप हो गया है और अब केवल इसके कुछ उपांग अवशेष हैं।
5. त्रिवर्णाचार- संवत् 1667 वि. के मुताबिक 1611 ई. की बनी हुई पुस्तक है।
144 :: जैनधर्म परिचय
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