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कानून
श्री अनूपचन्द्र जैन
कानून अपने-आप में एक महत्त्वपूर्ण शब्द है। जब संसार में केवल एक ही व्यक्ति हो, तो उसके लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन जब एक से अधिक व्यक्ति हों, तब उन-सब के बीच रहने, खाने पीने, व्यवहार करने के लिए कुछ नियम आवश्यक हो जाते हैं। जैसे-जैसे समाज आगे बढ़ता है और मनुष्यों का तथा अन्य जीवों का समावेश होता जाता है, तब कुछ कानूनों की आवश्यकता पड़ती है। किसी राज्य के लिए कानून-व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न होता है। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति बी. आर. कृष्ण अय्यर ने 1980 में दिए गये एक निर्णय में कहा था कि कानून शब्द का अर्थ ऐसे सिद्धान्त और कमाण्ड स्थापित करना है, जिससे समाज के अन्दर क्या करना चाहिए
और क्या नहीं करना चाहिए- को स्पष्ट रूप से निर्देशित किया जाता है, और उनका क्रियान्वयन करने के लिए भी एक पद्धति होनी चाहिए। इसलिए विश्व के देशों में लगभग 200 वर्ष पूर्व कानूनों का निर्माण किया गया, जो कोडीफिकेशन के रूप में सामने आया। जहाँ तक जैन कानून का प्रश्न है, यह हमारे शास्त्रों में वर्णित नीति-गत ग्रन्थों में उपलब्ध है।
जैन कानून को लिखित रूप में किसी पुस्तिका का स्वरूप नहीं दिया जा सका। वैसे तो कानूनों को प्राचीन-शास्त्र-स्मरण और संस्मरण, नीतिगत व्यवहार परम्पराएँ, रीतिरिवाज सब मिलकर प्रभावित करते हैं, किन्तु विभिन्न कानूनों में कमोवेश उन्हें समाहित करते हुए विभिन्न धाराओं, नियमों, उप-नियमों में बनाया जाता है। चूँकि जैन कानून नाम से कोई पुस्तक प्रभावी रूप से बन ही नहीं पायी, इसलिए अनेक अवसरों पर प्रीवी कौंसिल जैसे सर्वोच्च न्यायिक अदालतों में उन्हें कहना पड़ा कि जैनधर्म के बारे में यदि कोई लिखित कानून होता, तो बहुत अच्छा होता।
जब सन् 1921 में डॉ. गौड़ का हिन्दू कोड प्रकाशित हुआ और उन्होंने उसमें जैनियों को धर्म-विमुख-हिन्दू जैसे शब्दों से सम्बोधित किया। तब जैन समाज ने उसका विरोध किया और जैन लॉ कमेटी के नाम से अंग्रेजी भाषाविद् वकीलों,शास्त्रज्ञ पंडितों और अनुभवी विद्वानों की एक समिति स्थापित हुई, जिसने प्रारम्भ में बहुत अच्छा काम
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