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राजा श्रेयांस द्वारा दिये गये आहार-दान की प्रसिद्ध घटना से इस नगरी को जो मान्यता मिली है, वह अप्रतिम है। यह पुण्यदिवस वैशाख शुक्ल तृतीया था, जिसे अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है। मध्यकाल में कई राजनीतिक और प्राकृतिक कारणों से यह नगर शताब्दियों तक उपेक्षित रहा। यहाँ के प्राचीन मन्दिर और निषधिकाएँ नष्ट हो गयीं। सं. 1858 (सन् 1801) में दिल्ली के मुगलकालीन शाही खजांची राजा हरसुखराय ने एक भव्य जिन मन्दिर का यहाँ निर्माण कराया। आज यहाँ लगभग 5 कि.मी. की परिधि में उपर्युक्त तीनों तीर्थंकरों के चरण-चिह्नों सहित नसियाँ हैं। वर्तमान में बाहुबली मन्दिर, चौबीस तीर्थंकरों की टोंकें, जलमन्दिर, पांडुकशिला, समवसरण की रचना, कैलास पर्वत की रचना आदि दर्शनीय हैं। इस बड़े मन्दिर से कुछ ही दूरी पर जम्बूद्वीप की भव्य रचना की गयी है। सन् 1974 में गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीजी की प्रेरणा से शास्त्रीय आधार पर 21 मीटर ऊँचे सुमेरु पर्वत की भव्य आकृति बनाई गयी है। इसी परिसर में कमलमन्दिर, त्रिमूर्तिमन्दिर, ध्यानमन्दिर और कलामन्दिर की निर्मिति दर्शनीय है। अभी-अभी एक अन्य उत्तुंग त्रिमूर्ति की प्रतिष्ठा इसी खुले परिसर में की गयी है। नगर के पास में यहीं भव्य श्वेताम्बर मन्दिर भी दर्शनीय है।
काशी
कल्याणकक्षेत्र काशी (वाराणसी) हिन्दू की प्राचीन तीर्थस्थली की तरह जैनों के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है। क्षेत्र के रूप में इसकी प्रसिद्धि सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ के समय से ही हो गयी थी। यहाँ उनके गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक हुए। महाराज सुप्रतिष्ठ उस समय काशी के नरेश थे। तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की भी यह जन्मस्थली है। 'तिलोयपण्णत्ति' (4.458) में उनके जन्म के सम्बन्ध में इस प्रकार उल्लेख है :
हयसेण वम्मिलाहिं जादो हि वाराणसीए पासजिणो।
पूसस्स बहुल एक्कारसिए रिक्खे विसाहाए॥ अर्थात भगवान पार्श्वनाथ वाराणसी नगरी में पिता अश्वसेन और माता वम्मिला (वामा) से पौष कृष्ण एकादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुए।
भगवान पार्श्वनाथ के गर्भ और दीक्षाकल्याणक भी यहीं हुए।
कहा जाता है कि किशोर पार्श्वनाथ जब सोलह वर्ष के थे, एक दिन क्रीड़ा के लिए नगर से बाहर निकले। वहाँ निकट ही वन में उन्होंने एक वृद्ध तापस को पंचाग्नि तप करते हुए देखा। वह कोई और नहीं, महिपाल नगर के राजा पार्श्वकुमार का नाना था। अपनी रानी के वियोग में वह तापसी बन गया था। उस समय वाराणसी वानप्रस्थ तपस्वियों का गढ़ था। पार्श्वकुमार तापस को नमस्कार किये बिना ही पास जाकर खड़े हो
जैनतीर्थ :: 105
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