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वृद्धवादी-क्षमाश्रमण ने उन्हें समझाया कि किसी नगर में चलकर एक सुबुद्ध मध्यस्थ के सम्मुख ही शास्त्रार्थ होना चाहिए, किन्तु सिद्धसेन को इतना धैर्य कहाँ ? ....संयोग से वहाँ एक ग्वाला गायें चराता हुआ चला आ रहा था। अतः सिद्धसेन ने उसे ही मध्यस्थ बनाने की इच्छा व्यक्त की। वृद्धवादी ने उसे स्वीकार कर लिया और उसी की मध्यस्थता में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हो गया।
सिद्धसेन ने पूर्व-पक्ष के रूप में अपनी अलंकृत दुरूह-संस्कृत में प्रश्न किये, किन्तु वह ग्वाला उन प्रश्नों को बिलकुल भी न समझ सका; किन्तु वृद्धवादि क्षमाश्रमण ने उनके प्रश्नों के उत्तर लोकप्रिय जन-भाषा में इस प्रकार दिए
ण वि मारियइ ण वि मिच्छा बोलियइ, ण वि चोरियइ परदारह ण वि जोइयइ।
टुगु-टुगु संगु णिवारयइ। वृद्धवादि का यह उत्तर सुन-समझकर वह ग्वाला अत्यन्त प्रमुदित हो उठा और अपना निर्णय सुनाते हुए उन्हें (वृद्धवादि को) शास्त्रार्थ-विजेता घोषित कर दिया।
सिद्धसेन ने वृद्धवादि को तत्काल ही अपना गुरु स्वीकार कर लिया। वृद्धवादि ने भी सिद्धसेन के मस्तक की रेखाएँ देखकर उनके स्वर्णिम भविष्य की परख करके दीक्षा दे दी
और उन्हें जैन-दर्शन का अध्ययन कराया। इस प्रकार वे जैन-दर्शन के प्रकाण्ड तर्कशास्त्री, एवं दार्शनिक-विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनका 'न्यायावतार' ग्रन्थ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। ___5. धर्म-यात्रा- धर्म-यात्रा का मूल उद्देश्य होता है धर्म की सुरक्षा हेतु किसी अशान्त-स्थान से शान्त एवं सुरक्षित स्थान पर जाना। ईसा-पूर्व चतुर्थ-सदी में जब मगध एवं उत्तर भारत में द्वादश-वर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा था, तब आचार्य भद्रबाहु ने अपने बारह सहस्र मुनिसंघ की सुरक्षा हेतु मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त (प्रथम) के साथ दक्षिणभारत की यात्रा की थी। यह तथ्य श्रवणवेलगोला में उपलब्ध शिलालेखों में वर्णित है।
बाद में इस परिभाषा में कुछ परिवर्तन दिखाई देता है। इस धर्म-यात्रा में राजनीति का कुछ मिश्रण मिलता है और तब धर्म-यात्रा का उद्देश्य हो जाता है जनता के हृदयों पर विजय प्राप्त करने हेतु यात्राएँ कर उस पर धर्मानुकूल शासन करना । इस प्रकार की धर्मयात्रा वस्तुतः शासन की एक नवीन मौलिक चातुर्यपूर्ण राजनैतिक प्रणाली थी, जिसे मगधाधिपति मौर्य-सम्राट अशोक ने प्रारम्भ किया था। यद्यपि अशोक भी सामन्तवादी राजतन्त्र-परम्परा का शासक था, किन्तु उसके हृदय में पीडित मानवता के प्रति गहरी सहानुभूति तथा सेवा-भावना का संस्पर्श था। अपनी करुणा एवं संवेदनशील भावना के कारण वह "प्रियदर्शी" "देवानांप्रिय" जैसे श्रेष्ठ विशेषणों से युक्त होकर प्राच्य भारतीय इतिहास में एक आदर्श सम्राट के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
88 :: जैनधर्म परिचय
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