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हैं) पड़ती है। दूसरा मार्ग मधुवन की ओर से है। यात्रियों के लिए यही मार्ग सुविधाजनक है। कुल यात्रा अठारह मील की है। स्नान करके प्रात: तीन-चार बजे से यह यात्रा प्रारम्भ होती है तथा शाम तक यात्री लौट आते हैं। ___ पर्वत पर ऊपर पहुँचने पर सर्वप्रथम गौतम स्वामी की टोंक मिलती है। यहाँ से बायें मुड़कर पूर्व दिशा की ओर पन्द्रह टोंकों की वन्दना करनी होती है। चन्द्रप्रभ की टोंक अपेक्षाकृत दूर और ऊँचाई पर है। पूर्व दिशा की टोंकों की यात्रा के बाद बीच में जलमन्दिर होते हुए पुनः पश्चिम की टोंकों की वन्दना करते हुए पार्श्वनाथ टोंक पहुँचते हैं। यह अन्तिम टोंक है। यहाँ भगवान पार्श्वनाथ का भव्य मन्दिर है।
तीर्थराज की वन्दना से साधक को बहुत पुण्यार्जन होता है। कहावत है- 'भावसहित बन्दै जो कोई ताहि नरक-पशुगति नहिं होई।' ।
प्रसंगतः राजगृही का संक्षिप्त उल्लेख कर देना उचित लगता है। राजगृही प्राचीनकाल से जैन नगरी रही है। इस नगर के प्राचीन नाम पंचशैलपुर, गिरिब्रज और कुशाग्रपुर भी मिलते हैं। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत की जन्मनगरी होने का गौरव इसे प्राप्त है। यह ऋषभदेव और वासुपूज्य के अतिरिक्त शेष इक्कीस तीर्थंकरों की समवसरणभूमि भी रही है। भगवान महावीर के समय में इस नगरी का बड़ा महत्त्व था। इस नगरी में पाँच शैल (पर्वत) हैं। क्रम से पाँचों नाम हैं- ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुलाचल, बलाहक पर्वत
और पाण्डुक। इन पाँचों पर्वतों का नाम जैन साहित्य एवं पुराणग्रन्थों में पर्याप्त मात्रा में मिलता है। राजगृह बौद्धों का भी प्रमुख केन्द्र रहा है।
पावापुरी (बिहार)
अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की निर्वाणस्थली है पावापुरी। तिलोयपण्णत्ति' में लिखा है कि भगवान महावीर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रत्यूषकाल में स्वाति नक्षत्र के रहते हुए अकेले सिद्ध हुए :
कत्तियकिण्हे चोदसिपच्चूसे सादिणामणक्खत्ते।
पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो॥ प्राकृत 'निर्वाणभक्ति' की पहली गाथा है :
पावाए निव्वुदो महावीरो। अर्थात् पावापुरी में महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ।
जिस स्थान पर महावीर का निर्वाण हुआ था, वहाँ अब एक विशाल सरोवर के बीच संगमरमर का एक भव्य मन्दिर निर्मित है। इसे जलमन्दिर कहते हैं । इस मन्दिर तक जाने के लिए एक प्रवेशद्वार है, जहाँ से लाल पाषाण का 600 फुट लम्बा पुल बना हुआ है। मन्दिर के सामने संगमरमर का एक विशाल चबूतरा है।
जैनतीर्थ :: 101
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