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इस क्षेत्र पर पाँच टोंकें हैं। इन पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। प्रथम टोंक के पास से सहस्राम्रवन को एक रास्ता जाता है, जो नेमि प्रभु का दीक्षा-प्राप्ति और केवलज्ञानप्राप्ति का स्थान है।
इस पर्वत पर दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन तथा हिन्दू सभी दर्शनार्थ जाते हैं। यहाँ कुछेक ऐसे शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। तलहटी के नीचे जैन धर्मशाला और जैन मन्दिर है। मन्दिर की मुख्य वेदी पर भगवान नेमिनाथ की कृष्ण वर्ण की भव्य मूर्ति पद्मासन में प्रतिष्ठित है। यहाँ कुल मिलाकर नौ वेदियाँ हैं।
सम्मेदशिखर (झारखंड)
तीर्थंकर ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर को छोड़कर अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक शेष बीस तीर्थंकरों की पावन निर्वाणभूमि होने के कारण इसे तीर्थराज की संज्ञा दी गयी है। इसके अलावा अनेकानेक मुनिराजों ने इस पर्वत पर तपस्या कर मुक्ति पायी। प्राकृत 'निर्वाणकांड' में सम्मेदशिखर से बीस तीर्थंकरों की निर्वाण-प्राप्ति का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
बीसं तु जिणवरिंदा अमरासुर-वंदिदा धुदकिलेसा।
सम्मेदे गिरिसिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ 2 ॥ "तिलोयपण्णत्ति' में बीस तीर्थंकरों का मुक्ति-प्राप्ति का विस्तार से वर्णन तो है ही, उसमें प्रत्येक तीर्थंकरों की मुक्ति-प्राप्ति की तिथि, नक्षत्र और उनके साथ मुक्त होने वाले वीतरागी मुनियों की संख्या भी दी है। दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार की मान्यता है कि तीर्थंकर भगवान जिस-जिस स्थान से मुक्त हुए, उस-उस स्थानविशेष पर सौधर्म इन्द्र ने आकर चिह्नस्वरूप स्वस्तिक बना दिया। पश्चात्, श्रावकों ने उन-उन स्थानों पर चरणचिह्न स्थापित कर दिये।
वर्तमान में तीर्थराज सम्मेदशिखर का एक स्थापित नाम है- पार्श्वनाथ हिल। यह झारखंड के हजारीबाग जिले में स्थित है। यहाँ पहुँचने के लिए गया-दिल्ली मार्ग पर पार्श्वनाथ स्टेशन पर उतरना होता है। स्टेशन से लगभग एक फलांग की दूरी पर 'ईसरी' गाँव में दो दिगम्बर धर्मशालाएँ- तेरापन्थी और बीसपन्थी- बनी हुई हैं। फाटक के भीतर ही शिखरबन्द एक भव्य मन्दिर है। यहीं पर राष्ट्रसन्त क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी की समाधि है।
ईसरी से लगभग 22 कि.मी. की दूरी पर पर्वत की तलहटी में 'मधुवन' है। यहाँ तेरापन्थी और बीसपन्थी कोठी नाम से दो विशाल धर्मशालाएँ तथा एक श्वेताम्बर धर्मशाला है।
सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए ऊपर जाने के दो मार्ग हैं- एक तो नीमिया घाट से पर्वत की दक्षिण दिशा से है, जहाँ से सबसे पहले पार्श्वनाथ टोंक (इसे कूट भी कहते 100 :: जैनधर्म परिचय
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