Book Title: Murtipooja ka Prachin Itihas
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 093200900700000000000000000000 मूर्तिपूजा का 0°°°°°°°•.000.000.co.............. प्राचीन इतिहास ( सचित्र ) लेखक मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी ... For Private & Personal use Only.ooo....www.jainelibrary.Org. 6000 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचित्र जैन जाति महोदय (प्रथम खण्ड ) यह ग्रन्थ इतिहास की पूरी शोध खोज करके बड़े ही परिश्रम से तैयार करवाया गया है। इसमें जैन धर्म की प्राचीनता; चौबीस तीर्थङ्करों आदि का इतिहास; ओसवाल, पोरवाल, श्रीमाल भादि जैन जातियों की उत्पत्ति; ओसवाल जाति का समय निर्णय, रीतिरिवाज, गौरव, उदारता, वीरता एवं परोपकारता के प्राचीन प्रमाण; भगवान महावीर से ४७० वर्ष पर्यन्त का इतिहास और वर्तमान काल की प्रचलित हानिकारक रूढ़ियों का विस्तार से घिवेचन किया गया है । इसमें पृष्ठ १०००, चित्र ४३ और पक्की जिल्द होते हुए भी मूल्य मात्र रु० ४) चार रुपये रक्खा गया है। मिलने का पताश्रीरस्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला मु० फलोदी [ मारवाड] .......... Private & Personal us Nijainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘Shree Ratna Prabhakar Gyan Pushpamalu” No. 164 Ancient History of MOORTI POOJA . By Mudi Gyan Sundarji Maharaj of Upkeshgachh Author of 171 Granthas including Jain Jati Mahodaya, 11 Samarsingh, Gayavar Vilas, Siddha Pratima Muktawali, Sheeghrabodh etc. Oswal Samvat 2393 Vikram Samvat 1993 Veer Samvat 2463 First Edition. Price) "Ancient History of - (Rs. 5/ Moorti-Pooja" & { for “Shreeman Lonkashah" I only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher-- Shri Ratna PrabhakarGyan Pushpamala, PHALODHI (Marwar) - ALRIGHT RESERVED Printer Shambhoo Singh Bhati, Adarsh Printing Press, Kaisergunj, AJMER. w Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3mmmmmmmmmmmmmm- Commmmmmmmmmm-: mammy 'श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्प माला' पुष्प नं. १६४ " श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर पादकमलेभ्यो नमः । ANTARNAMAnemaraNIMImammi पजा का - - प्राचीन इतिहास memmmmmm. COM2. 0mmmmmmmmCALSmins लेखकजैनजाति महोदय, धर्मवीर समरसिंह, जैन जाति निर्णय, सिद्धप्रतिमा मुक्तावलि, गयवरविलास, शीघ्रबोध, और श्रीमान् लोकाशाह आदि १७१ प्रन्थों. के सम्पादक एवं लेखक श्रीउपकेशगच्छीय मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज wimmiumming.... mammmmmOrim२' . ओसवाल संवत् २३९३ वीर सं० २४६३ ई० सन् १९३६ वि० सं० १९६३ दोनों पुस्तक "मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास" [ मूल्य व " श्रीमान् लौकाशाह " का .. FF .................. 2000rsawww .mpmoment Sonven ...000000000000 .............................................. mamirmoniamrRIMAR roman .. ........................ ........ ........ ............. .1004 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व हक सुरक्षित मुद्रकशम्भूसिंह भाटी श्रादर्श प्रेस, केसरगंज अजमेर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व वन्द्य भगवान् महावीर प्रभु - He in an a n M N n n and ana One in as GOORE首省省省省省与省国首写到: a my an in are In N. IN IN IN ISO . in In a g T) ))) )了广 कृतापराधेऽपिजने, कृपामन्थर तारयोः । ईषद्वाप्पाईयोर्भदं, भ्री वीर जिन नेत्रयोः (瓜瓜瓜瓜瓜瓜瓜瓜瓜瓜:瓜瓜瓜瓜瓜瓜瓜瓜瓜瓜 Jain Educ P rivate Persone Use Only W inelibrary.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार परिवर्तन FOINE मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास और श्रीमान् लोकाशाह के जीवन पर ऐतिहासिक प्रकाश, ये दोनों पुस्तकें एक ही जिल्द में बन्धाने का विचार था कि जिससे पढ़ने वालों को अच्छा सुविधा रहे और उस समय उन दोनों पुस्तकों का मेटर २५ से ३० फार्म होने का अनुमान लगाया गया था तदनुसार इनकी कीमत भी उसी प्रमाण से जाहिर की गई थी पर यथावश्यकता इनका कलेवर इतना बढ़ गया कि आज करीवन् ५७ फार्म और ४५ चित्र तक पहुंच गया है । इस हालत में इन दोनों पुस्तकों को अलग अलग बंधाने की योजना की गई है। यद्यपि इसमें बाइडिंग (जल्द बन्धी) का खरचा अधिक उठाना पड़ेगा तद्यपि पुस्तक का रक्षण और पढ़ने वालों की सुविधा के लिये पूर्व विचारों में परिवर्तन करना ठीक समझा है। फिर भी पाठक इस बात को ध्यान में रखें कि दोनों पुस्तकों का मूल्य शामिल ही रखा है और मंगाने पर दोनों किताबें साथ ही में भेजी जायगी। एक एक पुस्तक मंगाने का कोई भी सज्जन कष्ट न उठावें और दोनों पुस्तकों का सम्बन्ध अन्यान्य मिलता होने से प्रत्येक पाठकों को साथ ही मंगानी और क्रमशः साथ ही पढ़ना जरूरी भी है। ____* इति शुभम् है Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संक्षिप्त सूची - ( १ ) कौन क्या कहते हैं ? (२) मरुधरोद्धापक एवं श्रोसवंशस्थापक जैनाचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि और अठारा गौत्र । ( ३ ) मरूधर केशरी मुनि श्रीज्ञानसुन्दरजी (४) जगत्प्रसिद्ध शा० जै० विजयधर्म सूरि ( ५ ) दानवीर सेठ सूरजमलजी कोचर (६) श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान-पुष्पमाला फलोदी (मारवाड़) (७) आभार प्रदर्शन (८) द्रव्य सहायकों की शुभ नामावली (९ ) सहायक ग्रन्थों की सूची (१०) प्रस्तावना (११) विषयानुक्रमणिका और चित्र परिचय (१२) शुद्धिपत्र (१३) मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास (१४) मूर्तिपूजा विषयक प्रश्नोत्तर (१५) क्या जैनतीर्थङ्कर भी डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती बान्धते थे ? ANSTHAN Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) कौन क्या कहते हैं ? सुप्पतित्थ -- भगवान् महावीर के पूर्वकालीन राजगृह नगर में सातवें सुपार्श्वनाथ का मन्दिर था । जिसमें महात्मा बुद्ध ठहरे थे, ऐसा बौद्ध प्रन्थ "महावग्ग" में उल्लेख है । यह ऐतिहासिक घटना देखो ! इसी पुस्तक के पृष्ठ १३४ पर । X सर्वत्र माननीय है । X X 'नंदराज नीतं च कालिङ्ग जिन संनिवेस ' कलिंग देश में यह जिन मन्दिर भगवान् महावीर की मौजूदगी में बना था । महामेषवाहन महाराजा खारवेल का शिलालेख देखो ! इसी पुस्तक के पृष्ठ १२६ पर । X x X “वीराय भगवत चतुरासितिय" पं गौरीशंकरजी श्रोमा की शोध खोज से बड़ली ग्राम में मिला हुआ भगवान् महावीर के बाद ८४ वर्ष का शिलालेख देखो इसी पुस्तक के पृ४ १३८ पर । X X X 'आक्रोशाद्देवचैत्यानां उत्तमदंडम हार्त्ति " कौटिल्य अर्थशास्त्र का ३-१८ का क़ानून, यह बतला रहा है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त के शासन में देव मन्दिरों के विरुद्ध जो कोई यद्वा तद्वा बोले वह महान् दंड का पात्र समझा जाता था, देखो इसी पुस्तक के पृष्ठ १९० पर । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) ' तो भी इतना माना जा सकता है कि इन देशों पर कितनेक जैनमन्दिर उसने सम्प्रति का राज्य रहा हो और अपने समय में बनवाये हों । रा० ब० म० म० पं० गौरीशंकरजी, श्रोमा राजपूताना का इतिहास भाग १ पृष्ठ ९४ X X X यूरोप का महान् क्रान्तिकार डॉ० सोक्रेटिज (शुक्ररात) ने कहा है कि मूर्तीपूजा छुड़ाने से लोगों की अज्ञानता घटेगी नहीं पर उल्टी बढ़ती जायगी या तो मिश्रवासियों की भांति मूर्तिपूजा छोड़ मगर व बीलाड़ा की पूजा करेगा या नास्तिक होकर कुछ भी नहीं करेगा । X X X ऐतिहासिक -- मर्मज्ञ प्रकाण्ड विद्वान् श्रीमान् राखलदास बनर्जी ने अपना यह निश्चय प्रगट किया है कि आज से २५०० वर्षों पूर्व जैनधर्म में मूर्तिपूजा होती थी ( जैन सत्य प्रकाश) पृष्ठ १४९ X X X श्रीमान् केशवलाल हर्षदराय व भारतीय पुरातत्वज्ञों में एक हैं आपने व्यक्त किया है कि कलिंग के शिलालेख से स्पष्ट हो जाता है कि आज से २३०० - २५०० वर्ष पूर्व जैनों में मूर्त्तिपूजा आम तौर से प्रचलीत थी ( X X X Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) "दंडियों का समुदाय बहुत प्राचीन नहीं है लगभग ३०० वर्ष से यह प्रचलित है।" ____रा० ब० पं० म० गौरीशङ्करजी अोझा राजपूताना का इतिहास भाग २ पृष्ट १४१८ पर xxx ___ “लौंकाशाह पर किस धर्म का प्रभाव पड़ा था ? । मेरा खयाल है कि यह इस्लाम ( मुस्लिम ) धर्म का ही प्रभाव था। दि० विद्वान नाथुराम प्रेमी "जैन परम्परा में मूर्ति विरोध को पूरी पाँच शताब्दी । भी नहीं बीती है। पं० सुखलालजी X "हिन्द में इस्लाम संस्कृति का आगमन होने के बाद * मूर्ति विरोध के आन्दोलन प्रारम्भ हुए। इतिहास मर्मज्ञ अंग्रज महिला स्टीवन्सन । frammarnatkinner serniturnsatar ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) ܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀ अब लुप्त सी हो गई, रक्षित न रहने से य सोचोतनिक कौशल्य की, कितनी कलाएँ थी यहाँ।। प्रस्तर विनिर्मित पर यहाँ थे, और दुर्ग बड़े-बड़े । अब भी हमारेशेष गुण के, चिह्न कुछ कुछ हैं खड़े ॥ अब तक पुराने खण्डहरों में, मंदिरों में भी कहीं। बहु मूर्तियां अपनी कला का,पूर्ण परिचय दे रही। प्रकटा रही है भग्न मी, सौन्दर्य की परिपुष्टता । दिखला रही है साथ ही, दुष्कर्मियों की दुष्टता ॥ -मैथिलीशरण गुप्त Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण संवत् ७० जिसको आज २३६३ वर्ष हुए हैं मरुधर उद्धारक और ओसवंश के आदि संस्थापकः-जैनाचार्य श्रीमद् रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज lain Education International Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M मरुधरोद्धारक एवं ओसवंश स्थापक जैनाचार्य श्रीमद् रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज यापश्री का पवित्र जन्म विद्याधर वंश के नायक महा ।। राजा महेन्द्रचूड़ की पटराज्ञी सती शिरोमणि लक्ष्मीदेवी की रत्नकुक्षि से वीर निर्वाण के प्रथम वर्ष प्रथम मास के पाँचवें दिन में हुआ था । आपका शुभ नाम रत्नचूड़ रक्खा गया । आपका घराना प्रारंभ से ही जैन धर्म का परमोपासक था। आपके पूर्वजों में एक चन्द्रचूड़ नामक महान् पराक्रमी नरेश हुए, जो भगवान रामचन्द्र और लक्षण के समसामयिक थे । जब वीर रामचन्द्र लक्षमण ने लङ्का पर चढ़ाई की थी, तब चन्द्रचूड़ ने भी आपका साथ दिया अर्थात् रावण के साथ युद्ध. कर विजय प्राप्त करने में आप भी शरीक ही थे । अन्य विजयी पुरुषों ने लङ्का की लूट में जब रत्नादिक कीमती पार्थिव द्रव्य लूटा तब चंद्रचूड़ ने रावण के घरेलू देरासर से एक नीले पन्ने की अलौकिक, साधिष्ठित, महाप्रभाविक एवं चमत्करिक चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति प्राप्त की और आत्म-कल्याणार्थ उस मूर्ति की त्रिकाल पूजा करने लग गये । राजा चन्द्रचूड़ ने अपनी विद्यमानता में ऐसा निश्चय कर दिया था कि मेरे पीछे इस सिंहासन पर जो राजा होंगे वे मेरे सदृश ही इस पवित्र मूत्ति की पूजा कर आत्म-कल्याण करते रहेंगे, ठीक इसी नियमाऽनुसार वंश Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) परम्परा से हमारे चरित्रनायक रत्नचूड़ नरेश को भी उस प्रभाविक मूर्ति की पूजा का सौभाग्य मिल गया । रत्नचूड़ का २४ चौबीस वर्ष की वय में ही राज्याभिषेक होगया और बाद १६ वर्ष तक निष्कंटक राज्य कर जनता को सब प्रकार से - आराम दिया । एक दिन आप अपने कुटुम्ब तथा सुहृद्वर्ग के साथ एक विमान पर सवार हो यात्रार्थ निकल पड़े और क्रमशः नाना स्थानों की यात्रा करते हुए अष्टम नन्दीश्वर द्वीप में पहुँचे । वहाँ के ५२ भव्य जिनालयों की जब आपने यात्रा की तो आप एक दम संसार से विमुख हो मुक्ति के इच्छुक बन गए । और जब वहाँ से लौट कर वापिस घर आ रहे थे तो उस समय प्रभु पार्श्वनाथ के पञ्चम पट्टधर आचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि की मार्ग में आप से भेंट हुई और श्राचार्य श्री का वैराग्य मय उपदेश सुना। फिर तो क्या देर थी- झट से ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी सौंप आपने ५०० मुमुक्षुत्रों के साथ सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा को धारण कर १२ वर्ष तक गुरुदेव के पास विनय पूर्वक ज्ञानाऽभ्यास कर आप चौदह पूर्व के ज्ञाता बन गए । आचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि ने अपनी अन्तिमावस्था में हजारों साधुओं में से मुनि रत्नचूड़ को सर्वतोभावेन योग्य समझ कर वीर निर्वाण के ५२ वे वर्ष आचार्य पदवी से विभूषित कर संघ का नायक बना दिया और आपका नाम रत्नप्रभ सूरि रक्खा गया । आप सादे और सरल जीवी होने पर भी -बड़े ही प्रभावशाली और अहिंसा धर्म के कट्टर प्रचारक थे । आपने बड़ी २ कठिनाइयों का सामना कर अनेक प्रान्तों में विहार कर जैन धर्म का जोरों से प्रचार बढ़ाया और लाखो में Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधर्मियों को जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा दे जैन बनाया। इस प्रकार जैन धर्म का प्रचार करते हुए आप एक समय चक्रेश्वरी देवी की प्रेरणा से ५०० मुनियों के साथ क्रमशः विहार कर किसी भी परिषह और कठिनाईयों की परवाह न करते हुए मरुभूमि में पधारे। उस समय मरुभूमि में जिधर देखो उधर वाममागियों के अखाड़े जमे हुए थे। यज्ञ यागादि में लाखों मूक प्राणियों का बलिदान और व्यभिचार करने में धर्म बतलाया जाता था। मांस मदिरा के लिए सबको छूट थी-ऐसी हालत में विषय वासना ग्रस्त प्राणियों के लिए और क्या कामना, शेष थी जो वे मनमानी करने में हिचकते। उस समय का नया वसा हुआ उपकेशपुर प्रधान रूप से वाममार्गियों का केन्द्र था अतः आचार्य रत्नप्रभसूरि अपने शिष्य मण्डल के साथ सर्व प्रथम वहीं पधारे पर उन पाखण्डियों के साम्राज्य में आपको कौन पूछता ? । वहाँ तो उन्हें शुद्ध आहार पानी की भी कमी थी--अतः स्वयं आचार्यश्री ने तथा शेष साधुओं ने एक पहाड़ी पर कठोर तपश्चर्या प्रारंभ करदी। इधर देखा जाय तो निमित कारण१ भी सानुकूल मिल गया कारण कार्य को लेकर आपकी तपश्चर्या का प्रभाव उस जनता पर इस तरह पड़ा कि वे सबके सब सूरिजी के पास आए और सूरिजी ने उन्हें प्रभावोत्पादक धर्मोपदेश सुनायाऔर राजा-प्रजा को मिथ्यात्वका त्याग करवाकर प्रायः ३८४००० तीनलाख चौरासी हजार घरवालों को वास क्षेप पूर्वक जैन बनाया । जिन लोगों के शक्ति तन्तु-वर्ण, जाति, और ऊँच नीचादि कई विभागों में विभक्त थे उनका संगठन , देखो--जैन जाति महोदय ग्रंथ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) किया, उस संगठित समाज का नाम "महाजनसंघ" रक्खा और उसके आत्म-कल्याण के लिए भगवान महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा भी करवाई। इस घटना को समय वीर निर्वारण के बाद ७० वर्ष का था । यह घटना खास उपकेशपुर में घटी थी इस कारण कालान्तर में वे लोग अन्यान्य स्थानों को चले जाने से "उपकेशवंशी" नाम से कहलाए और उसी "उपकेशवंश" का अपभ्रंश " ओसवाल" शब्द बना जो सर्वत्र प्रचलित है। क्योंकि मन्दिर मूर्तियों के शिलालेखों में इस ज्ञाति का प्राचीन नामोल्लेख प्रायः " उपकेशवंश" शब्द से ही हुआ सब जगह नजर आता है और ऐसा होना सम्भव भी है तथा - बाद में उपकेशपुर या इसके आस पास विचरने वाले साधुओं - का समूह भी " उपकेशच्छ" के नाम से विख्यात हुआ जो आज भी इसी प्राचीन नाम से विद्यमान है । श्राचार्य रत्नप्रभसूरि अपने जीवन में अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर लाखों मांस, मदिरा और व्यभिचार सेवियों को शुद्ध "सनातन धर्म" की राह पर लाये थे और अन्तिम समय में श्री शत्रुञ्जय तीर्थ पर एक मास का अनशन कर ८४ वर्ष की आयु पूर्ण कर वीर निर्वाण सं० ८४ माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन इस नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्गवास किया था । आचार्यश्री के स्वर्ग प्रयाण कर लेने पर अवशिष्ट साधुमण्डली -को तथा सकल श्रावक समुदायको महान् दुःख हुआ परन्तु "अन्ततोगत्वा" फिर भी "शेरों की सन्तान भी शेर ही होती हैं" इस युक्ति 'अनुसार "प्रारब्ध मुत्तमजनाः न परित्यजन्ति" इस नीतिवाक्य १ देखो - जैन जाति महोदय तथा जयन्ति महोत्सव पुस्तकें | Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) को ध्यान में रखते हुए महापुरुषों द्वारा प्रचालित जैनधर्म के प्रचार कार्य को अक्षुण्ण रक्खा और उनके बाद में भी बराबर २००० वर्ष तक आपके शिष्य संप्रदायान्तर्गत इतर जैनाचार्यों ने आपकी स्थापित शुद्धि-मिशन द्वारा लाखों करोड़ों अजैनों को जैन बना अपने शासन को उन्नत बनाया, पर यह सब आपश्री के ही प्रथम पुरुषार्थ का सुन्दर फल था, अतएव जैन समाज एवं विशेषतः श्रोसवाल जाति आज भी आपके उपकार रूप ऋण से नत मस्तक है। ___ जैन समाज और खास कर ओसवाल समाज का यह सर्व प्रथम कर्तव्य है कि वे प्रतिवर्ष माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन विराट् सभा कर आचार्यरत्नप्रभसूरि की पवित्र जोवन-गाथा को प्रत्येक व्यक्ति के कर्णकुहरों एवं मन-मन्दिरों में भरदें जिससे कि वे अपने आपको आचार्य श्री के प्रबल ऋण भार से कुछ मुक्त कर सकें। अब यदि आप अपनी कृतघ्नता एवं प्रमादावस्था के कारण आचार्यश्री के जीवन से आज तक अज्ञात हैं तो लीजिये: "प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का जयन्ति-महोत्सव" नाम की पुस्तक, तथा जिस समय श्राचार्य देव ने उपकेशपुर के राजा प्रजा को उपदेश दे जैन धर्म में दीक्षित किया था उस समय के दृश्य का एक प्रभावोत्पादक १६=१२ इंच का बड़ा साइज वाला तिरङ्गा चित्र, । इन दोनों अलभ्य पदार्थों को श्राप अपने पास मँगवा कर मन के मधुर मनोरयों को आज ही सफल बना अपने को कृत-कृत्य करें। सुशेषु किमधिकम आचार्य चरणाऽब्जानां चन्चरीकः ज्ञानसुन्दर ___ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाजन वंश के मुख्य गौत्र उपकेशपुर में वीरात ७० वर्षे महाजनवंश की स्थापना हुई उसके पश्चात् ३०३ वर्षों में एक दुर्घटना बनी जिसकी शान्ति के लिये स्नानपना पढ़ाई उस में निम्न लिखित १८ गौत्र के लग स्नात्रीय बन पूजा में लाम लिया था। उन गौत्रों के नाम और बाद में हुई शाखाएँ। १-तातेड़ गोत्र ( तोडियाणि आदि २२ शाखा हुई) २-वाफणा ( नहाटा, जांघड़ा, बेताला, बलोटा, बालिया, पटका, दफतरी आदि ५२ शाखा एक गोत्र से हुई) ३-करणावट ( बागड़िया सघवी आदि १४ शाखाए) ४-वलाह (रांका वोका सेठ छावत चोधरी २६) ५-मोरख (पोकरणा संधवी तेजरादि १७ शा०) ६-कुलहट (सुरवा सुसाणी आदि १८ शाखा) --विरहट ( भुरंट नोपत्तादि १७ शाखाए) ८-श्री श्रीमाल (निलडिया झाबाणी आदि २२ शाखा) ९-श्रेष्टि ( वैद्यमेहता सोनावत शूरमादि ३० शाखा) १०-संचेति (छेलडिया बिबादि ४४ शाखाएँ) 1-अदित्यनाग ( चोरड़िया पारख गुलेछा सावसुखा नामरिया गदया आदि ८५ शाखाऐ इस गौत्र से निकली ) १२-भूरि (भटेवरा उडकादि २० शाखा) १३-भाद्र (समदडिया भांडावत हिंगड़ादि २९ शाखा) १४-चिंचट ( देसरड़। ठाकुरादि १९ शाखाएं) १५-कुमट ( कांजलिया धनंतरी आदि १९ शाखाए) १६-डिडू (राजोत् सोसलाणी कौचरमेहसादि २१ शाखा) १७-कनौजिया (बडमटा तेलियादि १७) १४-लघष्टि ( वर्धमाना लुनेचादि १६) इन के अलावा सुंधड़ दुघड़ चण्ढालिया लुनाक्त छाजेड़ वागरेचादि कई जातिए इसी गच्छ के आचार्यों ने बनाइ । ___ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास साहित्य प्रेमी १६८ ग्रन्थों के लेखक व संपादक ୫୫୪ ୧୫୫ ୧୧୫ ୧୧୬୪ * ୪୫ ୫୫ Missississiostosts stocks site issississtostosakssssssssistassosisekasississieskesisekasksksisekesissioakes, www.jainelibrary. मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अन्य के लिखने में निमित्त कारण कौन है ? मैं स्थानकवासी समुदाय से मूर्तिपूजक समाजमें आया उस समय कई प्रकार के लेखों और पुस्तकों द्वारा मेरे पर आक्रमण कर स्थानकवासी भाइयों ने मुझे एक प्रकार का बल प्रदान किया और बराबर १२ वर्ष, मैं उन आक्षेपों का मुंहतोड़ उत्तर देता होरहा परन्तु बाद करीबन ७-८ वर्षों से मैंने इस विषय को छोड़ दिया और अपना समय तात्विक एवं इतिहास ग्रंथ लिखने में विवाया, पर इसीसे हमारे स्थानकवासी भाइयों को सन्तोष नहीं हुआ शायद् उन्होंने मुझे अपने लेखों के उत्तर के लिये कमजोर समझा होगा। इसी कारण पूज्य श्री जवाहरीलालजीमहाराज ने अपनी सचित्र पुस्तकों में आचार्य केशीश्रमण के, प्र०व० श्री चोथमलजी ने भगवान महावीर के और शंकरमुनिजी ने आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के मुंहपर डोरावोलो मुंहपती बंधवाने के चित्र छपवाये तथा स्वामि सन्तबालजी व मणिलालजी ने अपनी पुस्तकों में लौकाशाह को क्रान्तिकार लिख तीर्थङ्करों की तथा पूर्वाचार्यों की निंदा को किसी ने "क्या मूर्तिपूजा शास्त्रोयुक्त हैं" इत्यादि पुस्तकें छपवा कर मेरी आत्मा में इस विषय पर लिखने की मानो प्रेरणा ही की हो और उस प्रेरणा से प्रेरित हो इस कार्य के लिये मैंने चार मास जितना समय इन सज्जनों की सेवा के लिये निकाला कर यह दोनों पुस्तक तैयार की है अतएव इन पुस्तकों को पद कर सत्य प्रहन करेगा तो मैं मेरा समय शक्ति का व्यय को सार्थक सममूंगा। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFPSP HE मरुधर केशरी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज ___ आप हमारे मारवाड. के एक धर्मवीर और चमकते सितारे हैं। आप श्री का जन्म मरुधर जैसी वीर भूमि की प्रधान राज धानी जोधपुर स्टेट से १८ मिल के फासिले पर बसे हुए समृद्ध नगर वीसलपुर में उदारतादि अनेक गुण युक्त श्रेष्ठ गोत्रीय वैद्य मेहता जाति के नर रत्न श्रीमान नवलमलजी साहिब की धर्मपत्नी श्रीमती रूपादेवो को रत्न कुक्षि से वि० सं० १९३७ विजयादशमी के शुभ दिन को हुआ था । जब आप माताश्री के गर्भ में आए तब माताजी ने "प्रधानगज" का स्वप्न देखा था तदनुसार श्राप का नाम भी “ गयवरचन्द " रखा। आप के जन्म के शुभ सम्वाद से चारों ओर हर्ष की लहरें उमड. पड़ी थीं और हर्ष के कारण आपश्री के माता पिता ने पुत्र जन्म की खुशी में अनेक प्रकार के दान और महोत्सव किए क्यों कि कहा भी है कि: रण-जीतण तोरण बन्धन, पुत्र जन्म उत्साव । तीनों अवसर दान के, कौन रंक कौन राव।। आपकी बाल्यावस्था भी पूर्ण प्रमोद एव परमानन्द से बीती थी और बाद में जब आपने विद्या के क्षेत्र में प्रवेश किया तो पूर्व जन्म के सजड़ संस्कारों के कारण आपने थोड़े ही समय में Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और व्यापार की कुशलता हासिल करली और जैसे व्यापार में दक्ष थे वैसे ही वीर एवं साहसी भी थे। किशोरावस्था के बाद जब आपने युवावस्था में पदार्पण किया तो चारों ओर से आपकी शादी के लिए शुभ समाचार आने लगे, पर आपके पिताश्री ने अन्तिम निर्णय सलावास के श्रीमान् भानुमलजी बागरेचा की सुयोग्य कन्या राजकुंवर के साथ किया और तदनुरूप वि० सं० १९५४ मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी के दिन बड़े ही धूम धाम से हमारे चरित्र नायक कुंवर गयवरचन्द का विवाह श्रीमती राजकुवर के साथ हो गया। मेहताजी के हमारे चरित्र नायक के अतिरिक्त और भी पाँच पुत्र के तथा एक पुत्री थी, परन्तु इन सब में सब से बड़े आप ही थे। अतः मेहताजी आपके लिये पहिले से ही अनेक आशाओं के पुल मन ही मन बांध रहे थे, परन्तु प्रकृति को कुछ और ही मन्जूर था। हमारे चरित्र नायक के धार्मिक संस्कार प्रारम्भ से ही इतने उज्वल थे कि आपने बचपन ही में सामायिक, प्रतिक्रमण और कई एक ढाले तथा अनेक थोकड़े कण्ठस्थ कर लिए थे। - आपकी शादी को पूरे चार वर्ष भी नहीं बीते थे कि दैववश आपका मन संसार से विरक्त होगया तथा आप दीक्षा लेने पर उतारू होगए, परन्तु आप के सम्बन्धी भला ऐसा करने में कब अनुमति देने वाले थे अतः “श्रेयांसि बहुविघ्नानि" के अनुसार दोक्षा लेना और सम्बन्धियों द्वारा उसकी आज्ञा न मिलना, . गणेशमलजी, हस्तीमलजी, बस्तीमलजी, मिश्रीमलजी, गज. गाजजी और जतनबाई। ___ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) इस ममेले में बहुत अर्सा गुजर गया। इस बीच में देव दुर्विणक से वि० सं० १९५८ में श्राप के पिताश्री का देहान्त हो गया। फिर तो क्या था सारे कुटुम्बका भार आपके ऊपर आ पड़ा और इच्छा के न होते हुए भी केवल नैतिक कर्तव्यवश श्राप फिर कुछ काल के लिये सांसारिक बने । तथापि आपका अन्तःकरण हर समय दीक्षा के लिए रज्जू रहता था। पिताश्री के देहान्त को पांच वर्ष बीत जाने के बाद आपके सुकमों का फिर उदय हुआ और वि० सं० १९६३ में आपने २६ वर्ष की युवक वय में माता, स्त्री, भाइयों आदि कुटम्ब का त्याग कर स्थानकवासी पूज्य श्रीलालजी महाराज के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की और ७ वर्ष तक धार्मिक शास्त्र याने ३२ सूत्रों का और ३०० थोकड़ों का यथावत् अध्ययन किया। आपकी चढ़ती जवानी, उत्कृष्ट वैराग्य, विशालज्ञान, मधुर रोचक एवं प्रभवोत्पादक व्याख्यान की छटादि मौलिक गुणों से स्थानकवासी समाज में सर्वत्र प्रतिष्ठा और भूरि भूरि प्रशंसा हो रही थी। यदि एक वार आपकी अमृतमय देशना श्रवण करले तो उनको पुनः पुनः श्रवण करने की इच्छा सदा बनी रहती है और श्रोतागणों के अन्तःकरण से स्वयमेव इसके लिए प्रशंसा के वाक्य निकल पड़ते थे। पूज्य श्रीलालजी महाराज के बाद उनकी पूज्य पदवी के उत्तराधिकारी भी श्राप ही थे, किन्तु आपने जब अनवरत शास्त्रावलोकन के कारण शास्त्रों में मूर्ति विषयफ पाठ देखे और इस विषय का रहस्यमय अभ्यास किया तो ज्ञात हुआ कि स्थानकवासी मत शास्त्र-सम्मत मूर्तिपूजा को नहीं मानते हैं । और मूर्ति नहीं मानने से ही अनेक सूत्रों के अर्थ बदलने पड़ते हैं और सूत्रों पर की नियुक्ति टीका चूर्णि भाष्य Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) तथा पूर्वाचार्य प्रणीत प्रन्थों के मानने में इन्कार करना पड़ता है । यही नहीं किन्तु जिन आचायों का हमें परमोपकार मनना चाहिये उलटी उनकी निन्दा कर कर्म बन्धन करना पड़ता है । इनके अलावा स्थानकवासी लोगों ने श्रागमानुसार व पूर्व परम्परागत आचार व्यवहार और क्रियाकर्म में पूर्णतः परिवर्तन कर अनेक निन्दनीय प्रवृत्तिएँ गढ़ डाली हैं । अस्तु उक्त विषय में अपने लगातार दो वर्ष तक खूब चर्चा की परन्तु किसी ने आपके मन का सन्तोष जनक समाधान नहीं किया । समाधान नहीं करने का केवल मात्र कारण यही था कि इस कल्पित मत में कोरी अन्ध परम्परा ही चली आ रही है । इस मत में करने योग्य क्रियाओं का ही कोई सम्यक श्रावकों के सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान का पूरा पता है । इस मत में यदि कोई किसी से कुछ प्रश्न पूछे तो उसका समाधान करने वाला भी कोई नहीं है । अतः जिस के दिल में जो आ जाता है वह उसे ही कर गुजरता है । इन सब का पूर्णत: विचार कर लेने पर भला कोई सुज्ञ पुरुष कब तक कल्पित अन्ध परम्परा में रहना अच्छा समझेगा ? । बस इसी से हमारे चरित्रनायकजी ने नौवर्षों के बाद वि० सं० १९७२ में औसियाँ तीर्थ पर पधारे और परम योगिराज शान्तिमूर्ति मुनि श्रीरत्नविजयजी महाराज ? के चरण कमलों में पुनः जैनधर्म में दीक्षित होगए । न तो साधुओं के ठिकाना है और न १ आप श्रीमान ने भी १८ वर्ष तक पहिले स्थानकवासी सम्प्रदाय में रह कर सत्य का संशोधन कर शास्त्र विशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्मसरिजी के पास जैन दीक्षा स्वीकार की थी । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) आपका परम पवित्र जीवन अनुकरणीय एवं आदरणीय है उस सब को इस संक्षिप्त परिचयमें हम बतला नहीं सकते हैं अतः समय मिलने पर फिर कभी विस्तृत रूप से लिख कर पाठकों की सेवा में रखेंगे। यहां पर अभी तो मात्र इतना हो कह देना समचित समझते हैं कि आप श्री ने मारवाड़ की वीर भूमि पर अवतार लेकर जननीजन्म भूमि की सेवा करने में अथाह परिश्रम किया है । कितनेक लोग आपद् समय में यह कह उठते हैं कि हम अकेले क्या करें ? पर हमारे मरुधर केशरी मुनि श्री अकेले होते हुए भी अनेकानेक विपक्षियों के बीच में रह कर निडरता पूर्वक क्या-क्या काम किया और कर रहे हैं उनको सुनते ही मनुव्य चकित हो जाते हैं। यह तो आप जानते ही हैं कि जैन मुनियों को पैदल भ्रमण करना और क्रिया कल्पादि से यों ही बहुत कम समय मिलता है। किन्तु उस अवशिष्ट ( बंचित) समय में भी छोटे बड़े १७१ अन्थों का संपादन करना या कई तो हाथों से लिखना, प्रूफ संशोधन करना, आये हुए प्रश्नों का उत्तर लिखना, काम पड़ने पर शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहना, प्रायः हमेशां व्या. ख्यान देना,इसके अलावा कई बोर्डिगें, पाठशालाएं, कन्याशालाएँ, लाइब्रोरिएँ, सेवा मण्डलों आदि सँस्थाएँ स्थापित करवाना, जहाँ धर्म की शिथिलता देखो वहां उत्सव महोत्सव करवा के धर्म की जागृति करना, कई मन्दिरों की आशातना मिटा के पुनः प्रतिष्ठा करवाना, इतना ही नहीं पर समय-समय तीर्थों को यात्रा और अन्य भव्यों के यात्रार्थ संघ निकलवाना आदि आदि अनेक समाज और धर्म कार्य आपश्री ने बड़ी योग्यता और उत्साह पूर्वक किये और करवाये हैं फिरभी आरके सहायक कौन ? | Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) जहां तन और धन की प्रचुरता से सहायता मिलती हो वहां तो कार्य करने में आसानी है पर मारवाड़ जैसे शुष्क प्रदेश में तो इन दोनों बातों का प्रायः अभावसा हो है तथापि श्रात्मार्पण करने वाले पुरुषार्थी महात्माओं के लिए सब कुछ बन सकता है । मुनि श्री की वृद्धावस्था के कारण शरीर शिथिल होने पर भी आपका प्रकाशन का आज पर्यन्त चालू ही है और उनके प्रचार के लिये हमारे स्थानकवासी समाज द्वारा चारों ओर जाहिर खबर फैलाई जाती है। हम महाराजश्री को इस परोपकार के लिये हार्दिक धन्यवाद देते हैं और चाहते हैं कि ऐसे परोपकारी महात्मा चिरायु हों और हम भूले भटकों को सन्मार्ग की राह बतला कर मरुभूमि का उद्धार करते रहें । अस्तु आपश्री का चरण सेवक दफ्तरी जवाहिरलाल जैन । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत् प्रसिद्ध शास्त्रविशारद जैनाचार्यश्री विजयधर्म सुरीश्वरजी संक्षिप्त परिचय विश्व विख्यात सौराष्ट्र (काठियावाड़) प्रदेश, यों ही शत्रुक्षय और गिरनार जैसे परम पावन तीर्थ स्थानों को अपने ऊपर लिए जैनी मात्र के लिए श्रद्धा का भाजन हो गया है, तिस पर भी वह अपने महुवा नामक सुदूरवर्ती, सदा-समुद्र कल्लोल-सुसेवित एक सुरम्प शहर में जैनाकाश के चमकते सितारे, वर्तमान काल के कल्पतरु स्वरूप प्राचार्य श्रीविजयधर्मसूरिजी को जन्म देकर धन्य २ हो गया है । हमारा यह विषय नहीं कि महाराज श्री के समग्र जीवन को हम पाठकों के लिए सुगम कर सकें किन्तु उक्त महाराजश्री की प्राकृतिक महत्ता के वशीभूत हो हठात् कुछ शब्द लिख भव्य भावुक जनों को आपका कुछ परिचय करा देते हैं। __"आप श्री की माता कमला देवी और पिता रामचन्द्र इस भारत भूमि के अनुपम रत्न स्वरूप थे । वि० सं० १९२४ में महुवा नामक शहर में जन्म ले आपने अपने उभय (मातृ पितृ ) कुल को देदीप्यमान किया । उस समय लोग आप को मूलचंद के नाम Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत्प्रसिद्ध शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्म सूरीश्वरजी Winterniz Hermann Jacobi Otts Stain FW Themns. Jari Charpenter CH Krause Helmuth von ClasenapD Guerinat Jon Note! JAYADHRMSUN Sylvan Levi. Fadd+gon JHertel Julius von Nrgelein Holtasch FBelloni Filippi 10 Stenkonow 8 Fartold. इस चित्र में बतलाये हुए विद्वान अंग्रेजों के अलावा भी कई पौर्वात्य एवं पाश्चात्यों के मनमन्दिर में जैनधर्म का स्थान बनाने वाले बीसवीं शताब्दी के एक ज़बर्दस्त सुधारक, जिन्होंने अनेक कठिनाइयों का सामना कर काशी जैसे प्रदेश में पधार कर वहाँ के नरेश एवं ब्राह्मणों के हृदय की दूषित वायु मिटा कर उन्हों के द्वारा पदवी हासिल करनेवाले अद्वितीय समर्थ आचार्य के चरणों में कोटि कोटि बन्द | International For Private & Personal Use Orfly Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५) से पुकारा करते थे। शिक्षा की अपेक्षा आप बचपन में खेल कूद पर विशेष रुचि रखते थे और इस प्रक्रिया में बढ़ते बढ़ते बापने वे खेल खेलने भी शुरू कर दिए जिनसे पांडवों और राजा नल को जंगल २ में भटकना पड़ा था। पर आखिर "अंधेरा सूर्य को कब तक रोके रख सकता है" आपने उस मायावी यूव क्रीडाको दूरसे ही दुत्कार कर साथही साथ इस असार संसार की भी खराबी समझ ली और तदनुसार शान्तमूर्ति आचार्य प्रवर गुरुवर्य श्रीमान् वृद्धिचन्दजी महाराज के कर कमलों से आप दीक्षित हुए । दीक्षाऽनन्तर आपका नाम बदल कर मुनिधर्मविजय" रक्खा गया जो कालान्तर में "यथा नाम तथा गुण" के अनुसार सत्य में परिणत हुआ। थोड़े ही समय में आपने उज्वल गुरु भक्ति से जड़ता का परदा नाश कर दिया और शनैः २ ज्ञानाभ्यास की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया। जमाने की जरूरतों को समझ कर आपने पहिले से ही कई संकल्प दृढ़ कर लिए और प्राचीन रूठिवाद की खराबियों को समम लिया । गुरुजी के स्वर्गवासाऽनन्तर आप अपने विचारों को क्रियात्मक रूप देने के लिए अनेक कष्ट उठा बनारस आगए । वहाँ जैनधर्म के विद्वेषी धुरन्धर शास्त्रियों और पण्डितों को फिर से जैन-धर्म के प्रशंसक बनाए और वहाँ (बनारस) “यशो विजय जैन पाठशाला" स्थापित कर अनेक विद्वान् पैदा किए। तथा "श्री यशोविजय ग्रंथमाला, द्वारा अनेक प्राचीन ग्रन्थों का प्रकाशन कर लुप्त प्राय प्राचीन साहित्य का पुनरुद्धार शुरु किया। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में जैन न्याय और व्याकरण के तीर्थ परिक्षा तक के ग्रन्थ दाखिल करवाए । लंका में अपने Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) शिष्यों को भेज बौद्धों में जन धर्म का प्रचार करवाया। स्वयं ने भी अनेक स्वतंत्र प्रन्थों का निर्माण कर और समय समय पर समाचार पत्रादि में लेख लिख धर्म की आशाऽतीत उन्नति की विद्या के अविच्छिन्न और स्थायी प्रचार के लिए आप श्री ने: "श्री वीरतत्व प्रकाशक मण्डल शिवपुरी, महुवा का बालाश्रम, तथा पालीताने का गुरु कुल" जैसे विशाल विद्या केन्द्र स्थापित किए और साथ ही “बम्बई जैन स्वयं सेवक मण्डल" जैसी उदार सामाजिक संस्था को भी जन्म दिया । आगरा के प्रसिद्ध "ज्ञान मन्दिर" जैसे अद्वितीय पुस्तकालय और अनेक गौशालाएँ आदिकी स्थापना करवाने का भी श्रेय आप ही को है। . एक समय के जैन धर्म के कट्टर विरोधी पण्डितों द्वारा श्रीकाशी नरेश के सभापतित्व में "शास्त्र विशारद जैनाचार्य" की पदवी हासिल की। यह वर्तमान प्राचार्यों में पहला ही उदाहरण हैं कि विधर्मी पंडिता और एक नरेश द्वारा पदवी हासिल करना। यह तो आप का योग्य ही सत्कार किया गया है । बंगाल आदि अनेक प्रदेशों में दया रस की अविरल धारा बहा कर अनेक मांस भोजियोंको अपने दया धर्मी बनाया है । जोधपुर में भी जैन साहित्य सम्मेलन" करवा कर आपने देश विदेशों में जैन साहित्यकी महत्ता का डंका बजाया है। आबू के मन्दिरों की आशातना टलवा कर उन्हें पूर्ववत् सर्वोच्चता प्राप्त कराने का श्रेय भी आप ही को मिला था। आप ही के उपदेश से राणकपुर और उपरियाला आदि तीर्थों का उद्धार हुआ था। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) अनेक राजा महाराजाओं और उच्च श्राफिसरों को आपने अपने त्याग मय चारित्र - धर्म पर श्रद्धालु कर दिया । उदयपुर, जोधपुर, इन्दौर, ग्वालियर, दरभंगा और काशी आदि अनेक नगरों के राजा महाराजाओं ने आपका आदर्श उपदेश सुन अपने को धन्य समझा था । राजकोट की "राज कुमार कॉलेज में आपके उदात्त व्याख्यान खूब धाम धूम से हुए थे । बम्बई के “गवर्नर" ने अपने गवर्नमेण्ट हाउस में सन् १९२० में आपको बुला कर अपने आपको पवित्र किया था । अनेक प्रान्तों के कलेक्टर, सूबा और हाकिम आपके भक्त हैं । आपश्री ने पश्चात्य विद्वानों को भी उनके साहित्यिक उद्योग में पूर्ण सहायता दी थी। कई एक पञ्चात्य विद्वान् तो आपकी सेवा में यहाँ (भारत में ) या श्राकर आप से पढ़े थे । यूरोप आदि विदेशों के विद्वान आपकी सर्वतोमुखी प्रतिमा पर मुग्ध होकर भगवान् महावीर और बुद्ध से भापका मुक़ाबिला करने लग गये हैं । वहाँ का एक पत्र “The Near East” लिखता है कि - " इस शताब्दी के पूर्व जैनिकम स्थिर था, उसे एक सुधारक विजयधर्मसूरि ने जबर्दस्त उरोजन दिया है, जिसका मुक्ताबिला महावीर और बुद्ध से किया जा सकता है" । डॉ० हर्टल, डॉ० जॉली, डॉ० टुच्चस डॉ० शुनिंग डॉ० जोहोन्सेन, डॉ जेकोबी, डॉ० थोमस, डॉ० वेलोनी, डॉ० कोनो आदि २ प्रायः पौन सो विद्वान् आपके भक्त हैं । वहाँ का एक दूसरा पत्र (The Glasgow Herald ) तो यहाँ तक लिखता है :"पिछले कुछ वर्षों से जैनों में जो खास मानसिक, नैतिक Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) और धार्मिक परिवर्तन हुए हैं, वे सिर्फ विजयधर्मसूरिजी के चारित्र के प्रभाव से ही हुए हैं" । -- आपके व्यक्ति के लिए फ्रेश्व विद्वान डॉक्टर सिल्वनलेवी कहता है “ - मुझे यह कहना होगा कि वे उत्कृष्ट प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक हैं जिनके जैसा (दूसरा) महात्मा शायद ही इस दुनिया में मिलेगा ।" स्वीडन विद्वान डॉक्टर जॉल चारपेन्टीयर कहते हैं-" वे महा पुरुष सच्चे महापुरुषों के प्रमाणित नमूने थे। जिनमें उच्च से उच्च माननीय आदर्श देखेहैं, जिन श्रादशों में साधुता और विद्वत्ता का सुन्दर सम्मिश्रण है" । इस प्रकार अनेक अमेरिकन, फ्रेन्च, जर्मन, इटालियन, - स्वीडन श्रादि देशों के विद्वानों ने आपके प्रति उच्च श्रभिप्राय व्यक्त किए हैं। डॉ० शारलोटी काडजे ने तो जैन धर्म स्वीकार कर "अणुप्रतादिक ( शावक व्रत) भी ले लिए हैं" शान्ति निकेतन की विश्व भारती में जैन शिक्षण का सेन्टर स्थापित करने में श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने आपसे ही मदद ली थी। इत्यादि बहुत से प्रभावान्वित कार्यों को करते हुए हमारे आचार्यश्री वि० सं० १९७९ में शिवपुरी में इस नश्वर देह को छोड़ सदा के लिए स्वर्गवासी हुए । अन्त में हम इतना ही कहते हैं कि आप आदर्श थे, उच्च कोटि के विद्वान थे, और जैन समाज में एक प्रबल नवयुग प्रवर्त्तक थे । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) आपने जैन साहित्य का अभूतपूर्व उद्धार किया और क्षुद्र विचारों का नाश किया, आपने अपने लघु जीवन में जो २ महत्व के कार्य किए हैं वे सदा के लिए स्थायी रहेंगे और इसीसे हम कहते हैं कि आप केवल जैन समाज के ही नहीं किन्तु भारत भर के एक जग मगाते अमूल्य होरे थे । - भूरि २ वन्दन हो उन महात्मा को । चरणरज ज्ञानसुन्दर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर श्रीमान् सूरजमलजी साहिब कोचर । श्राप श्रीमान् फलोदी ( मारवाड़ ) के नागरिक, और सेठ धीरजी चान्दनमलजी सिकन्दराबाद फर्म के मालिक हैं। यों तो आपका उदार जीवन विस्तृत और अनुकरणीय है किन्तु यहां मुझे आपकी संक्षेप से आर्थिक उदारता का नमूना पाठकों की सेवा में रखना है इसलिए समुचित समझता हूँ कि लक्ष्मी के लाड़ले पूत इन महाशय का अनुकरण कर जैन - शासन सेवा के निमित्त अपने धन का सदुपयोग कर निज मनुष्य जीवन को समुन्नत बनावें । सेठजी के दान का व्यौरा निम्न लिखित है । २३०००) रु० आपने फलोदी में तपागच्छ की धर्मशाला बनाने में व्यय कर पुण्योपार्जन किया ७०००) रु० श्री कदमगिरि पर मन्दिर बनाने में खर्च किए । ६०००) रु० स्वयं आपने तथा आपकी पुत्रवधू ने तपश्चर्या की पूर्णाहुति में उद्यापन करके व्यय कर तपाराधन किया । २०००) रु० सिकन्दराबाद की जैन लाइब्रेरी में लगाए । १७८१) रु० फलोदी में श्री शान्तिनाथजी के मन्दिर की प्रतिष्ठा में व्यय कर दर्शन पद की श्राराधना की । १६००) रु० श्री सिद्धक्षेत्र में नवकारसी जीमणवार में खर्च किए । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर श्रीमान सूरजमलजी साहिब कोचर मेहता manuaaaaannnnnnnnnnnnuaaaaaan vanera manencananananas फलोदी (मारवाड़) सिकन्दराबाद ( दक्षिण ) Neredenerererererererererere tiohinternation Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७२) २० तीथश्री कुलपाकजी के निमित्त लगाए। १४०१) रु० सिकन्दराबाद में मन्दिर और धर्मशाला के निमित्त दिए। . २०६१) रु. हैदराबाद ( दक्खिन ) में मन्दिर व धर्मशाला के लिए दिये। १०००) रु० मद्रास की जीवदया संस्था को प्रदान किए। १०००) रु० पालड़ी का संघ जैसलमेर जाता हुआ फलोदी श्रआया तब स्वामिवात्सल्य कर स्वधर्मी भाईयों की सेवा की। ९८५) रु० श्री कापरड़ाजी तीर्य में खर्च किए। ५७६) रु० तीर्थ श्री ओसियां में लगाए । ५००) रु० श्री कदमगिरी पर पदवी महोत्सव के समय अठाई महोत्सव आदि में लगाए । ५००) रु० सिकन्दराबाद में श्री जैन पाठशाला को दिए । ३००) रु० खर्च कर श्री भांदकजी में एक कोटड़ो बनवाई । २५१) २० अल्वर के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने में लगाए । २५१) रु० विहार भूकम्प फण्ड में दिए । १९१) रु० कोइटा भूकम्प फण्ड में दिए । १५०) ,, अलोराजपुर तीर्थ के जीर्णोद्धार में लगाए । १११) ,, फलोदी समवसरण के चन्दे में । १०२), जामनेर जैन बालाश्रम में । १०१) , जैसलमेर ज्ञान भण्डार के जीर्णोद्धार में। १०१) ,, सिकन्दराबाद में गऊओं को घास निमित्त । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) १०१) , जोधपुर के भैरूवाग वाले मन्दिर में । १००) ,, किशनगढ़ मन्दिर के जीर्णोद्धार में । १००) ,, श्री चींचोड़ पाठशाला में । ७१) ,, दादाजी का जीवन छपवाने में । ५१) , सोजत के मन्दिर के जीर्णोद्धार में। ४००), अभी हाल ही में "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास" छपवाने में। नके अलावा भी पावापुरी और कुण्डलपुर में यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशालाएं बनवाई । “राइदेवसि प्रतिक्रमण" विधि सहित छपवा के मुफ्त में वितीर्ण कराया । और भी अनेक कामों में आपने अपनो चललक्ष्मी का सदुपयोग किया है। आप जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ के श्रद्धा सम्पन्न श्रावक हैं । पर दान करते समय आप कोई संकीर्ण वृत्ति नहीं रखते हैं जो आया और आवश्यकता देखी उसे यथा शक्ति देने की आप श्रीमान् की प्रवृत्ति आज भी विद्यमान है । ऐसे उदार हृदय वाले परोपकारियों को मैं धन्यवाद देना अपना प्रथम कर्तव्यः सममता हूँ। विनीत रूपचन्द मेहता पाली (मारवाड़) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला ___ फलोदी ( मारवाड़) पूज्यपाद मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब के सदुपदेश से वि० सं० १९७३ अक्षय तृतीया के दिन शुभ मुहुर्त में इस संस्था का जन्म हुआ उस समय मुनि श्री जी के उपदेश से फलोदी श्रीसंघ की ओर से उदारता पूर्वक प्रायः १५००) का चन्दा इकट्ठा हुआ था । यद्यपि यह रकम ऐसी संस्था के लिए बहुत स्वल्प ही थी तद्यपि शुभ भावों से किया हुआ यह कार्य एवं झान दान देने से निरन्तर बढ़ता ही गया और इस संस्था की नींव इतनी सुदृढ़ होगई कि आज तक इस संस्था से छोटी बड़ी १७१ पुस्तकें प्रकाशित होकर उनकी वीन लाख से भी अधिक प्रतिएं भारत के प्रत्येक प्रान्त में बड़े चाव से पढ़ी जारही हैं इसका खास कारण यही है कि इस संस्था द्वारा सभी विषयों की पुस्तकें जैसे:तात्विक, ऐतिहासिक, श्रोपदेशिक, विधिविधान, भक्तिरस, समाज सुधार और सामयिक चर्चा आदि विषयों की छपतो हैं । इस संस्था का लक्ष्य बिन्दु व्यापारिक नहीं पर ज्ञान प्रचार का है। इसी कारण इस संस्था से प्रकाशित पुस्तकें बहुत ही स्वल्प ( सस्ते ) मूल्य पर दी जाती हैं और अधिकांश तो भेंट ही दी गई हैं । एकबार साधु साध्वियों, ज्ञानभण्डार और लाइनरियों को ४५ पुस्तकें भेंट तथा अन्य सबके लिए केवल १) रु० मूल्य लेकर दीगई थी । यदि इस संस्था का २० वर्षों का हिसाब देखा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) आय तो मालुम होगा कि पुस्तकों की विकी की रकम नाम मात्र की ही आई है और जो रकम श्रई वह भी पुनः पुस्तकों के छपवाने में ही लगादी गई है । फिर भी आप विद्याप्रेमी और साहित्य प्रचारक सज्जनों की कृपा से यह संस्था अपना शिर ऊँचा रख समाज की सेवा करने में आगे कदम बढ़ाती ही जा रही है । कृपया ऐसी संस्था को अपनाइये कार्यकर्ताओं के उत्साह में वृद्धि पहुंचाइये तथा नयो पुस्तक के प्रसिद्ध होते ही कम से कम उसकी १११ प्रति मंगवा कर अवश्य पढ़िये इससे आपको अनेक लाभ हैं ( १ ) आपका द्रव्य ज्ञान खाता में लगेगा ( २ ) अपूर्वज्ञान पढ़ने को मिलेगा तथा ( ३ ) आपके द्रश्य से पुनः पुस्तकों के छपने से निरन्तर ज्ञान प्रचार होगा । अब जरा पुस्तक का महात्म्य भी सुन लीजिये । ज्ञान प्राप्ति का खास साधन पुस्तक ही है । स्कूलों में तो विद्यार्थी सिर्फ टाइमसर हो विद्या हाँसल कर सकते हैं । परन्तु पुस्तकों द्वारा तो विद्यार्थी हमेशा ज्ञान प्राप्ति कर सकते हैं चाहे हम व्यापारी हों, - अहलकार वकील हों, - डाक्टर कारीगर हों, ज्योतिष वैद्यक के इच्छुक हों च हे जवान हों, बालक हों, बुड्डा ह्रीं स्त्री हों, पुरुष हों, पुस्तकें हमारी गुरु हैं, जो हमें बिना मारे पीटे ज्ञान देती हैं, पुस्तकें न तो कटुबचन बोलती हैं और न क्रोध कर गाली प्रदान करती हैं । पुस्तकें महावारी तनख्वाह भी नहीं मांगती हैं । श्राप इनसे रातदिन घर में या बाहर जहाँ जी चाहे और जब इच्छा हो काम ले सकते हो । पुस्तकें कभी सोती भी नहीं हैं। ज्ञान देने से इन्कार करना तो ये जानती ही नहीं हैं। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) इनसे कुछ छो तो ये आपसे कोई बात छुगती भी नहीं है। बार बार पूछो तो उकताती या हुँझलाती भी नहीं पर प्रेम के साथ अपूर्व ज्ञान देती है अगर आप इनकी बात एक बार ही में नहीं समझ सकते तो ये आपकी हांसी किल्लिये भी नहीं उड़ाती है। अतएव ज्ञान भण्डार की पुस्तकें सब धनों में अमूल्य धन है। अगर आप सत्य सदाचार ज्ञान विज्ञान धर्म इतिहास कलाकौशल्य व्यापार हुन्नर और वास्तव में आनन्द के सच्चे जिज्ञासु होना चाहते हों तो पुस्तकों के प्रेमी बन प्रत्येक दिन-मास वर्ष की प्रामंद से कुछ द्रव्य बचा कर या फिजूल खर्च घटाकर बोध दायक पुस्तकों का संग्रह करें और बचित टाइम में प्रेम पूर्वक अध्ययन करें। सस्ती सुन्दर और उपयोगी पुस्तकें मिलने का का पता__ श्री रवप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला ___ फलोदी ( मारवाड़) निवेदक-नोरावरमल जैन, फलोदी (मारवाड़) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभार प्रदर्शन इस प्रन्थ को तैयार करने में और सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने में वों तो बहुत से सजनों ने हमारा हाथ बँटाया है किन्तु निन लिखित महानुभावों के नाम विशेष उल्लेखनीय है: १-सर्व प्रथम तो पूज्यपाद मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब, का हम पर असीम उपकार है क्योंकि जिन्होंने पूर्ण परिश्रम कर इस कार्य को अपने हाथ में ले इसका सम्पादन करने को अपनी अप्रतिम विद्वत्ता द्वारा नाना जैनशास्त्रों को निचोड़, अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों को संग्रहीत कर इसे सर्वाग सुन्दर बनाने में जी जान से प्रयत्न किया है। अपनी का ही प्रताप है कि आज हम इस पुस्तक को इस सुन्दर रूप में आप श्रीमानों के हाथ में सोंपने में समर्थ हुए हैं । हमारा खासकर्तव्य है कि हम सबसे पहिले प्रापश्री का महान आभार मानें । २-पूज्यपाद विद्वद्वर्य मुनि श्री दर्शनबिजयजी महाराजादि आप श्रीमानों ने इस पुस्तक के विषय में समय समय पर अनेक सूचनायें देने में अपना उदारता का परिचय दिया है और इसकी महत्व पूर्ण प्रस्तावना लिखने का अभिवचन भी दिया। ३- पूज्यपाद शान्तमूर्ति मुनिश्री जयन्ति विजयजी महाराज भाप श्री ने कुभारियां अंजारी और श्राबू के अवश्यक चित्र भिजवाने की कृपा की है। ४-श्रीमान् संठ सूरजमलजो साहब कोचर ( फलोदी) हाल मुकाम सिकन्दराबाद वालों ने भो हमें पूर्ण सहयोग दिया Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) है। क्योंकि आपने स्था० साधु अमोलखर्षिजी कृत ३२ सूत्रों के हिन्दी अनुवाद की एक पेटो हमको देखने के लिये भेजाई और द्रव्य सहायता भी दी है। ५-श्रीमान् रूपचन्दजी मूता (भन्साली) पाली (मारवाद) आपने भी इस कार्य में काफी सहायता दी है। इस किताब के मैटर को देखना और फूक संशोधन करने में आपने समय समय पर सहयोग दिया है ! ६-श्रीमान् जीतमलजी लूणिया अजमेर वालों ने इस किताब के लिए कई प्रकार की सहायता और दिलचस्पी से काम दिया अतएव आपका उपकार मानना भी हम भूल नहीं सकते हैं। -इनके अलावा और भी अनेक सज्जनों ने आवश्यक ब्लॉक आदि भेजने की कृपो की है, जिनमें निम्न महाशय विशेष धन्यवाद के पात्र है । जैसे:- मुनिश्री चरणविजयजी महाराज, शशि एण्ड कम्पनी बड़ोदा, मुनिश्री हेमेन्द्रसागरजी प्रान्तेज, शाह जयन्तिलाल छोटालाल, साराभाइ नबाव वडोदरा जैन सत्य प्रकाश कार्यलय, अहमदागद आदि सज्जनों ने उक्त (ब्जाक आदि की) सहायता दे समाज के द्रव्य की रक्षा की है। .. ८-श्रीमान् वदनमलजी वैद फलौदी वालों ने भी इस कार्य में सहायता दी है। - ९-अब अन्तिम उपकार हम उन सज्जनों का मानते हैं जिन्होंने कि इस प्रन्थ के लिखने के समय प्रमाणिक साहित्य भेज कर हमें उपकृत किया है। -प्रकाशक Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायकों की शुम नामावली। ५००) पाली ( मारवाड़ ) के श्रीसंघ की ओर से। ४००) श्रीमान् सूरजमलजी पूनमचन्दजी कोचर मेहवा फलोदी (सिकन्दराबाद) १५०) श्रीमान छोगमलजीकोचर की धर्मपत्नी लोहावट वालों की ओर से। १०१) श्रीमान् हजारीमलजी कंवरलालजी पारख लोहावट (मारवाड़) १०१) श्रीमान सुखमलजी समदड़िया नागोर मारवाड़ (मद्रास) १००) श्रीमान् अमोलखचन्दजी चतुरमेहता जोधपुर (उज्जैन) १००) श्रीमान् घेवरचंदजी लौकड़ फलोदी (मारवाड़) १००) श्रीमान् एक गुप्त दानेश्वरी की ओर से । ५५) श्रीमान् वस्तीमलजी कानमलजी वेद मेहता पीपलिया (बेंगलोर) ५१) श्रीमान फूलचन्दजी झाबक फलोदी (मारवाड़) ५१) श्रीमान दोलतरामजी सहसमलजी मुड़ारावाल (पाली) ५०) श्रीमान माणिकलालजी अमरचन्दजी कोचर फलोदी (मारवाड़) २६) श्रीमान् गजराजजी सिंघवी सोजत (मारवाड़) २५) श्री जैन कन्या पाठशाला सोजत (मारवाड़) २०) श्रीमान् लछमीलालजी कोचर फलोदी (मारवाड़) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) १५) श्रीमान् ज्ञानमलजी बेद मुहवा फलोदी ( मारवाड़) ११) श्रीमान् किस्तूरचंदजी राजमलजी वरदिया, फलोदी। १८५६) ___ उपयुक्त उदार सद्गृहस्थों को हम धन्यवाद देते हैं और अन्य सम्जनों से प्रार्थना करते हैं कि वे अपनी चज लक्ष्मी को इस प्रकार सत्कार्य में सदुपयोग कर अचल बनावें । शुभम् । -प्रकाशक Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के पहिले से ग्राहक बनें उन सबनों की शुभ नामावली १२५ श्रीमान् नवलमलजी गणेशमलजी मूथा जोधपुर। २५ , बदनमलजी जोगवरमलजी वैद फलोदी। , गजराजजी सिंघवी, सोजत (मारवाड़)। श्रीकुशलचंद्रजी जैन लायब्रेरी,बीकानेर (राजपूताना) रतिलालजी भीखा भाई बम्बई। कालूराम जी कांकरिया बड़ल। दुर्लभजो त्रिभुवन, मोरवी ( का०)। , जसवंतमलजी भंडारी, __ज्यावर ( रा०)। भूरामलजी गादिया ब्यावर (रा०)। हंसराजजी पेथाजी चुन्नीलालजी कुंगा बंबई । मोहनलालजी वैद फलादी ( मारवाड़)। नेमीचंदजो वैद छगनलालजी वैद माणकलालजो वैद लूणकरणजी वैद श्राशकरणजी वैद , रूपचंदजी ताराचंदजी अमरावती , दीपाजी सद्दाजी .. रुगनाथचंदजी कोचर Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦΦ श्रीमान् अमरचंदजी कोचर मेहता fit ( 1 218 ) നനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനനന നതനനനനനനനനനന തനനന നനനനനനനനനന मालिक फर्म श्रीमान् जोरावरमल भोलाराम दक्षिण हैदराबाद നനനനനനനനനനനനനനനനത്തിന Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाली no.- n पाली (४१) १ श्रीमान् जसवंतमलजी कोठारी १ , बखतावरमनजी संठिया , मानचन्दजी भंडारी जैतारण , सायवचन्दजी खीवराजजी खीवसरा पाली , धनराजजी चाँदमलजी खीवसरा अजमेर , मिश्रीलालजो मूलचंदजी सियाल , भीखमचन्दजी नागोरी पाली १, लखमीचन्दजी नागोर १ , जुगराजजी सुराण पिपलिया १. , अचलदासजी कालूरामजी पटवारी बालोतरा १ , पुनमचंदजी कस्तूरचंदजी मूथा बालोतरा १. " कशरामला केशरीमल जी पोकरणा पीसांगन (अजमेर) जैनश्वेताम्बर लायब्रेरी पीसांगन (अजमेर ) , जीतमल जी लोढ़ा की धर्मपत्नी श्रीमती प्रभावती बाई [अजमर ] सेठ हिम्मतमलजी , कुन्दनमलजी अनराजजी कोठारी ब्यावर १ , जतनमल जी सुजाणमलजी भंडारी, , हीराचन्दजी सचेती १ श्रीमोतीलाल जी भंडारी अज. , देवकरणजी महता १,, शिवचन्दजी धाड़ीवाल , ,, सोभागमलजी महता १ ,, पन्नालालजी मेहता , २ , महेशराजजी भंडारी १ ,, हीरालालजी बोहरा , १ , वर्द्धमानजो बांठिया १, अगरचन्दजो पारख किशन. १ , गोड़ीदास जी ढढ्ढा १,, सिरेमलजी सोनी - - - सिरोही mco - - - m - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के लिखने में जिन-जिन शास्त्रों को सहायता ली गई है उनकी संक्षिप्त सूची काँकागच्छीय विद्वानों द्वारा सशोधित स्था० साधु अमोलखऋषिजीकृत सूत्रों जैनागम हिन्दी अनुप १-श्रीप्राचारॉगसूत्र |१७-श्रीश्राचारांगसूत्र २-श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र १८-श्रीस्थानायाङ्गसूत्र ३-श्रीस्थानाङ्गसूत्र १९-श्रीसमवायांगसूत्र ४-श्रीसमवायङ्गजीसत्र २०-श्रीभगवतीजीसूत्र ५-श्रीभगवतीजीसत्र २१ - श्रीज्ञाताजीसूत्र ६-श्रीज्ञातजीसूत्र २२-श्रीउपासकदशांगसूत्र ७-श्रीउपासक दशांगसूत्र २३ - श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र ८-श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र २४-श्रीविपाकसूत्र ९-श्रीविपाकसूत्र २५ - श्रीउववाईसूत्र १०-श्रीउवबाईजीसूत्र २६-श्रीरायप्पणीजीसूत्र ११-श्रीरायप्पसेनोजीसूत्र २७-श्रीजीवाभिगमजीसूत्र १२-श्रीजीवाभिगमसूत्र २८-श्रीजम्बुद्वीपपन्नतिसूत्र १३-श्रीजम्बुद्वीपपन्नतिसूत्र २९-श्रीदशवैकालिकसूत्र १४-दशश्रीवैकालिकसूत्र ३०- श्रीनिशीथसूत्र १५-- श्रीनन्दीसूत्र ३१-श्रीश्रावश्यकसूत्र १६-श्रीश्रावश्यकसूत्र | ३२-श्रीनन्दीसूत्र Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३-श्रीउत्तराध्ययन सूत्र ३४-श्रीअनुयोगद्वारसूत्र ३५-श्रीनिशीथमत्र (हस्त लिखित) ३६- श्रीमहानिशीथसूत्र ( , ) ३७-श्रीव्यवहारसूत्र ( , ) ३८- दीपसागर पन्नतिसूत्र( , ) ३९-श्रीश्रोधनियुक्तिमत्र ( आगमोदय समितिका ) ४०-श्रीअंगचूनियामत्र (हस्त लिखित ) ४१-श्रीअभयदेवसरिकृत टीकाएँ । ४२-श्रीरत्नसंचय प्रकरण ४३-श्रीमदरायचन्द्र विचार निरीक्षण ४४-श्रीतत्त्वनिर्णय प्रसाद (विजयानन्दसरिकृत) ४५-प्रज्ञानतिमिर भास्कर ( ) ४६-प्राचीन जैन स्मारक (७० शीतलप्रसादजी) ४७–महावग्ग बौद्धप्रन्थ ) ४८-राजपूताना का प्राचीन इतिहास (पं० गौरीशंकरजी श्रोमा) ४९-भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास भाग १-२ (डॉ० ती० ले०) ५०-भारतीय इतिहास की रूप-रेखा ५१-मुसलमानों का इतिहास ५२-कथा-कोश ग्रन्थ ५६-जैन तत्वसार और मूर्तिपूजा ५४-महामेघबहान खारबेल का शिलालेख ५५-मथुरा का शिलालेख ( तत्वनिर्णय प्रासाद) ५३-सिद्धान्त चौपाई (पं० लावण्यसमयकृत) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) ५७-सिद्धान्तमार चौपाई ( उ० कमलसंयम कृत) ५८ असत्र निवारण बत्तीसी (मुनि वीका) ५९-दयाधर्म चौपाई (लौं० यति भानूचन्द्र) ६०-लौकाशाह का सिलोका (लौ यति केशवजी) ६१-लौकाशाह का जीवन वृत्तान्त ( यति कान्तिविजय ) ६२-समक्तिसार ( स्वामि जेठमलजी) . ६३- शास्त्रोद्धार मीमांसा ( स्था० मुनि अमोलखऋषिजी) ६४-जैनधर्म नो सं० इतिहास (मुनि मणिलालजी) ६५- ऐतिहासिक नोंध ( वा० मो० शाह ) ६६-धर्मप्राण लौकाशाह (मुनि सन्तबालजी) ६७-वीर वंशावलि (जै० सा० सं० त्रिमासिका) ६८-तपागच्छ पट्टावलि ( मुनि श्रीदर्शनविजयजी सं०) ६९-उपकेशगच्छ पट्टावलि (हस्तलिखित) ७०-आँचलगच्छ पट्टावलि (पं० हीरालाल हंसराज) ७१-लघुपोसालिया-पट्टावलि (मुनि श्रीदर्शनविजयजी द्वारा) ७२-कडाशाह की पट्टावलि ( जैन सा० सं० वि० मा०) ७३-पंजाब की पट्टावलि ( ऐतिहासिक नोंध ) ७४-- कोटावालों की पट्टावलि ( हस्त लिखित पत्र) ७५-नागरी-प्रचारणी पत्रिका, जैन साहित्य संशोधक त्रिमासिक, जैनसाहित्य सम्मेलन, माधुरी मासिक पत्रिका, जैन, जैनयुग, जैन-ज्योति, जैन सत्यप्रकाश, वोरसन्देश, सुघोषा, सत्य सन्देश इत्यादि पत्र पत्रिकाएँ । ७६-अभिप्राय-दि० पं० नाथूराम प्रेमी, पं० सुखलालजी, वसुदेव अग्रवाल, विद्वान राखलदास बनर्जी, महोपाध्याय ___ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) सतिशचन्द्र विद्याभूषण, पं० गौरीशंकरजी धोका, पं० अवनेन्द्र चन्द्र डा० प्राणनाथ, पं० हीरानन्द, पं० दरबारीलालजी । 1991 -सिद्धप्रतिमा मुक्तावलि ( मुनि ज्ञानसुन्दरजी ) ७८ - जैनधर्म का प्राचीन इतिहास ( ही ० हं० जामनगर ) ७९ - इतिहास की सामग्री ( संग्रह कोश से ) ८० - नाभानरेश का फैसला ( मुद्रित पुस्तकों से ) इनके अलावा भी छोटे बड़े कई प्रन्थों की सहायता से यह अन्थ सर्वाङ्ग सुन्दर बनाया गया है तदार्थ हम इन सब का आभार मानते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन मनुष्य गति ही क्या संसार की समस्त अवस्थाओं में जीव का कार्य, रूपी मूर्त्तिक पदार्थ को स्वीकार किये बिना चल ही नहीं सकताः – देवगति में देखिये जहाँ कहीं वर्णन मिलेगा उनकी सुखोपभोग सामग्री एवं विक्रिया आदि का मिलेगा। इसी तरह नरकगति में दुःखप्रद सामग्रियों के चित्र सामने प्रतीत होंगे। मनुष्य और तिर्यच्च गति के विषय में कहने की आवश्यकता नहीं । मुमुक्षु जीवों का अंतिम ध्येय जन्म-मरण के महान् दुःखों का अंत कर मोक्ष प्राप्त करने का हो होता है । इसमें कोई संदेह नहीं कि इसी पवित्र उद्देश्य को पूर्ति के लिये अन्यान्य साधनों में विश्ववन्ध, जगत्पूज्य, महान् उनकारी, वीतराग देव की निर्वि कार, शान्तमुद्रा, ध्यानावस्थित मूर्ति एक मुख्य साधन है । और इसी के निमित्त से साधारण परिस्थिति में स्थित व्यक्तियों से लेकर उच्च अध्यात्म कोटि में रमण करने वाले भव्यात्माओं ने अपनी आत्मा का कल्याण किया । यही कारण है कि एक समय अखिल संसार मूर्तिपूजक था और आज भी किसी प्रकार से क्यों न हो पर मूर्ति का सत्कार संसार भर में हो ही रहा है । अभी ही क्या आगे भी जब तक सृष्टि का अस्तित्व है तब तक बराबर मूर्ति की सत्ता स्थापित रहेगी – सच है ध्रुव-सत्ता का न तो कभी उत्पाद होता है और न कभी नाश, उसका अस्तित्व सदैव बना ही रहता है । - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों ने ठीक ही कहा है कि जितना ज्ञानी पुरुष उपकार नहीं कर सकते उससे कहीं अधिक अज्ञानी पुरुष अपकार कर सकते हैं क्योंकि संसार में जितनी समीचीन युक्तियां हैं उनसे अनंतगुनी कुयुक्तियां हैं । जब ज्ञानी युक्तियों को काम में लेते हैं तब अज्ञानी कुयुक्तियों का प्रयोग कर जीवों को ठगने का प्रयत्न करते हैं, यही कारण है कि संसार में सम्यग्दृष्टि जीवों से अनंतगुने मिथ्या दृष्टि हैं । फिर भी यह श्राश्चर्य की बात है कि ज्ञानियों का ज्ञान सूर्य अज्ञानियों के अन्धकार को नाश कर अपना जाज्वल्यमान किरणों के प्रकारा को भव्य प्राणियों के हृदय तक पहुँचा ही देता है। उस ज्ञान रूपी प्रकाश की एक किरण जो कि "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास" शीर्षक द्वारा शोभायमान रूप को लेकर मेरे सामने उपस्थित है-इस प्रन्थ रल का मैं अधिक प्रशंसा करूँयह मेरी शक्ति से बाहर है किन्तु फिर भी इस आदर्श कार्य को प्रकट करने वाली विभूति के विषय में कुछ परिचय देना अत्यन्त आवश्यक है। ___ इस ग्रन्थराज के लेखक मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज हैं। आपने इस विषय का कैसा गंभीर मथन एवं अभ्यास किया है यह तो आपको इस प्रन्थ के अध्ययन से ही मालूम होगा। इस समय में स्वाध्याय के बराबर अन्य काई तप रूप उत्कृष्ट साधन नहीं, ऐसा सोचकर श्रामने अब तक अतुल परिश्रम करके १७१ पुस्तकें प्रकाशित करवाई हैं जिसमें अधिकांश पुस्तकें आपकी हो बनाई हुई हैं, जैसे आपने निरंतर अभ्यास करके जैन शास्त्रों में दक्षता प्राप्त की है वैसे अपने इतिहास विषय को भी परमोपयागी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) जान उसकी प्रमाणवा के अनुकूल अपनी इस पवित्र कृति को सुसज्जित करने का भरसक प्रयत्न किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मूर्ति पूजा ही एक असाधारण विषय था और फिर उसकी प्रत्येक घटना को इतिहास द्वारा प्रमाणित करके आपने सोना और सुगंध की कहावत चरितार्थ की है । लेखक महोदय ने पुस्तक के विषयानुसार इसे पाँच भागों में विभक्त कर दिया है-और भिन्न भिन्न विषय को समझने के लिये तत्सबंधी प्रकग्ण का निर्वाचन पढ़ने वालों के लिये सुविधाकारक होता है यह विज्ञ पाठकों से छिपा नहीं है । साथ ही पुस्तक ऐसे रोचक ढंग पर लिखी गई है कि, हाथ में लेने के बाद बिनो सम्पूर्ण पढ़े उसे रखने की इच्छा ही नहीं होती है। उदाहरण स्वरूपः प्रकरण पहिला-मूर्ति की प्राचीनता, विश्व के साथ मूर्ति का घनिष्ट संबंध, निराकार ईश्वर की आसना के लिये नकी मूर्ति की परमावश्यकता, साथ ही साथ यह भी व्यक्त कर दिया है कि संसार भर में मूर्ति का विरोध कब, क्यों और किस व्यक्ति द्वारा हुआ इतना ही नहीं बल्कि यह भी कि कुछ समय बाद उनके ही अनुयायियों ने किस प्रकार से मूर्ति स्वीकार करली । इन सब बातों के स्पष्टीकरण करने में लेखक महोदय को कितना परिश्रम उठाना पड़ा होगा- यह आप इसके विस्तृत विवे. चन को पढ़ कर ही निर्णय कर सकेंगे। प्रकरण दूसरा-जैनागमों की वास्तविक प्रमामिकता, प्राचीनता और विशालता बतलाते हुये उनकी संख्या के लिए पद, . लोक के अंक कोष्टक में देकर यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया है कि Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) जिस समय आगमों की रचना हुई वे आज लाख नहीं बल्कि करोड़वें हिस्से में भी नहीं रहे हैं फिर भी कई अनभिज्ञ लोगों ने वो अपने हृदय को इतना संकीर्ण बना लिया है कि उस रहे हुए साहित्य समुद्र को छोड़ केवल ३२ सूत्र और उसमें भी मूल पाठ को ही मानने का आग्रह करते हैं। यही कारण है कि वे लोग, दार्शनिक, तात्त्विक और ऐतिहासिक ज्ञान से हाथ धो बैठे हैं। इसी कारण उनमें ज्ञान की इतनी मात्रा बढ़ गई है कि अपनी मानी हुई हठप्राहिता के अतिरिक्त जैन धर्म के वास्तविक मर्म को वे अभी समझे ही नहीं हैं-इत्यादि विषय का दिग्दर्शन कराने वाले इस प्रकरण को लिखकर इसमें कोई सन्देह नहीं है कि लेखक महोदय ने जैन-साहित्य की अनुपम सेवा की है। प्रकरण तीसरा और चौथा-जैन धर्म में अनादि काल ये शाश्वत एवं अशाश्वत मूत्तियों के लिए बहुत ही उपासन दिया है और उन मूर्तियों के द्वारावीतराग तीर्थकर देवों की सेवा भक्ति एवं उपासना कर अपनी आत्मा का विकास करना भी बतलाया है इस विषय का विशेष उल्लेख आपने प्रस्तुत प्रन्थराज के ३ व ४ प्रकरण में किया है तथा साथ ही इस बात को परिपुष्ट करने के लिए लेखक श्री ने बहुत से आगमों के मूल पाठ, एवं उनके स्पष्टीकरण के निमित्त श्रीमान् लौकाशाह के अनुयायी लौंकागच्छीय विद्वानों द्वारा संशोधित गुर्जर भाषानुवाद, तथा स्थानकवासी मुनि अमोलखऋषिजीकृत हिन्दी अनुवाद को उस मूल पाठ के नीचे दोनों तरफ अर्थात् आमने-सामने रखकर तुलनात्मक रष्टि से यह बतलाने का प्रयत्न किया है कि स्थानकवासी श्राप अपने को लौकाशाह की संवान होना बतलाते हैं पर वास्तव में Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ५० लौकाशाह का सिद्धान्त उनको मान्य नहीं है। और वे लौकागच्छीय विद्वानों के अर्थ का किस प्रकार अनर्थ कर अपने मिथ्या स्वार्थ को सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं, इत्यादि। - प्रकरण पाँचवाँ-समय का प्रभाव है कि कुछ लोग आगम की ओर दृष्टि न कर केवल इतिहास प्रमाण को ही मान्य करते हैं ! हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष होता है कि समर्थ लेखक विद्वान् महोदय ने इसी ग्रन्थ के पांचवे प्रकरण में ऐतिहासिक अकाट्य प्रमाणों द्वारा हमारे शास्त्रों के विधानों को इतने मौलिक एवं प्रमाणित रूप में सिद्ध कर दिया है कि वे तीर्थङ्कर-प्रणीत आगम अक्षर २ सत्य एवं वास्तविक कथन के प्रदर्शित करने वाले हैं। हमें यह लिखते हुये गौरव होता है कि मुनिश्री ने पूर्ण परिश्रम कर ऐतिहासिक प्रमाणों का एक जबर्दस्त संग्रह कोश तैयार करके अपना नाम ऐतिहासकारों के समक्ष स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य कर दिया है इतना ही क्यों ? पूर्व और पश्चिम सभ्यता के उद्योग से जो भूगर्भ से हजारों वर्ष की प्राचीन मूर्तियां, सिक्के, ताम्रपत्र, आयगपटादि अनेक ऐतिहासिक साधन प्राप्त कर जैन धर्म पर उज्ज्वल प्रकाश डाला है उनके प्रमाण मात्र ही नहीं किन्तु आपश्री ने तो उनके चित्र भी साथ ही में दे दिये हैं कि जिनको पढ़ लेने पर जैन धर्मानुयायियों की मूर्ति पूजा कदीमी मानने में किसी प्रकार का सन्देह शेष नहीं रह सकता है। आगे चल कर इस प्रकरण के अन्त में एक परिशिष्ट कि जिसमें कलिंग अर्थात् महामेघवहान चक्रवर्ती महाराजा खारवेल का शिलालेख तथा मथुरा से मिली हुई कई प्राचीन मूर्तियों के शिलालेख मुद्रित करवा कर इस पुस्तक की Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (..५१ ) मौलिकता में असाधारण वृद्धि की है । फलतः यह प्रन्थ सभी सम्प्रदायों के लिये अनुपम साहित्य निश्चय सिद्ध होता है और मुझे पूर्ण श्राशा है कि सभी धर्मानुरागी सम्प्रदाएं इसे पढ़ कर लाभ उठायेंगी। : मूर्तिपूजा के विषय में जो भी कुयुक्तियाँ देकर भोली आत्माओं का पतन करने का प्रयत्न किया जाता है उनके हित को ध्यान में रखते हुये लेखक महोदय ने इसी प्रन्थ से सम्बन्ध रखने वाली “ मूर्ति पूजा विषयक प्रश्नोतर " और जोड़ने की कृपा की है जिससे इस विषय का खूब अच्छा प्रतिपादन हो गया है। खास कर प्रश्न और उत्तर के तौर पर लिखने से अबोध जीवों को इस कृति द्वारा बहुत ही लाभ होने की सम्भावना है। क्यों कि मूर्ति की निन्दा करने वाले व्यक्ति इस विषय में जितनी भी कुयुक्तियां पेश कर सकते हैं उन सबका मुँह तोड़ उत्तर देने वाले इस पुस्तक को पढ़ कर प्रत्येक सहृदय महानुभाव का हृदय गद्गद हुये बिना नहीं रह सकेगा, साथ ही स्था० पूउय० घासी लालजी द्वारा प्रकाशित "उगसगदशांगसूत्र पर भी अच्छा प्रकाश डाल कर इस ग्रन्थराज के महत्त्व को और अधिक प्रमोवान्वित करने का प्रयास किया है। : एक बात और विशेष विचार करने योग्य यह है कि वर्तमान समय में मूर्तिपूजा निषेध के साथ मुँहपत्ती में डोगडाल दिन भर मुँह पर बाँधने का भी जो आग्रह किया जाता है और उसी बात की पुष्टि के लिये मूर्ति नहीं मानने वाले स्थानकमागियों की तरफ से "तीर्थङ्कर सिर्फ देव दुष्य के ही धारक थे बाद में वस्त्र रहित थे, उन महावीर के मुंह पर डोरे वाली मुँहपत्ती बंधा देने Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) के कल्पित चित्र बनवा कर पुस्तकों में लगा दिये गये है" उसके पूर्ण प्रतिकार एवं खण्डन के लिये मुनि श्री ने "क्या जैन तीर्थडर डोरा डाल मुँहपत्ती मुँह पर बांधते थे ?” शीर्षक पुस्तक लिख कर इसी के साथ सङ्कलित करने का कष्ट किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मिथ्या प्रवृत्ति को चलाने वाले महानुभावों के हृदय इसे पढ़ कर विचलित हो जायेंगे किन्तु मैं समझता हूँ. कि यदि वे निष्पक्ष दृष्टि से इस विषय को श्राद्योपान्त पढ़ने की स्थिरता रखेंगे तो उनका वह भ्रमजाल दूर हो जायगा । मुँह पर डोरा डाल मुँहपत्ती बांधने की प्राचीन प्रथा अठारहवीं शताब्दी के पूर्व कहीं नहीं उपलब्ध होती है । क्योंकि इस शताब्दी के पूर्व के किसी भी आचार्य ने इसका कभी अवलम्बन नहीं लिया था । इस पुस्तक में इसी बात को सिद्ध करने के लिये ऐसे अनेक ऐतिहासिक प्रमाण दिये है कि जिनके सामने सबको नत मस्तक होना पड़ता है, साथ ही इसके, वीर की प्रथम शताब्दी से लेकर १७ वीं शताब्दी तक के कई चित्र देकर इस कृति को और अधिक गौरवान्वित सिद्ध करने का परिश्रम उठाया है । इन सबको पढ़ कर आपके यह बात गले बैठ जायगी कि जैन श्रमण सदैव मुँहपत्ती अपने हाथ में रखते थे, इसी बात को हर तरह से प्रमाणित करने के लिए लेखक श्री ने भगवान् महावीर से लेकर बाईस शताब्दी तक के आचार्यों का परिचय दे दिया है । मुँहपत्ती बांधने की प्रथा अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में खामी लवजी ने चलाई उसी की पुष्टि के लिए आधुनिक समय में स्थानक मार्गियों ने भगवान महावीर के मुँह पर ढोरेवाली Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुँहपत्ती बंधाने के कल्पित चित्र बनाये हैं उनके दो चित्र ज्यों के त्यों यहाँ प्रकाशित किये गए हैं, जैन सूत्रों में किसी भी साधु या भावकों को मुंह पर डोरे से मुंहपत्ती बांधने का विधान नहीं मिलता है, जो विधान मिलता है वह सिर्फ नाई की हजामत बनाते समय का मिलता है, उस नाई की प्रथा आज भी राजे रजवाड़ों में प्रचलित है, ऐसा ही एक चित्र इसमें दर्ज है जिसका अनुकरण करने वाले स्थानकमार्गी भाई उससे कुछ बोध पाठ ले सकते हैं। ____ आगे चल कर मुनि श्री ने (१) लौकाशाश के अनुयायी साधु (२) और उनके बाद वेश परिवर्तन करने वाले देशी साधु ( ३) परदेशी साधु (४) तेरहपन्थी साधु-उन चारों के चित्र देकर यह बतलाने का प्रयत्न किया है कि यह जो मुँह पर होरेवाली मुँहपत्ती महावीर के बांधी गई है वे महावीर किस समुदाय के हैं ? यदि छोटी मुँहपत्ती के कारण ये महावीर देशी साधुओं के हैं तो परदेशी और तेरहपन्थियों को अपनी आम्नाय के अनुसार दूसरे महावीर की कल्पना करनी चाहिये । साथ ही आपने यह भी व्यक्त किया है कि श्वेताम्बर, दिगम्बर भौर लौकागच्छ के भगवान महावीर ने न तो मुंहपत्ती ली थी, न बाँधी थी, न बाँधने का उपदेश दिया था, फिर भी स्थानकमार्गी वीर्यवरों को भी उपयोग शून्य मान कर मुँहपत्ती बंधा देते हैं, यह दूसरी बात है। आगे चल कर लेखक महोदय ने नामा नरेश को अध्यक्षता में जो एक जैन मुनियों और स्थानकमागियों का शास्त्रार्थ हुआ था, उसके मध्यस्थ पांच पण्डित थे, जो कुछ भी उनको सत्य मालूम हुआ और उन्होंने फैसला दिया है वह Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी ज्या का त्या यहा नाभानरश को आज्ञा स अक्षरश: 'नकल देकर इस विषय को सर्वाङ्ग परिपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है। इससे भी वास्तविक सत्यता पर अच्छा प्रकाश पड़ेगा इसमें कोई सन्देह नहीं है। - अन्त में मुझे यह कह देना समुचित होगा कि मुनिवर्य ने इस अनुपम प्रन्थराज का निर्माण कर जैन समाज उसमें भी स्थानकमार्गी समाज पर महान् उपकार किया है । इस प्रन्य को आद्योपांत पढ़ कर पाठक महाशय अवश्य लाभ उठावें । पुस्तक के पढ़ने से यह भी ज्ञात होता है कि प्रूफ संशोधन में कहीं कहीं अशुद्धियां रह गई हैं उन्हें दूसरी आवृत्ति में सुधारले का यथासाध्य प्रयत्न किया जाय। इत्यलम् वि० सं० १९९३ कार्तिक शुक्ला " । -दर्शनविजय अजमेर Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका Boro नम्बर विषय १-मूर्तिपूजा अनादि है। २-षद्रव्य अनादि है। ३-मूर्तिका अर्थ व मूर्ति पूजाका सिद्धान्तादि । ४-ईश्वर उपासना के लिये जड़ मूर्ति की क्या जरूरत है ? ३ ५-ईश्वर के निराकार गुणोंकी कल्पना कर उपासना० १ ४ ६-वि० सातवी शताब्दी पूर्व सब संसार मूर्तिपूजक ही था। ५ ७-पैगम्बर महम्मुद द्वारा मूर्तिका विरोध । ८-मुसलमानों के भारत पर आक्रमण और आर्यों । ७ ९-मुसलमानों का भारत पर अधिकार और मूर्ति०। ७ १०-अनार्य संस्कृति का प्रभाव आर्यों पर क्यों पड़ा ? ११-लौकाशाह पर इस्लाम सं० का बुरा प्रभाव । १२-लौकाशाह के विषय प्राचीन प्रमाण । १३-प्रकरण का सारांश । १४-जैनागम की भाषा और श्लोक संख्या। १५-अंग सूत्रों के अतिरक्त उपांगादि श्रागम । १६-अंगसूत्रों के अलावा अन्य विषयों के प्रन्थ । १५-जैन साहित्य का अनादर क्यों हुआ । १८-सूत्रोंपर टीका वगैरह विवरण १९-लोकाशाह की अज्ञता । २०-लोकाशाह के बाद पुनः मन्दिर मूर्तिका स्वीकार । ३० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) नम्बर विषय २१-ढूंढिया साधूमार्गी स्थानकवासी मतोत्पति । २२-बत्तीस सूत्रों के हिन्दी अनुवाद की योग्यता । २३-बत्तीस सूत्रों की मान्यता का खास कारण । २४-स्थानकवासियों द्वारा नियुक्ति टीका चूर्णी भाष्या० । ३४ २५-शाश्वति जिन प्रतिमाएँ। २६-तीन प्रकार के जिन एवं अरिहन्त । २५-देव छंदमें १०८ जिनप्रतिमाएँ। २८-शाश्वति जिनप्रतिमाओं के चार नाम । २९-जिनप्रतिभाओं का शरीर का वर्णन । ३०-शाश्वति प्रतिभाएँ को कामदेव की प्र. कहने वालों में ५० ३१-जिनदेव की दाडों। ३२-जिन दाडों ले जाने का कारण । ३३-सुरियामदेव के जीताचार की जिनामा। ३४-सुरियाम देव की की हुई १७ भेदी पूजा। ३५-बत्तीस वस्तुओं की पूजा का उत्तर में । ३६-सुरियाम देव के १२ प्रश्नों का उत्तर । ३७-सुरियाभ देव की जन्म समय की भावना में प्रभुपूजा। ६० २८-चारित्र पालना, जिनवन्दन, प्रभु पूजा के सरश फल । ६४ ३९-प्रकरण का उपसंहार । ४०-जैनागमों में प्रशाश्वति मूर्तियों की पूजा। ४१-उववाह सूत्रमें चम्पा नगरी के मन्दिर४२- , ,, पुरुषों से जिनपूजा । ४३-अमरेन्द्र और जिन प्रतिमा का शरणा। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) नम्बर विषय ४४-पांचपद और चार शरणा में मूर्तिपूजा । ४५-उपासकदशांग सूत्र की नोंध में प्रा० चैत्य । । ४६-प्रानंदश्रावक की प्रतिज्ञा (जिनप्रतिमा) ४७-अंबडश्रावक का अभिप्रह (जिनप्रतिमा) ४८-तुजिया नगरी के श्रावकों द्वारा जिनप्रतिमा की पूजा ८६ ४९-भावक अन्य देव को कदापि नहीं पूजे । ५०--विद्याचारण मुनियों की तीर्थयात्रा। ५१-जंघाचारण मुनियों की तीर्थ यात्रा। ५२-नन्दनवन के जिनमन्दिर । ५३-मेरू की चूलिका पर का जिनमन्दिर । ५५-नन्दीश्वरद्वीप के ५२ जिनमन्दिर । ५६-नन्दीश्वरद्वीपकी पीठिका पर के जिनप्रतिमाओं के नाम । ९६ ५८-रुचक कुंडलोदि के जिनमन्दिर । ६०-चारपति सूत्रों में दीपसागर पमति । ६१-चारण मुनियों के यात्रार्थ गमन की गति । ६२-चैत्य शब्द का वास्तविक अर्थ। ६३-द्रौपदी महासती की की हुई जिनपूजा । ६४-स्थानकवासियों के मूल पाठ में मतभेद । ६५-स्था० साधु हर्षचन्दजी के अभिप्राय । ६६-स्थापनाचार्य की परमावश्यकता । ६७-बत्तीस सूत्रों में जिनप्रतिमा के पाठ । ६७---उपसंहार। ६८-ऐतिहासिक क्षेत्र में मूर्तिपूजा का स्थान । १०८ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) १२० नम्बर विषय पृष्ठः ६९-मूर्तिपूजाका इतिहास । ११८ ७०-इतिहास के साधन । १२० ७१---स्वामी दयानन्द सरस्वती के अभिप्राय । ७२- नमिनाथ के बाद ०२२२ वर्ष की प्राचीन मूर्ति का लेख १२० ७३-राजाओं के शिक्के पर चैत्य का चिन्ह । १२१ ७४-मोहान जा डरा से प्राप्त प्राचीन मूर्ति (१०००० वर्ष) १२३ ७५-हरप्पा भू नगर से मिली मूर्ति (५००० वर्ष) १२३ ७६--कलिंगजिन, खारबेल का शिला लेख में। १२३ ७७-हेमवंत पट्टावलि और राजा श्रेणिक का मन्दिर। १२७ ७८--स्वामि मणिलाल जी ने स्वीकार की दूसरीश० मू. १२९ ७९---दशपुर नगर का इतिहास और प्रा० मूर्ति । १३० ८०-उदाइराजा के घर देरासर में महावीर मूर्ति । १३२ ८१-राजा चेटक और मुनिसुव्रत का स्तूप। १३३ ८२--श्राकोला जीलके भूगर्भ से मिलोमूर्तियाँ (२५०० वर्ष) १३३ ८३--बुद्ध के समय सुपार्श्वनाथ का मन्दिर । १३४ ८४--पार्श्वनाथ के समयका स्तूप भूमि से मिला। १३५ ८५--मुंडस्थल का मंदिर (महावीर दीक्षा का ७ वां वर्ष) १३५ ८६-भद्रेश्वर का मन्दिर ( वीरात् २३ वर्ष का) , ८७-~-उपकेशपुर का महावीर मन्दिर (वीरात् ७० वर्ष) १३५ ८८-महावीर के बाद ८२ वर्ष की मूर्ति । १३७ ८९---महावीर के पश्चात् ८४ वर्ष का शिला लेख । १३८ ९०-डॉ० प्राणानाथ का मत(२५०० वर्ष पूर्व मूर्तिपूजा) १३९ ९१--पटना से मिलिहुई प्राचीन मूर्ति (कूणिक का समय) १३९ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) नम्बर विषय ९२ - जैतलसर की प्राचीन मूर्ति । ९३ -- श्रीमान् हीरानन्द शास्त्रीजी के अभिप्राय । पृष्ठ १ : ९. १४० १४० १४० - १४१ १४१ १४१ १४३ १४३ १४२. १४५ १४५ १४६ १०५ --- पुरातत्व विज्ञ श्रीराखलदास बनर्जी क्या कहते हैं ? १४९ १०६--बड़े बड़े राजा महाराजाओं के दुर्गों में जैन मन्दिर । १५१ १०७ -- भारत के रमणीय पहाड़ों के शिखरों पर जै० मं० । १५३. १०८ - अन्य धर्मियों ने स्वीकार की हुई जैनमूर्तियां । १०९ -- मन्दिर निर्माताओं की भावना । ११० -- जैनमूर्तियों का सार्वभौम साम्राज्य । ९४ - - महाराष्ट्रीय प्रदेश में प्राचीन मूर्तियाँ । ९५ -- बेनाकटक से मिली प्रा० मू० (२२०० वर्ष की) ९६ -- श्रावत्थी नगरी को संभवनाथ का प्रा० मन्दिर । ९७ -- भूमि से मिलिहुई मूर्तिपर (१८४ का लेख ) ९८ - - महावीर पूर्व पांचवी छठी शताब्दी की मूर्तिएँ । ९९ -- विशाला नगरी के आसपास के खोदकाम | १०० - - मथुरा के कंकालि हील से मिली अनेक मूर्तियां । १०१ -- पुरातत्वज्ञ श्रीमान् सर विन्सेन्ट स्मिथ का मत । १०२ -- वसुदेव शरण अ० ऐ० ऐल० के अभिप्राय । १०३ -- अहिछता नगरी का प्राचीन मन्दिर । १०४ -- डॉ० हरमन जेकोबी के शब्द । १५७ १११ -- अष्ट्रीया अमेरिका मंगोलि में जैन स्मारक । ११२ - यूरोप के प्रत्येक प्रान्त में मूर्तिपूजा का विवरण । १५८ ११३ - मूर्तियों की प्राचीनता । ११४ - मूर्तिपूजकों की संख्या । १६३. १६५ १५५ १५६ १५६ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) नम्बर विषय ११५-मुसलमान लोग मूर्तिपूजक हैं। ११६-५० दरबारीलालजी का मत । ११५-क्रिश्चीयन मूर्तिपूजा किसतरह करते हैं। १६८ ११८. 'यूरोप के महान क्रान्तिकारक यू० मत । ११९...अंग्रेज लोगोंने अपने प्रन्थों में क्या लिखा है। ११ १२०...यहूदियों ने मन्दिरों के लिये क्या कहा है। १३ १२१...पारसी लोग किस प्रकार पूजा करते हैं। १२२. स्थानकवासी मूर्ति पूजाको क्यों स्वीकार करते हैं। १७४ १२३. "सिक्ख एवं आर्यसमाजी भी मूर्तिपूजक ही हैं। १७६ १२४. 'मूर्तिपूजा के विषय प्रश्नों के उत्तर । १२५. 'कलिंगपति महाराजा खारवेल का शिला लेख। १८२ १२६...मथुरा के खोदकाम से मिल मूर्तियों पर के शि०। १८० १२७. "मूर्तियों की आशानता का जबर्दस्त दंड । १९० १२८.."रा० बा०५० गौरीशंकरजी ओझा के अभिप्राय । १९१ - - Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा विषयक प्रश्नोत्तर स्था० के प्रश्न १- क्या आप मूर्ति पूजक हैं ? "9 "" २ - तो फिर आपकी कपाल में तिलक क्यों है ? ३-- आप मूर्ति की पूजा तो करते हैं ? ४- तो फिर आप किस चीज की पूजा करते हो ? ५- मूर्ति के निमित्त कारण से तीर्थङ्करों की पूजा ६ - सूत्रों के निमित्त से तीर्थङ्करों की वाणी की पूजा ७ कई लोग आपको जड़ उपासक क्यों कहते हैं ? ८ - मूर्ति की क्या जरूरत है ? 19 37 99 19 ९- हम लोग मूर्तिपूजा बिलकुल नहीं करते हैं ? १० - हम लोगों ने कब मन्दिर में जाकर मूर्तिपूजा की है,, २०२ ११ - आप केवल मुँह से ही कहते हो कि आप १,: १२- हमारे गुरुजी में तो ज्ञानादि गुण है ? १३- हमारे गुरूजी का शरीर जड़ है तो क्या हुआ ?" १४ - हमारे गुरूजी तो रजोहरणादि रखते हैं ? १५ - संयम रूपी नहीं पर अरूपी है ? १६ - रूपी संयम को हम देखतो नही सकते ? १७- हमको मालूम पड़े कि इनमें संयम है उनको १८ - यह तो ज्ञानी ही जान सकते हैं ? १९ - हमारे गुरूजी तो बोलते चालते हैं क्या० "जिनका उत्तर उत्तर 99 19 99 " 39 19 19 " "} १९८ 3 "2 "" 95 १९९ १९९ २०१ २०१ 79 २०३ 3 71 "" २०४ " 19 11 २०५ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर " " २०-हमारे गुरूजी तो उपदेश देते हैं ? २१- सूत्र कोई मूर्ति थोड़ा ही है ? २२- क्या आप सूत्रों को भी मूर्ति मानते हो ? " २३- आकृति तो है ? " " २४-सूत्रों के पन्ने को तो आप मूर्ति मानते हो पर०, २५-वे कैसे मूर्ति पूजक हैं ? २६-यदि हम मूर्ति को कारण भी मानलें तो ? ,, २७-हाँ उपकार तो मानना ही चाहिए ? २८-हाँ पूज भाव तो आता ही है ? २९-श्राप संसार भर को मूर्तिपूजक बतलाते हो ?, २०८ ३०-मुशलमान लोग कैसे मूर्तिपूजक हैं ? , ३१-क्रिश्चियन लोग तो मूर्तिपूजक नहीं है ? , ३२-पारसी लोग तो मूर्ति का नाम ही नहीं लेते हैं , ३३ -- शिक्ख और कबीर पन्थी तो मूर्ति नहीं मा० , ३४-ौंका-स्थानकवासी-तेरहपन्थो मू० न० मा० ,, ३५- मूर्ति मानने वालों की संख्या कितनी है ? , ३६-क्या जैनसूत्रों में मूर्तिपूजा का विधान है ? , ३७-सूत्रों को आप मूर्ति कैसे कहते हो ? , ३८-मूर्ति को तो आप वन्दन पूजन करते हो ? , , ३९- हम लोग तो सत्रों को वन्दन पूजन नहीं करते हैं ? , ४०-महावीर तो एक ही तीर्थङ्कर हुए हैं आप० ? ,, ४१- कोई तीर्थङ्कर से तीर्थङ्कर नहीं मिलते हैं पर०, ४२-सूत्रों में तो तीन चौबीसी के नाम कहा है ? , ४३-सूत्रों के पढ़ने से ज्ञान होता है ? Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४४-आप जिन प्रतिमा को जिन सारखी कहते हो उत्तर २१८ ४५ - मूर्ति जिन सारखी है तो उसमें अतिशय कितने हैं ? ,, ४६ - मूर्ति पर पशु विंटे क्यों कर देते है ? , २१९ ४७-प्रतिमापूजा से ही मोक्ष होती है तो तप०१ , २२० ४८--मूर्ति पर अलंकार क्यों ? , २२१ ४९-मन्दिरों में चोरियाँ क्यों होती है ? ५० -पाछा क्यों आये मुक्ति जाय के जि० प्र. ? ५१- मूर्ति पर कच्चा पानी क्यों डाला जाता है ? , ५२--मुक्ति नहीं मिलसी प्रतिमा पूजियों ? , ५३-प्रतिमा की पूजा कर कोई मुक्ति गया है ? ,, ५४-मोक्षाभिलाषी को मूर्ति पूजा करनी चाहिये ? ,, ५५-देवता मूर्ति पूजता है इसका क्या प्रमाण है ? , ५६-परचो नहीं पुरेपार्श्वनाथजो सब झूठो ? , ५७-सत्रों में चार निक्षेपें बतलाये हैं ? , २२६ ५८-सात नय में मूर्तिपूजा किस नय में है ? ५९- आप ही बतलाइये ? ६०-मूर्ति जड़ है उसे पूजने से क्या लाभ है ? ,, ६१-पाँच महाव्रत की २५ भावनायें मूर्तिपूजा ? ,, ६२-गृहस्थावास में तीर्थङ्करों को किसीने वन्दन० १,, ६३-मूर्ति में गुणस्थान कितने हैं ? " २३० ६४-श्रावक के बारह व्रतों में मूर्ति पूजा ? , ६५-यह तो हमारा संसार खाता है ? ६६ -- पत्थर को गया को पूजा करने से क्या० ? , ६७-पत्थर का सिंह की मूर्ति० मार सकती है ? , Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) 11 19 99 99 "" 19 ६८ -- एक विधवा अपने पति का चित्र देखे तो ? उत्तर ६९ - मूर्ति के बनाने वालों को क्यों नहीं पूजते हो ?,, ७० - सिलावट के वहाँ मूर्ति है वह वन्दनीय क्यों ७१ -- वैरागी को तो सामायिक का पाठ सुनाया० ७२ - सिलावट के वहाँ रही मूर्ति की अशातना नहीं ७३ - मूर्तिएकेन्द्री है तो पांचेन्द्रिय पूजा कैसे करे ? ७४ - मन्दिर तो बारहवर्षी दुकाल में बने हैं ? ७५ - बारह वर्षी दुकाल को १००० वर्ष हुए हैं ? ७६ - मन्दिर मार्गीयों ने धाम धूम आरंभ बढ़ा दिया ७७ - इसको तो हम संसार खाता समझते हैं ? ७८ - लौकाशाह का मत कैसे चल पड़ा ? ७९ - कई लोग खण्डन तो कई लोग मण्डन १ ८० - क्या खण्डन करने वालों श्रात्मार्थी नहीं हैं ? ८१ - स्थानकवासी तेरहपन्थी सामान कैसे हो० ? ८२ - मूर्तिपूजा अनादि बतलाते हो तो दूसरे० ?" ८३- मूर्ति नहीं मानने वाले अन्य देवी देवाताओं० ८४ - मूर्ति नहीं मानने वाले महावीर से ही चले आते हैं १२४८ ८५ - भगवान के फरमाये हुए सूत्र कितने हैं ८६ - यह क्यों कहा जाता है कि ३२ सूत्र भग० १ ८७ - बत्तीस सूत्र मूल पाठ मानते हैं ? 19 "9 19 २४७ 99 २५० " 39 ८८ - आप भी तो ४५ श्रागम मानते हो ? ८९ - क्या ३२ सूत्रों में मूर्तिपूजा के उल्लेख हैं ९० - कई सूत्रों का मूलपाठ नहीं है ? ९१ - श्राप मुँहपती हाथ मैं क्यों रखते हो ? " " "9 " 19 79 39 13 २३२. २३३ 99 २३४ 99 C "3 २३५ "" २३७ २३८ २४० २४२ २४३ $9 २४४ 19 २५१ २५२ २५३ २५६ 13 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ २५९ २६० २६१ , ( ६५ ) ९२-कई पुस्तकों में ऋषभदेवादि के मुँह पर० , ९३-क्या पुस्तकों में झूठ ही लिख दिया है ? , ९४-आप मुँहपत्ती का प्रति लेखन करते हो ? , ९५-हमने तो यह विधान आज ही सुना है ? , ९६-क्रिया के समय ठवणी पर क्या रखते हो ?,, ९७- यह क्यों ? ९८-हमारे तो पूज्य जो को आज्ञा लेते हैं ? ९९--श्री सोमन्धर स्वामि की आज्ञा लेते हैं ? १००--महाविदह क्षेत्र के तीर्थङ्कर हैं ? १०१-वे तीर्थकर हैं उनकी आज्ञा लेना क्या अनु०,, १०२-क्या कारण है ? १०३-ईशान कोन में कल्पना कर लेते हैं ? १०४-पांच पदों में मूर्ति किस पदमें है ? , १०५-चार शरणों में मूर्ति किस शरणा में है ? १०६-सूत्रों में अरिहन्तों का शरणा कहा है पर १०७-भगवान् ने तो दान शोल तप भाव-धर्म , १०८-पूजा में तो हम धामधूम देखते हैं ? , १०९-पूजा में श्राप क्या कहते हो ? ११०-आप बाजे बजाते वख्त वह क्या गाते हो ? ,, १११-तप संयम से कर्मों का क्षय तो क्या मूर्ति पू० ? ११२-अष्टमी चतुदर्शी में भी फल क्यों चढ़ाते हैं ? ,, ११२-साधुओं को तो अचित आहार दिया जाता है।, ११४-पानी से साध्वी निकालना तो भ०आज्ञा है , ११५ -भगवान् ने कब कहा तुम हमारी पूजा करो?,, २६३ १ २६६ २६७ २६८ २६९ ,, ___ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ -- साधुओं को बन्दन करना तो सूत्र में कहा है ?,, ११७ - किस सूत्र में कहा है कि पूजा से मोक्ष होती है ? ११८ - सूत्र उववाइजी मैं हियाए इत्यादि कहा है ? १९१९ - पूजा से मोक्ष कहा हो तो आप ही बतलाइये ?.. १२० - यह तो केवल फल बतलाया है पर० -- 29 के २९ वा अध्ययन में ? १३८ - उत्तराध्यान सूत्र १३९ - जम्बुद्वीप पन्नति सूत्र में २६९ पर्वत० १ " 39 १२१ - द्रोपदी की पूजा हम प्रमाणिक नहीं मानते हैं ? २७१ १२२ - यह तो लग्न प्रासंग में की थी ? १२३ - सुरियाभ तो देवता था ? 33 १२४ - सम्यग्दृष्टि देवता में चौथा गुण स्थान है ?,, १२५ - तेरहवां चौदहवां गुणस्थान ? १२६ - श्रद्दा तो एक ही है ? "" १२७ -- यह तो हम नहीं कह सकते हैं कि भगवान् ? १२८ - नाटक की प्राज्ञा क्यों नहीं दो ? १२९ --- भगवान् और भश्मग्रह ? "" "" १३० - प्रतिक्रमण छोटा और बड़ा ? २३१ - ऐसे तो हम भी कह सकते हैं ? १३२ -- क्या साधुओं के व्याख्यान में श्रावक सा० ? १३३ - आचारांग सूत्र में हिंसा करने वाले को ० ९३४ - प्रश्नव्याकरण सूत्र और हिंसा० ? १३५ - हम तो संसार के लिये हिंसा करते हैं ! १३६ - उपासक दशांग सूत्र और आनन्द श्र० ? १३७ -- ज्ञाता सूत्र के २० बोलों में ? 9 34 " "" "" "" "" 33 39 99 "" 93 28 "" 99 39 95 २७० 99 २७२ 37 93 २७२ २७३ 99 " २७६ २७६ २७९ २८० ૨૮૨ २८२ 19 २८३ " २८४ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) "" १४० - शत्रु जय तीर्थ शाश्वता रहना कहां ? १४१ - कृत्रिम पदार्थ की स्थिति संख्या काल० ? १४२ - लौकाशाद के मत में पांच लाख मनुष्य ? १४३ - भगवान् ने तो अहिंसा धर्म कहा है ? १४४ - मूर्तिपूजकों के मुँह से तो नहीं सुना है ? १४५ - पूजा में हिंसा करके धर्म मानते हो ? १४६ - पूजा यत्नों से नहीं की जाती है ? १४७- सूत्रों में १२ कुलकी गौचरी करना लिखा है ?,, १४८ - सूत्रों में २१ प्रकार का पानी लेना० ? १४९ - सवेगी साधुत्रों के श्राचार शिथिलता ? १५० --- आपके साधु विहार में आदमी रखते हैं ? १५१ - आपके साधु हाथ में दंड क्यों रखते हैं ? १५२ - धोवण पीना कठिन हैं इस लिये दूँ० सं० १ १५३ - एक ग्राम का उदाहरण ? "" 99 39 39 १५४ -- हमारा क्या कहना है ? " 39 "" " "" " 39 91 "" १५५ - संवेगी साधुओं की क्रिया १५६ -- स्थानकवासी साधुत्रों की क्रिया १५७ - क्रिया आप में ज्यादा है पर तपस्य तो ० १५८ - आपके अंदर आडम्बर विशेष है ? १५९ - मूर्तिपूजा से क्या देश को कम नुकशान पहुँचाया ? १६० - वे साधु हमारी समुदाय के नहीं हैं ? १६१ - मैं कब बहता हूँ कि वे मूर्तियां जैन की हैं ?,, १६२ - मन्दिर मूर्तियों के कारण ही देशदरिद्र हुआ ? ३६३- हम मूंजि रहने को कब कहते हैं "" 19 ," "" 99 "" २८५ 99 २८६ २८७ "" २८८ २८९ २९० 39 २९१ २९२ "9 २९३ २९४ २९७ 19 "" ३०१ ३०३ 39 ३०५ 39 ३०७ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) १६४-आपके साधु पूजा में धर्म बताते हैं ? , १६५-भाव-पूजा के अलावा द्रव्य पूजा में भी ? , १६६-ऐसा करना साधु का कल्प नहीं है ? १६७-वे असंयति अवृति है ? १६८-पुन्य अवश्य होता है ? १६९-क्यों नहीं अवश्य होता है ? १७०-आपके साधु ग्रहस्थों को पू. उपदेश देते हैं ? १७१-हाँ ऐसा जरूर करते हैं ? १७२-व्याख्यान सुनने का अनुमोदन है ? १७३–पर सचित द्रव्यों का उपमर्दन तो श्रा० ? १७४-वीतराग की वाणी सुने का अनु० ? , १७५-व्याख्यान सुनने से लाभ भी होता है तो ? ,, १७६-चार अङ्ग मिलना दुर्लभ बताया है ? , १७७-दानशीलादि यदि सूत्र में नहीं है तो ? , १७८ -आपका उत्तर सुनने में मुझे बड़ा ही आनंद ? ,, १७९-तीर्थ चार प्रकार के कहे हैं शत्रुजय० १ ,, १८०-साधु, साध्वी, श्राविक और श्राविकाएँ ? , १८१ - तीर्थकर साधु तीर्थ में होगा ? , १८२.--आप तो ऐसा उत्तर देते हो कि हम ?. १८३-चरित्रानुवाद और विधिवाद ? १८४-हाँ मैंने समझ लिया है ? १८५-हमारे विधानों के लिये भी लागू हो ? १८६- मेघ कुवार की दीक्षा ? १८७-मैंने सुना है कि अतिक्रमण करना श्राव. १ , ३१४ ___ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९ ) १८८-आवश्यकसूत्र को अथ से इति तक ? ,, १८९-क्या हमारे सा० प्र० पो० चरित्रानु० ? , १९०-महानिशीथ और महाकल्प सूत्र तो० ? ,, १९१–नहीं इनका कहना बिलकुल मिथ्या है ? ,, , उपासकदशाँग और पूज्य घासीलालजी १९२-सुभद्रा और डोरावाली मुंहपत्ती ? , १९३–पुजणि मुँहपत्ती उसके साथ में दी थी ? , ३१८ १९४-रत्नादि जेवरों के साथ उसको भी बक्स०? ,, , १९५-वस्त्राभूषण तो पहनने से ही शो० ? , , १९६-सुभद्रा ने पूंजणी हाथ में, मुँहपत्ती मुँह पर० ? । ३१८ १९७-मुं० पर सलमा सतार मोतियों का काम० ?, ३१९ १९८-पहिले तो छोटी मुँहपत्ती ही थी ? , ३२० १९९-आपको क्या मतलब है ? २००-हमारे पूज्यजी के फोटु मौजूद हैं छोटी २०१-हम निपट लेंगे ? २०२-प्रमाण जरूर दिये हैं ? ३२१ २०३-हमारे पूज्यजी ने यों हो लिख दिया है ? २०४-महाबल का विवाह जैनेतरों के वहाँ ? ३२३ २०५-सुभद्रा प्रभुपूजा करती थी ये०? २०६-अच्छा बताइये? २०७-आपके यहाँ औरतें भी पूजा करती हैं ? ,, २०८-विनो पूजा औरतें तिलक नहीं करती हैं ? , ३२६ २०९-प्राविल तो जब करे तव ही अच्छा है ? , ३२७ س ३२२ ३२५ ___ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ३२९ ( ७० ) २१०-हमारे पूज्यजी ने यों ही तो नहीं लिखा है ? " २११-साधुओं को बन्दन तिक्खुता का पाठ से० ?, २१२-हमारे पूज्यजी ने ऐसा लिखा है ? , २१३-तिक्खुता का पाठ " २१४-हाँ बहुत से सूत्रों में ऐसा पाठ है ? २१५-लीजिये श्री उववाइजी सूत्र ? २१६-कूणिक राजाने भगवान को वन्दन कियाहै? २१७-क्यों हमारी वन्दन कैसे नहीं हुई ? २१८-हमारे पूज्यजीने गुरु के लक्षण ? , २१९-वीतराग भगवान की भक्ति० दर्शन वाणी ? ,, २२०-सातवाँ व्रत में २६ बोल रखनालि०? , .२२१-सामायिक के समय साधु या महावीर० ? ,, २२२-आनन्द श्रावक के दहीबडा ? २२३-अरिहन्तचेइयाणिवा-आनन्द० ? " २२४-पावद्य पूजा किसको कहते हैं ? २२५-प्रभु के लिये तो वायुकाय के अलावा ? , २२६-वन्दन में अध्यवसाय शुभ रहने से० १ , २२७-परिणाम तो खराब नहीं रहता है ? , २२८-मेरी आत्मा तो इसको स्वीकार नहीं करतीहै,, २२९- बस अब मैं आपकों कष्ट देना नहीं चा० ? ,, २३०-उपसंहार ३३५ ३३७. ___" ३३८ ..mx Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या ज० ती० डो० मुं० मुं० बांधते थे। १-जैन श्रमण दो प्रकार के होते हैं। ३४७ २-लौकाशाह डा० मुँ. मैं नहीं बाँधी थी ३४८ ३-खुल्ले मुँह बोलने में वायुकाय का सवाल ३५२ ४-खास कर मुँहपत्ती बाँधने का कारण ३५३ ५-वायुकाय जीवों के शरीर और भाषा के पुगद्ल ६-मुखवत्रिका का श्रादश ७-मुँहपत्ती के प्रतिलेखन की विधी ३५५ ८-मुँहपत्ती द्वारा कहाँ तक दया पाली जाती है ३५८ ९-स्वामी रत्नचन्द्रजी का उतरासन ३५९ १०- तीर्थङ्करों के मुँह पर मुंहपत्ती की कल्पना ३५९ ११-सिद्धों की पहचान के लिये मूर्ति को मानना ३६१ १२-स्था० दिये हुए चित्रों की प्रतिकृति और विवरण ३६२ १३-चित्र दूसरा ३६५ १४-चित्र तीसरा मेधकुमार की दीक्षा ३६६ १५-चित्रों को मीमांसा ३६७ १६-सिद्धों की र्तियों के मुंगट कुंडल एवं मुँहपत्ती ३६८ १७-जैन साधुओं के उपकरण संख्या ३७० १८-मृगा राणी और गोतमस्वामो ३७२ १९-श्वांसोश्वस लेते मुँह पर हाथ रखना (आचारांग ) ३७४ २०-शकेन्द्र के भाषा का अधिकार ( भगवती सूत्र) , . २१-अचेलक मुनि को कटिबद्ध रखना (आचा०) ३७६ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति ( ७२ ) २२–सोमल ब्राह्मण की प्रवज्या ३७७ २३-हाथ में मुँहपत्तो रखने का खुल्ला पाठ ३७८ २४-स्थानकवासियों के माने हुए सूत्रों के प्रमाण २५-अन्यर्मियों के माने हुए शास्त्रों के प्रमाण २६-ऐतिहासिक प्रमाण २७ - उपकेशपुर के मन्दिर में प्राचार्य की मूर्ति २४-मथुरा के कंकाली टोला से मिले कृष्णर्षि की मूर्ति २९-कुंभारियाजी के मन्दिर में चतुर्विधि श्री संघ ३०-अंजारी के मन्दिर में एक प्राचार्य की मूर्ति ३१-पाटण श्राबु और प्राचीन श्राचार्यों की मूर्तियों ३२-तीर्थश्री कापरडाजी के मन्दिर में श्राचायों की मूर्वि ३९० .३३-स्थानकवासियों के सैकड़ों विद्वान मुंह० डा० त्याग ३९० ३४-सूक्ष्म शोध खोज ३९१ ३५-महावीर के बाद बावीस शताब्दियों की शोध ३९१ ३६-यह सब आवार्य मूर्तिपूजक ही थे ? ३७- मुँहपत्ती बाँधने बाले थोड़ी संख्या में थे ? ४०७ ३८-कल्पित चित्रों की परीक्षा ३९-प्रचलित क्रिया में रहो बदल ४०८ ४०-नाभारनरेश के पण्डितों का फैसला ४१२ ४१-एक विद्वान अंग्रज डाक्टर के अभिप्राय ४२० ४२-डा-फ्रॉबस साहब की रासमाल४३-परिशिष्ट Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्बर चित्र १. विश्ववन्द्य भगवान् महावीर २. मरू० उ० ओ० स्था० आ० रत्नप्रभसूरीश्वरजी म० (तिरंगा) ३. म० के० मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज ४. शा० जै० श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी म० ५. श्रीमान् अमरचन्दजी कोचर (फलोदी) ६. दानवीर सेठ सूरजमलजी साब कोचर (फलोदी) ७. जैनमन्दिर में महासती द्रौपदी का चैत्यवन्दन ८. भूगर्भ से मिली प्रभु पार्श्वनाथ की प्राचीन मूर्त्ति चित्र परिचय t ९. 19 99 11 ** महावीर की १०. ओसियां के देवी मन्दिर में प्राचीन जैनमूर्त्ति ११. मंडोवर के भग्न मन्दिर में जैनमूर्तियां १२. वैनाकटक से मिली हुई चौमुखजी की मूर्ति १३. मथुरा के कँकालिटीला से मिली प्राचीन मूर्ति 18. 99 "" "1 31 १५. मथुरा के कँकालीटीला से मिला हुआ श्रपगपट्टक ६. सम्राट् सम्प्रति और आपके पूर्वजों के चित्र ७. आबू के जैनमन्दिर में चोथा आदि की मूर्ति १८. चन्द्रावती के भग्न मन्दिरों के खण्डहर १९. श्राष्ट्रीय प्रान्त में भूमि से प्राप्त महावीर मूर्त्ति १०. ऐतिहासिक प्राचीन श्रमूल्य सामग्री " 31 पृष्ठ १०४ १४० १४१ १४२ १४२ १४३ १४४ १४५ 31 19 "" "" १५६ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) चित्र २१.स्थानकवासी हर्षचन्दजी की पाषाण पर मूर्ति (गीरीप्राम) १७५ २२. स्था० साध्वी इन्द्राजो की पादुका २३. , , , और समाधि मन्दिर २४. , स्वामि गोपालजी के माण्डी का चित्र ., पूज्य श्रीलाल जी पूज्यशोभाचन्दजी आदि ११ साधुओं का ग्रूप २६. , काठियावाड़ के स्था० १३ साघुओं का प्रप , ., साधु मणिलालजी आदि ३ साधुओं का २८. ,, साध्वी पार्वताजो और जीवाजी का चित्र , ,, भगवान महावीर और गजसुखमाल के चित्र ३६२ ३०. ,, मेघकुमार और नाइका चित्र ३१. , लौंकगच्छीयसाधु देशो० प्रदे० तेरहपन्थी साधु० ३६५ ३२. श्रओसियां के मन्दिर में जैनाचार्य की मूर्ति, ३८८ ३३. मथुरा के कॅकाली टीला से मिला हुआ कृष्णर्षिका , . भग्नखण्डहर का चित्र ३४. कुमारियाजी के मन्दिर में प्राचार्य और साधुओं ३८९ ३५. अजारी के मन्दिर का वा० ३० शान्तिसूरि०को मूर्ति , ३६. पाटण के भण्डार की ताड़पत्रों पर के प्राचीन चित्र २, ३७. ईडर के , ,, , ,, इनके अलावे १६ चित्र श्रीमान् लौंकाशाह की पुस्तक में दिये एवं कूल ५३ चित्र दोनों पुस्तकों में हैं। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभास पटण से ताम्र पत्र की प्राप्ती । प्रभास इतिहास संशोधक मण्डल को प्रभास पाटण में एक सोमपुरा ब्राह्मण से एक ताम्र पत्र प्राप्त हुआ है । इस ताम्र पत्र की भाषा इतनी दुर्गभ्य है कि साधारण पण्डित भी उसको ठीक तौर पर नहीं पढ़ सकता है, तथापि हिन्दू विश्वविद्यालय के अध्यापक प्रखर भाषा शास्त्री श्रीमान् प्राणनाथजी ने बड़े ही परिश्रम से प्रस्तुत ताम्र पत्र को पढ़ कर उसका भाव इस प्रकार प्रगट किया है। " रेवा नगर के राज्य का स्वामी सु "जाति के देव 'नेबुस दनेकर हुए वे यदुराज ( कृष्ण ) के स्थान ( द्वारका ) श्राया उसने एक मन्दिर सूर्व' ' ' देव 'नेमि' जो स्वर्ग समान रेवत पर्वत का देव है। उसने मन्दिर बनाकर सदैव के लिए अर्पण किया ।" जैन पत्र वर्ष - ३५ अंक १, ता० ३-१-३७. इस नरपति का समय ई० सन् पूर्व छठी शताब्दी का बतलाया है इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राज नेवुसदनेझर जैन धर्मो-पासक था और उसने एक भव्य मन्दिर बनवा कर रेवत ( गिरनार ) गिरि मण्डन नेमिनाथ भगवान को सदैव के लिये अर्पण किया अर्थात् उस मन्दिर में भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्टा करवाई थी इस शोध खोज के प्रकाश में मूर्तिपूजा की प्राचीनता कहाँ तक बढ़ रही है और भविष्य में न जाने कहां तक प्रकाश डालेगा । क्या मूर्ति नहीं मानने वाले सज्जन इस प्राचीन प्रमाण को ध्यान में लेकर अपनी कुत्सित मान्यता को सिजली देकर तीर्थकरों की मूर्ति की द्रव्य भाव से पूजा कर स्वकल्याण I Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L BA LLEN ANZA W Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्रावातरागायनम : ॥ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास मंगलाचरणा सकलाईत्मतिष्ठान, -मधिष्ठानं शिश्रियः । भूर्भुवः स्वत्रयीशान, - मार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥ १ ॥ नामाकृतिद्रव्यभावैः पुनतत्रिजगज्जनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे ॥ २ ॥ आदिमं पृथिवीनाथ - मादिमं निष्परिग्रहम् । श्रादिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः || ३ || अर्हन्तमजितं विश्व, - कमलाकर भास्करम् । अम्लानकेवलादर्श, संक्रान्तजगतं स्तुवे ॥ ४ ॥ विश्वभव्यजनाराम, कुल्यातुल्या जयंति ताः । देशनासमये वाचः, श्रीसंभव जगत्पतेः ॥ ५ ॥ अनेकांतमताम्भोधि, - समुल्लासनचन्द्रमाः । दद्यादमन्दमानन्दं भगवानभिनंदनः ॥ ६॥ घुसत्किरीटशा गाग्रो, -तेजिताङ्घिनखावलिः । भगवान् सुमतिस्वामी, तनोत्वभिमतानि वः ॥ ७ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) पद्मप्रभप्रभोर्देह, भासः पुष्णंतु वः श्रियम् । अंतरङ्गारिमथने, कोपाटोपादिवारुणाः ॥ ८ ॥ श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय, महेंद्रमहिताङ्घ्रये । नमश्वतुर्वर्ण संघ, गगनाभोगभास्वते ॥ ६ ॥ चन्द्रप्रभप्रभोचन्द्र-, मरीचिनिचयोज्ज्वला । मूर्त्तिर्मूर्त्तसितध्यान, निर्मितेव श्रियेऽस्तुवः ॥ १० ॥ करामलकवद्विश्वं, कलयन् केवलश्रिया । श्रचित्यमाहात्म्यनिधिः, -सुविधिर्बोधयेऽस्तुवः ॥ ११ ॥ सत्त्वानां परमानन्द, कन्दोद्भेदनवाम्बुदः । स्याद्वादामृत निस्दी, शीतलः पातु वो जिनः ॥ १२ ॥ भवरोगार्तजन्तूना--मगदङ्कारदर्शनः | निःश्रेयसश्रीरमणः, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १३ ॥ विश्वोपकारकीभूत, -तीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः । सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः ।। १४ ।। विमलस्वामिनो वाचः, कतकक्षोदसोदराः । जयंति त्रिजगच्चेतो, - जलनैर्मल्य हेतवः ॥ १५ ॥ स्वयंभूरमणस्पधिं,--करुणारसवारिया 1 अनंतजिदनन्तां वः प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥ १६ ॥ , कल्पद्रुमसधर्माण, मिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुर्घाधर्मदेष्टारं धर्मनाथमुपास्महे ॥ १७ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) सुधासोदरवाज्ज्योत्स्ना, निर्मलीकृतदिङ्मुखः । मृगलमा तमः शान्त्यै, शांतिनाथजिनोऽस्तु वः ॥ १८ ॥ श्रीकुंथुनाथ भगवान्, सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुरासुरनृनाथाना, मेकनाथोऽस्तु वः श्रिये ॥ १६ ॥ अरनाथस्तु भगवाँ, अतुर्थारनभोरविः । चतुर्थ पुरुषार्थश्री विलासं वितनोतु वः ॥ २० ॥ सुरासुरनराधीश, मयूरनववारिदम् । कर्मद्र्न्मूलने हस्ति-पल्लं मल्लीमभिष्टुमः ॥ २१ ॥ जगन्महामोहनिद्रा, - प्रत्यूषसमयोपमम् । - मुनिसुव्रतनाथस्य, देशनावचनं स्तुमः || २२ | लुठन्तो नमतां मूर्धिन, निर्मली कारकारणम् । वारि सवा इव नमेः, पांत पादनखांशवः ॥ २३ ॥ यदुवंशसमुद्रेन्दुः कर्म कक्षहुताशनः । अरिष्टनेमिर्भगवान्, भूयाद्वोऽरिष्टनाशनः ॥ २४ ॥ -कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुन्यमनोवृत्तिः, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ।। २५ ।। श्रीमते वीरनाथाय, सनाथायाद्भुतश्रिया । महानन्दसरोराज, मरालायाईते नमः ॥ २६ ॥ कृतापराधेऽपि जने, कृपामन्थरतारयोः । ईषद्भाष्यार्द्रयो भद्रं, श्री वीर जिननेत्रयोः ॥ २७ ॥ - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) जयति विजितान्यतेजाः, सुरासुराधीश सेवितः श्रीमान् । विमलखासविरहित, -स्त्रिभुवनचूडामणिर्भगवान् ॥ २८ ॥ वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो वीरं बुधाः संश्रिताः, वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो वीराय नित्यं नमः । वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्रीधृतिकीर्तिकांतिनिचयः श्रीवीर ! भद्रं दिश ॥ २६ ॥ अवनितलगतानां कृत्रिमा कृत्रिमानां, वरभवनगतानां दिव्यवैमानिकानाम् । इह मनुजकृतानां देवराजार्चितानां, जिनवरभवनानां भावतोऽहं नमामि ॥ ३० ॥ सर्वेषां वेधसामाद्य, मादिमं परमेष्ठिनाम् । देवाधिदेवं सर्वज्ञ, श्रीवीरं प्रणिदध्महे ॥ ३१ ॥ देवोऽनेक भवार्जितोर्जितमहापापप्रदीपानलो, देवः सिद्धि वधू विशालहृदयालङ्कारहारोपमः । देवोऽष्टादशदोषसिन्धुरघटा निर्भेदपञ्चाननो, भव्यानां विदधातु वाञ्छितफलं श्रीवीतरागो जिनः ||३२|| ख्यातोऽष्टापदपर्वतो गजपदः समेतशैलाभिधः, श्रीमान् रैवतकः प्रसिद्धमहिमा शत्रुञ्जयो मण्डपः । वैभारः कनकाचलोऽर्बुदगिरिः श्रीचित्रकूटादयस्तत्र श्री ऋषभादयो जिनवराः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ||३३| Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्प माला पु० नं० १६४ मूर्त्तिपूजा का प्राचीन इतिहास प्रकरण पहिला । ( मूर्तिपूजा की प्राचीनता ) र्तिपूजा का इतिहास मानव जाति के सम सामयिक मानव जाति और अन न्त है तो मूर्तिपूजा को भी अनादि और अनन्त मानने में विद्वानों को किसी प्रकार की शंका करने का स्थान नहीं मिलता है, और यह बात अनुभव सिद्ध भी हैं क्योंकि विश्व के साथ मूर्त्तिपूजा का घनिष्ट सम्बन्ध है । इसका कारण यह है कि विश्व स्वयं मूर्त्ति - मान पदार्थों का समूह है । जैन - आगमों में षट्-द्रव्य शाश्वत बतलाए हैं, जिसमें पांच द्रव्य श्रमूर्त्त और एक द्रव्य मूर्त्त है । परन्तु पांच अमूर्त्त द्रव्यों का ज्ञान भी मूर्त्त द्रव्य द्वारा ही होता है । श्रतएव मूर्त्तिमान् द्रव्य अनादि और अनन्त है, जब मूर्त्त द्रव्य अनादि है तो मूर्तिपूजा श्रनादि मानने में संदेह ही क्या हो सकता है ? कदापि नहीं । मूर्ति का अर्थ है - श्राकृति, शकल, नक़शा, चित्र- फोटू, प्रतिविम्बं और प्रतिमा । सभ्य समाज में मूर्त्ति का खूब आदर हैं। २२ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला वैज्ञानिक, व्यवहारिक और धार्मिक, कोई भी कार्य क्यों न हो बिना मूर्ति न तो इतना ज्ञान हो सकता है, और न किसी का काम ही चल सकता है। छोटे से छोटा बालक और बड़े से बड़ा अध्यात्मयोगी कोई भी क्यों न हो पर उनको भी अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए सर्वप्रथम मूर्ति की आवश्यकता रहती है। इस विषय में वर्तमान के विद्वानों के भी दो मत नहीं, किन्तु मूर्ति मानने में तो सब का एक मत ही है। मूर्तिपूजा का सिद्धान्त विश्व व्यापक है। यह किसी भी समय विश्व से पृथक नहीं हो सकता । जैसे सुवर्ण और तद्गत पीलापन ये दोनों अभिन्न हैं, वैसे ही विश्व और विश्ववन्द्य मूर्तिपूजा ये भी अभिन्न हैं । ऐसी दशा में मूर्ति को नहीं मानना एक प्रकार से प्रकृति का खून करना ही है।। ___ यद्यपि मुमुक्षुओं का अन्तिम ध्येय जन्म, मरण आदि के दुःखों का अन्तकर अक्षय सुख प्राप्त करने का होता है, और इसी उज्ज्वल उद्देश्य को लक्ष्य में रख, वे यथा साध्य प्रयत्न भी करते हैं । परन्तु इस महान कार्य की पूर्ति के लिए भी सबसे पहिले शुभाऽऽवह निमित्त कारण की आवश्यकता रहती है, जिस से चञ्चल चित्त की एकाग्रता, इन्द्रियों का दमन, कषायों पर विजय, आदि प्राप्त कर सके। और वह निमित्त कारण संसार भर में मुख्यतया में एक मात्र प्रभु की शान्त मुद्रा ध्यानस्थित मूर्ति ही है कि जिसके द्वारा पूर्वोक्त सब कार्य सरलता से सिद्ध हो सकते हैं। फिर मूर्ति चाहे पाषण की हो, काष्ठ की हो, सर्वधातु की हो, अथवा किसी अन्य पदार्थ की भी क्यों न हो, किन्तु उपासक का तो लक्ष्य, उस मूर्ति द्वारा परमात्मा के सच्चे स्वरूप Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मूर्तिपूजा की प्राचीनता । का चितवन करना है। जिन महानुभावों ने मूर्तिपूजा के गूढ़ रहस्य को ठीक तौर से समझ लिया है, वे तो संसार से सदा विरक्त रह कर सांसारिक सुख भोगों में लेश मात्र भी रति नहीं रखते हैं । पाप और अन्याय उन्हें छूतक भीनहीं सकता है । ईश्वरके प्रति श्रद्धा, प्रेम और भक्ति, धर्मपर दृढ़ श्रद्धा, और विश्वास तथा ईश्वरत्व के विषय में अस्तित्व बुद्धि रखना उनका प्रधान ध्येय होता है | अतः यह सिद्ध है कि संसार में सदाचार, शान्ति सुख और समृद्धि का मूल कारण केवल मूर्तिपूजा ही है । अस्तु ! इससे आगे चल कर जब हम धार्मिक सिद्धान्तों की ओर देखते हैं तब भी हमें मूर्ति की परमावश्यकता प्रतीत होती है। क्योंकि ईश्वर की उपासना करना धर्म का एक मुख्य अङ्ग है, और उसकी सिद्धि के लिए मूर्ति की खास जरूरत है । कारण यह कि निराकार ईश्वर की उपासना बिना मूर्ति के हो ही नहीं सकती है । यदि कोई सज्जन यह सवाल करें कि उपासना के लिए जड़ रूप मूर्ति की क्या आवश्यकता है ? हम तो केवल ईश्वर के गुणों की उपासना कर सकते हैं ? परन्तु यह कहना केवल अपना बचाव करना मात्र है । कारण, कि जैसे ईश्वर निराकार है वैसे ईश्वर के गुण भी तो निराकार हैं । अर्थात् ईश्वर के गुण ईश्वर से पृथक् २ वस्तु नहीं है, किन्तु एक ही है । जैसे गुण और गुणी भिन्न २ नहीं है, वैसे ही ईश्वर और ईश्वर के गुण अलग २ नहीं है। जब ईश्वर और ईश्वर के गुण निराकार हैं, तथा उनको चर्म चक्षु वाले प्राणी देख नहीं सकते हैं तो उन निराकार गुणों की उपासना अल्पज्ञ जन कैसे कर सकते हैं ? इनके लिए तो साकार, इन्द्रिय गोचर, दृश्य पदार्थों की ही आवश्यकता रहती है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला _ यदि कोई यह प्रश्न करे कि ईश्वर या ईश्वर के निराकार गुणों की, हम हमारे मन मन्दिर में केवल मानसिक कल्पना कर उपासना कर लेंगे, तो फिर पाषाणमय मन्दिर मूर्ति की क्या आवश्यकता है ? पर यह भी एक अज्ञान ही है । कारण ! जब आप अपने मन मन्दिर में निराकार ईश्वर की कल्पना करेंगे तो वह कल्पना साकार ही होगी। जैसे कि-"तीर्थकर अष्ट महाप्रतिहार विभूषित केवल ज्ञानादि संयुक्त समवसरण में विराज कर देशना दे रहे हैं, इत्यादि"। अब आप स्वयं सोचिये कि मन्दिर वा मूर्ति मानने वाले आपकी इस कल्पना से विशेष क्या करते हैं ? वे लोग भी मन्दिरों में समवसरण स्थित अष्टमहा प्रतिहार सहित शान्तमुद्रा ध्यानमय मूर्ति स्थापित करते हैं। इस तरह कल्पना या साक्षात् मूर्ति मानने वालों का ध्येय, वीतराग की उपासना करने का तो एक ही है । यदि अन्तर है तो इतना ही कि काल्पनिक मन मन्दिर तो क्षण विध्वंसी है, और साक्षात् मन्दिरमूर्ति चिरस्थायी होते हैं। अतः सर्वश्रेष्ठ तो यह है कि चिरस्थायी बने बनाये दृश्य मंदिरों में जाकर भक्तिभाव पूर्वक भगवान् की शांतमुद्रा मूर्ति की पूजा-अर्चा करके आत्मकल्याण करें। क्योंकि शास्त्रों में भी यही विधान है जो हम आगे चल कर तृतीय और चतुर्थ प्रकरण में मूल सूत्रों के उद्धरण दे देकर स्पष्ट सिद्ध कर बतावेंगे। जब हम इतिहास के जूने-पुराने पन्नों को टटोलते हैं तब हमें स्पष्ट पता चलता है कि जितना प्राचीन इतिहास संसार के लिए मिलता है, उतना ही प्राचीन, मूर्तिपूजा, की सिद्धि के लिए भी मिलता है। इसका कारण यह है कि संसार के इतिहास के साथ ही साथ संसारी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा की प्राचीनता । जीवों के कल्याण के लिए स्थापित मूर्त्तिपूजा का भी यत्र तत्र प्रचुरता से उल्लेख मिलता है। क्योंकि – कल्याण, और तत् हेतुरूप मूर्तिपूजा के आपस में घनिष्ट ही नहीं अपितु घनिष्टतम सम्बन्ध है । और यह बात अनुभव सिद्ध होने से इसमें किसी प्रमाण की भी आवश्यकता नहीं है । तद्यपि श्राज पुरातत्वज्ञों की शोध एवं खोज से इतने प्राचीन प्रमाण उपलब्ध हुए हैं कि वे मूर्तिपूजा को संसार के सदृश ही प्राचीन सिद्ध कर रहे हैं । फिर भी यहाँ पर यह सवाल पैदा होता है कि यदि मूर्त्तिपूजा इतनी प्राचीन है तो इसका विरोध, किस कारण, कत्र, और किसने किया ? इतिहास की पूर्ण गवेषणा द्वारा यह निश्चय हो चुका है कि विक्रम की सातवीं शताब्दी पूर्व क्या यूरोप, क्या एशिया, अर्थात् सब संसार मूर्तिपूजा का उपासक था । पैग़म्बर मुहम्मद साहिब के पूर्व किसी देश, किसी जाति, किसी व्यक्ति और किसी साहित्य में ऐसा शब्द दृष्टिगोचर नहीं होता है कि, कोई अथवा अनार्य उस समय मूर्तिपूजा को अस्वीकार करता हो । हाँ! सर्व प्रथम पैग़म्बर मुहम्मद साहिब ने अस्तान में मूर्तिपूजा के विरुद्ध घोषणा की थी, जिसे ( हिजरी सन के अनुसार ) आज १३५८ वर्ष हुए हैं। इसका कारण शायद उस समय उस देश में मूर्तिपूजा की प्रोट में कुछ अत्याचार होता हो । पर मुहम्मद सहिब ने उस समय अविचार से काम लिया । आपने "शिर पर बाल बढ़ जाने से बालों के बजाय शिर को काट डालने का" प्रोग्राम किया अर्थात् अत्याचार का विरोध न करके मूर्तिपूजा का ही विरोध कर डाला । वह भी किन्हीं पुष्ट Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला प्रमाणों द्वारा नहीं पर केवल तलवार के बल पर ही किया । बस ? इसी कारण आपका प्रभाव जनता पर इतना नहीं पड़ा कि वे मूर्तिपूजा को छोड़कर एक दम से नास्तिक बन जायें । इतिहास स्पष्ट बतला रहा है कि आर्य प्रजा में तो क्या पर विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक जर्मन आदि पाश्चात्य प्रदेशों में भी मूर्तिपूजा का काफी प्रचार था। इतना ही नहीं पर उस समय उन प्रान्तों में जैन मन्दिर भी विद्यमान थे। जिनके ध्वंसावशेष खोज करने पर आज भी प्रचुरता से प्राप्त हो रहे हैं । जैसे अष्ट्रिया में महावीर मूर्ति, अमेरिका से ताम्रमय सिद्धचक्र का गट्टा, मंगोलिया प्रांत में अनेक मूर्त्तिएँ वगैरह के भग्नखण्ड मिलते हैं। इतनाही क्यों, खास मक्का मदीना में जैन मंदिर थे । परन्तु जब वहाँ जैनमूर्त्ति पूजने वाला कोई जैन ही नहीं रहा तब मूर्त्तिएँ मधुमति (महुवा बन्दर) में लाई गई। जिस प्रदेश में सबसे पहिला मूर्तिपूजा का विरोध पैदा हुआ था वह प्रदेश आज भी मूर्तिपूजा से विहीन नहीं है । तथा आधुनिक देशाटन करने वालों से यह बात भी छिपी हुई नहीं है कि भूमिका कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है कि जहाँ मूर्तिपूजा का प्रचार न हो । अर्थात् आज भी सर्वत्र मूर्त्तिपूजा प्रचलित है । हाँ कोई व्यक्तिगत मूर्त्तिपूजा नहीं 1 मानता हो तो यह बात अलग है । मुस्लिम मत की स्थापना के अनन्तर मुसलमानों ने भारत पर कई बार आक्रमण किए, और धर्मान्धता के कारण कई शिल्पकला के आदर्श आर्य मन्दिरमूर्त्तियों को तोड़-फोड़ कर नष्टभ्रष्ट कर डाला । परन्तु विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी तक भारत की आर्यप्रजा पर मुस्लिम संस्कृति का थोड़ा भी प्रभाव नहीं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा की प्राचीनता । पड़ा। अपितु भारतीय जनता अपने आर्य धर्म और उनके मन्तव्यों पर अटल रही । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में देहली पर मुस्लिम सत्ता का अमल हुआ और वे मत - मदान्धता के कारण तलवार के पाशविक बल पर कई भाद्रिक अज्ञात लोगों को हिन्दुधर्म से पतित बना कर अपने अन्दर मिलाने लगे । पर उसमें उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली। जो थोड़े बहुत विधर्मी हुए, उनमें भी अधिकांश स्वार्थी और धर्म से नितान्त अनभिज्ञ लोग ही थे । फिर भी उस विकट समय में हमारे भारतीय धर्मवीरों पर उस श्रनार्य संस्कृति का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । अर्थात् वे अपनी आर्य संस्कृति से तनिक भी विमुख न हुए । आगे चलकर विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में मालवा और गुर्जर भूमि पर मुसलमानों का अधिकार कायम हुआ और aatr शिल्पकला के अनेक भव्य मंदिर नष्ट भ्रष्ट कर चार्य प्रजा को अनेकानेक कष्ट पहुँचाए । यहाँ तक कि उनके धन-माल को लूट कर प्रारण दण्ड देने में भी उन अनायों ने कमी नहीं रक्खी, किंतु इतना कुछ होने पर भी उन आर्य धर्मवीरों के दिल पर अनार्य संस्कृति का जरा भी असर नहीं हुआ । श्रपितु प्रतिस्पर्धा के कारण उनकी धर्मपर श्रद्धा, मूर्तिपूजा पर अधिकाधिक विश्वास और भक्तिभाव बढ़ता ही गया। मंदिर मूर्तियों के शिलालेखों से इस बात का पता मिलता है कि उस कटकटी के समय में भी पूर्व मंदिरों की अपेक्षा नये मंदिर अधिक बने थे । उदहारण लीजिये: - वि० सं० १३६९ में मुसलमानों ने शत्रुञ्जय के सम्पूर्ण मंदिरों का उच्छेद कर दिया, और वि० सं० १३७१ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला में ही स्वनामधन्य श्रेष्ठिवर्य करके पुनः शत्रुञ्जय को स्वर्ग दिया, इससे पाठक स्वयं समझ समय में भी आर्य लोगों की श्रद्धा थी । समरसिंह ने करोड़ों द्रव्य व्यय सदृश मंदिरों से विभूषित कर सकते हैं कि उन अनायों के मंदिर - मूर्तियों पर कैसी अटूट किन्तु विक्रम की सोलहवीं शताब्दी भारत के लिए महादुःख और भीषण कलंक का समय थी। कई व्याक्तियों पर दूषित अनार्य संस्कृति ने अपना अशुद्ध असर उस समय डाल ही दिया था, और फल स्वरूप उन अज्ञात व्यक्तियों ने बिना कुछ सोचे समझे अनार्य संस्कृति का अन्धानुकरण कर आर्यमंदिर - मूर्तियों की ओर क्रूर दृष्टि से देखना भी शुरू कर दिया था । O उस समय भारत में क्या हिन्दू, क्या जैन, सब लोग अपने २ इष्ट देवताओं की मूर्तिएँ पूज कर अपना कल्याण कर रहे थे । पर बदनसीबी के कारण कई श्रज्ञ लोगों ने इस पवित्र प्रवृत्ति में भी अनेक प्रकार के उत्पात मचाने शुरू कर दिए। जैसेजैन श्वेताम्बर समुदाय में लौंकाशाह, दिगम्बरों में तारण स्वामी, जुलाहों में कबीर, सिक्खों में गुरु नानक, वैष्णवों में रामचरण, और अंग्रेजों में ल्यूथर, प्रभृति व्यक्तियों ने विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में अनार्य संस्कृति के बुरे प्रभाव से प्रभावित हो श्रार्यधर्म के आधारस्तंभ रूप मन्दिर - मूर्तियों के विरुद्ध घोषणा कर दी कि, ईश्वर की उपासना के लिए इन जड़ पदार्थों की क्या आवश्यकता है, इत्यादि । परन्तु इस लेख के साथ श्रीमान् लौंकाशाह का ही सम्बन्ध होने से आज मैं यह बतला देना S Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ मूर्ति पूजा की प्राचीनता चाहता हूँ कि लौंकाशाह एक जैन कुल में पैदा हुए तो फिर उन पर मुस्लिम संस्कृति को प्रभाव कैसे पड़ा ? इस विषय में मैं लौकरशाह के समकालीन प्रथकारों के उल्लेख यहां उद्धृत करता हूँ । पाठक ! इन्हें ध्यान से पढ़ें । श्रीमान लौकाशाह के जीवन के विषय में भिन्न २ लेखकों ने भिन्न २ उल्लेख किए हैं। परन्तु "लौंकाशाह का जैन यतियों द्वारा अपमान हुआ" इसमें सब सहमत हैं। क्योंकि इसके बिना त्रिकाल पूजा करने वाले लौंकाशाह का सहसा मन्दिर - मूर्तियों के विरुद्ध होना कदापि सिद्ध नहीं होता है । और जब एक ओर लोकाशाह का अपमान हुआ, और दूसरी ओर उन्हें मुसलमानों का सहयोग मिला तो लौकाशाह स्वकर्त्तव्य भ्रष्ट हुए हों इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है। देखिये - ( १ ) वि० सं० १५४४ के आस-पास श्रीमान् उपाध्याय कमलसंयम ने अपनी सिद्धान्त सार चौपाई में लिखा है कि:" हवई हुऊ पीरोज्जिखान, तेहनई पातशाह दिई मान । पाड देहरा नई पोसाल, जिनमत पीडई दुष्मकाल ॥ लुंका नेइ ते मिलिय संयोग, ताव मांहि जिम शीशक रोग ॥ X X x इस लेख से पाया जाता है कि लौंकाशाह पर मुस्लिम संस्कृति का बुरा प्रभाव पड़ा था और लौंकाशाह का मत चल पड़ने में मुसलमानों की सहायता थी । ( २ ) वीर वंशावली नामक पटावली जो जैन साहित्य संशोधक त्रमासिक पत्रिका वर्ष ३ अंक ३ पृष्ट ४९ में प्रकाशित Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला १० हुई है उसमें लौंकाशाह के बारे में यों लिखा है कि यतियों द्वारा लौंकाशाह का अपमान हुआ, और जिस समय लौकाशाह क्रोध में आकर बाजार में बैठा था, उस समयः 'एतली तिहाँ गुजरतिा शैयद लेखक मित्र मिल्यो ते पण म्लेच्छ फारसी ना हिरफड़ वरख लिखई ते पण कया । सा० लुंका ! लेखक ए तुम्हारड़ कपाली क्या लगा है । लुंको कहि मन्दिर का थंभा (तिलक) लगा । ते सांभली म्लेच्छ कहइ तुम्हारे जे फकीर दुनियां छोड़ि के हुए सो साहिब की बन्दगी करइ ? कै साहिब क हुजूर भुक्ति मांई बैठा है ? अल्ला अनन्त ते जय अखण्ड हेइ, असत्य नापा की से दूर हुई ते म्लच्छ ना वचन मांभली सा० लौका ने म्लेच्छ धर्म प्यारो लाग्यो तण शैयद पीर हाजी नी आम्नाय दीधु ।" इनके अलवा पं० खुशाल विजय गणि कृत भाषा पट्टावलि जो वि० सं० १८८९ जेठ शुद्ध १३ शुक्रवार को सिरोही में रहकर १४ पानों में लिखी हुई है उसमें लौंकाशाह के विषय में यही लिखा हुआ है कि: लौंकाशाह लिखाई करता था और उसकी लिखाई के १७॥ दोकड़ों शेष रह जाने के कारण तकरार हुई। लोकाशाह जिस समय आवेश-गुस्सा में था उसी समय शैयद लिखारा का संयोग मिला और उसका लौकाशाह पर प्रभाव पड़ा इसी कारण लौकाशाह ने जैनयतियों, उपाश्रय, मन्दिर और जैन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा की प्राचीनता धर्म की मुख्य क्रियाओं से खिलाप होकर अपना नया मत निकाला इत्यादि । आवेश में अन्ध बना हुआ मनुष्य क्या-क्या अकृत्य नहीं करता है ? क्या जमाली ने भगवान् को झूठा नहीं बतलाया था ? क्या गोसाला ने भगवान को उपसर्ग नहीं किया ? यदि हाँ! तो फिर लौंकाशाह भी उसी क्रोधावेश में श्राकर मुसलमान शैयद के वचनों पर विश्वास कर अपने धर्म से पतित बन गया हो तो इसमें असंभव ही क्या है ? क्योंकि "गहना कर्मणो. गतिः" के अनुसार कमंगति बड़ी गहन है। ___ इस उद्धरण से यह तो निःसन्देह स्पष्ट हो जाता है कि लौकाशाह परमात्मा की हमेशा पूजा करते थे, क्योंकि तभी तो शैयद ने पूछा कि तुम्हारे कपाल पर क्या लगा है और लौंकाशाह ने उत्तर दिया कि मंदिर का थंभा (तिलक ) है । लौकागच्छीय यति भानुचंद्रजी की चौपाई से भी यही पाया जाता है कि लोकाशाह त्रिकाल प्रभु पूजा करते थे, परन्तु जिस समय लौकाशाह यतियों द्वारा अपमानित हुए, उस समय श्राप बड़े हो क्रोधित थे, और तत्क्षण ही शैयद ने आकर, उसे पूछ-ताछ कर जलती हुई अग्नि में घृत डालने का काम किया। शैयद ने लौकाशाह को कहा कि साहब तो मुक्ति में है अर्थात् उनके लिए मन्दिर मतियों की जरूरत ही क्या है ? और जब मन्दिर मर्तियों की कोई जरूरत ही नहीं तो फिर पूजा करना, तिलक लगाना आदि की क्या आवश्यकता है ? दूसरा शैयद ने कहा कि ईश्वर तो नापाकी से दूर है, अर्थात् इसका भाव यों Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला १२ समझाया होगा कि जब ईश्वर नापाकी से दूर है तब उसको स्नान कराने, पुष्प चढ़ाने आदि की क्या जरूरत है ? “क्रोध हतात्म बुद्धि" लौंकाशाहको यदि यह बात सोलह आना सच जँच गई हो तो कोई विशेषता नहीं ? क्योंकि जैसे कडु आशाह को जँच गई कि इस समय न तो कोई साधु ही है; और न साधुपना पालने योग्य शरीर ही है। धर्मसिंहजी को जँच गई कि श्रावक के सामायिक आठ कोटि से होते हैं । लवजी के जँच गई कि डोरा डाल, दिन भर मुँहपती बाँधने से हिंसा नहीं होती है। भीखमजी के जँच गई कि हमारे सिवाय किसी को भी दान देना एकान्त पाप है, तथा कोई जीव किसी अन्य जीव को मारता हो तो उस मरते हुए जीव को बचाने में अठारह पाप लगते हैं । इत्यादि" मिध्यात्व का उदय होने पर ऐसी बुरी बातें भी मनुष्यों के हृदय में स्थिर स्थान जमा लेती हैं । किन्तु दुःख तो इस बात का है कि अज्ञानियों के हृदय में ऐसी बुरी बातें जम जाने पर, अनेक युक्ति, शास्त्र, इतिहास प्रमाणों से भी पीछी उखड़नी कठिन हो जाती हैं। इसी कारण ज्ञानियों ने ही अनेक नये पन्थ और मत निकाल - निकाल कर -शासन को छिन्न-भिन्न कर डाला है । आदि के यदि लोकाशाह पर शैयद का प्रभाव नहीं पड़ा, ऐसा कहें तो फिर त्रिकाल पूजा करने वाला लौकाशाह एकदम मन्दिर मूर्तियों के खिलाफ कैसे हो गया ? और यह इनसे जब खिलाफ हुआ है तो यह मानना जरूरी है कि लौकाशाह पर शैयद का प्रभाव अवश्य पड़ा था । इसकी पुष्टि में खास लौंका - गच्छीय यति केशवजी लौंकामत के “शिलोका" में स्पष्ट बताते Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ मूर्तिपूजा की प्राचीनता। हैं कि "शैयद ना आशिष वचन थी" लौंकाशाह पर प्रारम्भ से ही शैयद की आशिष का बुरा असर पड़ा हुआ था। अब जरा अन्य विद्वानों के भी इस विषय के मत यहाँ उद्धृत करते हैं: (३) इतिहास मर्मज्ञा एक अंग्रेज महिला मीसीस स्टीवन्सन लिखती ह कि "हिन्द में इस्लाम संस्कृति का आगमन होने के बाद मूर्ति-विरोध के आन्दोलन प्रारंभ हुए, और उनके लंबे समय के परिचय से इस आन्दोलन को पुष्टि मिली " x x (४) पं० सुखलालजी अपने पर्युषणों के व्याख्यान में लिखते हैं कि "हिन्दुस्थान में मूर्ति के विरोध की विचारणा मुहम्मद पैगम्बर के पीछे उनके अनुयायी अरबों और दूसरों के द्वारा धीरे-धीरे प्रविष्ट हुई। x x x जैन परम्परा में मूर्ति-विरोध को पूरी पाँच शताब्दी भी नहीं बीती है।" (१) श्रीमान् अवनीन्द्रचन्द्र विद्यालंकार अपने पठान काल का सिंहावलोकन नामक लेख में लिखते हैं कि:___ "x x पर मुसलमानों की सभ्यता एक दम निराली थी। वे जाति पाँति और मूर्ति पूजा को नहीं मानते थे, हिन्द मैं इनके आने के बाद ही मूर्ति पूजा के विरोध का प्रबल अान्दोलन उठ खड़ा हुआ था ('माधुरी' मासिक पत्रिका)x" Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला (६) श्रीमान रा० ब० पं० गौरीशंकरजी अोझा अपने राजपूताना का इतिहास पृष्ठ १४१८ में लिखते हैं कि स्थानकवासी (ढूंढिया ), श्वेताम्बर समुदाय से पृथक हुए जो मन्दिरों और मूर्तियों को नहीं मानते हैं उस शाखा के भी दो भेद हैं जो बारापन्थी और तेरह पन्थी कहलाते हैं, ढूंढियों का समुदाय बहुत प्राचीन नहीं है, लगमग ३०० वर्ष से यह प्रचलित हुआ है। (७) दि० विद्वान् श्रीमान् नाथूरामजी प्रेमी ने अपने भाषण में खुल्लम खुल्ला यों कहा था कि "क्या आपने कभी इस पर विचार किया है कि जैन समुदाय में हज़ारों वर्षों से प्रचलित मूर्ति-पूजा का विरोध करके स्थानकवासी सम्प्रदाय की स्थापना करने वाले लौकाशाह पर किस धर्म का प्रभाव पड़ा था ? मेरा ख़याल है कि यह इस्लाम या मुस्लिम धर्म का ही प्रभाव था। दिगम्बर सम्प्रदाय का तारण पंथ भी शायद इसी प्रमाव का फल है" इत्यादि । उपर्युक्त इन प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के पूर्व तो भारत भर में सिवाय मुसलमानों के और कोई भी व्यक्ति मूर्तिपूजा का विरोध करने वाला नहीं था। तथा जब हम लौकाशाह के सम सामयिक गुजरात का इतिहास देखते हैं तब भी यही ज्ञात ® मेवाड़ में ढूंढियों को बारह पन्थी कहते हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा की प्राचीनता । १.५ होता है कि उस समय क्या जैनों में और क्या हिन्दुओं में सर्वत्र मूर्तिपूजा का खूब प्रचार था । और बाद में र्लोकाशाह ने ही सर्व प्रथम इसका विरोध किया। ऐसी हालत में हम यह क्यों नहीं मान लें कि लौकाशाह पर इस प्रभाव के पड़ने का कारण केवल अनार्य संस्कृति का संसर्ग ही था । क्योंकि सिवाय 'इसके अन्य तो कारण दूँ ढे ही नहीं मिलता है । लौंकाशाह ने केवल मूर्तिपूजा का ही विरोध किया हो, सो नहीं किन्तु आपने तो उपाश्रय और यतियों के प्रति द्वेष के कारण जैनागम, जैन श्रमण, सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान और देवपूजा का भी विरोध किया था। * परन्तु श्राखिर जैन कुल में जन्म तथा तत्रत्य चिरकालीन धार्मिक संस्कारों के कारण जब उनका क्रोध शान्त हुआ तो उन्होंने इन दूषित विचारों पर पुन: विचार किया और मन में खयाल किया कि मैंने जरा से क्रोध के कारण यह क्या श्रनर्थ कर डाला ? बहुत संभव है, कि लौकाशाहने शायद अपनी अन्तिमाऽवस्था में इन कुकृत्यों के लिए प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप भी किए हों ? पर पकड़ी हुई बातों को आप अपने जीवन में छोड़ नहीं सके तथा पीछे से उनके अनुयायी वर्ग में धोरे २ पुनः परिवर्तन होता गया और पहिले के पवित्र संस्कार पुनः उनके दिलों में अपनी जड़ें जमाने लगे । इसी कारण ये फिर से जैनश्रमण और ३२ सूत्रों को मान * देखो पं० लावण्य समय, उ० कमलसंयम मुनि वीका तथा लौकाबाच्छीय यति भानुचन्द्र तथा यति केशवजी कृत ग्रन्थ जो लौंकाशाह के जीवन के परिशिष्ट में मुद्रित हो चुके हैं । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला १६ ने लगे, और ३२ सूत्रों में श्रावक के सामायिक पौसह प्रतिक्रमणादि के विस्तृत विधान न होने पर भी उन्होंने अपने समुदाय में इन क्रियाओं को सादर स्थान दिया; तथा साथही दान देने की भी छूट दे दी । इस प्रकार समय अपना कार्य करता रहा । समय के इस प्रबल परिवर्तनशील प्रताप से ही जिस मत के मूल पुरुष मूर्तिपूजा आदि का सख्त विरोध करते थे, अन्त में उनके ही अनुयायियों ने अपने मत में मूर्तिपूजा को भी उच्चासन दे दिया । और अद्यावधि यही नहीं किन्तु पीछे से ये तमाम क्रियाएँ इस मत में सादर चालू हुई । लौकागच्छीय श्री पूज्य मेघजी, श्रीपालजी, आनन्दजी आदि सैकड़ों साधु लौंकामत का त्याग कर पुनः जैनदीक्षा स्वीकार कर मूर्तिपूजा के कट्टर समर्थक और प्रचारक बन गये थे । इतना ही क्यों पर लोंकाच्छीय आचार्यों ने मर्त्तिपूजा स्वीकार कर कई एक मन्दिर-मतियों की प्रतिष्ठाएँ भी कराई, तथा अपने उपाश्रयों में वीतराग भगवान् को मूर्त्तिएँ स्थापित कर स्वयं भो उनकी उपासना करने लग गए। ऐसा कोई ग्राम या नगर नहीं रहा कि जहाँ लौकागच्छ का उपाश्रय हो, और वहाँ वीतराग की मूर्त्तियों का अभाव हो ? अर्थात् सर्वत्र मूर्तियों का अबाध प्रचार हो गया जो आज भी लौंकागच्छ के उपाश्रयों में मूर्त्तियों की विद्यमानता से स्पष्ट प्रमाणित होता है। विक्रम की अठारहवीं शताब्दा में फिर लौकागच्छ से यति धर्मसिंहजी और लवजी ने अलग हो; मूर्त्ति के खिलाफ बलवा उठाया, इससे लौकागच्छ के श्रीपूज्यों ने इन दोनों को गच्छ से बाहिर कर दिया । इनके इस नव प्रचारित मत का नाम ढूँढिया Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा की प्राचीनता हुआ, साधुमार्गी तथा स्थानकवासी भी इन्हीं ढूंढिया सम्प्रदाय वालों का अपर नाम है । इस नये मत में आज भी मर्ति का विरोध विद्यमान है । पर ये लौकाशाह के अनुयायी नहीं हैं। क्योंकि लौकाशाह के अनुयायियों और इन ढूंढियोंको श्रद्धा तथा क्रियाओं में रात-दिन का अन्तर है। स्थानकमार्गी समाज तो यति लवजी का अनुयायो है। स्थानकमार्गी समाज प्रारंभ से ही मर्तिपूजा का विरोध करता था, परन्तु जब जमाना पलटा, और संसार में ज्ञान का प्रचार हुआ तो स्थानकमार्गी समाज पर भी इस जमाने का न्यूनाधिक प्रभाव जरूर पड़ा और इसने भगवान् महावीर के पश्चात् ८४ वर्षों के अन्तर से मूर्तिपूजा का अस्तित्व भी स्वीकार किया * । यही नहीं, किन्तु इससे विशेष-मूर्तिपूजा की प्रारम्भ स्थिति सुविहितचाओं द्वारा प्रचलित हुई, और इस प्रवृत्ति से जैनाचार्यों ने जैन समाज का महान उपकार किया, ये बातें भी स्वीकार कर ली। अब तो मात्र एक कदम और आगे बढ़ने की जरूरत है, जिससे ४५० वर्षों का मतभेद स्वयं निर्मूल हो जाय और भिन्न भिन्न समुदायों में विभक्त जैनसमाज एकत्रित हो पर्ववत् शासन-सेवा एवं धर्म-प्रचार करने में समर्थ हो जायँ, यही मेरी हार्दिक शुभ भावना है। * स्वामी सन्तबालजी। +स्वामी मणिलालजी के लेखों को देखिये, प्रकरण चौदहवां । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिला प्रकरण का सारांश (१) मूर्तिपूजा के सर्व प्रथम विरोधी, मुस्लिम मत के संस्थापक हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद थे, परन्तु समयान्तर में इनके अनुयायी भी अपनी मसजिदों में पीरों की श्राकृतिएँ बना उन्हें पुष्प धूपादि से पूजने लगे । ताजिया बना कर उनके सामने रोना पीटना करने लगे । तथा यात्रार्थ मक्के मदीने जाकर वहाँ एक गोल काले पत्थर का चुम्बन कर अपने कृत कमों का नाश मानने लगे । क्या यह मूर्तिपूजा नहीं है ? अपितु श्रवश्य है । (२) मूर्त्तिपूजा नहीं मानने वाले ईसाई अपने गिरजाघरों में जाकर ईसामसीह की शूली पर लटकती हुई मूर्त्ति ( क्रास ) स्थापित कर उन्हे पूज्य भाव से देखते हैं । द्रव्य भाव से उनकी पूजा करते हैं। पुष्पहार चढ़ते हैं ! क्या यह मूर्तिपूजा का प्रकारान्तर नहीं है ? आज यूरोप के भूमि गर्भ से पाँच २ हजार वर्षों की नाना देवी-देवताओं की पुरानी मूर्त्तिएँ मिलती हैं। तथा यूरोप के प्रत्येक प्रान्त में किसी न किसी प्रकार से मुर्तिपूजा की जाती है । क्या यह सब मूर्तिपूजा का रूपान्तर नहीं है ? १८ (३) कबीर, नानक, और रामचरण आदि मूर्ति विरोधियों के अनुयायी भी आज अपने २ पूज्य पुरुषों की समाधिएँ बना कर उनकी पूजा करते हैं। भक्त लोग उन स्मारकों के दर्शनार्थ दूर दूर से नाना कष्ट उठा उन समाधियों के पास इकट्ठे होते हैं । पुष्पादि पूजनीय पदार्थों से उन पर श्रद्धाञ्जलि चढाते हैं । यह भी तो मूर्तिपूजा की ही क्रिया का एक समर्थन है । ( ४ ) स्थानकमार्गी लोग अपने पूज्य पुरुषों की समाधि, पादुका, मूर्त्ति, चित्र फोटो बनवा कर उनकी उपासना करते हैं । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा की प्राचीनता अपने २ भक्तों को चित्र फोटो दर्शनार्थ देते हैं और वे भक्त उन चित्रों के दर्शन कर अपने आपको कृत-कृत्य मानते हैं। क्या यह मर्ति पूजा नहीं है ? - क्या कोई व्यक्ति यह बतलाने का साहस कर सकता है कि संसार में अमुक मत, पंथ, संप्रदाय, समाज, जाति, धर्म, या व्यक्ति मूर्तिपूजा से वञ्चित रह सकता है ? मनुष्यों के लिए तो क्या पर पशुओं के लिये भी मूर्तिकी परमावश्यकता प्रतीत होती है।मैं तो दावे के साथ यह कह सकता हूँ कि चाहे प्रत्यक्ष में मानो चाहे परोक्ष में, पर सब संसार मूर्तिपूजा को मानता ज़रूर है। हाँ ! मताग्रह के कारण मुँह से भले ही यह कह दो कि हम मूर्ति पूजा नहीं मानते हैं, पर वास्तव में मूर्ति बिना उनका काम भी नहीं चलता है। ____अन्त में मैं यह कह कर इस प्रकरण को यहीं समाप्त कर देता हूँ कि मूर्ति-पूजकों ने संसार का जितना उपकार किया है उतना ही मूर्तिविरोधकों ने संसार का अपकार किया है । मूर्ति आत्मकल्याण करने के साथ ही संसार की सच्ची उन्नति का साधन है। मूर्ति का विरोध करना आत्मा का अहित तथा संसार की पतन दशा का प्रधान कारण है। अतएव प्रत्येक आत्मार्थी को चाहिए कि वे मर्तिपूजा के उपासक बन संसार में स्व-पर-कल्याण का साधन करें। संसार का अधिक भाग अशिक्षित एवं भद्रिक है । उसे पक्षविमोह के आग्रह के कारण आगमों के नाम से भ्रम में डाल दिया जाता है । अतएव उनके हितार्थ अगले प्रकरणों में आगमों के विषय में कुछ लिखने का प्रयत्न करेंगे। ओं शान्तिः Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण जैनागमों की प्रमाणिकता । किसी भी वस्तु का निर्णय करने के साधन इस समय तीर्थकर, केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधि - ज्ञानी और पूर्वघर नहीं हैं। आज तो जो कुछ भी साधन उपलब्ध हैं, वह जैनागम -- जैनशास्त्र - ही हैं । किंतु शास्त्र भी जितने प्रारम्भ में थे, उतने आज नहीं रहे । तो भी जितने शास्त्र शेष रहे हैं, वे ही हमारे लिये पर्याप्त हैं । कारण, कि मूलसूत्र संक्षिप्त होने पर भी उन पर पूर्वाचार्यों ने अत्यन्त विस्तार पूर्वक निर्युक्ति, टीका, चूणि, भाष्य इत्यादि बनाकर उन आगमों के गूढ़ रहस्यों को अत्यन्त सुलभ बना दिया, जिसके कारण हम लोग प्रत्येक पदार्थ के सम्बन्ध में सरलतापूर्वक निर्णय कर सकते हैं। जैनागम, मूल में तो द्वादशांग ( बारह अंग ) ही थे । यथा श्री आचारांग सूत्रकृतांग, स्थानांङ्ग, समवायाङ्ग, भगवत्यङ्ग, ज्ञाताङ्ग, उपासकदशाङ्ग, अन्तगढ़दशाङ्ग, अनुत्तरोवबाई, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवादान —— इन्हीं द्वादशाङ्गों में, सारे संसार के धार्मिक तथा व्यवहारिक ज्ञान का समावेश हो जाता है । उपर्युक्त द्वादशाङ्गों में बारहवां दृष्टिवाद अंग है । इस श्रंग का क्रमशः ह्रास होता गया और भगवान महावीर के पश्चात् १००० वर्षों में तो उसका ज्ञान सर्वथा विच्छेद ही होगया और ग्यारह अंग शेष रह गये। किंतु वे भी प्रारम्भ में जिस स्थिति में Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ जैनागमों की प्रमाणिकता थे उतने अब नहीं रहे-जैसे एक आचारांग सूत्र के ही १८००० पद थे और एक पद के ५१०८८४६२१ ।। श्लोक होते थे यदि, १८००० का ५१०८८४६२१|| के साथ गुणाकार किया जाय तो ९१९५९२३१८७००० श्लोक तो अकेले आचारांगसूत्र केही होते हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक अंगसूत्र को द्विगुणित - द्विगुणित बतलाया गया है, जो निम्न कोष्टकानुसार होते हैं: पदसंख्या पदों के श्लोकों की संख्या 이 आगम नामावली १ श्री आचारांग |१८००० सूत्रकृतांग ३६००० स्थानायांग ७२००० "" "" 99 ४ समवायांग १४४००० विवाहप्रज्ञप्ति २८८००० ज्ञातांग ५७६००० उपासक दशांग ११५२००० ५८८५३९०८३९६८००० ८१२ » अन्तगढ़ दशांग २३०४००० ११७७०७८१६७९३६०००| ८९९ अनुत्तरोबाई ४६०८००० २३५४१५६३३५८७२००० १९२ १०, प्रश्नव्याकरण ९२१६००० ४७०८३१२६७१७४४००० १२५६ 99 विपाकसूत्र १८४३२००० ९४१६६२५३४३४८८००० १२१७ " "" "" " 99 वर्तमान श्लोक |९१९५९२३१८७००० २५२५ | १८३९१८४६३७४००० २१०० ३६७८३६९२७४८००० ३६०० ७३५६७३८५४९६००० १६६७ | १४७१३४७००९९२००० १५७५२ |२९४२६९५४१९८४००० ५४०० * एगवत कोड़ी लक्खा, अठ्ठ े व सहस्स चुलासीय; सब छक्कं नायग्वं, सड्ढा एगवीस समयम्मि । रत्नसंचय प्रकरण गाथा ३०६ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा . उपर्युक्त तालिका के प्रथम कोष्ठक में क्रमसंख्या, दूसरे में आगमों के नाम, तीसरे में आगमों के पद और चतुर्थ में पदों के श्लोकों की संख्या अंकित है। किंतु यह श्लोक-संख्या, भगवान् महावीर के ९८० वर्ष पश्चात, यानी प्राचार्य देवाद्धिगणि समाश्रमणजी के समय तक नहीं रह गई थी। श्री देवर्द्धिगणिजी के समय आचारांगसूत्र के केवल २५२५ श्लोक ही शेष रह गये थे, जो तालिका के पांचवें कोष्ठक में दर्ज हैं, और इतने ही श्लोक क्षमाश्रमणजी ने पुस्तकारूढ़ किये थे। उस समय पुस्तक के रूप में लेखनीबद्ध किये आगम, आज भी ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। उनमें, आज तक किसी ने एक अक्षर भी न्यूनाधिक नहीं किया है। इसका कारण यह है, कि जैनधर्मावलम्बियों की यह सुदृढ़ मान्यता है, कि अंगसूत्र स्वयं तीर्थंकरों के फरमाये एवं गणधरों के प्रन्थित किये हुए हैं । इनमें, यदि कोई अक्षरमात्र भी न्यूनाधिक करे तो उसे अनन्त संसार परिभ्रमण करना पड़ेगा । यही कारण है, कि आगमों का स्वरूप आज तक उसी दशा में चला आ रहा है कि जिस रूप में श्री क्षमाश्रमणजी ने उन्हें लेखनीबद्ध किया था। इन अंगशास्त्रों के अतिरिक्त, भगवान महावीर के पश्चात् और श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणजी के पूर्व कई स्थविरों ने उपांगसूत्रों तथा कालिक-उत्कालिक शास्त्रों की रचना की थी। इन सबको भी श्री क्षमाश्रमणजी ने अपने नेतृत्व में लेखनीबद्ध करवा दिया था और इन सब आगमों का उल्लेख उन्होंने स्वरचित नन्दीसूत्र में कर लिया। इस तरह, उस समय सब आगमों की . संख्या ८४.निश्चित हुई थी। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों की प्रमाणिकता हमारे दूरदर्शी, जैनाचार्य लोग यदि केवल ८४ आगमों से ही संतोष करके बैठे रह जाते, तो आज साहित्यिक-क्षेत्र में हमारा जो सर्वोपरिस्थान माना जाता है, वह कदापि न रह पाता। हमारे उन शासन-स्तम्भ, धर्म-रक्षक श्राचार्यों ने, अपने साधारण ज्ञानवाले मुमुक्षुओं के बोधार्थ आगमों में निहित गूढ-रहस्यों को प्रस्फुटित करने के उद्देश्य से आगमों पर नियुक्ति, टोका, चूर्णि, भाष्य और वृत्यादि की रचना करके दोपक नहीं बल्कि सूर्य के सदृश प्रकाश फैला दिया। यह सब होने पर भी, उन आचार्यों में एक बड़ी भारी विशेषता यह थी कि भिन्न-भिन्न श्राचार्यों ने पृथक २ समय में ओगमों पर विवरणों की रचना की है, किंतु फिर भी सब प्राचार्य आगमों की बात को ही पुष्ट करते रहे हैं। यदि किसी ने तर्क का समाधान भी किया है, तो श्रागमों के अनुकूल हो । यदि, कोई बात किसी के समझ में न आई, तो उसे 'केवलीगम्य' कह कर छोड़ दिया गया। उन भवभीरु महापुरुषों ने, यह कहने का दुस्साहस कभी नहीं किया कि आगमों अथवा विवरणों की अमुक बात हमें मान्य नहीं है । कारण, कि वे मुमुक्षुगण, भवभ्रमणके वनपाप से सदैव भयभीत आगमों के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने अन्य अनेक विषयों पर पर्याप्त संख्या में ग्रंथों की रचना की है। यह रचनाकार्य मी स्वमति से नहीं, अपितु जैनागमों के आधार पर ही किया गया है। जिस तरह किसी विशाल-भवन के टूटने पर सममदार मनुष्य उसकी सामग्री से अन्य अनेक छोटे-बड़े मकान बना मलते हैं, उसी तरह जब हमारा दृष्टिवादाङ्गरूपी विशाल Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा भवन टूटने लगा, तब उसका मसाला लेकर तात्कालिक आचार्यों ने अनेक छोटे-बड़े ग्रन्थ बनाने में अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया । यदि, वे आचार्य इस पवित्र कार्य के निमित्त प्रयत्न न करते, तो आज हमारे मुख्य सिद्धान्त स्याद्वाद, कर्मवाद, आत्मवाद, परमाणुवादादि को समझने के लिये अन्य कोई भी साधन शेष नहीं रह जाते। जिस तरह उन महोपकारी-प्राचार्यों ने तात्विक, दार्शनिक, आध्यात्मिक आदि विषयों के प्रन्थों का निर्माण किया, उसी तरह उन्होंने विधि-विधानादि के भी अनेक ग्रन्थों की रचना कर डाली ! यदि उन श्राचार्यों ने यह उपकार न किया होता, तो, हमारे साधुओं को दीक्षा-बड़ीदीक्षा-वाचना और बालोचना तथा श्रावकों को सामायिक पौषध प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं की विधि से भी वंचित रह जाना पड़ता। क्योंकि, उपयुक्त क्रियाओं का विस्तृत-विधि-विधान हमारे मूलागमों में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। शायद इनका कारण यह हो, कि उपर्युक्त क्रियाएं उस समय आम तौर से प्रचलित हो रही हो और अन्यान्य आगम जो मुनियों को कण्ठस्थ थे, उन्हें पहिले लिखने की आवश्यकता समझ कर इन प्रचलित क्रियाओं के वर्णन को स्थान न दिया जा सका हो । ___ हमारे धर्माचार्यों ने, धार्मिक विषयों के साथ ही साथ,न्याय व्याकरण, तक, छन्द, अलङ्कार, ज्योतिष और संस्कारादि के साहित्य की सेवा करके, समाज पर कुछ कम उपकार नहीं किया था। उसी का यह परिणाम है, कि आज हमें किसी भी Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों की प्रमाणिकता विषय के साहित्य की अन्य धर्मावलम्बियों से भिक्षा माँगने की आवश्यकता नहीं रह गई है। हमारा, यह सर्व प्रथम कर्तव्य है, कि हम उन जगतपूज्य विश्वोपकारी आचार्यों का अधिक-से-अधिक आभार माने । क्योंकि, वे हमारे लिये एक समृद्धिशाली-ज्ञान का अपरिमितभण्डार छोड़ गये हैं, जिसके बल पर जैन-शासन उज्जवल-मुख से संसार के सन्मुख गर्जना कर रहा है । जैनों की संख्या कम होने पर भी, आज सभ्य समाज में जैनों का श्रासन ऊँचा है, यह केवल उन आचार्यों के निर्माण किये हुए साहित्य का ही परिणाम है। जैन साहित्य, समुद्र के सदृश था, जिसमें का केवल एक बूंद के बराबर हमारे पास शेष रह गया । हमारे दुर्भाग्य से, उस बचे हुए कई ज्ञान भण्डारों को अनार्य लोगों ने ज्यों-का-त्यों जला दिया। यवनों ने, जैनशास्त्रों को भट्टियों में जला-जला कर पानी गरम किया और उस पानी से स्नान किया। बहुत दिनों तक धर्मान्ध यवनों ने भारतीय-साहित्य की होलियां जलाकर हमारे उत्तमोत्तम साहित्य को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। उसमें से यत्किञ्चित बचा हुआ साहित्य आज हमारे पास है, इतने ही को हम अपना सौभाग्य समझते हैं। पूर्वोक्त दुःखद और विकट परस्थिति को पार करके जो साहित्य बचा है, उसकी जैन, जैनेतर और पौर्वात्य एवं पाश्चात्य-विद्वान लोग मुक्तकण्ठ से भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में, महावीर के पुत्र होने का दम भरने वाला एक समुदाय, उस साहित्य में भी अनेक प्रकार की त्रुटियों के स्वप्न देख रहा ___ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा २६ है, यह कितने दुःख और खेद की बात है। वे लोग कभी तो कहते हैं कि हम इतने सूत्र मानते हैं, शेष नहीं और कभी कहते हैं, कि हम मूल सूत्र मानते हैं, पर नियुक्त, टीका, आदि को नहीं मानते। शायद उन लोगों ने आगम और नियुक्त तथा टीका आदि को बच्चों का एक खेल ही समझ लिया है। बात है भी ठोक । जिसे इतना ज्ञान ही न होगा, वह इसके अतिरिक्त और तो कर ही क्या सकता है ? यहाँ, मैं जरा इस बात को स्पष्ट कर देना चाहता हूँ, कि आगम और आगमों के विवरण किस-किस समय बने तथा इससे शासन को क्या हानि-लाम हुआ ? “ अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गुत्थइ गणहरा" (१) अरिहन्त देव ने, आगम अर्थरूप में फरमाये । (२) उसी अर्थ को गणधरों ने सूत्र रूप में संकलित कर लिया। (३) उन्हीं सूत्रों पर वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी में चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहुसूरि ने नियुक्ति को रचना कर सम्बन्ध को संगठित किया। (४) गणधर देवों के संकलित किये हुये सत्रों पर विक्रम की तीसरी शताब्दी में प्राचार्य गन्धहस्तिसूरि नै विस्तृत-टीका रचकर सूत्रों में रहे हुए गूढ-रहस्य को सुगम्य बना, सर्व साधारण का महान् उपकार किया। श्रीगन्धहस्तीप्राचार्य को टीका इस समय विद्यमान नहीं है, पर शीलांगाचार्य ने अपनी टोका में यों फरमाया है, कि Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों की प्रमाणिकता "शास्त्रपरिक्षा विवरणमति बहु गहनं च गन्धहस्ती कृतं ।। तस्मात् सुखबोधार्थ गृणाम्यहमजसा सारं ॥ ३ ॥ श्री भाचारांग सूत्र पृष्ठ ३ इस अवतरण से स्पष्ट सिद्ध होता है, कि शीलांगाचार्य से पूर्व गन्धहस्तिसूरि की टीका थी, किन्तु वह क्लिष्ट और विस्तृत थी, अत: शीलांगाचार्य ने उसे स्वल्प तथा सरल बना डाला। गन्धहस्तीआचार्य का समय, वीराब्द की सातवीं शताब्दी माना जाता है और उस समय दश पूर्वधर विद्यमान भी थे । भागमों की टीका करना, कोई सामान्य-ज्ञानवाले मनुष्यों का कार्य नहीं था। इस महान कार्य के लिये तो बड़े धुरन्धर एवं अगाध-ज्ञानवाले महापुरुषों को आवश्यकता थी। यदि, गन्धहस्तीओचार्य पूर्वघर हों, तो यह टीका पूर्वधरों की रची हुई मानने में किसी भी तरह शंका को स्थान नहीं मिल सकता । कारण, कि गन्धहस्ती प्राचार्य के ३००वर्ष पश्चात् देवद्धिगणि क्षमाश्रमण हुए, जिन्होंने भागमों को लेखनीबद्ध किया और नन्दीसूत्र की रचना की। यदि, उन्हें माना जाता है, तो गन्धहस्तीभाचार्य की टीका तो उनसे ३०० वर्ष पूर्व की बनी हुई है, अतः उसे तो और अधिक प्रमाणिक मानना चाहिये। (५) आचार्य गन्धहस्तीसूरी की टोका भी कालक्रम से साधुओं को कठिन प्रतीत होने लगी, तब वि० सं० ९३३ में श्री शीलांगाचार्य ने पूर्व टीका को स्वल्प-विस्तारवाली तथा सरल बनाई थी। इनमें श्री आचारांग और सूत्रकृतायांग इन दो अंगों की टीका उपलब्ध है, शेष नौ अंगों की टीका इस समय नहीं Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा मिलती है । इसका कारण शायद विधर्मियों का अत्याचारपूर्ण आक्रमण ही हो । ( ६ ) नौ अंगों पर टीका का अभाव देखकर वि० सं० ११२० में चंद्रकुलीय श्राचार्य अभयदेवसूरि ने नौ अंगों पर पुनः टीका की रचना की जो सम्प्रत काल में विद्यमान है । (७) श्री शीलांगाचार्य कृत दो अंगों की टीका भी अल्पज्ञों के लिये कठिन प्रतीत होने लगी, तब विक्रम की सौलहवीं शताब्दी में आचार्य जिनहंसूरि ने श्राचारांगसूत्र पर एक दीपिका रची । आप स्वयं ही फरमाते हैं, कि २८ "शीलांकाचार्य रचिता वृत्तिरस्ति सविस्तरा, श्री आचारांगसूत्रस्य दुर्विगाह तरंगतः ॥ २॥ अनुग्रहार्थं सभ्यानां व्याख्यातृणां सुखावहा, श्री जिनहंससूरीन्दैः क्रियतेस्म प्रदीपिका ॥ ३ ॥ श्री आचारांगसूत्र पृष्ठ २ (८) श्री शीलांगचार्य एवं श्री अभयदेवसूरि कृत टीकाएँ और जिनहँससूरी रचित दीपिका भी जब लोगों के लिए कठिन 'प्रतीत होने लगी, साधारण - ज्ञानवाले मनुष्य उनसे समुचित लाभ उठा सकने में समर्थ प्रतीत होने लगे, तब विक्रम की सोहलवीं शताब्दी में श्री पार्श्व चन्द्रसूर ने उन आगमों पर टीका अनुसार गुर्जर भाषा में टब्बा यानी गुजराती भाषा में अनुवाद कर डाला, इस विषय में आप फरमाते हैं, कि "पणम्य श्री जिनाधशिं, श्रीगुरुणामनुगृहात् । ळिखते सुखबोधार्थमाचारांगथवार्तिकम् ॥ १ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों की प्रमाणिकता सुतरां शब्दशास्त्रेण, येषांबुद्धिरसंस्कृता । व्यमोहो जायते तेषां, दुर्गमेवृत्तिविस्तरे ॥२॥ ततो वृत्तेः समुद्धृत्य, सुलभो लोकभाषण । धर्मळिप्सूपकारायादि मांगाऽर्थः पतन्यते ॥३॥ श्री आचारांगसूत्र पृष्ठ १ । आचार्य गन्धहस्ती सूरि और पार्श्वचन्द्र सूरि के बीच में लगभग १३०० वर्षों का अन्तर है । इन १३०० वर्षों में अनेक चैत्यवासी क्रियोद्धारक गच्छ मत पैदा हुए, किन्तु किसी ने इस प्रकार का एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया, कि अमुक आगम अथवा अमुक टीकादि हमें मान्य नहीं है । कारण कि वे लोग उच्चकोटि के विद्वान् थे और आगमों तथा नियुक्ति एवं टीका के सम्बन्ध में जानते थे कि ये चीजें हमारे धर्म के लिए स्तम्भ हैं और इन पर ही शासन चल रहा है। किन्तु, यह हमारा दुर्भाग्य था, कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लौकाशाह नामक एक व्यक्ति उत्पन्न हुआ । श्री संघ से तिरस्कृत होकर उसने अपना एक अलग मत निकाला । उस पर, अनार्य-संस्कृति का इतना बुरा प्रभाव पड़ा, कि प्रारम्भ में तो उसने क्रोध तथा आवेश में भरकर जैनसाधु, जैनागम, सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान और मूर्तिपजादि से खिलाफ एवं बिलकुल इन्कार ही कर दिया और केवल पाप-पाप, हिंसा-हिंसा, दया-दया चिल्लाकर अपना मत चलाना चाहा । किन्तु ऐसे अल्पज्ञ और जैनशास्त्रों क विरुद्ध प्ररूपण करनेवाले मनुष्य की बात कौन स्वीकार कर ___ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा सकता था ? अन्त में, लौकाशाह को अपनी अन्तिम अवस्था में इस अकृत्य के लिये पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त करना पड़ा एवं भाणादि कई मनुष्यों को बिना गुरु के ही वेश पहनाकर साधु बनाया। इसके पश्चात् श्री पार्श्वचन्दसूरिकृत गुजर भाषा के अनुवादवाले ३२ सूत्र उन के हाथ लगे, जिनमें अर्थ का अध्ययन करने पर उन लोगों की समझ में यह बात आ गई कि लौकाशाह ने जिन क्रियाओं का निषेध किया है वे क्रियाएँ उचित हैं और बिना सोचे-समझे ही निषेध किया गया है। परिणाम यह हुआ कि जिन क्रियाओं का लौकाशाह ने निषेध किया था, उन्हीं को लौकाशाह के पश्चात् उसके अनुयायियों ने स्वीकार कर लिया और अनेक मुमुक्षु सत्य बात की खोज करके नौकामत का परित्याग कर शुद्ध-सनातन जैनधर्म की शरण में आये एवं मूर्तिपूजक बन गये । लौंकामत के शेष अनुयायियों ने अन्यान्य क्रियाओं के साथ ही मूर्तिपूजा को भी स्वीकार करके तथा अपने उपाश्रयों में वीतराग की मूर्तियों की स्थापना कर एवं द्रव्य भाव से उनकी पूजा करके अपना आत्म-कल्याण करना प्रारम्भ कर दिया। ___ लौकागच्छ के विद्वान यतियों ने कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई, अनेक ग्रन्थों को निर्माण किया, बहुत से सूत्रों की प्रतिलिपियाँ की जिनमें टीकानुसार जो टब्बा श्री पावचन्द्रसूरि ने किया था उसे ही मान्य रक्खा । जब मूर्तिपूजा का खास मतभेद मिट गया, तो फिर सूत्रों में तो मतभेद रह ही क्या जाता है ? विक्रमकी अठारहवीं शताब्दी, लौंकामत के लिये एक उत्पात का दुःखद समय था। लौकागच्छीय श्रीपूज्य शिवजी ने Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों की प्रमाणिकता अपने शिष्य धर्मसिंह को अयोग्य समझकर गच्छ से बाहर निकाल दिया । उसने श्रावक की आठकाटि सामायिक के बाहना से एक अलग मत निकाला । इसके बाद लवजी और धर्मदास जी ने भी अपने-अपने अखाड़े अलग जमाये । धर्मसिंहजी ने 'पार्श्वचन्द्रसूरी कृत टब्बे में मूर्ति विषयक कई अर्थ बदलकर अपने नाम से कई सूत्रों पर टब्बा बना लिया। यह 'दरियापुरी टब्बा' के नाम से प्रसिद्ध है। किन्तु, इसका प्रचार आठकोटि समुदाय में ही विशेष था और मारवाड़, कोटा, मालवा आदि के स्थानकमार्गी सिंघाड़ों में तो श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि कृत टब्बे का ही प्रचार था । स्थानकवासी पूज्य हुक्मीचन्दजी महाराज ने अपने हाथों से १९ सूत्र टब्बे सहित लिखे, जिनमें उपासकदशांगसूत्र में आनन्द श्रावक के अधिकार में आपने स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि "अन्यतीर्थियों द्वारा ग्रहण की हुई जिन प्रतिमा को वन्दन नमस्कार करना आनन्द को नहीं कल्पता है"। इसी प्रकार से उववाईसूत्र में अम्बड़ के अधिकार में भी लिखा था और श्री पीरचन्दजी स्वामी आदि कई आत्मार्थी साधुओं ने इसी प्रकार से श्री पार्श्वचन्द्रसूरि का ही अनुकरण किया। कारण, कि वे लोग भववृद्धि से डरते थे। इन लेखों को देखकर बहुत से समझ दारों की श्रद्धा मूर्ति की ओर मुक गई और अनेक व्यक्ति मूर्तिपूजक समाजमें जा मिले। उनमें इस किताबका लेखक भी एक है। किन्तु, आजकल के नये विद्वानों को यह घाटा कैसे सहन हो सकता है ? अतः इस घाटे को रोकने के लिये सब से पहला साहस स्था० साधु अमोलखऋषिजी ने किया। आपने पार्श्वचन्द्र सूरि और धर्मसिंहजी के टब्बे का सहारा लेकर ३२ सूत्रों का Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा ३२ - हिन्दी अनुवाद मुद्रित करवाया। जिस समय आपका यह कार्य प्रारम्म हो रहा था, उसी समय अनेक स्थानकवासियों की ओर से समाचारपत्रों में इस आशय के नोटिस प्रकाशित हुए थे, कि यदि ३२ सूत्रों का अनुवाद करना ही हो, तो किसी संस्कृत के विद्वान पण्डित को अपने पास रख टीकाओं का भाशय लेकर अनुवाद किया जाय, ताकि वह सर्वमान्य हो सके। किन्तु, ऋषिजी ने बिना किसी की परवाह किये, पूर्वप्रचलित टब्बों में स्वेच्छानुसार परिवर्तन करके अपना अनुवाद छपवा ही डाला। पर जब उनके पन्नों को किसी विद्वान ने देखा और अपने अभिप्राय दिये तो स्वामीजी को उन पन्नों को रद्दी खाते में डालने पड़े और बाद में कुछ विद्वानों का सहारा लेकर दूसरा अनुवाद छपवाया । यदि उस अनुवाद को भी कोई सभ्य मनुष्य पढ़े तो उसे अत्यन्त दुःख हुए बिना रह नहीं सकता। भला जिस व्यक्तिको ह्रस्व-दीर्घ तथा शब्दों के शुद्धस्वरूप तक का ज्ञान न हो, वह सूत्रों के गूढ़ आशय को क्या तो स्वयं समझ सकता है और क्या उसे दूसरों पर व्यक्त ही करसकता है ? इसी कारण ऋषिजीकृत ३२ सूत्रों का हिन्दी अनुवाद स्थानकवासी समाज में भी सर्वमान्य नहीं हो सका। ___ऋषिजी ने केवल एक मूर्तिपूजा के कारण ही अनेक प्रपंचों की रचना की तथा मूलसूत्रों एवं अर्थ में स्खूब रद्दोबदल कर डाला है । यहाँ तक, कि कहीं-कहीं ता मूलपाठ को उड़ा दिया गया और कहीं मूलपाठ को बदल कर उसके स्थान पर अन्य पाठ बनाकर रख दिया गया। अनेक स्थानों पर सूत्रों में न होने पर भी अपनी कल्पना से नोट लिख दिये । किन्तु मर्तिपूजा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ जैनागमों की प्रमाणिकता का सिद्धान्त तो इतना सर्वव्यापी है कि इतना प्रपंच रचने पर भी यह छिपाकर नहीं रक्खा जासका । वास्तव में लौंकामत एवं स्थानकवासी समाज में बतीस सूत्रों की मान्यता न तो ३२ सत्र सच्चे और शेष सत्र भूटे और न मूर्ति मान्य एवं अमान्य के कारण हुइ है क्योंकि ३२ सूत्र सच्चे और शेष भूटे कहे उतना ज्ञान एवं प्रमाण न तो लौंकाशाह के अनुयायियों के पास था और न उन्होंने ऐसा कहा भी था दूसरा मूर्तिपूजा मान्य या अमान्य का कारण भी नहीं था क्योंकि मूर्तिपूजा विषयक पाठ तो ३२ सूत्रों में भी विद्यमान हैं। ___परन्तु ३२ सूत्रों को मानने का कारण तो कुछ ओर हो था। क्योंकि लौकाशाह के मौजुदगी में जैनागम प्राकृत भाषा (अर्धमागधी) में और टीकाएँ संस्कृत में थीं जिसका थोड़ा भी ज्ञान लौकाशाह को नहीं था कि वह जैनगामों को पढ़ कर उस को मान्य रक्खे या न रखे । लौकाशाह के देहान्त के बाद आपके अनुयायियों को श्रीपार्श्वचन्द्रसूरी कृत गुर्जर भाषानुवाद के जितने सूत्र मिले उतनों को ही उन्होंने अपनाये, उन सूत्रों की संख्या ३२ की थी। बस लौकाशाह के अनुयायियों में यह मान्यता सजड़ रूढ हो गई की हम ३२ सूत्र मानते हैं जब ३२ सूत्रों के विवरण में उनकी मान्यता के विरुद्ध में उल्लेख बताये जाने लगे तो उन्होंने कह दिया कि हम मूल सत्रों के अलावा टीकाएँ वगैरह नहीं मानते है फिर मूल सूत्रों में ऐसे पाठ आये कि जिनसे उनका मत निर्मल होने लगा तब उन्होंने मूलसूत्रों के अर्थ जो प्राचीन टोकाएँ तथा श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि कृत टब्बा में था उनको भी बदलाने की कोशिश एवं मिथ्या प्रयत्न करना शुरू किया और कितनेक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा भद्रिक अबोध जैनों को भ्रममें भी डाले । जब उनको थोड़ा बहुत मनुष्यत्व का भान होने लगा और टीकाएँ वगैरह की आवश्यकता हुई तो एक नई युक्ति घड़ निकाली कि मूलसूत्रों के साथ मिलती हुई टीकाओं को हम लोग मानते हैं । इसका यह अर्थ था कि जिस टोकामें मूर्तिपूजा का उल्लेख न हो उस टीका को हम मानते हैं। ___ संसार में ज्ञानकी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई और थोडा बहुत प्रभाव हमारे स्थानकमार्गी भाइयों पर भी हुआ। उन्होंने संकीणता को वाडाबन्धी के बाहर कदम रखने का साहस किया और मूल ३२ सूत्रों के अलावा अन्य भागम तथा आगमों पर जो नियुक्ति टीका भाष्य चूर्णि वगैरह पूर्वाचार्य कृत साहित्य की और दृष्टि डालकर अवलोकन किया जिसमें सबसे पहला नम्बर स्थानक मार्गी समाज के धुरंधर विद्वान शताविधानी मुनि श्री रत्नचन्द्रजी का है कि आपने अर्धमागधी कोश बनाने में नियुक्ति टोकादि बहुत से ग्रन्थों का आश्रय लिया तथा स्था० मुनिश्री मणिलालजी ने प्रभुवीर पट्टावलि' नाम की पुस्तक रचनेमें ३२ सूत्रों के अलावा कई ग्रन्थों का आधार लिया और स्था० पूज्यश्री जवहरलालजी महाराजने तेरहपन्थियों का खण्डन में 'सद्धर्ममण्डन' नामक ग्रन्थ बनाया जिसमें तो खूब प्रचूरतासे नियुक्ति टीका चूर्णि भाष्य दीपका वगैरह के अवतरण दिये हैं आपने अपने पूर्वजों की संकीर्णता को तिला जली देकर मूल ३२ सूत्रोंसे मिलती हो चाहे ३२ सूत्रोंमें जिसबात की गन्ध तक न हो उन टीकाओं को भी स्वीकार करली है । यदि उन अवतरणों का उतारा किया जाय तो एक खासा ग्रन्थ तैयार हो जाय परन्तु मैं मेरे पाठकों के अवलोकनार्थ उस 'सद्धर्म Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों की प्रमाणिकता - मण्डन नामक ग्रन्थ के मात्र पृष्ठ नम्बर लिख देता हूँ कि एक प्रन्थ लिखने में इतने स्थान पर नियुक्ति टीका चूर्णि भाष्यादि के प्रमाण दिये हैं जैसे पृष्टसंख्या। ५, ५, ६, ६, ८, २८, ४२, ४६, ४८, ५०, ५५, ६४, ६५, ६६, ६८, ७३, ९२, ९३, १०४, १०७, १०९, ११७, १२२, १२५, १४९, १५२, २३२, २३५, २३९, २४३, २४४, २४५, २५१, २५३, २५५, २६८, २७५, २७६, ३२४, ३४३ ३५२, ३६२, ३६३, ३६९, ३८४, ४११, ४१२, ४१३, ४२०. ४३२, ४३६, ४५१, ४५४, ४५५, ४८७, ४८७, ४८८, ४९०, ४९३, ४९४, ४९५, ४९६, ४९७, ४९८, ४९९, ५०४, ५६०, ___इनके अलावा 'सद्धर्ममण्डन' ग्रन्थ के पृष्ठ ३६८ पर तो श्रीमान् पूज्यजी ने तेरहपन्थियों को बड़े ही जोर से दबाया है जैसे आप फरमाते हैं कि "इस चूणि की आधी बात को मानना और श्राधी बात को नहीं मानना यह दुराग्रह के सिवाय और कुछ नहीं है।" ___यदि हमारे तेरह पन्थी भाई यही सवाल पूज्य जवाहरलालजी महाराज से कर लेते तो हमारे पज्यजी इसका उत्तर यह तो शायद ही दें कि हम चूर्णि की बातों को सर्वाश से मानते हैं ? फिर तो पूज्यजी के लिए भी वही दुराग्रह का सवाल आकर खडा हो जायगा। ___'सद्धर्म मन्डन ग्रन्थ' में श्रीमान् पूज्यजी ने तेरहपन्थियों से बहुत से सवाल ऐसे भी किये हैं कि वे आपके लिए भी इतने ही बाधित होते हैं उन प्रश्नों के लिए स्थानकवासी या तेरहपन्थियों को बिना मूर्तिपूजक आचार्यों का शरण लिये छुटकारा हो नहीं Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा सकता है इस विषय के लिये मैं एक स्वतन्त्र किताब लिखने का इरादा करता हूँ। नियुक्ति टीका बिना तेरहन्थियों का भी काम नहीं चलता है । तेरहपन्थियों के पज्य जीतमलजी स्वामि ने 'भ्रमबिध्वंसन' नामक ग्रन्थ लिखा है उसमें भी आपने नियुक्ति टीका चूर्णि भाष्यादि का कई स्थानों पर प्रमाण दिये हैं। अस्तु गुड वाना और गुलगुलों से परहेज रखना यह कहावत भी चरितार्थ होनी चाहिए। __ पाठको, इस प्रकरण से आप इतना तो अवश्य समझ गये होंगे कि जैनागमों की प्राचीनता एवं प्रमाणिकता में किसी प्रकार का संदह नहीं है तब एक मूर्ति के नहीं मानने के कारण मत्तधारियों को किस किस प्रकार से मिथ्या प्रयत्न करना पड़ा है फिर भी उन लोगों को अपने अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त नहीं हुई और आखिर प्राचीन एवं प्रमाणिक आगमों के सामने शिर झुकाना पड़ा। आगे चलकर हम ऋषिजी के अनुवाद करने की योग्यता का दिग्दर्शन कर.वेगें और अगलं प्रकरणों में खास ऋषिजी के मूलसूत्र और हिन्दी अनुवाद से ही मर्तिपजा सिद्ध कर बतलायेंगे और साथ हो साथ प्रसंगोपात यह भी बतलादेंगे, कि लौं कागच्छीय प्राचार्यों के सूत्रों तथा अर्थ में और ऋषिजी के किये हुए हिन्दी अनुवाद में कितना विरोध एवं कैसी जबरदस्त खींचातानी है । पाठकगण, आगे के प्रकरण खूब ध्यान, -लगाकर पढ़ें। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा जैनागमों में शाश्वति जिनप्रतिमाएँ विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी के मध्यकाल तक तो जैनागम अर्धमागधी भाषा और विवरण संस्कृत एवं प्राकृत भाषा ही में था, बाद में श्री पार्श्वचन्द्र सूरि ने जनोपकार के लिए गुर्जर गिरा में टब्बा (अनुवाद) बनाया | पर आपका यह उपकार कई लोगों को उलटा अपकार के रूप में परिणित होगया । क्योंकि कई लोगों ने आपके बनाये टब्बे को रद्दोबदल कर स्वेच्छा नये-नये मत-पन्थ निकाल कर शासन को छिन्न-भिन्न कर डोला । लौंकाशाह के अनुयायियों को भी आपके टब्बे का ही सहारा मिला और काशाह के मतविरोधी यति धर्मसिंहजी ने पूर्व टब्बे को रद्दोबदल कर अपना नया मत निकाला और धर्मसिंहजी ने श्री पार्श्वचन्द्र सूरि कृत टब्बे में स्वेच्छा फेरफार कर अपने नाम से टब्बा बना लिया। स्वामी भीखमजी ने धर्मसिंहजी केटब्बे को रद्दोबदल कर अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग पकाने को अपना मत चला दिया । पर यहां तक तो जैनागमों की प्रति हस्तलिखित हो थीं कि जिसके दिल में आया वैसा ही उतारा कर वे प्रतियां अपने पुट्ठों में बांध पास रख लेते थे और अपने अनुयायियों को भगवान के नाम पर वे पुस्तकें दिखा कर विश्वास दिला दिया करते थे कि देखो सत्रों में यह बात ( अपनी मान्यता ) भगवान ने फरमाई है, इस पर भद्रिक जनता विश्वास Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा ३८ कर उन वाडाबन्धी में बंध जाती थी । कारण उन अझ लोगों में निर्णय-बुद्धि तो थी नहीं । जिसका अधिक परिचय था, उनके अनुयायी बन जाते थे । कहा भी है कि दुनिया झुकती है पर मुकाने वाला होना चाहिए । वि० सं० १९३२ में सब से पहिले मुर्शिदाबाद निवासी बाबू धनपतसिंहजी की द्रव्य सहायता से जैनागम मूल टीका और टब्बा सहित छपवाये गये, जिसका संशोधन लौंकागच्छीय आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के विद्वान शिष्य रामचन्द्र गणि तथा आपके शिष्य नानचन्दजी ने बड़ी सावधानी से किया था और वे आगम प्राय: जैनश्वेताम्बर समाज में सर्वत्र माननीय बन गये । पर काशाह के अनुयायी होने का दम भरने वाले कितनेक स्थानक - वासी भाइयों को उन लौकागच्छीय विद्वानों के संशोधित आगमों से सन्तोष नहीं हुआ । शायद् इसका कारण यह हो कि उन आगमों में मूर्तिपूजाविषयक मूलपाठ और उनका अर्थ ज्यों का त्यों है, इन्हीं कारणों को लेकर पसन्द नहीं हुए हों । इसी कारण स्थानकवासी साधु अमोल खर्षिजी ने दक्षिण हैदराबाद में स्थित रह कर सूत्रों का हिन्दी अनुवाद करना प्रारम्भ किया, पर जब इस बात का पता स्थान० समाज को लगा तो सामयिक पत्रों में इस आशय के नोटिस जाहिर हुए कि जैनागमों का हिन्दी अनुवाद किया जाय तो उसके लिए अच्छे संस्कृत के विद्वान पण्डितों और टीकाओं की सहायता अवश्य लेनी चाहिए कि वे कम से कम स्थानकवासी समाज में तो सर्वमान्य हो ही जाँय । कारण स्वामीजी की योग्यता से स्थानकवासी समाज भली भांति परिचित था, क्योंकि इसके पूर्व स्वामीजी की ओर से अन्य विषय पर Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ आगमों का मुद्रित समय कई पुस्तकें मुद्रित हो चुकी थीं, उनमें आपकी योग्यता का दर्शन भली-भाँति होचुका था इसलिए ही ऐसी नोटिसें निकालनी पड़ी थीं । इस हालत में आपके किये हुए हिन्दी अनुवाद जो छप चुके थे उनको रद्दी खाते में (पुड़ियां बांधने में) छोड़ देना पड़ा । बाद कई सस्ते भाड़े के पण्डित तनख्वाह से रख कर वि० सं० १९७७ में अनुवाद को काम प्रारम्भ हुआ और उसी रूप में जैनागमों का हिन्दी अनुवाद छपवाया गया कि जिसकी सम्भावना पहिले से ही लोगों ने कर रखी थी । आपने अपनी पाण्डित्यता की प्रसिद्धि के लिए केवल टाइटल पेज पर हो नहीं पर प्रत्येक सत्र के प्रत्येक पन्ने पर अपना नामाङ्कित करवाया, जिससे वर्तमान और भविष्य में लोग यह समझें कि इन सूत्रों का हिन्दी अनुवाद करने वाला कोई बड़ा भारी विद्वान होगा ? ऐसी आत्मश्लाघा पूर्व जमाने में न तो श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणजी ने की थी और न कलीकाल सर्वज्ञ भगवान हेमचन्द्र सूरि ने की थी कि जिनके अध्यक्षत्व में लाखों करोड़ों श्लोक केवल लिखे गये थे ही नहीं पर उन्होंने अनेक विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना भी की थी । ܬ जब कोई विद्वान उन हिन्दी अनुवाद को हाथ में लेकर पढ़ता है तो दो चार पेज पढ़ कर शिर धुणाके उनको एक ताक पर रख छोड़ना ही पढ़ता है, क्योंकि न तो उसमें मूल पाठों का सिलसिलेवार दाल मिलता है, न ठीक अर्थ मिलता है, न शब्द ही शुद्ध हैं, और न भाषा ही शुद्ध है। भला जिसको हस्व-दीर्घ का भी भान न हो, वह जैनागम के गम्भीर भावों को कैसे समझ सकें पर स्वामीजी को इन बातों से सम्बन्ध ही क्या ? वे तो येन केन प्रकारेण मूर्तिपूजा के पीछे पड़े हुए हैं। जहाँ जहाँ मूर्तिपूजा का Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ती पाठ या अर्थ देखा बस उनको हीरो बदल कर देने में ही अपना पाण्डित्य समझ रखा है पर मर्तिपूजा विषय तो इतना विशाल और सर्वव्यापक है कि वो किसी प्रकार से छिपाया हुआ छिप नहीं सकता है जैसे उल्लू के आँखें मूंद लेने पर सूर्य का प्रकाश छिप नहीं सकता है। स्वामीजी के ३२ सूत्रों का अनुवाद पढ़ने से पाठकों को भली भाँति रोशन हो जायगा कि स्वामीजी की सूत्रों का अनुवाद करने की कैसी योग्यता है। भाग्यवशात् जैसी आपकी योग्यता थी वैसे ही आपको सस्ते भाव के पण्डित भी मिले । दूसरों के लिये तो क्या, पर वे अनुवादित सूत्र खासकर स्थानकवासी समाज में भी सर्वमान्य नहीं हुए हैं और कई लोग तो आज भी उनका सख्त विरोध करते हैं। इतना ही नहीं पर उन अनुवादित सूत्रों को अप्रमाणित भी घोषित कर दिया है जैसे कि स्वामि मणिलालजी लिखित "जैनधर्म का संक्षिप्त प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक को अखिल स्थानकवासी कान्फरेन्स की जनरल मीटिंग ने ता०१०-५-३६ को अहमदाबाद में अप्रमाणित जाहिर करदी थी अतएव आपकी इस अनाधिकारी बाल चेष्टा की सभ्यसमाज में सिवाय हाँसी के शेष कुछ भी कीमत नहीं है। हाँ, आपके अनुवाद में मूर्तिपूजा विषयक पाठों का अर्थ रद्दोबदल होने के कारण जब कभी मूर्तिपूजा विषयक चर्चा का काम पड़ता है तब कई अज्ञ लोग आप के हिन्दी अनुवाद के पन्ने अवश्य टटोलते हैं। जैनागमों में शाश्वति जिन प्रतिमाएँ हैं । उनको मूल सूत्र Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ जैनागों में शाश्वति प्र. कार तथा टीकाकारों ने तीर्थंकरों की प्रतिमाएं बतलाई हैं । और इन्द्रादि सम्यग्दृष्टि तीन ज्ञान संयुक्त और महाविवेकी देवताओंने सत्रह प्रकार से पूजा कर नमोत्थुणं के पाठ से स्तवना को हैं उन्हीं इंद्रादि देवों ने भगवान से प्रश्न किये कि हम आराधो हैं या विराधी ? उत्तर में तीर्थंकरों ने आराधो होना बतलाया है। इससे सिद्ध है कि शाश्वति जिम प्रतिमाएँ तीथैकरों की हैं। पर स्वामीजी ने अपने हिन्दी अनुवाद में उन जिनप्रतिमाओं को अन्यदेव अर्थात् कामदेव की प्रतिमाएँ बतलाई हैं यह आप की अल्पज्ञता और मत्ताग्रहत्व ही है क्योंकि श्राप के ही अन्योन्य सूत्र पाठ और अनुवाद से यह प्रत्यक्ष पाया जाता है कि वे जिनप्रतिमाएँ तीर्थकरों की ही हैं। टीकाकारों का तो स्पष्ट मत है कि वे जिनप्रतिमाएँ तीर्थकरों की हैं पर हमारे स्थानकवासी भाई उन टीकादिको मूर्तिपूजक आचार्यों की कह कर उसको अप्रमाणिक कह देते हैं इसलिये मैं आज खासकर लौंकागच्छीय विद्वानों के टव्वा अर्थ और साथ में स्वामीजी का हिन्दी अनुवाद लिख कर बतलाऊंगा कि इन दोनों अनुवाद से ही वे शाश्वति जिनप्रतिमाएँ तीर्थकरों की हैं ऐसा सिद्ध होता है। १ देखो इसी प्रन्थ का दूसरा प्रकरण जिसमें वीगत् १७० वर्ष में आचार्य भद्रबाहु हुए उन्होंने नियुक्ति की रचना की। वि० सं० २१४ में आचार्य गन्धहस्ती ने टीकाएँ रची । वि० सं० ९३३ में आचार्य शीलाग सूरि ने, वि० स० ११२० में आचार्य अभयदेव हरिने टीकाए बनाई और वि० सं० १५६० में श्रीपार्श्व चन्द्रसर ने गुजराती भाषामें टव्वा बनाया वहाँ तक जो मूलसूत्र और पांचांगो मानने में किसी का भी मतभेद नहीं था। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा जब सत्रों में इस प्रकार के उल्लेख हैं तब वे लोग आँखें मुँह अन्धेरा क्यों करते हैं और वे लोग इस विषय में क्या युक्ति बतलाते हैं ? वे सब से पहिले श्री स्थानायांगजोसूत्र का सहारा लेकर भद्रिक जनता के सामने एक सूत्र का पाठ रखते हैं वह निम्नलिखित है। "तो जिणा पं० २० ओहिनाणजिणे, मणपज्जवनाणजिणे, केवलनाणजिणे । स्थाना० पृष्ट २६० इस पाठ में अवधिज्ञानी जिन को देख हमारे भाई कह देते हैं कि वे जिनप्रतिमाएँ अवधिजिनकी हैं। परन्तु वे सज्जन थोड़ा सा वष्ट उठाकर इस पाठ के आगे का पाठ देखते तो मालुम हो जाता कि अवधिजिन (कामदेव) इस आसन एवं मुद्रा में कभी बैठे थे कि शाश्वति जिनप्रतिमाओं को कामदेव की प्रतिमा कहने का दुःसाहस किया जाय। अब आगे का पाठ देखिये । ___ "तो अरहा पं० २० ओहि नाणअरहा, मणपज्जवनाणअरहा, केवल नाणअरहा । स्था० पृष्ट २६० जैसे तीनप्रकार के जिन कहा है वैसे ही तीनप्रकार के अरि हन्त भी बतलाये हैं। इसका मतलब यह है कि अरिहन्त माता की कुक्ष में आते हैं तब अवधिज्ञान पूर्वभवसे साथ में लाते है इसलिये गर्भ में अवतार लेने के समय से जब तक वे दीक्षा न ले वहाँ तक अवधिजिन एवं अवधि अरिहन्त कहलाते हैं और दोक्षा Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ तीन प्रकार के जिन अरिहन्त लेने के समय उनको मनःपर्यय ज्ञान होता है इसलिए दीक्षा के प्रारंभकाल से जहाँ तक केवलज्ञान न हो वहाँ तक वे मनःपर्यव जिन और मनःपर्यव अरिहन्त कहलाते हैं और केवलज्ञानोत्पन्न होने से वे केवली जिन व अरिहन्त कहलाते हैं । पाठक स्वतः समझ सकते हैं कि अवधि, मनःपर्यव, केवल, यह तीनों विशेषण उन्हीं जिन एवं अरिहन्तों के लिये है कि जिनको हम तीर्थकर कहते हैं और शाश्वति मतियों भी तीर्थंकरों की ही है और सम्यग्दृष्टि इन्द्रादि उन जिनप्रतिमाओं को तीर्थंकरों की मर्तियां समझ कर ही सत्रहभेदी पूजा और नमोत्थुणं के पाठ से स्तवना करते हैं । पाठकों को और भी अधिक विश्वास के लिये हम वि० सं० ११२० में आचार्य श्री अभयदेव सूरिकृत टीका को भी उद्धत कर देते हैं। "तो जिणे, इत्यादि सुगमा नवरं रागद्वेष मोहान् जयन्तीति जिनाः सर्वज्ञाः” उक्तंच "रागद्वेषस्तथामोहो जितोयेन जिनोह्यसौ । अत्रौ-शस्त्रो क्षमालत्वादहन्नेव नुमीयत इति ॥१॥ तथा जिना इव ये वर्तन्ते निश्चय प्रत्यक्ष ज्ञान तया तेपि जिनास्त त्रावधि पूधानो जिनोवधिज्ञान जिन एव मितरावपि नवर माद्याबुपचरिता वितरो निरुपचार उपचार कारणन्तु प्रत्यक्ष ज्ञानीत्वमिति केवलभेकमनंत पुर्णवाज्ञानादि येषामास्ति त केवलिन उक्तंच 'कसिणं केवल कप्पं लोगं जाणंति तहय पांसति । केवल चरित नाणी तम्हा ते केवली होति ॥ २ ॥ रहापि जिनवद् व्याख्या अहंति देवादि कृतां पूजा मित्यहत् Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा अथवा नास्ति रहः पूच्छन्नं किंचिदपियषां प्रत्यक्ष ज्ञानीत्व ते अर्हन्तः॥ स्थानीयांग सूत्र पृष्ट १११ मुर्शिदाबाद वाला - लौकागच्छीय विद्वान् संशोधित टब्बा में भी यही लिखा है जैसे कि-तीन प्रकारे जिन कहिया । अवधिनाणजिन, अवधिनाए सहित, मनःपर्यवनाण च्यारनाण सहित जे जिन, केवल नाण जिन, पांच नाण सहित ते जिन । x x x तीन अरिहंत कहिया ते कहैछे। अवधि नाणी अरिहन्त, मनःपर्यवनाणी अरिहंत, केवलनाणीअरिहन्त ।। स्थानीयांग सूत्र पृष्ठ १९२ मु० वाला स्था० साधु अमोलखर्षिजीका हिन्दी अनुवाद । "तीन प्रकरकेजिन कहे हैं अवधिज्ञानीजिन, मन:पर्यवज्ञानीजिन, केवल ज्ञानी जिन, x x x तीन अरिहन्त-अवधि ज्ञानी अरिहन्त, मनःपर्यव ज्ञानी अरिहन्त, केवलज्ञानीअरिहन्त ॥ स्थानायांग सूत्र पृष्ट २६१ __ न तो मूलसूत्र में कामदेवादि देवों को अवधिजिन कहा है न टोकामें न लौंकागच्छीय विद्वान् संशोधित टब्बा में और न ऋषिजी के हिन्दी अनुवाद में कामदेवादि देवों को अवधि जिन कहा है परन्तु उपरोक्त मूलसूत्र, टीकाटब्बा और हिन्दी अनुवाद में तो तीर्थंकरों को ही अवधि जिन और अवधिअरिहन्त कहा है और वास्तव में ऐसा ही है इन पुष्ट प्रमाणों द्वारा यह प्रमाणित हो जाता है कि देवलोकादि में जो शाश्वति जिनप्रतिमा ___ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणि पठिका पर जिन प्रतिमा सब तीर्थकरों की है कामदेव की प्रतिमा बतलाने वाले जैनागमों से बिलकुल अनभिज्ञ हैं और इस प्रकार उत्सूत्र की प्ररूपणा कर पाप के अधिकारी बनते हैं। इतना ही क्यों पर इस मिथ्या प्ररूपणा के अन्दर शामिल होनेवाले भी इस वज्रपाप से कदापि नहीं बच सकते हैं आगे और देखिये :-- ४५ ' तेसिणं मणिपेढ़ियाए उवरिं एत्थेगम हेगे देवछंदाए सोलस जोयणाई आयाम विक्खं मेणं साइरेगाई सोलस जोयणाई उर्दू उच्चतणं सव्व रयणा मह जाव - पडिरुवे । " इस पर टीकाकारों ने विस्तार पूर्वक टीका की है पर हमारे स्थानकमार्गी भाइयों का अधिक विश्वास टब्बा पर होने से मैं यहां पर लौकागच्छीय विद्वानों द्वारा संशोधित तथा स्वामी श्रमोलखर्षिजी कृत हिन्दी अनुवाद को तुलनात्मकदृष्टि से बतला कर पाठकों के सामने यह निर्णय रख देता हूँ कि लौंकाशाह के अनुयायी होने का दम भरनेवाले स्थानकवासी लोग लौंकागच्छियों की मान्यता से किस प्रकार पृथक् पथ पर जा रहे हैं । स्था० साधु अमोल खर्षिजो कृत हिन्दी अनुवाद कागच्छीय विद्वानों द्वारा संशोधित टब्बा | ते मणि पीठिकानइं उपरितियाँ मोटउ एकदेवछंद छई तेही सोलइ योजन लबेपणइ पहूल पाई. काहे क झाझेरो सोल इंयोजन उचोउ उचपणे, सर्व मई छाई, यावत् प्रतिरूप वाला छे । श्रीराजश्री सूत्र पूष्ट १६४ । श्रीराज श्री सूत्र १३८ । आगे उस देवछंदा में जिनप्रतिमा का उल्लेख इस प्रकार हैं -- उस मणिपीठिका के ऊपर यहाँ एकबडादेवछंदा सोलह योजन का लम्बा चौडा कुछ अधिक सोलह योजन का ऊँचा सर्व रत्नमय यावत् प्रतिरूप है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा ४६ "एत्थेणं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सहेप्पमाण मेत्ताणं सरिणक्खित्तं चिठ्ठति ।" लोंकागच्छीय वि० सं० टब्बार्थ | स्था० साधु अमोलखर्षिजो कृ.हि. __ ते देवछंदा साहि एक सौ | उसपर एकसौआठ जिनकी आठ जिन प्रतिमा जिन जितनी ऊच प्रतिमा है जिनके जितनी ऊंची। पणइं गावइ ते प्रतिमा जघन्य सात | पर्याकासन से बेठी हुई वहाँ रही हैं हस्तनी उत्कृष्ट पांचसइ धनुष्य प्रमाणइ स्थापि थकी रहछई। श्रो राज. पृष्ट १६४ श्री राज० प्र० पृष्ट. १३८ स्वामीजी बतला सकेंगे कि किसी देवता एवं कामदेव के पांचसौ धनुष्य का शरीर था या वे कभी पद्मासन ध्यानलगाकरके भी बैठते थे ? परन्तु वे तो थीं जिन प्रतिमाएँ जो भगवान् ऋषभ देव की जिनका पांचसौ धनुष्यका शरीर और महावीरप्रमु की सात हाथकी अवगाहना है यह केवल इन तीर्थंकरोंके लिये ही नहीं है परन्तु प्रत्येक चौबीसी में पहिले और छैले तीर्थंकरों का शरीर इसी प्रमाण वाला होता है और इस प्रकार की ध्यानमुद्रा एवं पद्मासन तीर्थंकरों की मूर्तियों में ही होता है । श्रागे शाश्वति मूर्तियों के नाम क्या हैं इसको मूलपाठ से बतलायेंगे । जो स्तूप के चारों और मणिपीठिका पर बिराजमान हैं। 'तासिणं मणिपोढयाणं उवरिं चतारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमेताओ संपलियकर्णिसरणाश्रो भाभि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ चार तीर्थंकरों को मूर्तिय मुहता सरिणक्खिताप्रो पिड्डति तं, जहा, उसभा, बद्धमाणा, चंदाणणा, वारिसेण, ।" लौं का० वि० सं० टब्बार्थ । स्था० अमोलखर्षिजी कृत. ते मणिपिडि का ऊपरइ च्यार हिं० अनु० जिनप्रतिमाछई तेह जिनप्रतिमा उस मणिपीठिका के ऊपर तीर्थकर ने उचपणाइ प्रमाणछाइ | चार जिनप्रतिमा जिन के जितनी जघन्य सात हाथ उत्कृष्ट पांचसइ ऊँची प्रमाणोपेत पांकासनयुक्त धनुष्य प्रमाणछइ पद्मासनथुम स्थुभिका के सन्मुख बैठी है उन नेइ सहा/मुहड़ो करी बेडीछइ ते चारों के नाम ऋषभ, वर्द्धमान, केहनी छई उ० ऋषभ, वर्द्धमान, | चन्द्रानन, और वारिसेण हैं। चन्द्रानन, वारिसेण, एगइ नामइ | प्रतिमाछई। श्रीराज० प्र० पृष्ट १४४ श्रीराज० प्र० सूत्र पृष्ट १२८ पांचभरत क्षेत्र, पांचऐरावत क्षेत्र, एवं दशक्षेत्र में प्रत्येक अव सर्पिणी, उत्सर्पिणी काल में चौबीस २ तीर्थकर होते हैं। उसमें ऋषभ बर्द्धमान चन्द्रानन और वरिसेण ये चार नामवाले तीर्थकर अवश्य होते हैं। वर्तमान चौबीसी भरतक्षेत्र में प्रथम ऋषभदेव चरम वर्द्धमान, ऐरावत क्षेत्रमें प्रथम चन्द्रानन, और अन्तिमवारि सेण, तीर्थंकर हुए और भूत एवं भविष्यकाल में इन चार नाम के तीर्थकर हुए थे और होंगे इसी कारण शाश्वति जिनप्रतिमाएँ के ये चार नाम शाश्वत हैं। और मलसूत्र में ये चार प्रतिमाओं स्तूप के सन्मुख मुँह कर पद्मासन विराजमान हैं । क्या शाश्वति जिनप्रतिमाओं को कामदेव या अन्य देवताओं की मूर्तियों बतलाने Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा ૪૮ वाले सज्जन किसी कोश में उनके पूर्वोक्त चार नाम या सात हाथ से पांचसौधनुष्य का शरीर तथा पद्मासन आदि बतलाने का साहस कर सकेंगे ? अब आगे चलकर हम शाश्वति मूर्तियों के शरीर का वर्णन विषय-सूत्र अर्थ का उल्लेख करेंगे जिससे पाठक भली-भाँति समझ जायेंगे कि निश्चयात्मक यह शाश्वतिमूर्तियाँ तीर्थकरों की ही है। "तासिणं जिन डिमाणं इमेयारूवे वरणवासे परंते । तं जहा-तवणिज्जमया हत्थतला पायतला, अंकम याइंग क्खाई तो लोहियक्खपडिसेगयाई, कणगमइओजंघाओ, कणगमयजाणू, कणगमयऊरूँ, कणगमयइउंगायल द्वीजं तवजिमयाश्र णामित्रो, रिठ्ठा मइयोरोमराइओ, तवणिज्ज मयाचञ्चूया, तबणिज्जम यसिरिवत्था, सिलप्पवालम यउठ्ठा, फालियामयदंता, तवाणज्जमयजिहाओ, तवणिजमयतालुया, कणगम यासिगात्रो, अंतोलोहिक्ख पडिगो, अंक: मयणित्राच्छणि, अंतोलोहियक्ख पडिसेगाओ, रिठ्ठाभइत्र तारा, रिठ्ठामयाणि च्छित्ताणि, रिठ्ठामइयो भमुहाओ कणगमयासवणा, कणगनइ श्र णिलाड पट्टिशत्र, बहरामइत्रो सीसघडीओ, तवणिज्जमइत्र के संतवे. सभूमित्रो, रिठ्ठामया उवरिंमुद्धया" । ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद - उन प्रतिमाओं का इस प्रकार वर्णन करते हैं तद्यथा - तपाये सुवर्णमय हाथपांव के तले हैं करत्नमय श्वेतनख है, नखके अन्दरकाभाग लोहिताक्ष Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ शावति मूर्तियों का शरीर 2 रत्नमय है, सुवर्णमय उरु - पिंडी है, कनकमय घुटने, कनकमय साथल, कनकमय गात्र-लष्टिका, तपाया सुवर्णमय नाभि, रिष्ट रत्नोमय रोमराजी, तपाया सुवर्णमय चच्च तपाया सुवर्णमय श्री वत्स - हृदयपर चिन्ह, प्रवालमय होट, स्फटिकमयदान्त, तपाया सुवर्णमय जिव्हा, तपाया सुवर्णमय तालुवा, कनकमय नासिका, नासिका के अन्दर की भूमि लोहिताक्षरत्नमय है, अंकरत्नमय आँखों के कोने हैं लोहिताक्षरत्नमय आँखों की रेखा, रिष्ट रत्नमय ऑंखों की कीकी, रिष्टरत्नमय आँखोंके भोपन, रिष्टरत्नमय समुह, कनकमय श्रवणा, कनकमय निलाड पट्टक, बारत्नमय मस्तक रक्त सुवर्णमय केसों की भूमि, रिष्ट रत्नमय शिर के बाल । श्री राज० प्र०सू० पृष्ट १३८-१४० उपरोक्त मूर्तियों के शरीर वर्णन में तीर्थकरों के शरीर सदृश ऊंचाई, तीर्थकरों के समान पद्मासन, तीर्थंकरों के ही नाम और तीर्थंकरों के उच्चादर्श लक्षण ही हैं अतः वे मूर्तियों तीर्थंकरों की ही हैं परन्तु पक्षपात कैसा जबर्दस्त होता है कि मूलसूत्रों का स्वयं उपरोक्त अर्थ करते हुए भी ऋषिजो ने अपनी मनमानी नोट लगायी है कि यह शाश्वति जिनप्रतिमा तीर्थकरों की प्रतिमा नहीं किन्तु कामदेव की प्रतिमाऐं हैं यदि ऋषिजी कुछ देर के लिये पक्षपात के चश्मों को उतार कर सच्चे हृदय से विचार करें कि (१) कामदेव अनंग ( शरीर रहित ) होता है तब जिन प्रतिमा का पैरों से शिर तक का वर्णन सूत्रकारों ने बड़ी खूबी से किया है जो मूलसूत्र और ऋषिजी का हिंदी अनुवाद हम ऊपर लिख आये हैं इस पर ध्यान देकर विचारें कि क्या ऐसी ध्यानमय मूर्तियां कामदेव की हो सकती हैं ? २५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा ५० ( २ ) कामदेव का नाम लेने मात्र से काम विकार पैदा होता है तब तीर्थङ्करों की मूर्त्तियों का दर्शन करते ही काम विकार दूर भागता है और शान्ति वैराग्य तथा आत्म विकाश होता है । (३) कामदेव की मूर्ति के पास कामी नर जाते हैं और काम विकार की ही प्रार्थना करते हैं तब जिनप्रतिमा को उपासना तीन ज्ञान संयुक्त सम्यग्दृष्टि चरमशरीरी महाविवेकी इन्द्रादि देव करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि तिन्नाणं तारयाएं, बुद्धा बोहिगाण, मुत्ताणं मोयगाणं, इत्यादि जन्म मरण मिटाने को और मोक्ष की प्रार्थना करते हैं। ( ४ ) कामदेव के शरीर ही नहीं होता है जब जिनप्रतिमा के शरीर का मान तीर्थकरों के शरीर सदृश जघन्य सातहाथ और उत्कृष्ट पाँचसौ धनुष्य का बताया है उन प्रतिमाओं को सिवाय प्रतिमा द्वेषियों के कौन कामदेव की कह सकता है ? ( ५ ) जिस स्थान में जिन प्रतिमा विराजमान हैं उस स्थान का नाम शास्त्रकारों ने "सिद्धायतन" कहा है और ये हैं भी यथार्थ क्योंकि वे मूत्तियों सिद्धों की हैं और जिस नमोत्थुर्ण द्वारा आज हम सिद्धों की आराधना कर रहे हैं उसी नमोत्थूणं द्वारा इन्द्रादि उन मूर्तियों की पूजा कर सिद्ध पद की आराधना कर रहे हैं अतएव शाश्वति जिनप्रतिमा तीर्थकरों की एवं सिद्धों की होने में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता है । सम्यग्दृष्टि देवताओं की उन पूज्य तीर्थंकर देवों प्रति कैसी भक्ति हैं तर्थकरों की मूर्तियां तो क्या पर उनके शरीर का यत्किचित् श्रवयव हाथ लगता है उसको भी वे पूज्य दृष्टि से Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ तीर्थकरों को दाड़ो पूज कर अपना कल्याण समझते हैं इस विषय में शास्त्रकार क्या फरमाते हैं उसको भी सुन लीजिये____ "तेसुणं वयरामएस गोलवट्ट समुगोसु वहवे जिणस्स कहानो सरिणक्खिताओ सांचट्ठति ताओणं सुरियभस्स देवस्य अन्नसिं च बहुणं देवाणय देवीणय अच्चणिज्जाओ जावपज्जुवासणिज्जाओ" लौका० विद्वानों का टब्बा स्था. साधु अमोल. हिन्दी अनु ते बनमय गोल बाटली डावडा उन बज्रमय गोलडबों में विषई घणा तीर्थकरोंनी दाडो । बहुत जिनकी दाडो स्थाप रखी थापी थकी रह छई ने ते दाडो सुरि- हैं वे दाडो सूरियाभ देव के और थाभ देव नई तथा अनेरा पण घगा | भी बहुत से देव देवियों के देवो नई देवी नई वंदनादिक ई, ! अर्चन या वन्दन पर्युपासनीय हैं, अर्चन करवा योग्य छई पुष्पादि कई पूजवाई योग्य छई वांदवा योग्य छ । श्री. राज० प्र० सू० पृष्ठ १६० । श्री राज० प्र० सू० पृष्ठ १६० ___ इसी प्रकार श्रीभगवती सूत्र, दशवॉ शतक पांचवाँ उद्देशा में पूर्वोक्त दाडो की आसातना टालने का अधिकार भी है इससे भी देवता तीर्थंकरों की दाडी को पूज्य दृष्टि से देखते हैं पागे जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण होने के पश्चात् आपके शरीर का अग्नि संस्कार के समय, देवता तीर्थंकर ऋषभदेव की दाडो किस भक्ति भाव से ले जाते हैं वे स्वयं सूत्रकार यों फरमाते हैं। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा ५२ " कर जिणमतीए कह जी, मेयं कइ धम्मत्ति कटुगेरहंति " लौंका० वि० सं० टब्बा कई जिनवर नी भक्ति ने ली कई पोता ना जीत आचार ने लीधे अने कई धर्म जाणि ने जिन दाडो कावे छे। स्था. अमोल हिन्दी अनु. कितनेक देव तीर्थकरों की भक्ति के वस से कितनेक अपना जीताचार समझ के और कितनेक धर्म जानकर ( दडों ) ग्रहन किया ! 'जम्बु ० प० पृष्ठ 'जम्बुद्धि० प० पृष्ठ १०० हमारे ऋषिजी जैसे जिनप्रतिमा को कामदेव की प्रतिमा कहने वाले इन तीर्थंकरों की दाडों को भी कहीं कामदेव की दाडों कहने का दुःसाहस नहीं कर डालेंगे ? पर आश्चर्य तो इस बात का है कि इस सत्यता के युग में भी इस समाज में कितनी अन्ध परम्परा चल रही है कि ऋषिजी अपने हाथों से लिखते हैं कि देवता तीर्थकरों की दाड़ों भक्ति आचार और धर्म समझ कर प्रहण करते हैं फिर अपना ही लिखा - मानने में कैसा हटवाद करते हैं । समझदारों को सोचना चाहिये कि तीर्थंकरों के शरीर के अंगोपांग को अस्थि प्रति उन देवताओं की इतनी भक्ति और पूज्य भाव है वे कामदेव जैसे भव वृद्धक को देव समझ शिर झुकावे एव नमोत्थूणं कहकर वन्दन करेंगे ? नहीं! कदापि नहीं !! हरगिज नहीं !!! वे तीर्थंकरों के परम भक्त, तीन ज्ञान संयुक्त, सम्यग्दृष्टि महाविवेकी इन्द्रादि तीर्थंकरों को अपने उपासनीय देव समझ उनकी मूर्ति या दाड़ो को ही वन्दन पूजन करते हैं । देवताओं • Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन दाड़ों की भक्ति को कामदेव की प्रतिमा पूजने का कहने वाले जरा भगवान् महो - चीर के वचनों को ध्यान पूर्वक पढ़ें या सुने कि वे देवताओं के जीताचार को किस कोटी में बतलाते हैं । "हं भंते । सुरियाभेदेवे, देवाणुप्पियं वंदामि जाव पज्जुवासामि ? सुरियाभाई | समयं भगवं महावीरं सुरियाभ देवं एव वयासी पुराणंमेय सुरियाभा । जीय मेयं सुरियामा । किच्चमेयं सुरियाभा । करणिज्जमेयं सुरियाभा । अभणमय सुरियाभा । अभरणमाय मयं सुरियामा । अरण भवणवासी चाणमंतर जोइस वमाणिया देवा अरिहन्ते भगवंते वंदंति मंसंति, ततो पच्छा साईं २ नाम गोयाईं साहेति तं पोराण मेयं सुरियाभा । जाव अब्भण्णाणयमेयं सुरियाभा । भावार्थ -- भगवान् महावीर सुरियाभदेव प्रति स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि हे सुरियाभ ! तीर्थङ्करों को वन्दन भक्ति करने का तुम्हारा पुराणा श्राचार हैं, जीताचार हैं, तुम्हारे पर्वज देवों ने किया है, तुमको करने योग्य हैं, पिछले तीर्थङ्करों ने देवताओं को आज्ञा दी और मैं भी तुमको श्राज्ञा देता हूँ । अब सोचना चाहिये कि भगवान् महावीर के ऐसे परमभक्त तीर्थङ्करों के अलावा कामदेव जैसों की वन्दन पूजन करें नमोत्थुणं देवे ? क्या यह बात हमारे ऋषिजी एवं स्थानकमार्गी भाइयों की अन्तरात्मा मंजूर कर लेगा ? कदापि नहीं ! हर्गिज नहीं !! स्पप्न में भी नहीं !!! आगे चल कर हम सुरियामदेव के की हुई जिन प्रतिमा की विस्तृत पूजा का पाठ और ऋषिजी के हिन्दी अनुवाद को ज्यों ܘ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा का त्यों लिखकर पाठकों को परमेश्वर की पूजा की ओर आक र्षित करेंगे कि सम्यग्दृष्टि जीव आत्म कल्याण के हेतु जिन प्रतिम को जिनवर समझ कर किस भक्ति भाव से पूजा करते हैं । ५४ " तर ते सूरियादेवं चत्तारिसोमणियसाहस्मीओ, जाव सोलसायरक्ख देवसाहस्सी, अण्णेय बहवे सूरियाभ जाव देवीउय, अध्पेगइया उप्पलहत्थगया जाव सयसाहस्त्रपतयहत्थ गया, सूरियाभदेवं पित्रो २ समणुगच्छति । ततेणं सूरिया देव बहवेअभियोगिय देवाय देवीत्रांय, अप्पेगइयाकलसहत्थगया, जाव अप्पेगइया धूवकडूच्छुर्यहत्थगया, हठ्ठतुट्ठा जाव सूरियादेवं पिटुओ समणुगच्छंति | १५ | ततें से सुरियाभेदेवे, चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव ने हियं बहुहिं सुरियाभविमाणवासिहिं देवहिं देवीहिंय सिद्धिं संपरिबुडे, सव्विढिए, जाव वातियरवेणं, जेणेव सिद्धायणेतेणेवडवागच्छई २त्ता सिद्धायणपुरित्थि मिल्लेदारेणं अणुपवसति, जेणेवदेवच्छेदऐ जेणेव जिणपडि मात्र तेणेव उवागच्छई, जिणपडिमागं लोएपणामं करेति २ ता, लोमहत्थगं गिरहई, जिण परिमाणं, लोमहत्थ एपमज्जई २ त्ता, जिणपडिमा सुरभिगंगंधोदर रहाणेति २ ता, सरसेण गोसीसचंदणेणगायाणंत्र लिंपइ, जिणपडिमा त्राहियाइ देव दुसाईजुयलाई नियंसेइ, पुप्फोरुहणं, माल्लारुहणं, गंधाहरुणं, बनारुहणं, चुन्नारुहणं, वत्थारुहणं, आभरणा रुहणं, करेता आसतासत विउलवट्ट वग्धारिय, मल्लदामकलावंकोरेई कयग्गह Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ सुरियाभदेव की पूजा गिरिहत्ता, करयल पब्भुट्टइ, विप्पमुक्केण, दिब्ववरणेणं, कुसुमेणं, मुक्केपुप्फपुंजो वयारकलियंकरेतिकरेता, जिणपडिमाणंपुरत्तो, अत्थेहिं, सेएहि, रययामीहं, अच्छरसतंदुलहि, अछमंगलए, प्रालिहई तं जहा सोत्थियजावदप्पण । ६॥ तयाणंतरं चणं, चंदप्पहरयणं, विमलदंडकंचण मणिरयण, भात्तिचित्तं, कालागुरुपवरकुंदरुक्कतरुक्क धूव मधमघंत गंधूतमाणु चिठ्ठति, धूमवटि विणि मुयंतवरूलियम कडुछुयं पग्गहिययत्तेणं, 'धूयदाउणंजिणपडिमाणं,'अट्ठसविसुद्ध गंध जोतेहिं अपुरणरुतेहिं महावित्तेहिं संथूण इ,सत्तकृपयाइ पच्चोसक्कई २ ता, वामंजागुंअंचइ दाहिणजाधरणितलसि तिकठ्ठ, तिक्खत्तो मुद्धाणंधरणितलंसिीनच्चोडेतिरता पच्चन्नमइ इसिं पच्चून्नमित्ता करयल परिग्गहियंसिरसावत्तमत्थए अंजली कटू एवं वयासी नमोत्थणं अरहन्ताणं, जाव संपत्ताणं, वंदति णमंसई ।" ऋ० अनुवाद-तब उस सुर्याभदेव के चार हजार सामानिक देवता यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवता और भी बहुत सूर्याभ विमानवासी देवता देवियों में से कितनेकने हाथ में ( यहां उत्पलादि फूलों का अर्थ करना ऋषिजी ने न जाने क्यों छोड़ दिया) कलस ग्रहण किये हुये यावत् कितनेक ने धूप के कूडछे ग्रहण किये हुवे हृष्ट तुष्टित हुये सुर्याभदेव के पीछे चले जा रहे हैं ।१५। तब वह सूर्याभदेव चारहजार सामानिक देवता यावत् अन्य भी बहुत सूर्याभ विमानवासी देवता देवियों सपरिवारा हा सर्वऋद्धि मे युक्त यावत वादिंत्र के मणकार . यहां मूल पाठको ही बदल दिया है, देखो मूल सूत्र ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा होते हुये जहाँ सिद्धायतन था तहाँ आया, प्राकर सिद्धायतन के पूर्व द्वार से प्रवेश किया जहाँ देव छन्दा में जिनप्रतिमा थी वहाँ आया जिनप्रतिमा को देखते ही प्रणाम नमन किया, प्रणाम कर मौर पीछी की पूँजनी हाथ में ग्रहण की जिनप्रतिमा को मौर पींछी की पूंजनी से प्रमाजी, प्रमार्जन कर जिनप्रतिमा को सुगन्धित पानी कर स्नान कराया, स्नान करवाकर गोशीर्ष चन्दन कर गात्र को अनुलिप्त किया, जिनप्रतिमा को महयं चढ़ाया, देव दूष्य वस्त्र पहनाये फूल चढ़ाये, माला पहनाई, सुगन्धी द्रव्य चढ़ाया, वर्णक चढ़ाया,सुगन्धी चूर्ण चढ़ाया, ध्वजा चढ़ाई,आभरण चढ़ाये, ऊपर चन्द्रवा बाँधा, नीचे भूमिका स्वच्छ की, फूल की माला पहनाई, जिस प्रकार स्त्री के सिर के बन्धे हुये बालों को पुरुष प्रहन ॐ सत्र में वस्त्र चढ़ाना लिखा है पर ऋषिजी ने वस्त्र पहनाये लिख दिया है पर यह लिखते समय इतना ही विचार नहीं किया कि गोशीर्ष चन्दन का लेपन कर वस्त्र कैसे पहनाये ? ऐसा तो एक विवेक शून्य मनुष्य भी नहीं करते है तो वे महाविवेकी देव क्यों करेंगे । वास्तव में वस्त्र चढ़ाये अर्थात् अर्पण किये जैसे आज भी पूजा में वस्त्र अर्पण किया जाता है जिसको अंग लुहने कहते हैं। ऋषिजी ने इस पाठ का अर्थ जिनप्रतिमा को वस्त्र पहनाकर फुट नोट में लिखा है कि तीर्थकर वस्त्र नहीं रखते हैं इसलिए यह प्रतिमा तीर्थङ्करों की नहीं हैं पर आपके ही सहचारीतीर्थङ्करों के मुंह पर मुहपत्ती बंधाने के कल्पित चित्र बनाये हैं वे तो ऋषिजी की मान्यता मुभाफिक बिलकुल मिथ्या ही ठेरते है न ? क्योंकि तीर्थकर वस्त्र ही नहीं रखते थे तब वस्त्र के साथ डोरा कहाँ से आया पर यह मत न तीर्थङ्करों का है न तीर्थकरों की आज्ञा पालन करने वालों का है पर गुरुगम्य विहिन लोगों में नैसी जिसके दिल में आई वह ऐसी ही घसीट मारते हैं। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमा की पूजा कर छोड़े, बन्धन मुक्त होने से वे बाल बिखरते हैं इस प्रकार वहाँ दिव्य देव के लाये पाँचों वर्ण के फूल स्थापन किये फूल का ढगला मनोहर किया, करके जिनप्रतिमा के आगे निर्मल रूपमय श्वेत घटारा मटारा चाँवल के आठ २ मंगल आलेखे, चित्र किये तद्यथा-स्वस्तिक यावत् दर्पण ।१६। तब फिर चन्दनप्रभ रत्नमय, वैडूर्य रत्नमय निर्मल हैं दंड जिसका, सुवर्ण मणिरत्नों से विविध भाँति के चित्रों से चित्रा हुआ ऐसे धुपड़े में कृष्णागर प्रधान, कुन्दरूक सिल्हारस धूप मघमघायमान गन्धवाला धूप क्षेप कर वैडूर्यमय कुडछा को ग्रहण किया, सावधान पने धूप दिया जिन प्रतिमा को,और १०८ विशुद्धगाथा कर पुनरुक्त दोष रहित गाथा कर महत्ववाली गाथा कर स्तुति की,सात आठ पाँव पीच्छा सरका पीछा सरकाकर डावा ढोंचन को खेंचकर खड़ा रक्खा दाहिना ढींचन धरनीतल में स्थापन किया तीन वक्त मस्तक जमीन को लगाया नीचे लगाकर कुछ मस्तक ऊपर रखकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर आवर्तन कर मस्तक पर स्थापन कर यों बोला-नमस्कार हो अरिहन्त को यावत् मुक्ति प्राप्त होवे उनको यों वन्दन नमन किया। श्री गयप्पमेनी सूत्र पृष्ट १६८ से १७२ इस पूजा में सम्यग्दृष्टि देवता नमोत्थुणं अरिहन्ताणं यावत् संपताणं कहा है और ऋषिजी भी इसका हिन्दी अनुवाद करते हुए कहते हैं कि-"नमस्कार हो अरिहंतो को यावत् मुक्ति प्राप्त हुये उनको यों वन्दन नमस्कार किया" क्या हमारे ऋषिजी काम देव को अरिहंत यावत् मुक्ति प्राप्त हुये समझते हैं। अफसोस ! अफसोस !! और अफसोस !!! शायद् ऋषिजी हमेशा नमोत्थुणं देते हैं वह भी कामदेव को ही तो न देते हों ? क्योंकि सूर्याभ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा ५८ का नमोत्थुणं और ऋषिजी के नमोत्थुणं में अन्तर नहीं पर दोनों का नमोत्थुणं एक ही है। कई लोग भद्रिक जनता को यों बहका देते हैं कि-देवताओं ने केवल जिन प्रतिमा की ही नहीं पर दरवाजे तोरण पुतलियों वगैरह ३२ स्थानों की पूजा की हैं इसलिये देवताओं की पूजा मोक्षार्थ नहीं समझी जाती है ? इसका उत्तर स्वयं ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद ही दे रहा है कि मूल सिद्धायतन में १७ प्रकार से पूजो एवं नमोत्थुणं से भाव-पूजा कर देवताओं अपने प्राचार मुताबिक दरवाजा तोरण पुतलियों वगैरह के सामने जलधारा, पुष्प, और धूप उखेवन कर स्तूभ के पास जाते है वहां जिनप्रतिमा है उनकी पूजा सिद्धायतन की जिनप्रतिमा के माफिक करते है और ऋषिजी इस बात को मंजूर भी करते हैं देखिये "जेणव पव्वथिमिल्ला, जिणपडिमाणं, तेणेव, उवा गच्छइ २ ता जिणपाडिमाणं आलोहपमाणं करेति जहा जिण पडिमाण तेहव नमसंति" ___ अनु० जहाँ पूर्व के स्तूप पर जिनप्रतिमा है तहाँ गये और जिनप्रतिमा को देख प्रणाम किया यावत् जिनप्रतिमा की पूजा यावत् नमस्कार किया इसी प्रकार यहाँ भी सब किया । श्रीराजप्रश्नीस इस मलसूत्र पाठ और अनुवाद से सिद्ध होता है कि शेष तोरणादि को जलधारा पुष्प और धूप दिया वह अपना आचार अर्थात् साफसूफ करने रूपशुद्धि और मंगलिक समझ के दिया पर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ स्तूप पर की जिनप्रतिमा प्रणाम, पूजा, और नमोत्थूणं वहाँ नहीं दिये । परन्तु जहाँ स्तूप की मणिपीठिका पर जिनप्रतिमा है वहाँ प्रणाम पूजा और नमोत्थुणं दिया है, जैसे कि सिद्धायत में विधिपूर्वक किया था इससे सिद्ध होता है कि देवता जिनप्रतिमा की पूजा कल्याणार्थ ही करते हैं। जिनप्रतिमा की द्रव्य भाव पूजाकर सूर्याभदेव, भगवान महावीरदेव को वन्दन करने को जाता है और वह अपने लिये प्रश्न पूछता है कि अहन्न भंते । सुरियाभे देवे किं भवसिद्धिएं किं अभव सिद्धिए ? सम्माद्दडी मिच्छादिट्टी ? परितसंसारिए अणंत संसारिए ? सुलभबोहिए, दुलभ बोहिए ? श्राराहते, विराहते ? चरमे, अचरमे ? सूरियाभाए । समणे भगवं महावीरं सारयाभे देवं एवं वयासी-सरियामा ? तुमेणं भवासीद्धिए णो अभवासद्धिए जाव चरमे णो अचरमे ॥ ___ ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद. अहो भगवान । मैं सूर्याभदेव क्या भव्य सिद्धि हूँ ? कि अभव्य सिद्धि हूँ ? सम्यक दृष्टि हूँ कि मिथ्या दृष्टि हूँ ? परत्त संसारी हूँ कि अनंत संसारी हूँ ? सुलभ बोधी हूँ कि दुर्लभ बोधी हूँ ? आराधिक हूँ विराधिक हूँ ? चरम हूँ कि अचरम हूँ ? अर्थात् यह मेग देव सम्बन्धी भव अन्तिम है कि और भी मुझे भव करना पड़ेगा ? श्रमण भगवन्त श्री महावीर स्वामी सूर्याभदेव से यों बोले-सुर्याभ । तू भव्यसिद्धिक हैं परन्तु अभव्यसिद्धिक नहीं है तूं सम्यग्दृष्टि है परन्तु मिथ्या दृष्टि नहीं हैं, तू परत (अल्प) संसारी है परन्तु अनंत संसारी नहीं है तूं सुलभ बोधी ( सहज समझने वाला) है परन्तु दुर्लभ बोधी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकरण तीसरा ६० नहीं है तू आराधिक जिनाज्ञा पालक है परन्तु विराधिक नहीं है तूं चरम है यह देव सम्बन्धी अन्तिम भव है परन्तु अचरम नहीं है । श्री गयप्पसेणीसत्र पृष्ट ५६ सम्यग्दृष्टि जीव कामदेव को कामदेव समझ कर पूजा करे तो भी उसको मिथ्यात्वी कहा जाता है तब तीन ज्ञानयुक्त महाविवेकी, भगवान् के पूर्ण भक्त, सम्यग्दृष्टि देवता कामदेव की मूर्ति को वन्दन नमस्कार कर सत्रहभेदी,पूजा करे एवं नमोत्थुणं के पाठ से कहे "तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहगयाणं, मुत्ताणं मोयगयाणं" इत्यादि प्रार्थना करे और भगवान उनको सम्यग्दृष्टि, आराधी, परत संसारी, सुलभबोधी, भवि और चरम कह दें क्या ऋषिजी की आत्मा इस बात को मंजूर कर लेगी ? कदापि नहीं। ____ वास्तव में देवलोकों में शाश्वति जिनप्रतिमा हैं वे सब तीर्थङ्कों की है और देवता उन प्रतिमाओं की द्रव्य भाव से पूजा करते हैं वे केवल आत्मकल्याण अर्थात् मोक्ष के लिये ही करते हैं और यही भावना सम्यग्दृष्टि देवता के उत्पन्न होने के समय से अन्त तक रहती हैं खास शास्त्रकार इस बात का इस प्रकार प्रति'पादन करते हैं जरा ध्यान लगा कर देखिये तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पंचविहाते पज्जती पजत्तिभावंगयस्स सामाणस्स इमेयारूवे अझ थिएचित्तिए पत्थिए मोगएसंकप्पे समुप्पज्जित्था कि मे पुलिंबकरणिज्ज, किंमे पच्छाकरणिज्जं, किंमे पुब्बि सेयं, किंमे पच्छसेयं किंमे पुब्बि पच्छावि हियाए सुहाए रकमाए निस्सेसए अणुगमित्ताए भविस्सइ ? Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरियभदेव की भावना - ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद-तब वह सूर्याभदेव को पंच प्रकार की पर्याप्ती को पर्याप्त हुवे बाद इस प्रकार अध्यवसाय चिन्तवन प्रार्थना मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुवा कि क्या मुझे प्रथम करने योग्य हैं, क्या मुझे पीछे करने योग्य हैं, क्या मुझे प्रथम श्रेयकर है क्या मुझे पीछे श्रेयकर है क्या मुझे प्रथम और पीछे हितकर्ता सुखकर्ता, क्षमाकाकर्ता, निस्तारकाकर्ता, अनु. गामी यानि साथ आने वाला होवेगा। सूर्याभ के इन प्रश्नों के उत्तर में शास्त्रकार फरमाते हैं कि "तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणिया परिसो ववरणगा देवा सूरियाभस्स इमेयारूवे अज्झस्थियं जाव समुप्पन्न समभि जाणिता जेणेव सुरियाभ देवे तेणेव उवागच्छाई २ता सूरियाभ देवं करयल परिग्गहियं सिरसा वत्तं मत्थए अंजलि कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेति २ ता एवं वयासी एवं खलु देवाणु प्पियाणं सूरियाभेषिमाणे सिद्धायणंसि अठ्ठसयं जिणपडिमाण जिणुस्सह प्पमाणामेत्ताणं सन्निवित्तं चिड्ढंति, सभाए सहम्माए माणवत चेइंएखभे वइरामय गोलवछ समुगाए बहुओ जिणस्स कहानो सन्निक्खिताओ चिट्ठति ताआणं देवाणु प्पियाणं अन्निसिंच वहुणं वेमाणियाणं देवाणय देवीणय अचाण ज्जाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ तं एयणं देवाणुप्पियाणं पुब्बि करणिजं तं एयणं देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिज्जं तं एयणं देवाणुप्पियाणं पुब्बिसेयं एयणं देवाणुप्पियाणं पच्छा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा ६२ सेयं तं एयणं देवाणुप्पियाणं पुब्बि पच्छावि हियाए सुहाए रकमाए निस्सेसाए अणुगामित्ताए भावस्संति" ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद-तब उन सूर्याभदेव के सामानिक (बराबरी ) के परिषदा में उत्पन्न हुवे देवताओं-सूर्याभदेव के उक्त प्रकार के अध्यवसाय यावत् समुत्पन्न हुवेअच्छी तरह जाने और जहाँ सूर्याभव था तहाँ आये श्राकर सुर्यामदेव को हाथ जोड कर सिरसावत अंजली करके जय हो विजय हो इस प्रकार वधाया, वाधा कर यों कहने लगे यो निश्चय अहो देवानुप्रिय । सूर्याभ विमान के सिद्धायतन में एक सौ आठ ( १०८ ) जिनप्रतिमा, जिन के शरीर प्रमान ऊंची स्थापन की हैं तथा सौधार्मिक सभा में माणवक चैत्य स्थंभ में वनरत्नमय गोल डुबों में बहुत जिन की दाडों रखी हुई है वे अचनीय (वन्दनीक पूजनीक ) यावन् पर्युपासना करने लायक है इसलिये यह देवानुप्रिय के प्रथम करने लायक काम है यह पीच्छे करने योग्य काम है यह देवानुप्रिय को प्रथम पीछे श्रेयकार है यह देवानुप्रिय को पहिले पोच्छे हितकारी सुखकारी क्षमाकारी निस्तारकारी, अनुगागिक होवेगा। श्री रायप्पसेनी सूत्र पृष्ट १४६ अहा ! अहा !! नरभव में प्रदेशी राजा की दृढ श्रद्धा और अटूट क्षमा। बाद प्रदेशी राजा का जीव देवलोक में सुर्याभदेव पने उत्पन्न होता है और उत्पन्न होते ही कैसी भावना ?। मुझे पहला क्या करना चाहिये ? मुझे पीछे क्या करना चाहिये ? और मुझे पहले क्या काम करने से कल्याण का कारण होगा और ___ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ पूजा का फल यावत मोक्ष पीछे क्या करने से कल्याण का कारण होगा?, और पहिला पीछे क्या काम करने से हित, सुख, कल्याण, मोक्ष का, कारण होगा ? इसका ही उत्तर मिलता है कि सुर्याभ वैमान के अन्दर सिद्धायतन में १०८ जिन प्रतिमाओं जो जिनदेव के शरीर प्रमाण अर्थात् जघन्य सातहाथ उत्कृष्ट पांचसौ धनुष्य की तथा सौधर्मी सभा के अन्दर जो गोल डब्बे में जिनेन्द्र देवो की दाढ़ो रही उनका वन्दन पूजन करना ही आप का पहला काम है यही आपका पीछे काम है जिनप्रतिमा का वन्दन पूजन हो आपको पहले पिच्छे श्रेयकार है । जिन प्रतिमा का पूजन ही पहले पीछे हितकाकारण, सुखकाकारण, क्षम, अर्थात् कल्याण का कारण, निस्तार यानि मोक्ष का कारण और यही साथ में चलने वाली है अर्थात् देवता सम्बन्धी मुवनादि सब ही रहेंगे और प्रभुपूजा रूप करणी ही आपके साथ चलने वाली है। ऋषिजी ! इससे अधिक आप पूजा के लिये क्या प्रमाण चाहते हो । जो आपके ही किया हुआ यह अनुवादित सूत्र पाठ है । यदि ऋषिजी के हृदय में पक्षपात का भूत नहीं होता तो जैसे आपने प्रभुवन्दन और चारित्र का फल के लिये यावत् मोक्ष बतलाया है इसी प्रकार मूर्तिपूजा का फल के लिये भी खुल्लम खुल्ला मोक्ष बतलाने में कदापि नहीं हिचकिचाते ? हम श्रीमान् ऋषिजी के अनुवादित सूत्र पाठ यहाँ पतला कर स्पृष्ट कर Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा तीर्थकरों को बन्दन मुनियों को संयम पालने तीर्थंकरों की मूर्तियां करने का फल पूजने का फल का फल सूत्रों के मूल पाठ । सूत्रों के मूल पाठ । सूत्रों के मूल पाठ १ हियाए २ सुहाए ३ रकमाए ४ निस्सेसाए ५ अणुगमिताए हियाए सुहाए रकमाए निस्सेसाए अणुगमिताए हियाए सुहाए रकमाए निस्सेसाए अणुगमिताए ऋषिजी का हिन्दी __ अनुवाद ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद १ हित की कर्ता | हितकर्ता हितकारी २ सुख की कर्ता सुखकर्ता सुखकारी ३ कल्याण की कर्ता योग्यकर्ता क्षमाकारी ४ (अर्थ नहीं किया है) कर्मक्षय करने वाला है | निस्तारकारी ५ अनुक्रम परम सुख• भवान्तर में फल साथ | अनुगामीक होवेगा दाता 'उववाई सूत्र पृ० ८७ आचारांग सूत्रप ० १९९| राजप्रश्री सत्रपृ० १२८ उपर के कोष्टक में तीर्थंकरों को वन्दन करना, संयम का पालन करना और तीर्थकरों की मूर्तियों की पूजा करने का फलके विषय में शास्त्रकारों ने एक सरीखा पाठ और अर्थ किया है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूमा का फल यावत् मोक्ष हां, ऋषिजी की इतनी योग्यता न होने से वे शब्दों का अर्थ ठीक तौर से न कर सकें यह बात दूसरी है। भगवान को वन्दन, संयम पालन और प्रभु पूजा करना यह तीनों मोक्ष के कारण हैं क्योंकि एक कार्य के अनेक कारण हुआ करते हैं यदि ऐसा न होता तो वन्दन और संयम दोनों को मोक्ष का कारण नहीं कहते । कारण संयम को अपेक्षा वन्दना में इतना कष्ट नहीं है तब मूर्तिपूजा में वन्दन तो आही जाता है वह मोक्षका कारण हो इस में तो सन्देह ही क्या हो सकता है क्योंकि पूर्वोक्त तीनों की भावना जन्म मरण मिटा के मोक्ष प्राप्त कर ने की है। इसलिये ही शास्त्रकारोंने तीनों कारणों का फल क्रमशः हित, सुख, कल्याण,मोक्ष और अनुगामी बतलाया है । क्या कोई व्यक्ति प्रभु पूजा का फल मोक्ष होने में किंचित् भी शंका कर सकते हैं ? नहीं । कदापि नहीं !! हरगिज नहीं !!! कई लोग बिचारे भद्रिक लोगों को यों भ्रम में डाल देते हैं कि देवताओं को की हुई पूजा को तो हम मानते हैं पर इस में मोक्ष होना हम नहीं मानते हैं। क्योंकि देवता जिनप्रतिमा की पूजा करते हैं यह तो उनका जीताचार हैं। उत्तर में यह कहा जा सकता है कि तब तो श्राप देवताओं की की हुई तीर्थंकरों को वन्दना भी मोक्ष का कारण नहीं मानोगे ? क्योंकि वहां भी खास भगवान् ने श्रीमुख से फरमाया है कि "पोराणा मयं सुरियामा, जीयामेयं सुरियामा" हे सुर्याम तीर्थंकरों को वन्दन करना तुम्हारा पुराणा रिवाज और जोताचार हैं। यदि अरिहन्तों को वन्दन करना देवताओं का पुराणा रिवाज और जीताचार हैं और यह वन्दना मोक्ष का हेतु है तो देवता जीताचार से प्रभुपूजा करें Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा .६६ वह मोक्ष का कारण क्यों नहीं होता है ? इस में पक्षपात के लावा दूसरा कोई कारण नजर नहीं श्राता है और इस ज्ञान युग में इस मिथ्या पक्षपात की हांसी के सिवाय क्या कीमत हो सकती है ? उपसंहार ९ - देवलोक में शाश्वति जिनप्रतिमाएँ हैं, वे सब तीर्थकरों की ही है और उन्हें कामदेव को कहने वाले शास्त्रों के बिलकुल अनभिज्ञ हैं । २ - जैन दर्शन स्याद्वाद को माननेवाला है, द्रव्यास्तिनयापेक्षा लोक को शाश्वता और पर्यायस्तिनयपेक्षा लोक को अशाश्वता मानते हैं । तदनुसार देवलोक और तत्रस्थित जिनप्रतिमाओं को भी शाश्वत मानते हैं । ३ - देवता सम्यग्दृष्टि होने से उनकी की हुई तीर्थकरों की वन्दना और तीर्थकरों की मूर्तियों की पूजा मोक्ष का कारण है । ४ - मूर्तिपूजा का फल यावत् मोक्ष का बतलाया है इस लिये मोक्षाभिलाषी जीवों को मूर्ति की द्रव्य भाव से यथाधिकार पूजा अवश्य करनी चाहिये । ५- इस प्रकार शास्त्रकारों की आज्ञा का पालन करने वाले ही सम्यग्दृष्टि कहला सकते हैं और जिन वचनों को न्यूनाधिक कहने वाला निन्हव मिथ्यात्वी को पंक्ति में समझा जाता है । ६ - इस प्रकरण को आद्योपान्त पढ़ कर यदि मिथ्यात्वोदय और उत्सूत्र प्ररूपकों के अधिक परिचय से झूठी श्रद्धा हृदय में Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ पूजा का फल यावत् मोक्ष घुस गई हो तो उसको शीघ्रातिशीघ्र निकाल के वीतराग के दृढ श्रद्धा रख कर स्व परका कल्याण कथनानुसार मूर्तिपूजा की करने में प्रयत्न करते रहें । ७ - यदि इस में किसी को कुछ पूछना हो तो विद्वानों से जिज्ञासुभावों से पूछ के निर्णय करलें पर मिले हुए अमूल्य मनु* भव को व्यर्थ भ्रम में न जाने दें। थोड़ा बहुत अपनी बुद्धि से भी विचार करें कि मूर्तिपूजा में किस प्रकार की उत्तम एवं उज्वल भावना रहती है व मुक्ति का कारण क्यों न होगा अर्थात् अवश्य होगा हो । ओ३म् शांति | Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुथ जैनागमों में प्रशाश्वति मूर्तियाँ । आत प्रकरण में हमने जैनागमों और विशेष स्था० साधु ___ अमोलखर्षिजी कृत हिन्दी अनुवाद द्वारा देवलोकों में शाश्वति जिनप्रतिमाओं की पूजा और पूजा का फल क्रमशः मोक्ष होना सिद्ध कर बतलाया है। अब इस प्रकरण में अशाश्वति मूर्तियों के लिये भी ऋषिजी के सूत्रों के अनुवाद से ही साबित करेंगे। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में चौवीस चौवीस तीर्थकर होते हैं, इस नियमानुसार इस अवसर्पिणी में भी धर्म प्रवर्वक चौवीस तीर्थकर हुए जिनमें आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव थे । आपने युगलीक धर्म का निवारण कर कर्म भूमि अर्थात् असी मसी कृसी रूप कर्म बतला कर नीति धर्म चलाया बाद आपने स्वयं दीक्षित हो केवल्य ज्ञान प्राप्त कर धर्म मार्ग प्रचलित किया, तीर्थंकरों को कैवल्यज्ञान होता है तब वे चतुर्विध श्रीसंघ का स्थापना कर गणधरों को त्रिपदी का ज्ञान देते हैं और वे गणधर द्वादशाङ्गों की रचना करते हैं ! उसमें स्वर्ग नर्क मृत्युलोक के अवस्थित भावों का वर्णन जो अनादि काल से चला आया है वह जनता को ज्यों का त्यों सुना देते हैं। इसमें देवलोकादि में शाश्वता मंदिर जिनप्रतिमाओं की पजा और पजा का फल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशाश्वनि मूर्तियों यावत् क्रमशः मोक्ष का वर्णन आता है इस हालत में मोक्षाभिलाषी मुमुक्षु देवलोक के सदृश मंदिर बनाके जिनप्रतिमाओं की स्थापना करके उनकी द्रव्य भाव से पूजा कर अपना प्रात्मकल्याण करे, इसमें शंका या सवाल ही क्या हो सकता है ? श्री भारत चक्रवर्ती ने अष्टापद पर्वतपर चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस मन्दिर बनाकर तीर्थंकरों के शरीर वर्ण चिन्ह युक्त मृत्तियों उन मंदिरों में स्थापना की, सागर चक्रवर्ती के पुत्रों ने उनकी रक्षा को, सम्राट् रावण मंदोदरी ने वहाँ जाकर भक्ति की, गणधरगौतमस्वामी ने उस महान तीर्थ की यात्रा की, ऐसा उल्लेख जैनशास्त्रों में आज भी विद्यमान हैं और भी प्राचीनतम समय के जैनमंदिर मूर्तियों के विस्तृत प्रमाण जैन शाखों में मिल सकते हैं । परन्तु हमारे स्थानकमार्गी भाई केवल ३२ सूत्र मानने का आग्रह कर बैठे हैं । वह भी मूलसूत्र तथा उनका खुद का किया हुआ टब्बा अर्थात् भाषानुवादको मान्य कर उस पर हो विश्वास रखते हैं इसलिये मैं आज यहाँ पर उन महानुभावों की मान्यतानुसार ३२ सूत्र और सूत्रों के अनुवाद के प्रमाण देकर यह बतलाने का प्रयत्न करूँगा कि ३२ सूत्रों के मूलपाठ में अशाश्वति मूर्तियों का उल्लेख विस्तृत संख्या में मौजूद है। ... जहाँ जैनों की वस्ती हो वहाँ आत्म-कल्याण का साधन जैन मंदिर मूर्तियों का होना स्वभाविक हैं जैनागमों में नगरों का वर्णन किया वहाँ भी इस बात को अच्छी तरह से बतलाया है कि नगरों के मुहल्ले २ में अरिहन्तों के मंदिर हैं हम यहाँ पर श्री उत्पातिक सूत्र में चम्पा नगरी के वर्णन में आये हुए अरिहन्तों के मंदिरों का उल्लेख कर देते हैं। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ लौकागच्छीय आचार्य अमृत चंद्र सूरि कृत टब्बा के साथ मूलपाठ । आयरवंत चेड़या जुवड़ विविह साव बहुला अरिहन्त चेइय जणवए संणिवठ बहुला ( इतिपाडांतर ) coबार्थ जिण नगरीह आकरवंत - 1-सुन्दाकार चैत्यप्रासाद देहरा छाइ । वैश्याना विविध नाना प्रकार संनिवड पाडा छे बहुला कहतां घणा तीन नगरी छई, अरिहन्तना चैत्य प्रासाद देहरा घणा छेई (पाठान्तर ) श्री उववाई सूत्र पृष्ट २ Vo स्था० साघु श्रमोल खर्षि जी कृत हिन्दी अनु० के साथ मूलपाठ । श्रयरवंत चेझ्या जवह विविह सणिवा बहुला । फूट नोट में - अरिहन्त चेहया बहुला ( पाठांतर ) ऐसा पोठ भी कितने प्रतियों में है । हिन्दी अनुवाद आकारवंत - शोभायमान यक्षादि: के मंदिर भी बहुत हैं 1 श्री उववाई सूत्र पृष्ट: २ पाठांतर के मूलपाठ का अर्थ अरिहन्तों के बहुत मंदिर हैं यह अर्थ आपने नहीं किया है । स्था० साधु जेठमल जी ने अपने कल्पित विचारों के अनुसार 'अरिहन्त चेइया' का अर्थ "यक्ष का मंदिर" किया है उसी का ही अनुकरण ऋषिजी ने किया मालूम होता है। शायद अन्ध परम्परा इसीका ही नाम हो कि एक मनुष्य ने किसी कारण धोखा खाया हो तो उसके पीछे उसकी वंश परम्परा धोखा खाती ही जाय कि अरिहंत चेहया का स्पष्ट अर्थ अरिहन्तों के मंदिर होता है उसे यक्ष का मंदिर कह देना या लिख देना । लौका गच्छाचायें - अमृतचन्द्रसूरि 'अरिहंत चेइया' पाठ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पा नगरी के मन्दिर मूल में लिख कर उसे पाठांतर बतलाते हैं यह आपका भव भी रूपना है कि जैसा सूत्र में था पैसा लिख दिया तब ऋषिजी ने मूलपाठ से उस पाठ को निकाल कर फुट नोट में रख दिया तब नौकागच्छाचार्य ने अरिहन्तों के चैत्य-अरिहन्तों के मंदिर का अर्थ किया तब ऋषिजी ने यक्षादि के मंदिर का विपरीत अर्थ कर डाला शायद आपने आदि शब्द में अरिहन्तों के मंदिर होना समझ लिया हो क्योंकि खुल्लमखुला तो वे कहीं कैसी तथापि दोनों के अर्थ से यह स्पष्ट पाया जाता है कि चम्पानगरी में अरिहन्तों के बहुत से मंदिर थे इस हालत में यह क्यों कहा जाता है कि सूत्रों में जैन मंदिरों का अधिकार नहीं ? परन्तु अब तो यह बात ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा भी निश्चय होगई है कि भगवान महावीर के समय में राजा श्रोणिक ने मंदिर बनाया था जिसको हम आगे पांचवें प्रकरण में प्रमाणित कर बतलावेंगे:___ वास्तव में पूजा होती है पूज्य पुरुषों की, मूर्ति तो स्थापना निक्षेप है पर खुद भगवान महावीर के मौजूदगी में आपके भक्त लोग आपकी पुष्पादि से पूजा कर आत्म कल्याण करते थे और इस विषय के शास्त्रों में उल्लेख भी मिलते हैं । जरा ध्यान लगा कर देखिये____ "अप्पेगइया वंदणवातियं, अप्पेगइया पूयणवत्तियं” . लौकागच्छीय अमृत चन्द्र सूरि स्थाठसाधु अमोलखर्षिजी कृत कृत टब्वा हिन्दी अनुवाद एकेक पूर्व काह्य (राजादि ) ते कितनेक भगवान् को बन्दन बांदिवास्तुति करवा तिणइज निमित । स्तुति करने को कितनेक भग Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ७२ इआवई एकेक पूजा जिम पुष्पादि । वान् की भाव पूजा करने कोपूजयइ तिम पूजानेजइ निमितई आवई श्री उववाई सूत्र पृष्ठ १६५ श्रीउबवाई सूत्रपृष्ठ ८७ ____ श्रीमान् ऋषिजी को पूछा जाय कि 'वंदनवत्तियं' पाठका अर्थ तो आपने वन्दना स्तुति कर दिया जिसको श्राप भाव पूजा मानते हो ! फिर 'पूयणवतिया' का क्या अर्थ होता है ? यदि आप भाव पूजा ही कहोगे तो आपके अनुवाद में पुनरुक्ति दोष आवेगा क्योंकि वन्दन का अर्थ आपने भाव पूजा किया है इस लिये, 'पूर्वणवतियं,' का अर्थ भाव पूजा हो नहीं सकता है। यदि आपके पूर्वन अमृतचन्द्रसूरि ने 'पूयणवतियं' का अर्थ पुष्पादि से पूजा किया है इसको आप मान भी लो तो क्या हर्ज है कारण भगवान के समवसरण में गाडोंबद्ध पुष्प तो आप मानते ही हैं जो कि पाप समवायांग सूत्र में अतिशयों के अधिकार में लिखा भी है और श्री राजप्रश्नी सुत्र में पुष्पों से प्रथित मालाओं तथा खुले पुरुषों से परमेश्वर की पूजाकरना आपने स्वीकार करके अपने हाथों से लिखा भी है तो फिर भगवान के भक्तजनों का थोड़े मे पुष्पों से भगवान की पूजा मानने में आपको किसी प्रकार की आपत्ति आती है ? कुछ भी नहीं। और 'पृयणवतिय' का अर्थ पुष्पादिसे द्रव्य पूजा के सिवाय दूसरा हो ही नहीं सकता है। बत्तीस सूत्रों के अनुवाद करते समय श्रीमान् ऋषिजी ने एक ही स्थान पर सूत्र के अर्थ को नहीं पलटाया है पर आपने तो ऐसे अनेक जगह पर अर्थ का अनर्थ कर डाला है । नमना के तौर पर कतिपय उदाहरण यहां बतला दिये जाते हैं Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरेन्द्र के तीन शरणा चमरेन्द्र उर्ध्व लोक में जाता है तब अरिहंत, अरिहंत की प्रतिमा, और भावितात्मा वाला अनागार ( साधु ) का शरणा लेकर ही जाता है जैसे कहा है कि"णरणत्थ अरिहंते वा अरिहंते चेइयाणिवा, अणगारे भिवयप्पणो" लौकागच्छीय गणि रामचन्द्र । स्था० साधु अमोलखर्षिजी संशोधित टब्वा कृत हिन्दी अनुवाद अरिहंत, तथा अरिहंतना चैत्य जिनभु अरिहंत, छदमस्यअरिहंत, मन वन तथा लेप्पादिकनी प्रतिमा, | गार भवितात्माअने साधु चारित्रिया भावितात्मा चारित्रनागुणों कर संयुक्त ए तीननी निश्रय शरणो कह्यो श्री भगवती सूत्र श० ३ पृष्ट २४६ । श्री भगवती सूत्र श० ३ पृष्ठ ४७४ लौकागच्छीय गगिजी ने 'अरिहंत चेइयाणिबा' पाठ का अर्थ "अरिहंतान-चैत्य जिनभुवन तथा लेश्यादिकनी प्रतिमा" किया हैं तब लौकाशाह के अनुयायी होने का दम भरने वाले ऋषिजी ने 'अरिहंत चेयणिवा' का अर्थ "छदमस्थ अरिहंत" होने का किया है। ऋषिजी को पछाजाय कि यह अर्थ आपने किस आधार से किया है क्योंकि प्राचीन टीका और टब्बा में तो उस पाठ का अर्थ जिनभुवन या जिनप्रतिमा हैं दूसरा अरिहंत सिद्ध प्राचार्य नपाध्याय और साध एवं पांच पद हैं जिसमें सिद्ध आचार्य उपाध्याय तो छदमस्थ तीर्थकर बन ही नहीं सके शेष अरिहंत और साधु दो पद रहे इसमें छदमस्थ अरिहंत को श्राप किस पद में समझते हैं जैसे तीन शरणा है कि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ (१) अरिहन्त (२) अरिहंत के चैत्य (३) अनगार अरिहंत पद ( इसका अर्थ हो नहीं हुआ है ) साधुपद अब रहा दूसरा “अरिहंत के चैत्य का शरणा" इसको आप जैनों की मान्यतानुमार कहो तो छदमस्थअरिहंत अरिहंत पद में हैं क्योंकि अरिहंत जन्मते हैं उस समय इन्द्र नमोत्थुणं के पाठ से. नमस्कार करते हैं और श्री स्थानायांग सूत्र स्थान तीसरा पृष्ट २६० पर तीन प्रकार के अरिहंत कहा है (१) अवधिज्ञानी अरिहंत (गृहस्थावस्था) (२) मनःपर्यव अरिहंत (छदमस्थ दीक्षा अवस्था) (३) केवली अरिहंत, केवलावस्था, इससे भी यही सिद्ध होता है कि छदमस्थावस्था में भी अरिहंत शब्द से ही संबोधन करते थे पर अरिहंत चैत्यको किसी स्थान पर छदमस्थ अरिहन्त नहीं कहा है और आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के साधु लोगस्स द्वारा २३ भावी तीर्थंकरों को वन्दन करते हैं इत्यादि । यदि आप अपनी कल्पना नुसार कहो तो भी छहमस्थ तीर्थकर को साधु पद में कह सक्ते हो पर छदमाथ तीर्थकर को दूसरे शरण में अरिहंत का चैत्य में तो किसी हालत में समावेश नहीं कर सकते हो। आगे सूत्रों में चार शरणा कहा है उसमें भी छदमस्थ अरिहंत का अलग शरणा नहीं बतलाया है जैसे कि तीन शरणा चमरेन्द्र का इस प्रकार है ___ अरिहंत, अरिहंत का चैत्य अनगार अरिहंतों का शरण इसका अर्थ ही साधु काशारणा धर्मका शारणा नहीं हुआ । सिद्धों का शरणा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ जिन प्रतिमा का शरणा इससे भी अरिहंतों के चैत्य का शरणा तो वैसा का वैसा रह गया अर्थात् छदमस्थ अरिहंत को तो अरिहंत ही कहते हैं इनका शरणा अलग नहीं कहा जाता है यदि छदमस्थ अरिहंत को अरिहन्तों से अलग समझोगे तो आपको कई अरिहन्तों की कल्पना करनी होगी कारण जैसे चवन अरिहन्त, जन्म अरिहन्त, राजअरिहंतादि हमारे स्थानकवासी भाई यह सवाल कर उठते हैं कि मूर्ति तो पाषाणकी होती है उसका क्या तो शरणा ले और क्या मूर्ति शरणा लेने वाला का बचात्र ही कर सके ? आपको यह तो भली भाँति मालूम होगा कि मूर्ति का कितना जबर्दस्त प्रभाव है | किसी राजा महाराज या सर्व भौम्य सम्राट् की मूर्तिको देखिये उसके शरणा या आसातना का कैसा प्रभाव पड़ता है ? दूर क्यों जावें आप खुद भैरू वगैरह की मूर्ति को पूठ देकर नहीं बैठते हो किसी प्रकार की बेअदबी नहीं करते हो और आपके सब साधु साध्वियों प्रतिदिन दो वक्त प्रतिक्रमण करते समय कहते हैं कि "देवाणं असायाएं दविणं असायरणाए" इसको जरा सोचो एवं समझो कि उन देव देत्रि की पाषाणमय मूर्तियों स्थानकमार्गी विद्वान भी मानते हैं कि नमिराजर्षि आदि प्रत्येक बुद्धि चूड़ि बेलादि के निमित से उनको प्रतिबोध हुआ जैसे कि वे कहते हैं । "धन्य गौके पूत । तू ने मुझे अच्छा उपदेश दिया ।" << 'व्यावर गुरुकुल जैन शिक्षाभाग तीज पृष्ठ ४८ अब समझना चाहिये कि बैल से प्रतिबोध होने पर उसको उपदेशकसमझा जाय चूडिकों उपदेशक माना जाय तो मूर्ति तो तीर्थकरों के तदाकार की है उसमें कितना प्रभाव कितना असर ? उनको क्यों नहीं माना जाय । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ की प्रासातना की हो तो मिच्छमि दुक्कडं स्वयं आपको देना पड़ता है जब मर्ति की आसातना का इतना बड़ा पाप है तो उसकी भक्ति का पुन्य होना तो स्वतः सिद्ध है इसमें सवाल ही क्या हो सकता है। विद्यमान मनुष्यों के तो मति एवं श्रुति ये दोनों ज्ञान भी निर्मल नहीं हैं पर मति श्रुति और अवधि एवं तीन ज्ञानवाले इन्द्र महाराज अरिहंतों की मूर्ति की आसातना को खास अरिहंतो की ही आसा. तना समझते हैं । देखिये-शक्रेन्द्र ने चमरेन्द्र के लिये बज्र फेंका था पर बाद उसने विचार किया कि चमरंन्द्र खुद की तो इतनी ताकत नहीं है कि वह किसी के शरणा विना यहाँ आ सके ? यदि अरिहंत, अरिहंत के चैत्य (मन्दिर मूर्ति) और भावितात्मीय अनगार के शरणा लेकर आया होगा तो मैंने वज्र फेंक के बड़ा भारी अनर्थ किया है जैसे कि "तं महादुक्खं खल तहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं अणगाराणंय अच्चासायणाए" सुज्ञ पाठक विचार कर सकते हैं कि शरणा कहा तीन और अाशातना कही दो इसका क्या अर्थ हो सकता है अर्थात् इसका यही स्पष्ट अर्थ होता है कि अरिहंतों के चैत्य ( मन्दिर मूर्ति) की आशातना करना अरिहंतों की ही आशातना है इसलिये आशातना दो ही कही । इस प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि जैसे अरिहंतों का शरणा ले कर चमरेन्द्र उवलोक में जाता है इसी भाँति अरिहंतों की मूर्तिका शरणा लेकर भी जा सकता है सूत्रों में ऐसा उत्पात की घटना अनंतकाल से होना बतलायी है तो अनंतकाल पूर्व भी जैनमूर्तियाँ विद्यमान थीं। इस कथन Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्ति का शरणा ANAVE की पुष्टि हमारे स्थानकवासी भाई 'महानिशीथसूत्र' का उल्लेख से इस प्रकार करते हैं कि- अनंतकाल पहिले धर्मश्री नाम के तीर्थंकर हुए। आपके बाद आपके शासन में बहुत से साधु चैत्यवासी हो गये थे उस समय एक कमलप्रभाचार्य हुए वह बड़े ही प्रभाविक थे । एक नगर में आपका शुभागमन हुआ और चैत्यवासियों उनसे यह प्रार्थना की कि हे प्रभो ! श्राप यहाँ चतुर्मास विराजकर मन्दिरों का उपदेश करें कि कोई नये मन्दिर बन जाय । आचार्य श्री को यह विदित हो गया था कि यह लोग चैत्यवासी हैं अतः आचार्य श्री से वे लोग आत्मकल्याण के लिये नहीं किन्तु कापने स्वार्थ अर्थात् इन्द्रियों पोषण के लिये ही चैत्य वृद्धि की प्रार्थना करते हैं उस हालत में आचार्य श्री ने फरमाया कि" जड़वि जिणालयं तहावि सावभं मियाहं वायामि " इसका अर्थ यह होता है कि यद्यपि जिन मन्दिर हैं तथापि तुम्हारा यह सावद्य कर्तव्य को मैं कदापि स्वीकार नहीं करूँगा इत्यादि । हमारे स्थानकवासी भले इसका उलटा अर्थ करें कि उन आचार्यश्री ने मन्दिरों को ही सावध बतलाया था पर यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि अनंतकाल पहिले भी जैनमन्दिर थे और सावद्य के प्रतिपक्ष में यह भी मानना होगा कि निर्वद्य मन्दिर भी थे क्योंकि यदि निर्वद्य मन्दिर नहीं, होते तो सावद्य शब्द की उत्पत्ति भी नहीं होती - जैसे बुरा कहा तो भला भी था, रात्रि कहा तो दिन भी था, खारा कहा तो मीठा भी था, क्योंकि एक शब्द कहा जाता है वह दूसरे की अपेक्षा लेकर ही कहा जाता है इन प्रमाणों से इतना तो अवश्य निश्चय हो जाता है कि जैनों में मन्दिर मूर्तियों का मानना पूजना ७७ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ आज काल से नहीं पर अनंतकाल पूर्व भी था । हाँ, कालक्रम से विधि विधानों में सुधार बिगाड़ हो जाना यह दूसरी बात है । अब आगे चलकर हम खास श्रावकवर्ग की ओर देखते हैं कि इनके लिये मूर्ति के विषय में शास्त्र क्या कहता है । भगवान् महावीर के उपासक श्रावकों में सबसे पहिला आनंद आवक का नंबर आता है जिनका अधिकार उपासकदशांगसूत्र में है और पूर्व जमाना में उपाशकदशांग सूत्र के ११५२००० पद थे और उनके श्लोकों की संख्या लगाइ जाय तो ५८८३३९०८३५६८००० होती है इतना विस्तार वाला उपाशकदशांगसूत्र में श्रावकों का तमाम जीवन और अपने जीवन में किये हुए कार्यों का विस्तृत उल्लेख था पर आज तो सिर्फ ८१२ श्लोक मात्र रह गये। इस हालत में कैसे कहा जाय कि उन्होंने अपने जीवन में क्या क्या कार्य किया था तथापि उस उपाशक दशांग में क्या वर्णन था उनकी संक्षिप्त में नोंध श्रीसमवायांगजी सूत्र में लेली थी जैसे व्यापारी लोग अपनी रोकड़ तथा नकल के विस्तारवाले बीजक को खाता में संक्षिप्त रूप से ले लेता है खैर समवायांगजी सूत्र में उपाशक दशांग सूत्र की नोंध इस प्रकार है “सेकिंतं । उवासगदसायो ? उवसगदसासुणं, उवासयाणं, नगराई, उज्जणाई, चेइअायं, वणखंडा, रायाणो, अम्मापियारो, समोसरणाई, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय, परलोइय, इविविसेसा, उवासयाणं, सीलव्वय, वरभणगुण, 'पञ्चरक्खाण, पोसहोववास पडिवज्जियाओ,सयपारंगाहा, तवोव-हाणाई पडिमाओ, उवसग्गा, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाशक दशा के जैन मन्दिर पावोगभणाईं, देव लोग गमगाईं, सूकलपच्चाया, पुणेोबोहिलाभो, अंत किरिया, श्राघविज्जति" ऋषिजी का हिन्दी अनु० उपासक दशांग का क्या भावार्थ है ? उपासक सो श्रावक उसका क्रिया कलाप से प्रतिबद्ध दश अध्ययन सो उपासक दशांग | उसमें श्रावकों के नगर उद्यान 'व्यंतरालय' वनखंड, राजा, माता पिता समवसरण, धर्माचार्य, धर्म कथा, इस लोक पर लोक को ऋद्धि, वैसे ही श्रावक का शीलाचार १२ गुणुव्रत -रागदिक की वृति, अणुत्रत, प्रत्याख्यान नवकारसी प्रमुख, श्रष्टम्यादि को पोषघात, श्रुत का सुनना सनादि तप का करना, प्रतिमा का वहन, देव दानव मानव के उपसर्ग सहन करना सलेषणा तप से शरीर व कषाय को कृश करना, भात पानी का प्रत्याख्यान, देवलोक गमन, और पुनः सुकुल में बोध वीजकी प्राप्ति, अन्त क्रिया का करना यह जन्म, सब उपासक दशांग में कहा है इत्यादि । श्रो समबायंगजी सूत्र पृष्ट २४७ उपरोक्त विषयों का बयान विस्तार पूर्वक उपाशकदशांग सूत्र में था और इन विषयों में श्रात्रकों के 'चेश्राय' पाठ भी आये हैं। इस पाठ का अर्थ वनखण्ड करे तो वनखंड अलग श्राया है साधु करे तो धर्माचार्य अलग आये हैं ज्ञान करे तो श्रुत-ज्ञान पृथक आया है जब ऋषिजी को दूसरा कोई रास्ता नहीं मिला तब श्रावकों के चेश्रायं पाठ का अर्थ होता है श्रावकों के चैत्य, इस स्थान पर आपने श्रावकों के व्यंतरालय कर दिया है पर उस समय ऋषिजी ने यह नहीं सोचा कि भगवान महावीर के श्रावकों के भी व्यंतरालय हो सकते हैं ? कदापि नहीं । आनंदादि श्रावकों ने तो Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ८० यक्षादि अन्य तीर्थियों के देव देवियों को वन्दन नमस्कार करने का त्याग कर दिया था इस हालत में वे यज्ञादि के मन्दिर कैसे बना सके । आनन्दादि श्रावकों अपने धर्मपर कैसे दृढ़ और मजबूतथे वे भगवान् महावीर के पास श्रावकके व्रत लेने के बाद आपकी दृढ़ता का परिचय प्रभु महावीर के सन्मुख इस प्रकार दिया था कि हे प्रभू"यो खलुभेभंते । कप्पर अज्जप्पभइओ, अण्णा उत्थिए वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा, अरणउत्थिय परिगाहियाणि इवा चेइयोतिवंदितार वा मंसिता वा " लौंका०वि० सं० टवार्थ ण-कहता न कल्पै. खलु-निश्चय, हे भगवान् आज दिनहुति पछे मानुं नहीं - अन्यतिथिना तपस्वी ने -साधु ने, अन्तर्थिना हरिहरादि मिथ्यावी देवता, वली तथा अभ्यतिथि ये अरिहंत ना परिगृहित ते बिंब - चैत्य तेह ने आज पछी मन वचन काया ये बाँदवा नहीं नमस्कार करउ नहीं। स्था० साधु अमोल० हि० अनु मुझे आज पीछे अन्यतिथियों को तथा अन्यतिथियों के धर्मदेव शाक्यादि साधुओं अथवा अन्यतिथियों ने ग्रहण किये जैन के साधु भिष्टाचारी को बन्दन नम-स्कार करना नहीं कल्पता है | * अनुवाद की योग्यता देखिये आप अन्य तीर्थियों के धर्मदेव - शाक्यादि बताते हैं वास्तव में वे देव नहीं पर गुरू हैं देव तो हरिहरादि हैं वह आप ने लिखा भी नहीं है । श्री उपाशक दशांग पृष्ट ५२ १ स्था० पूज्य घासीलालजी ने हाल ही उपासकदशांग सूत्र मुद्रित करवाया है उसमें "अरिहंत चेहया" पाठ दिया है । उपाशक दशांग सूत्र पृष्ठ २५ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनद श्रावक का पूजा ऋषिजी इस पाठ के फुटनोट में लिखते हैं कि कई प्रतियों में "अरिहंत चेहाणिवा, ” पाठ है परन्तु यह पाठ कई प्रतियों में नहीं भी है शायद इसी कारण आपने 'अरिहंत चेइाणिवा' के स्थान पर केवल ' चे आणिवा' लिख दिया परन्तु ऋषिजी को पूछा जाय कि आपने अनुवाद में जैन के भ्रष्टाचारी साधु लिखा है उसमें साधु तो शायद आप चे आणिवा का अर्थ कर दिया होगा परन्तु जैन यह किस शब्द का अर्थ किया है ? और आगे आप साधु के साथ भ्रष्टाचारी शब्द जोड़ दिया है यह किस मूल पाठ का अनुवाद है क्योंकि आपके मूल पाठ में तो यह दोनों (जैन और भृष्टाचारी ) हैं ही नहीं। फिर आपने यह कल्पना कर उत्सूत्र भाषीत्व का बज्रपाप शिर पर क्यों उठाया ? यदि यह कहा जाय कि मूल सूत्र में तो पूर्वोक्त दोनों शब्द नहीं हैं परन्तु इन शब्दों बिना अर्थ संगत नहीं बैठता है इसलिए इन दोनों शब्दों का प्रक्षेप करना पड़ता है । वाह ! वाह !! ऋषिजी वाह !!! अरिहंत शब्द के लिए तो कई प्रतियों में होने पर भी आप इनकार करते हो और जैन और भ्रष्टाचारी शब्द सूत्र में नहीं होने पर भी प्रक्षेप करते हो तब तो यह सूत्र ही नहीं रहा । एक आपने अपने घर की वस्तु मानली कि इच्छा हो उस शब्द को निकाल दो और दिल चाहे उस शब्द को प्रक्षेप कर दो पर श्रापको इतना ही ज्ञान नहीं है। कि अरिहंत और जैन एक हैं या भिन्न-भिन्न हैं ? यदि आपको प्रतिमा ही नहीं मानना है तो फिर अरिहंत का साधु कहने में क्या हर्ज था ऐसा कहने से न तो अरिहंत शब्द निकालना पड़ता और न जैन शब्द प्रक्षेप करना पड़ता और न उत्सूत्र रूपी पोप की गठरी शिर पर उठानी ही पड़ती पर इतनी अकल आवे कहाँ से १ (६) ८१ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ८२ आगे आप जैन साधु भ्रष्टाचारी जो अन्यतिथियों के परिगृहीत होना लिखते हैं पर जैन से भ्रष्ट हो गया और उसको अन्यतिथियों ने ग्रहण कर लिया वह साधु जैनों का नहीं रहा पर वह तो अन्यतिथियों का साधु हो चुका और उसको वंदना नहीं करना तो पहिले पाठ में आ ही गया जैसे खंदकसन्यासी, और शिवराजर्षि श्रन्यतिथियों के साधु थे वे जैन साधु बन गये उनको जैन साधु ही कहा जाता है न कि अन्यतिथियों के । अतएव आनन्द श्रावक ने यही प्रतिज्ञा की थी कि जिनप्रतिमा को अन्यतिथि ग्रहण करली हो उसको मैं कदापि नहीं वन्दूंगा और जिनप्रतिमा को अन्यतिथि प्रहण करने के उदाहरण आज भी आपके सामने विद्यमान हैं जैसे जगन्नाथपुरी के मन्दिर में भगवान् शान्तिनाथजी की प्रतिमा, बद्रीजी के मंदिर में प्रभुपार्श्वनाथ की प्रतिमा, कांगड़ा में ऋषभदेव की प्रतिमा, श्रन्यमतियों ने ग्रहण कर ली और अपनी विधि से पूजते हैं वहाँ जाकर श्रावक को बन्दन पूजन करना नहीं कल्पता है । यदि ऋषिजी पहिले घर में निगाह कर लेते कि हमारे पूर्वजों ने इस पाठ का क्या अर्थ लिखा है जैसे लौंकागच्छीयों की मान्यता तो, ऋषिजी के अनुवाद के साथ तुलना कर हम बतला चुके हैं और स्थानकवासी पूज्य हुकमचन्दजी महाराज तथा साधु पीरचन्दजी ने अपने हाथों से कई सूत्रों की प्रतियों लिखी जिसमें उपाशकदशांग सूत्र एवं श्रानन्द श्रावक के अलावा में उन लोगों ने स्पष्ट लिख दिया था कि जो जिनप्रतिमा अन्यतिथियों ने ग्रहण करली हो वह श्रानन्द को वन्दन पूजना करना नहीं कल्पता है । आनन्द श्रावक के इस अभिग्रह का कारण लौकाशाह के Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंद आवक की पूजा पूर्व सैकड़ों वर्षों अर्थात् वि० सं० ११२० में टीकाकार श्रीअभयदेवसूरी इस प्रकार बतलाते हैं कि "नो खलु इत्यादि-नो खलु मम भदंत भगवन् कल्पतेयुज्यते अथ प्रभृति इतः सम्यक्त्व प्रतिपति दिनदारभ्य निरातिचार सम्यक्त्व परिपालनार्थ, तज्जत नामाश्चित्य अन्नउत्थिएति जैनयुथाद्यदन्यत् यूथं संद्यान्तर तीर्थन्तरमित्यर्थ स्तदस्ति येषांतेऽन्ययूथिकाश्चरकादि कुतीर्थकास्तान् अन्ययूथिकं देवतानिका हरिहरादीनि, अन्ययूथिक परिगृहीतानि व अहंच्चैत्याति अहमतिमा लक्षणानि, यथा भौत परिगृहीता, वीरभद्र महाकालादिनि वन्दितुवां अभिवादनंकतु नमस्यनु वा प्रणामपूर्वक प्रशास्तध्वनिभिर्गुणोकीर्तनकर्तु तङ्गक्तांनां मिथ्यात्वस्थिरी करणादिदोषा प्रसगादित्वभिप्राय ।" श्री उपाशक दशांग सूत्र पृष्ट ५२ ____ आचार्य अभयदेवसूरि की टीका हमारे स्थानकवासी विद्वान् भी प्रमाणिक मानते हैं और न उस समम मतिविषयक ऐसी चर्चा भी थी कि जिसको कोई पक्षपात कह सके अतएव उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि अर्हन् प्रतिमा अन्यतीर्थियों ने ग्रहण करली है यदि श्रावक उन प्रतिमा को वन्दन पूजन करे तो उसको मिथ्यात्व स्थिरीकरण दोष लगता है इस बात को साधारण मनुष्य भी समझ सकता है कि जैनमूर्तियों उस समय भी साधिष्टायक महाचमत्कारी एवं प्रभाविक थी जब तो अन्यतीर्थी उसे लेजा के अपने देव तरीके पूजने लग जाते थे जब जिनप्रतिमा को अन्यतीथि ने अपना देव Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ मान लिया उसको श्रावक वन्दन पूजन न करे तब स्वतीर्थियों के पास में रही हुई जिन प्रतिमा का वन्दन पूजन करना तो स्वतः सिद्ध है। ___जब ऐतिहासिकसाधनों के आधार पर विद्वसमाज में यह सिद्ध हो चुका है कि भगवान महावीर के मौजूदगी समय जैनों में मूर्तिपूजा एक धार्मिकअंग समझा जाता था और महाराज उदाई और श्रेणिक जैसों का मन्दिर बनवाना सिद्ध हो चुका जो हम आगे चलकर पांचवां ऐतिहासिक प्रकरण में विश्वासनीय प्रमाणों द्वारा सिद्ध कर बतलावेंगे, तब आनन्द जैसा धर्मात्मा और भगवान् महावीर के अग्रगण्य भक्त जैनमन्दिर मूर्तियों स्थापन करे और श्रीसमवायांगसूत्र में भगवान गणधरदेव उनकी संक्षिप्त नोंद करे इस हालत में पक्षपात और मताग्रह में प कर शंका करना सिवाय अनभिज्ञता के और क्या कहा जा सकता है। जैसे आनन्द श्रावकके मन्दिर मत्तियों का बनाना, एवं मूत्तिपूजा करना, हम ऊपर सिद्ध कर आये हैं इसी प्रकार उववाईसूत्र में अंबड़ श्रावक ने भी भगवान महावीर के पास श्रावक के व्रत ग्रहण करने के पश्चात् प्रतिज्ञा की कि आज पीछे मैं, अन्यतीर्थियों, अन्यतीर्थियों के देव हरिहलदरादि और अन्यतीर्थियों ने महण की हुई अरिहन्तों की प्रतिमा को वन्दन नमस्कार नहीं करूँगा। परन्तु अंबड पहिले सन्यासी था इसलिये वह और भी जोर देकर कहता है कि "गएणत्थ अरिहंत वा अरिहंत चेइयाणि वा वादता व नमसीत वा" Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबड श्रावक की वन्दन लौकागच्छीय अमृतचंद्रसूरिकृत | स्था० साधु अमोल० हि० टन्धा । अनु०। - तट स्युकल्पै अरिहन्त साक्षात् फक्त हित और अरिहिंत वीतराग-अनंतज्ञानी अने अरिहंत | के साधु को ही वन्दन करना चैत्य जिन प्रतिमा, जिननी स्थापना । | नमस्कार करना यावत् सेवा ते वांदवा नमस्कार करवा कल्पै । । भक्ति करना कल्पता है। . श्री उववाइसूत्र पृष्ठ २६७। । श्री उववाइसूत्र पृष्ठ १६३ ..... ऊपर का 'अरिहंत चेइयाणि' पाठ का अर्थ लौकागच्छाचार्य तो अरिहन्त की प्रतिमा करते हैं तब ऋषिजी उसी पाठ का अर्थ अरिहन्तों के साधु करते हैं किन्तु चैत्य का अर्थ प्रतिमा होता है या साधु इस विषय में कई विद्वानों का और खास कर ऋषिजी के किये हुए अर्थ को हम आगे चलकर चारणामुनियों की यात्रा अधिकार में विस्तृत प्रमाणों द्वारा बतलावेंगे कि इसमें किसी प्रकार का संदेह या शंका नहीं कि अंबड़ ने अभिग्रह किया था कि मैं अरिहन्त और अरिहन्तोंकी प्रतिमाको ही वन्दन नमस्कार करूँगा- ऋषिजी पहिले चमरेन्द्र के अधिकार में 'अरिहंत चेइयाणि वा' का अर्थ जो जिनप्रतिमा होता है वहाँ छदमस्थ तीर्थकर किया, और आनन्द के अधिकार में अन्यतीर्थियों ने ग्रहण किया अरिहंत चैत्य (प्रतिमा) का अर्थ जैन का भ्रष्टाचारी साधु किया जब यहाँ अंबड़ के अधिकार में अरिहंतचैत्यका अर्थ साधु करते हैं आगे चलकर चारण मुनियों की यात्रा अधिकार में चेइयाई का क्या अर्थ करेंगे उसे भी देख लीजिये इससे इन लोगों की योग्यता का परिचय भली भाँति से विदित हो जायगा। आगे चलकर तुगिया नगरी के श्रावकों की पूजा के अधि Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ८६ कार में भी ऋषिजी ने बड़ा भारी अन्याय किया है उस पर भी जरा दृष्टि डालकर देखिये जिस समय पार्श्वनाथ भगवान् के ५०० मुनि लुंगिया नगरी के उद्यान में पधारे उस समय का जिक्र है कि उन श्रावकों ने इस बात को श्रवण की । “अण्णमण्णस्स अंतिए एयमठ्ठे पडिसुरांति पडिणित्ता जेणेव साईं गेहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छता राहया कयबालिकम्मा कय कोउय मंगल पापच्छिता सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकिया सरीरा " लौकागच्छीय वि० सं० शो टब्बा | स्था० साधु० मो० हि० अनु० एक एक ने पासे एहवो अर्थ सांभली अन्योन्य आपस में यह अर्थ सुन अंगीकार करी जिहां आपणा घर कर अपने गृह तहां आकर स्नान के तिहां आवे तिहां आवी मे स्नान किया पीठी लगाई कोगले किये किधु आपणा धरना देवताने किधा तिलक किया शुद्ध प्रवेश करने योग्य वलिकर्म जेणे किधा छे कौतुक शृंगार मंगलीक वस्त्र पहन कर अल्पमूल्य माहे मंगलिक अक्षत द्रोग्यादि वंत आभरण पहिनकर शरीर तिलक चाँदला, जेणे किधा छे । शुद्ध अलंकृत किया + मंगल प्रधान वस्त्र पहिरे अल्पखोज भने बहुमूल्य वस्त्र भूषण पहरी शरीर अलंकृत किघो छे । + देवपूजा को विलकुल उड़ा दिया यह तो आपकी योग्यता है । श्री भगवती सूत्र पृष्ट १८७ श्री भगवती सूत्र पृष्ट ३४२ ऋषिजी का अनुवाद आप की योग्यता का ठीक परिचय करा रहा हैं आप ने मूल सूत्र में जिसकी गन्ध तक नहीं होने Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुंगिया नगरी के श्रावकों की पूजा पर लिख दिया कि स्नान करने के बाद पीटी ( तेल श्राठा मिश्रित मालस ) करी ऋषिजी पक्षपात के कारण लोक व्यवहार को भी भूल गये क्या कोई समझदार व्यक्ति स्नान करने के बाद मालिश करते होंगे ? कदापि नहीं ? इतना ही क्यों आप ने उन श्रावकों ने स्नान कर पूजा की थी उस ' कयवलिकम्मा' पाठ का असली अर्थ छोड़ कर उसके स्थान अर्थ कर डाला कि स्नान करके कोगला ( कुडां ) किया यह भी लोक विरुद्ध ही है स्नान करने के पूर्व तो मालश या कुडां करते हैं पर स्नान करने के बाद तो पीटी-कुला करना इन स्थानकवासियों से ही सुना है आगे 'प- महग्घ' पाठ का अर्थ किया है कि अल्प मूल्यवान वस्त्र पहिना और इस पाठ का अर्थ होता है अल्प वजन और • बहुमूल्य वाले वस्त्र भूषण पहिनना और यह बात भी ठीक है कि श्राचार्यादि मुनियों के दर्शनार्थ जाते समय बहुमूल्य वस्त्र भूषणों से शरीर को अलंकृत करना श्रावकों का खास कर्त्तव्य भी है कारण इससे श्रानंद का और अवसर ही क्या हो सकता है । वास्तव में ऋषिजी के हृदय में मूत्तिपूजा प्रति कितना द्वेष ठाँस ठाँस के भरा हुआ है कि कयवलिकम्मा० पाठ का अर्थ पूर्वाचाय्यों ने देवपूजा किया है और लौंकागच्छाचार्यों ने भी इस पाठ का अर्थ देवपूजा ही किया है उसको बदल कर 'कयबलिकम्मा' पाठका संबंधित पीटी या कोडा करना अर्थ र सभ्य समाज में ये कैसे हाँसी के पात्र बने हैं । इस लिये ही कहा है किभिज्ञों के लिये शास्त्र ही शस्त्र का काम करता है । कई लोग यह भी सवाल कर बैठते हैं कि 'कयवलिकम्मा' Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ का अर्थ घरदेव की पजा की लिखा है तो उन श्रावकों ने जिन प्रतिमा नहीं पर किसी कुलदेवी की पूजा की होगी ? इसका उत्तर खास शास्त्रकार इस प्रकार देते हैं कि: "असहेज्ज देवासुर नाग सुवरण इत्यादि" लौंका० वि० सं० शो० टब्वा स्था० साधु अमोल हि० अनु० ___ आपत काले पण किण ही आपत्ती काल में देवासुर देवता ने समरे नहीं आपणा किया नाग सुवर्ण यक्ष किन्नर किंपुरुष कर्म आपणे भोगविये एहवी , गुरूढ गन्धर्व महिरागादि की मनोवृत्ति छ सहायता नहीं लेने वाले थेश्री भगवती सूत्र पृष्ट १८३ श्री भगवती सूत्र पृष्ट ३३७ - लौकागच्छीय और स्थानकवासियों की सामान मान्यता है कि तुंगिया नगरी के श्रावक अपने धर्म में इतने दृढ श्रद्धा वाले थे कि किसी आपत्ती काल में भी किसी देव दानव का स्मरण न करे अर्थात् सहायता नहीं इच्छे इस हालत में यह कहना कहाँ तक ठीक हे कि बिना किसी आफत और अपने पूज्याचार्यदेव के वन्दन समय तुंगिया नगरी के श्रावकों ने कुलदेवी की पूजा की अर्थात् यह कहना सरासर अन्याय एवं असंगत है। दूसरा जैन श्रावकों के गृह में पहिले कुल देवियां भी नहीं थी। कुल देवियों का मानना तो आचार्य रत्नप्रभसूरि कि जिन्होंने उपदेश द्वारा अनेक राजपूतों को प्रतिबोध कर जैनी बनाये बाद वह शेष रहे मांसाहारी क्षत्रियों के साथ मिल पुनः मांस भक्षी देवि देवताओं के बली पूजादि न करने लग जाय । इस लिये समकितधारी देवी उन जैन क्षत्रियों के कुलदेवी स्थापन करवा दी थी। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुंगिया नगरी के श्रावक । पूर्व जमाने में प्रत्येक श्रावक के घर में गृह देरासर ही रहतो था और वे प्रातः समय सबसे पहिला देव पूजा करके बाद में दूसरा काम करते थे इस हालत में तुंगिया नगरी के श्रावकों ने आचार्य श्री को वन्दन करने के पूर्व गृह देव यानि तीर्थंकरों की मूर्ति की पूजा की हो तो यह यथार्थ ही है। - आचार्य अभयदेवसूरि ने इस सूत्र पर वि. सं. ११२० में इस प्रकार टीका करते हुए लिखा है कि "असहेजे इत्यादि-अविद्यमानं साहाय्यं पर सहायिक अत्यान्त समर्थत्वद्येषां ते असाहाय्या स्तेच दंवादयश्चेति कर्म धारयः अथवा व्यस्तमेव्यवंदं तेन असाहाय्या आपद्यपि देवादि सहायकानपेक्षाः स्वयं कर्म कती स्वयमेव भोक्तव्यः ।" श्री भगवती सूत्र पाठ १८४ इससे स्पष्ट होजाता है कि तुंगिया नगरी के श्रावक भगवान् के परमभक्त एवं समर्थ होने से वे किसी को भी सहायता नहीं इच्छते थे । यदि कोई आपत्ति भी आ पड़े तो वे अपने किए हुए कर्म समझ कर भोगव लेते थे वे इस बात को स्वयं जैनशाखों द्वारा ठीक समझते थे कि दूसरे तो सब निमित्त मात्र है पर उपादान तो अपनी आत्मा ही है फिर दूसरों की सहायता की जरूरत ही क्या है अतएव तुंगिया नगरी के श्रावक ने तीर्थंकरों को प्रतिमा के अलावा किसी सरागी देवी देवतों की पूजा नहीं करते थे परन्तु आत्म कल्याणकी अभिलाषा रखने वाले वे श्रावक खास तीर्थंकरों की मूर्ति की ही पूजा करते थे इतना ही क्यों पर श्रावकों के तो ऐसे अटल नियम भी होते हैं कि वे बिना तीर्थंकरों की पूजा किये मुंह में Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ९. - अन्न जल तक भी नहीं लेते हैं। इसी प्रकार जैनागमों में स्थान स्थान श्रावकों के लिये मूर्ति पूजा के उल्लेख हैं परन्तु ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से यहाँ इतना ही लिख आगेहम मुनियों की तीर्थयात्रा के कतिपय प्रमाण बतला देना चाहते हैं -यों तो बहुत मुनियों को यात्रा का उल्लेख है पर हमारे स्थानकवासी समाज खास ३२ सूत्र और वह भी मूलपाठ मानने का आग्रह करते हैं इस लिए यहां हम भी ३२ सूत्रों के मूलपाठ और लौकागच्छीय तथा स्थान कवसियों के किए हुए माषानुबाद के प्रमाण देकर इस बात को प्रमाणित कर बतलावेंगे कि जैन मुनियों के तीर्थ यात्रा करने से कमशः आत्मा का विकास होता है, देखिये "विद्याचारणस्सणं भंते । उहूं केवइए गइ विसए परणते गोयमा । सेणं इत्रो एगेणं उप्पाएणं णंदणवणे समोसरण करई २ ताहि चइयाई बंदड़ वंदड़ता वितिएणं उप्पारणं पंडगवणे समोसरण करइ २ ता तहिं चेइयाई बंदड़ वंदड़ता तो पडिणिवत्तइ २ ता इह माघच्छइ २ ता इह चेइयाई वंदई विद्याचारणस्सणं गोयमा । उर्ल्ड एवइयं गइ विसर पएणता।" लोका०वि० सं० शो० टब्वा स्था० साधु अमोल हि० अनु० विद्याचारणनी हे भगवान् । उच्चो हे भगवान् विद्याचारण का उर्ध्व केटलो विषय प्ररूप्यो ? हे गोतम कितना विषय कहा है ? अहो तेह इहां थकीए के उत्पाते करीने गोतम विद्याचारण एक उत्पात नन्दनवनने विषै समोसरण करे में यहां से उड कर मेरु पर्वत के अटलेगिहां विश्राम करे नन्दन बन | नन्दन वन में विश्राम लेवे वहां विश्राम करीने तिहांना चैत्य-जिन | ज्ञानी के ज्ञान का गुणानु Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ चारण मुनियों की तीर्थ यात्रा बिवाते वादे सिंहांना चैत्यवंदीने | वाद करे वहां से दूसरे उत्पात बीजा उत्पाते करीने पंडकवन समो में पंडग वन में समवसरणकरे सरण करे पंडकवने समोसरण करी । वहाँ पर भी ज्ञानी के ज्ञान का ने तिहाँना चैत्य जिनबिंबते वांदे गुणानुवाद करे और वहां से भो तिहां चैत्य प्रते वांदीने तिहां थकी पीच्छा अपने स्थान आवे * अहो पाछावले तिहाथकी पाछावली ने गोतम । विद्याचारण का उर्ध्व यहां (स्वस्थाने) आवे इहां आवी ने गमन का इतना विषय कहा है। यहां ना चैत्य-जिनबिब वांदे हे गोतम । विद्याचारण नो उच्ची * ऋषिजी ने मूल पाठ होने एतली गति नो विषै प्ररूप्यो। पर भी अर्थ करना छोड दिया है जो यहां आकर भी अशाश्वते श्रीभगवती सूत्र २०-६ पृष्ट १५०० चैत्य को वन्दन करते हैं श्रीभगवती सूत्र २०-६ पृष्ट २४८६. पूर्वोक्त विद्याचारण मुनि के अधिकारके मूलपाठ में चेहयाई बन्दई है जिसका अर्थ टीकाकार चैत्यवन्दन, टव्वाकार चैत्य-जिनबिम्ब (प्रतिमा) वंदन कहा है तब ऋषिजी अपनी मत कल्पना से 'चेहयाई वंदई का अर्थ ज्ञानी का गुणानुवाद किया है। चैत्य शब्द का यहां पर वास्तव अर्थ क्या होता है वह हम आगे चलकर बतलावेंगे । ऋषिजी को इतने से ही संतोष कहां है ? आपने तो मूल पाठ का अर्थ करना ही छोड़ दिया देखो मूल पाठ में "इह चेइयाई बंदड़" इस पाठ का अर्थ तक भी नहीं किया है। शायद् ऋषिजी को यह तो इरादा न हो कि नन्दनवन और पांडक बन में तो जैन मन्दिर मूर्तियों का होना शास्त्र स्वीकार करते हैं जो आगे चल कर ऋषिजी का अनुवाद बतलाया जायगा परन्तु चारणमुनि यहाँ आकर चैत्यवन्दन किया इससे तो यहाँ के अशाश्वत मन्दिर मूर्तियों Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकर प्रकरण चतुर्थ सिद्ध हो जाती हैं परन्तु ऐसे पाठों का अर्थ नहीं करने से ऋषिजी के अभीष्ट की सिद्धि नहीं होती है कारण अब जनता इतनी अज्ञान नहीं है कि मूलपाठमें जिसका उल्लेख है और अर्थ करने वाले उस अर्थ को छोड़ दें और दुनिया उसको मान ले ? कदापि नहीं । खैर आगे जंघाचारण मुनि की यात्रा के लिये भी ऋषिजी के अनुवाद को जरा ध्यान लगाकर पढ़ लीजिये "जंघाचारणस्सणं भंते । तिरियं केवइए गई विसए पएणते ? गोयमा । सेणं इनो एगेणं उप्पारणं रुयगवरेदीवे समोसरण करेड़ २ ता तिहिं चेहयाई वंदइ वंदइता तो पडिणियत्तमाणा बितिएणं उप्पारणं णंदीसरवरदीवे समसरण करइ २ ता तहिं चेइयाई वंदइ वंदइता इहं हव्वमगच्छइ २ ता इहं चेइयाई वंदइ जंघाचारणस्सणं गोयमा । तिरियं गइ विसए परणत।" लौका० वि० सं० शो० टव्बा । स्था. साधु अमोल. हि. अनु. जंघाचारणनी हे भगवान् । अहो भगवान् । जंघाचारण तीछी केटली गति विषय प्ररूप्पो ? | का तीळ कितना विषय कहा हे गौतम तेह इहाथकी एके उत्पाते | है ? अहो गोतम। वह एक करी रूचकवर नामे द्वीप ने विष उत्पात से तेरहवा रुचकवर द्वीप समोसरण करे २ करीने तिहां चैत्य में समवसरण करे वहाँ ज्ञानी के प्रतेवांदे चैत्य प्रतेवांदी ने तिहाथकी ज्ञान का गुणानुवाद करे वहां से पाछावले बलीने वीजा उत्पात करी पिच्छे आते दूसरा उत्पात में नन्दीश्वरद्वीप ने विष समोसरण आठवां नंदीश्वरवर द्वीप में करे करीने तिहाँना चैत्यप्रते वांदे । आवे वहाँ समवसरण करके तिहाँ चैत्य प्रतेवांदी ने यहाँ पाछा | ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ आवे आवीने इहोना चैत्य प्राते वांदे | जंघाचारण नो हे गोतम तीच्छ एतली गतिनी विषय कही । चारण मुनियों की तीर्थं यात्रा करे और यहाँ से वहाँ आवे यहाँ आकर फिर ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद करे गोतम जंघाचरण का यह तीच्छविषय कहा , श्री भगवती सूत्र पृष्ठ २४६०-६ श्री मगवर्ता सूत्र पृष्ठ १५०८ पूर्वोक्त पाठ में 'चेइयाइँ' शब्द का अर्थ लौकागच्छीय वि० सं० श० टब्बा में चैत्य ( जिनबिम्ब ) किया हैं तब ऋषिजी ने किया है ज्ञान | परन्तु शब्द ज्ञान से तो श्रीमान् ऋषिजी अनभिज्ञ ही हैं क्योंकि आपको एक वचन और वहुवचन का भी ज्ञान नहीं है कारण 'चेइयाई' यह बहुवचन है तब ज्ञान एकवचन है अतः चारणमुनि बहुत चैत्यों को वन्दना किया है दूसरा यदि ज्ञानीके ज्ञान का गुणानुवाद ही बोलना था तो यहां रहे हुए भी बोल सकते थे इस कार्य के लिये करोड़ों योजन जाने की जरूरत ही क्या थी वास्तव में यह ऋषिजी का और विशेष स्थानकवासी समाज का पक्षपात और मिथ्याहट है कि वे इस प्रकार सूत्रों के अर्थ बद लाने में नहीं हिचकिचाते हैं । अब हम यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि चारण मुनियों ने जिन जिन स्थानों की यात्रा करने का शास्त्रकारों ने प्रतिप्रादन किया है वहाँ ज्ञानियों के ज्ञान के ढगले के ढगले पड़े थे कि वहाँ जाकर ज्ञानी के ज्ञान का गुरणानुवाद किया या वहाँ विस्तृत संख्या में जिन चैत्य - ( मन्दिर मूर्त्तियों थी कि जिनका वन्दन किया इस विषय में हमारे ऋषिजी के किये हुए सूत्रों के प्रमाण निम्नोक्त हैं । "कहिणं भंते । मंदरस्तपव्वयस्स गंदणवणं गमवणे Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ९४ परणता ? x x एवं चउदिसि चत्तारी सिद्धायतणा।" श्री जम्बुद्वीप ५० पृष्ड ४००-१ इसी प्रकार पांडकबन के चार सिद्धायतन (जिन मन्दिर) का वर्णन करते हुए पांडक वन की चूलिका पर एक मन्दिर का इस 'प्रकार वर्णन किया है। 'तीसे उप्पि बहु समरमणिज्जो भूमि भागे जाव बहुमज्ज देस भाए सिद्धायणं कोसं आयमार्ण अद्धकोसं विक्खभेणं देसूर्णय कोसं उद उच्चताणं अणेग खंभसंयं सीणिवठं जाव धूवकुडु छुगा।" . जम्बू द्वी०प० पृष्ठ ४०० आगे चारण मुनि नन्दीश्वरद्वीप यात्रार्थ जाते हैं वहां के चैत्यों का भी शास्त्रकारों ने विस्तार से वर्णन किया है परन्तु यहाँ पर प्रमाण जितना हो सूत्रपाठ लिख देते हैं। "तेसिणं अँजणग पव्वयाf बहु समरमणिज्ज भूमि भाग ५० तेसिणं बहु समरमणिज्जाणं भूमि भागाणं बहुमज्ज देस भाए चत्तारि सिद्धायणा पं० तेणं सिद्धायणा एग जोयणसयं आयमेलं 4० परणसँ जोयण विक्समेणं बावतरि जोयणे उद्द उच्चताणं ।” इत्यादि। जीवाभिगय सूत्र प्र०४ नन्दीश्वर द्वीप में जैसे ऊपर के पाठ में चार अंजनगिरि पर्वतों पर चार सिद्धायतन ( जिन मन्दिर ) बतलाया है वैसे ही १६ दधीमुखा पर्वतों पर १६ और ३२ कनक गिरि पर ३२ एवं Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ तीर्थों के मन्दिरों का विवरण ५२ सिद्धायतन ( जिन मन्दिर) और उन मन्दिरों में सैकड़ों जिनप्रतिमाएं हैं उनकी यात्रार्थ चारण मुनि गये हो और अन्य भव्यों को यात्रा करने के भावों में वृद्धि हो इस गरज से शास्त्रकारों ने इसका वर्णन किया हो तो यह है भी यथार्थ कारण शक्ति के होते हुए तीर्थ यात्रा करना क्या साधु और क्या श्रावक सबका यह प्रथम कर्तव्य है। इसी उद्देश्य को लक्ष में रख असंख्य भावुकों ने बड़े २ संघ निकाल कर यात्रा की है शायद् हमारे ऋषिजी का जन्म जैन कुल में हुआ हो तो आपके पूर्वजों ने भी इस पवित्र कार्य में अवश्य लाभ लिया ही होगा। __ नन्दीश्वर द्वीप में वे प्रतिमाएं किसकी है इसके लिये खुद हमारे ऋषिजी क्या फरमाते हैं उसको भी सुन लीजिये । "तासिणं मणिपोढयाण उवरि चतारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामइयाओ सपलअंक णिसण्णाश्रो थभाभि मुहीओ चिट्ठति तं रिसभा वद्धमाणा चंदाणपण वारिसेणा।" - श्री स्थानायांगसूत्र ४-२ पृष्ट९३८ इस पाठ में जिनप्रतिमाओं का नाम ऋषभ वर्द्धमान चन्द्रानन और वारिसेण जो जैनतीर्थंकरों केशाश्वते नाम है, उन्हीं तीर्थकरों की मूर्तियां बतलाइ है जिनके नाम की माला एवं जाप हमारे स्थानकवासी भाई हमेशां करते हैं उन्हीं की मूर्तियों को वन्दन नमस्कार करने में वे लोग शरमाते हैं यही तो एक आश्चर्य की बात है अर्थात् अज्ञानता की बात है। कितनेक जैनशास्त्रों के अनभिज्ञ लोग यह सवाल करते हैं कि चारणमुनि यदि यात्रार्थ गये और वह जिनमन्दिरोंकी एवं जिन Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ प्रतिमाओं की वन्दन की हो तोरूचक द्वीप और मानुषोत्तर पर्वत पर भी 'चेइयाइं वंदई' का पाठ है और वहां पर न तो सिद्धायतन (जिन मन्दिर ) और न जिनप्रतिमा ही कहो है तो फिर कैसे माना जाय कि चारण मुनियों ने चैत्य ( जिन बिंब) को वन्दन किया था ? यह सवाल पहिले तो आपके पूर्वज लौंकागच्छीयों से करे कि आपने चेहयाई का अर्थ जिनबिंध किस आधार से मान लिया और जिन बिंब को आप क्यों वन्दन करते हो? इसका उत्तर जिस प्रकार वे जैन शास्त्रों द्वारा समझे है उसी प्रकार श्राप कों समझा कर समाधान कर देगा क्यों कि पहले तो वे लोग भी आपकी भांति इन बातों को मानने से इनकार ही करते थे पर बाद में उन्होंने जैनशास्त्रों का खुब बारीकी से अवलोकन किया और इस बात को स्वीकार की है जैनागमों में इस विषय के उल्लेख निम्नांकित हैं। "चउसुवि एसयारेस, इक्कीकं नरनगमि चतारि । कुडोवरि जिणभवणा, कुलगिरि जिणभवण परिमाणा। तत्तो दुगुण पमाणं च उदारा युत्त वणि या सुरुवा । नँदीसर वावरणा चउ कुंडले रूपगे चतारी ॥ द्वीपसागर पण्णतिसूत्र भावार्थ चार इक्षुकार पर्वत पर, और मानुषोत्तर पर्वत पर, चार कूट पर चार जिनमन्दिर हैं वे कुलगिरि के जिनभुवन के प्रमाण वाले हैं और इन से दुगुण प्रमाण वाले तथा चार द्वार संयुक्त विस्तृतवर्णित और स्वरूपवाले ५२ जिनमन्दिर नन्दी. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ चार प्रकार की पन्नति श्वरद्वीप में और कुण्डलगिरि में ४ एवं रूचकवरद्वीप में चार जिन मन्दिर है। हमारे स्थानकवासी साधु यह भी नहीं कह सकते हैं कि हम द्वीपसागरपन्नतिसूत्र को नहीं मानते हैं क्योंकि श्रीमान् ऋषिजी ने अपने श्री स्थानायांगसूत्र में चार पन्नति सूत्र को माना हे यथाच-. "चतारि परणाश्रो पण्णता तं जहा, जम्बद्दविपरणति चंदपएणति सूरपरणति, दीवमागरपएणति ।" 'स्था नायांग सूत्र चतुर्थ स्थान' हमारे स्था. भाई ! स्थानायांगसूत्र को गणधर कृत मानते हैं जिस में चार पन्नतिसूत्र कहा है उन में से तीन को मानना और एक को नहीं मानना इस का क्या अर्थ हो सकता है ? यदि मन्दिर मूर्वि के कारण ही नहीं माना जाता हो तो यह बड़ी भारी भूल है कारण आप जिन तीन पन्नति सूत्रों को मानते हैं उनमें जम्बुद्वीप पन्नति सूत्र है उस में जम्बुद्वीप के ९१ पर्वतों पर सिद्धायतन एवं जिन प्रतिमाओं का सविस्तार वर्णन हैं उसको तो भगवान की वाणी मानना और जम्बुद्वीप पन्नति के सदृश दीपसागर पन्नति सूत्र में इक्षुकारादि पर्वतों पर मन्दिरों का अधिकार होने पर भी उसको न मानना यह अनभिज्ञता के सिवाय है क्या ? कुछ नहीं। क्योंकि नन्दीश्वर द्वीप में ५२ मन्दिर और सेकड़ों जिन प्रतिमाओं को मानना और रूचकवर या कुण्डलद्वीप के मन्दिर मूर्तियों का सूत्रोंमें मूलपाठ होने पर भी नहीं मानना इसका ही तो नाम पक्षपात और हट कदाग्रह है ? भले ऋषिजी श्राप अपनी आत्मा को जरा पूछो कि जिस लौशाह के हम अनुयायी कहलाते हैं उस लौकाशाह के विद्वान अनुयायियों ने इन सूत्रों को Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ९८ साहार मान लिया और श्राप नहीं मानते हैं इसका कारण क्या है ? तो श्रापको स्पष्ट ज्ञात हो जायगा कि सिवाय पक्षपात के और कोई भी तथ्य नहीं है। कई लोग भद्रिक जैनों को यों पहका देते हैं कि जम्बुद्वीप के बाहर लवणसमुद्र है उनकी बेल का पानी १६००० योजन ऊंचा है सो क्या चारण मुनि नन्दीश्वरादि द्वीप में जाते हैं तो पानी के अन्दर से जाते हैं पर इस सवाल से तो जैन शास्त्रों की मनमिलता ही सिद्ध होती है क्योंकि सूत्रों में धारणमुनियों की गात इस प्रकार फरमाई हैं। "इमीसणं रयणप्पभाए पदवीए पह समरमाणिज्जाउ भूमि भागाउ सातरगाई सतरस्स जोयण सहस्साई उई उप्पतिता ततो पच्छाचारणाणं तिरिमगती पवातती।" समवायोगसूत्र पृष्ट १९-५. रम्बा-ऐहीज रत्नप्रभा पृध्विी ने विषेपणी रमणीकसमो भूमिभाग के ते यकी माझेरो बी फोम अधिक सत्तर बोजन सहस्त्र लगे उठचोउत्पति उडने एतले लवणसमुद्नो शिखा लगे ऊंचो उत्पतो तिवारे पच्छी जंघाचारण विद्याचारण नी तिरछी गति प्रवृते तिरछई दीपे-रुचफवरदीपे एम नन्दी भरदीपे जिनप्रतिमा वांदवा जावई। लौकागच्छीय संशो• समवायांग सूत्र पृष्ट ४९ पही सत्र पाठ अपिजी ने अपने अनुवादित समवायांग सूत्र में दिया है। इस लेख से पारण मुनियों की गति सत्रह हमार योजन जब अधिक ऊँची बतलाई है और वे जिनप्रतिमा पन्दन को Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ चैत्य शब्द का अर्थ जावे ऐसा भी लिखा है यह आपके ही घर का प्रमाण है फिर इनसे अधिक आप चाहते ही क्या हो ? अब जो ऋषिजी ने चारण मुनियों की यात्रा में 'चेहयाई चंदई चैत्यवन्दन का असली अर्थ को बदला कर चैत्य का अर्थ 'ज्ञान' किया है यह वास्तव में ठीक है या केवज पक्षपात ही है ? देखिये खुद ऋषिजी ने अन्य सूत्रों में चैत्य शब्द पाया है यहां चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया है उदाहरण लीजिये १-उपधाई सूत्र में चेहया-चैत्य का अर्थ ज्ञान न करके यक्ष का मन्दिर किया है जो वास्तव में जैन मन्दिर था। २-उवधाई सूत्र “पूर्णभह चेहए" का अर्थ किया है मंदिर, ३-प्रश्नव्याकरण सूत्र पहला अध्यायन पृष्ट ८ पर चैत्य का अर्थ स्वामीजी ने प्रतिमा किया है। . "-प्रश्नध्याकरण सूत्र के पहला अध्याय पृष्ट ११ पर चैत्यका अर्थ वेदिका किया है। ५-प्रश्नव्याकरण सूत्र पांचवां अध्ययन पृष्ट १२२ चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया है। ६-इसी प्रकार स्वामि जेठमलजीने समकितसार नामक -स्थानकवासी साधु जहां अरिहंत के चैत्य ( मन्दिर मूर्तियों) शब्द आता है उसका अर्थ मन्दिर मूर्ति न कर कहां ज्ञान कहाँ साधु कर बिरे भोले लोगों को बहका देते हैं पर ऐसा किसी सूत्र में नहीं लिखा है। ज्ञान को० नन्दी सत्र तथा भगवती सूत्र में पांच प्रकार का ज्ञान कहा हैन कि पांच प्रकार के चैत्य और सुयगडांग सूत्र में साधुओं के नाम बतलाये हैं पर वहां भी चैत्य को साधु नहीं कहा है इतना ही क्यों पा खास स्वामीनी चैत्य शब्द का भर्थ प्रतिमा करते हैं। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ १० प्रन्थ के पृष्ट १२४-१२६ चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया हैं । पृष्ट ९०६ पर भी चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया है शायद आपका ही अनुकरण ऋषिजी ने किया हो । ६ - यदि चैत्य का अर्थ ज्ञान करना ही ऋषिजी का अभीष्ट है तो पूर्वोक्त आपही के अनुवाद में चैत्य शब्द आया है वहाँ भी ज्ञान ही करना था कि आपका ज्ञान अधर्म और परिमहमें लम्झ जाता जैसे आपने प्रतिमा के लिये बतलाया है परन्तु आपको तो येनकेन प्रकारेण श्री तीर्थंकरदेवों की प्रतिमा की करनी है निंदा । परन्तु अब वह जमाना नहीं रहा है कि जनता ऐसी अघटित घटनाओं को मानकर अपना हित करने को तैयार हो; दूसरे तो क्या पर अब तो खास स्थानकवासी समाज में भी लोग समझने लग गये हैं देखिये : - स्थानकवासी समाज के अगण्य विद्वान और शतावधानी मुनिश्री रत्नचन्द्रजीने अपने अर्धमागधी कोश में चैत्यका क्या -λ किया है । "अरिहंत चेइया (पुना ) चैत्य अरिहंत सम्बन्धी कोई पण स्मारक चिन्ह " ८ - अरिहन्तों के स्मारक चिन्ह जैनमन्दिर पादुका स्तूप वगैरह ही होते हैं ऋषिजी इससे बढ़के क्या प्रमाण चाहते हैं यदि और भी किसी को शंका हो तो हम प्राचीन प्रमाणों को और भी उद्धृत कर देते हैं । ९- अनेक (१४४४) प्रन्थों के निर्माणकर्त्ता महाविद्वान श्राचार्य हरिभद्रसूरी जो विक्रम की सातवीं शताब्दी में एक जगत् प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए जिनकी विद्वताकी प्रशंसा हमारे मुनि श्री संतवालजीने अपनी 'धर्मप्राण लोकाशाह' की लेखमाला में को है भगवान् Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य शब्द का अर्थ श्रीहरिभद्रसूरि ने चैत्य शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है। "चेड़या ! चेहया सही रुढो जिणिंद पडिमा" १०-नौ अंग टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि ने चैत्यशब्द का अर्थ अहत प्रतिमा ही किया है। ५१-आगे कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्रसूरि ने कहा है कि "चैत्यं जिनौ का तट्विबन् . १२-लौ कागच्छीय आचार्य अमृतचन्द्रसूरि चैत्य शब्दका अर्थ जिनमुन और जिनबिंब किया है। ... १३-लौं कागच्छीय विद्वान रामचन्द्रगणि तथा आपके विद्वान शिष्य नानगचन्द्र जी ने चैत्य का अर्थ जिनमन्दिर जिन प्रतिमा ही किया है। १४-आगे एक अंग्रेज विद्वान ने चैत्य का अर्थ निम्नोक्त किया है। Such establishment consists of a park or a garden enclosing a temple and rows of cells for the accommodation of monks, some times also a stupa or sepulchral monument. The whole complex is not un usually called a chaitya. ___अर्थात-इस नामवाली जगहमें बगीचा या उद्यानका समावेश होता है। उसी के अन्दर एक मन्दिर होता है और साथ में कईएक कोटरियाँ होती हैं जिनमें साधुओं का निवास होता है । इसके उपरान्त कहीं कहीं एक स्तूप या समाधिस्तम्भ भी होता है, उस समग्र स्थान को चैत्य के नाम से ठीक ही विभूषित किया जाता है। प्रोफेसर होर्नल .: पूर्वोक्त ऋषिजी, जेठमलजी, शतावधानी मुनि श्रीरत्रचन्द्रजी के तथा पूर्वाचार्यों और पाश्चात्य विद्वानों के पुष्ट प्रमाणों से यह प्रमाणित हो चुका है कि चैत्य का अर्थ मन्दिर, मूर्ति, स्तूप और ___ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ Le पाटुका ही होता है इससे जो ऋषिजी ने चैत्यका अर्थ कहीं पर छदमस्थ तीर्थकर, कहीं पर साधु, और कहीं पर ज्ञान किया है यह भ्रमरणा एवं कल्पना मात्र ही है और इस मिथ्या अर्थ करने का हेतु विचारे प्रामण्य भद्रिक जनता को भ्रम में डाल अपने पंजों में फाई रखना हो है । शायद ऋषिजी ज्ञानी के गुणानुवाद को चैत्यवन्दन हो समझते हों क्योंकि चैत्यवन्दन में भी उन्हीं ज्ञानी तीर्थकरों के गुणानुवाद ही आते हैं तो यह ठीक भी है विद्याचारण जंबाचारण मुनिवरों ने नन्दनवन पांडकवन नंदीश्वर 'रूचक' मानुषोतर और स्वस्थान जहां से गये थे) के मन्दिरों में जा जाकर चैत्यवन्दन (ज्ञानी तीर्थंकरों का गुणानुवाद) किया था इसमें हमारा मतभेद भी नहीं है और अन्य भाइयों को भी माननेमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं आती है । अतएव यह स्पष्ट सिद्ध है कि जैनधर्मावलम्बी क्या साधु-साध्वी और क्या श्रावक-श्राविका सबको अपने पूज्याराध्यदेवों के मन्दिर मूर्तियों को पूज्य भाव से मानना और यथाधिकार द्रव्य भाव से पूजा कर आत्मकल्याण अवश्य करना चाहिये । यदि कोई सज्जन यह सवाल करें कि यदि चारणमुनि तीर्थयात्रार्थ ही पूर्वोक्त स्थानों में गये थे तो वापिस आने के बाद आलोचना लेना क्यों कहाँ ? उत्तर में यह सवाल तो ज्ञानी के गुणानुवाद के लिये भी ज्यों का त्यों हो सकता है पर इसका तात्पर्य यह है कि साधु १०० कदम के आलोचना अवश्य करनी पडती है फिर थंडिलभूमिका जावे, मन्दिर जावे, गुरु के सामने या पहुंचाने को आगे जाता है उसको चाहे वह गोचरी जावे, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०३ महासती द्रौपदी की पूजा जावे, उसको वापिस आकर आलोचना अवश्य करनी पड़ती है यदि पालोचना नहीं करे तो आराधिक नहीं हो सकता है। इसी भाँति धारण मुनि करोडों योजन जाकर आवे तो आलोचना करनी ही चाहिए। इसके अलावा जंघा-विद्याचारणों को ऊपर जाते समय नीचे जिनालय और साधु वगैरह पाते हैं उन्हीं के ऊपर से जाना पड़ता है इसी कारण भी यहां आकर वे आलोचना लेते हैं। . परन्तु ऐसी लीचर दलीलें करने में सिवाय समय शक्ति का व्यय के और क्या फायदा है। * अस्तु । अब हम स्वामीजी के अनुवादित श्र' ज्ञातासूत्र की ओर देखते हैं तो आप को अनुवाद करने की योग्यता का हमें पूर्ण परिचय मिल जाता है कारण अर्थ पल्टाने की वृत्ति तो आपके पूर्वजों से ही चली आई है परन्तु आपने तो मूलसूत्रों के पाठके पाठ बदल दिये हैं। एक शताब्दी पूर्व आपके पूर्वज स्वामि जेठमलजी हुए उन्होंने मूर्तिपूजा के विरोध में एक समकितसार नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें महासती द्रौपदी की पूजा विषय चर्चा करते हुए श्रीज्ञातासूत्रका मूलपाठ दिया है और श्रीमान् अमोलखपिंजी ने ज्ञातसूत्रका हिन्दी अनुवाद करते समय द्रौपदी की पूजा समय का मूलपाठ दिया है। उन दोनों के मूलपाठ यहाँ पर उद्धत कर हम हमारे पाठकों को यह बतला देना चाहते हैं कि इन मूर्तिपूजा नहीं मानने वालों में कितना ज्ञान और विचार है वह स्वयं समझ लें। . चैत्य शब्द का अर्थ मन्दिर मूर्ति के अलावा और भी होता है पर जहाँ मन्दिर मूत्ति का ही अर्थ होता है वहाँ दूसरा अर्थ करना अनभिज्ञता को ही जाहिर करता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्रकरण चतुर्थ . स्वामि जेठमलजी. "तएणं सा दोवइ रायवर कन्ना जेणवमज्जणघरं तेणव उवागन्छइ २ ता मजणघरं मणुप्पवेसइ २ ता रहाया कयबलिकम्मा कयकोउय मंगल पायलीत सुद्ध प्पवेसाइ मंगलाइं वत्थाई पव्वर परिहिया मज्जणघराओ पडिणिक्खमई २ ता जेणेव जिणधरे तेणेव उवागच्छइ २ ता जिणधर मणुप्पवेसइ जिणपडिमाणं बालोय पणामं करइ २ ता लामहथं पम्हज्जइ एवं जहां सुरियाभो जिणपड़ियाओ अचणइ तेहव भाणियाब्वं जाव धूवडहइ २ ता वाम जाण अचई २ ता दाहिणं जाणू धरणि तल सनिवइ २ ता तिखतो मुद्धाण घरणि तल निवसइ २ ता इसिं पच्चूणमइ २ ता करयल जाब तिकट्टु एवं वयासी नमोत्थणं अरिहंताएं भगवताणं जाव संपताएँ वंद णमंसह २ ता"। समकित सार ग्रन्थ पृष्ट ७० स्था० साधु अनमोलखर्षिजी "ततेणं सा देवती रायवर कन्ना काल्लं पाउप्पभाए जेणेव मज्जणघरं तेणव उवागच्छह २ ता मज्जणघरं मणुप्पवंसइ २ ता रहाय जाव सुद्ध पावसई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिया जिरापडिमाणं प्रचणं करेति २ ता जेणेव अंतेउर तेणेव उवागच्छई" श्री ज्ञातासूत्र पृष्ट ६२४ - X X X हिन्दी अनुवाद प्रातःकाल होते ही राज. कन्या द्रौपदी मज्जनगृह में गई वहाँ स्नान किया यावत् राजसमा में प्रवेश करने योग्य शुद्ध वस पहिने जिनप्रतिमा की अर्चन की फिर अंतपुर में भाई। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासती द्रौपदी जैनमन्दिर में चैत्यवन्दन कर रहीं हैं डडाउ "जेणेव सिणधरं तेणैव उवागच्छई xxx एवंवयासी !नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं-जाव-संपत्ताण" (ज्ञातासूत्र अ० १६) कामदेव की प्रतिमा कहने वाले जरा विचार कर उपसूत्र के वज्रपाप से डरे । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ महासती द्रौपदी की पूजा उपरोक्त पाठ का अर्थ स्वामी जेठमलजी ने इस प्रकार किया है। ...ततिबारे सं० ते द्रौपदी रा० राजवरकन्या जे. जहाँ म० स्नानन्, घर ते० तिहाँ उ० श्रावे श्रावीने न्हा० न्हावई के० किधाबली कर्म-पीटी प्रमुख कर्या क. कौतुक मंगलीक पाणीनी अंजली भरी कोगला कर्या पा० आभरण पेहेरी तिलकमासकरी स० शुद्ध निर्मल उत्तम मं• मंगलीक वस्त्र प० प्रधान प० पेहेर्या मं० मज्जन जे न्हावाना घर थकी निकली निकलीने जे जहाँ जि. यक्षनुघर ते तिहाँ उ. आवे आविने जिनना घर मांहीं प्रवेश करे करी ने प्रतिमाने जोई ने प्रणाम करे वांदे नमस्कार करे करीने मोर पोछी नी पुंजणी सुजे इम जिम सुरियाभदेवै जिम जिनप्रतिमा ने पूजी तिम पूजे तिम सर्व कहवु जावत् धूप उखेवे २ ने डावा पगनो ढीचण उचो राखे राखीने जिमणा पगनो ढीचण धरणी तले नमाड़े भूई नमाड़ी ने ता० त्रणवेला मु. मस्तक भूमि तले लागड़े लगाड़ी ने ईषत् लागारेक माथु भूई नमाडे नमाड़ी ने करतल हाथ जोड़ी यावत् इमकही चैत्यवन्दन करे नमस्कार णकार वचनालंकार अरिहंतो प्रते भगवंतो प्रते ज्ञानमय आत्माछे जेहने यावत् प्राप्ती मुक्ति पोता सीम वांदे नमस्कार करे नमस्कार करीने ॥ समकितसार ग्रन्थ पृष्ठ ७० . स्वामि जेठमलजी और अमोलखविजी ये दोनों साधु स्थानक वासी और मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी हैं जेठमलजी ने वि० सं० १८६५ में समकितसार नामक ग्रन्थ बनाया कि जिसमें उपरोक्त पाठ एवं अर्थ मुद्रित हैं तब अमोलवर्षिजी ने वि० सं० १९७७ में सूत्रों का हिन्दी अनुवाद किया है इन दोनों के मूल पाठ में Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतु १०६ आप ऊपर दिये हुए पाठ से भली भाँति जान गये हैं कि ऋषिजा ने तो जेठमलजीके जितनी भी उदारता नहीं बतलाई कि वे मूलसूत्र में पाठ था उसको बिलकुल छोड़कर सिर्फ टीका में वाचनांतर का पाठ था वह थोड़ासा पाठ दे दिया परन्तु मूर्तिपूजा तो उस पाठ से भी सिद्ध हो सकती है फिर आपकी तस्कार वृत्त ( निन्हवता ) का फन क्या हुआ और या तो जैन शाखों की शैली है कि किसी विषय का कहाँ सामान्य और कहाँ पर विशेष वर्णन किया जाता है श्रीजेठमलजी ने सरियाभ के माफिक द्रौपदी ने पूजा की लिखा है तब अमोज़खर्षिजी ने जिन प्रतिमा का अर्चन किया लिखा है परन्तु इसका मतलब तो एक ही है कि महासती द्रौग्दी ने जिन प्रतिमा पूजी थी । स्वामि जेठमलजी के अर्थ करने की विद्वता की ओर भी जरा झाँकी कर देखिये आप 'कयबलिकम्मा' का अर्थ स्नान करने के बाद पीटी ( तेज और आटा-लोट मिश्रित द्रव्य की मालिस) करना fखते हैं यह आगम बिरुद्ध तो है पर साथ में लोकविरुद्ध भी है कारण स्नान करने के बाद कोई समझदार पीटी नहीं करता है वास्तव में 'कयवलिकम्मा' पाठ का अर्थ है द्रौपदी ने घर देरासर की पूजा की थी आगे 'जिनघर' का अर्थ तो आप यक्ष का मंदिर करते हैं और चैत्यवन्दनमुद्रा से द्रौपदी को बैठा के नमोत्थुणं श्रहंत भगवंत अनंत ज्ञानमय आत्मा और मुक्ति प्राप्त किये हुए सिद्धों को दिलवाते हैं इसके अलावा योग्यता (! ही क्या हो सकती है । " 'स्वामि जेठमलजी ने अपने दिये हुए मलपाठ और उसको अर्थ में यह भी बतलाना है कि द्रौपदी ने जिनप्रतिमा की पूजा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० महासती द्रौपदी की पूजा सुरियाभ देव की मुवाफिक को है और सुरियाम देव ने जिन प्रतिमा की सत्रह प्रकार की पूजा करके नमोत्थुणं देकर अपने हृदय रहो हुए तीर्थङ्करों की भक्ति का परिचय दिया उसको हम गत प्रकरण के पृष्ठों में सविस्तार लिख आये हैं परन्तु ऋषिजी का हृदय कितना संकीर्ण है कि आपने उस पाठ को ही छोड़ दिया और उस पाठको अपने अनुवाद में देदिया परन्तु आपके अनुयायी स्वामि हर्षचन्दजी ने अपने 'श्रीमद् रायचन्द विचार निरीक्षण' नामक पुस्तक के पृष्ठ १५-१६ में लिखा है कि ww "द्रौपदी स्वयंभर मण्डप में जाता पहिला जिनप्रतिमा नो पूजन केधु छे x x x ते जगह जिनप्रतिम नी वार्ता छे अनमोत्थु अरिहंतोने भगवंता ने नमस्कार हो तेम पण छे इत्यादि ।” स्थानकमार्गी भाई जिनघर ( जिन मन्दिर ) जिन प्रतिमा और द्रौपदी की पूजा तथा नमोत्थुणं देना तो मानते हैं परन्तु कई लोग यह सवाल कर बैठते हैं कि द्रौपदी पूर्वभव में निधान किया था इसलिए उसको पूजा करने के समय समकित नहीं था । यदि द्रौपदी को उस समय समकित न होता तो विवाह जैसा संसारिक रंग-राग के समय वह घर देरासर की पूजा कर नगर मन्दिर में जाकर सत्रह प्रकार से जिनपूजा और नमोत्थूणं देकर यह प्रार्थना क्यों करती कि - तिन्नाणं ताग्याणं, बुद्धाणं बोहिगाणं मुत्ताणं मोग्गाणं सव्वन्नूगं सञ्चदर सि" क्या सम्यक् दृष्टि के सिवाय ऐसे उद्गार किसी का निकल सकता है। नहीं * इस विषय में मेरी लिखी हुई 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि' नामक तथा मूर्तिपूजा विषयक प्रश्नोत्तर किताब देखो । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ १०८ कदापि नहीं । खैर ? द्रौपदी न तो हमारे सम्बन्धियों में है और न आपके सम्बन्धियों में है कि उसके सम्यग्दृष्टि होने या नहीं होने के झगड़े में अपन पड़ें पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि द्रौपदी के समय जैनमन्दिर मूर्त्तियाँ थी और जैन लोग इन मंदिर मूर्तियों की सेवा-पूजा कर नमोत्थुणं द्वारा तीर्थङ्करों की स्तुति करते थे और द्रौपदी का समय जैनशास्त्रानुसार ८७००० वर्षों का है ८७००० वर्षों पूर्व तो जैतों में मन्दिर मूर्तियों का मानना हमारे स्थानकमार्गी साधुओं के कथनानुसार सिद्ध होता है और इस बात को स्थानकवासी समाज को खुल्लमखुल्ला मानना ही पड़ेगा चाहे वे आज माने चाहे कल व कालान्तर में परन्तु मानना - अवश्य होगा जैसे स्वामि हर्षचन्दजी ने माना है । इनके अलावा और भी श्रागमों में मूर्त्ति विषयक प्रमाण प्रचुरता से मिल सकते हैं पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय के कारण यहाँ विशेष उल्लेख करना मुल्तवी रखा है जब इतने आगमों से मूर्तिपूजा सिद्ध है तो दूसरे आगमों में मूर्तिपूजा विषय उल्लेख होने में संदेह ही क्या हो सकता है ? जैनागमों में जिस प्रकार तीर्थङ्करों की मूर्तियां का वर्णन है -इसी प्रकार स्थापनाचार्य का भी उल्लेख है क्योंकि प्रतिक्रमण सामायिकादि धर्म क्रिया करने के समय स्थापनाचार्य की भी परमावश्यकता है यदि स्थापना न हो तो, क्रिया करने वाला आदेश किस का ले और बिना गुरु श्रादेश क्रिया हो नहीं सकती है इसलिये ही शास्त्रकारों ने स्थापनाचार्य रखने का विधान बतलाया है । जैसे कि - Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ स्थापनाचार्य का विधान "दुवालसावते कित्तिकम्मे प० तं. दुउणयं जहा जाय कितिकम्म बारसावय चउसिरं तिगते दुपवंसं एग निक्खमण।" . टब्बा-बारें आवर्त माहें ते कीर्ति-कर्म बांदणाफह्या भगवंते श्री वर्धमान स्वामि० ए ते कहे छे बे अवनत बेबेला मस्तक नमाड़वा गुरुनी स्थापना कीजे तेह थकी अऊट हाथ बेगला रही पडिकमीए. आउट हाथ मोही अविग्रह कहिये ऊँमा थका इच्छामिखमा समणो कहिये बिहु बांदणे बिहु बेला मस्तक नामाडिवे पच्छे अवप्रह मांही श्रांविये यथा जातमुद्रा, जन्म अवसरी बालकनी परे बलीटी भरी हाथ जोड़या रही कीर्ति-कर्म बांदणा कर आवत छ बेला गुरु ने पगे बांदणा कीजे 'अहोकायं काय' एपाठ कही बिहुवाला थइ १२ बारा आवतं यथा चोसरो ४ बेवजागुरु ने पगे मस्तक नमाड़िये । त्रीणगुप्ति मन वचन काया नी गुप्ति कीजे । उपवेस बी बेला बांदणा ने अर्थे अवग्रह मांही आवेने एकबार निखमण अवग्रह बाहिरि निकले पहिले वांदणे एकबार निकलो बीजे बेला गुरु पगे बेठोज बंदणो समापीए पाठ कही एह समवायांग वृति नो भाव । . लौंका०वि० संशो० समा० टब्बा सा० पृष्ट ३.५-३६ । . यदि कोई सजन कहे कि हम स्थापना नहीं रख कर श्री तीर्थङ्कर सीमंधर स्वामि का आदेश ले सकते हैं तो सममना चाहिये कि भरतक्षेत्र में शासन सीमंधर स्वामि का नहीं पर भगवान् महावीर के पट्टधर सौधर्म गणधर का है वास्ते उनकी स्थापना अवश्य होनी चाहिये तीर्थङ्कर सोमंधर के और भगवान महावीर के प्राचार व्यवहार क्रिया में कई प्रकार का अन्तर है और श्री Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ११० -सीमंधर का आदेश लेते हो वह भी कल्पना मात्र ही है क्योंकि सीमंधर स्वामि वहाँ तोमौजूद नहीं हैं केवल उनकी ईशान दिशा में किसी प्रकार की कल्पना ही की जाती है । तो फिर साक्षात् स्थापना मानने में हट करना तो एक प्रकार का दुराग्रह ही है । अतएव जैसे जिनके अभाव जिनप्रतिमा की भावश्यकता है इसी भाँति प्राचार्य के प्रभाव में स्थापना प्राचार्य की जरुरत है। अब हम स्थानकमार्गीसमाजके माने हुए ३२ सूत्रों के अन्दर मुर्शिपजा विषयक सूत्रों में पाठ है उनका संक्षिप्त में दिग्दर्शन करवा देते हैं। (१) श्री आचार्रागसूत्र श्रु० २ ० १५ चतुदर्श पूर्व घर प्राचार्य श्री भद्रबाहु कृत नियुक्ति का पाठ । __अट्टवयमुजंते गयग्गपएवं धम्मचक्केया। पास रहावत्तणयं चमरुप्पयंव वन्दाम्मि ॥४॥ भावार्थ-अष्टापदतीथ, गिरनार तीर्थ, गजपद धर्मचक्ररतावर्ग और जहाँ चमरेन्द्र ने भगवान महावीर का शरणा ले सौधर्म स्वर्ग में गया उन सष तीर्थों को धन्दन करता हूँ । यह सम्यक्त्व की प्रशस्त भावना है अर्थात् इन तीथों की यात्रा करने से समकित निर्मल और पात्मा का विकास होता है। प्राचार्य भद्रबहुस्वामी के बनाये श्रीव्यवहारसूत्र बृहत्कससूत्र, दशाश्रुत स्कन्धसूत्र, हमारे स्थानकवासी भाई पत्तीससूत्रों में शामिल मानते हैं इसलिये यहां भद्रबाहुकृत नियुक्ति का उल्लेख करना युक्तियुक्त है । (२) श्री प्रयगडांगसूत्र श्रु० २ ० ६ श्री गन्धहस्ती आचार्य (वि० सं० २१४) कृत टीकानुसार प्राचार्य शीलांगाचार्य (वि० सं०९५१) कृत रीका। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ बत्तीस सूत्रों में मूर्ति पूजा "ततोऽभयन प्रथम जिन प्रतिमा बहु प्राभूत युताऽक कुमाराय प्रहिता" भावार्थ-इस पाठ में राजकुमार अभयकुमार ने प्राककुमार को प्रतिबोधनार्थ श्रीजिनप्रतिमा भेजी और उसके दर्शन से पाककुमार को जातिस्मरण शान हुआ और उसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष पद प्राप्त किया। (३) श्री-थानयांगसूत्र ! इन सूत्रों के मूल (४) श्रीसमवायांगसूत्र पाठ और अर्थपिछले(५) श्रीभगवतीसूत्र प्रकरणों में आगये हैं। (६) श्रीज्ञातासूत्र (७) श्रीउपासक दशांगसूत्र (इन दोनों सूत्रों में नगरों के (८) श्रीअंगददशांगसूत्र , वर्णन में उबवाईसूत्र के १९श्रीशनतरवासन सहश बहुला अरिहंत या । पाठ है। (१०) श्री प्रश्न म्याकरण सूत्र "चयट्टे निजराही" साधुओं के व्यावधिकार में यह पाठ पाया है और इसका अर्थ है कि किसी भी पैत्य-मंदिर-की पाशातना होती हो तो जैसे बने वैसे उसको दूर करे या करावे । जैसे स्थानायांगसूत्र में साधु संघ ( साधु साची भावक भोर भाविका) की वैयावर करने का उल्लेख है पर अजस्खामि जैसे दश पूर्वधरों ने ऐसा किया भी है। (११) श्रीविपाकसूत्रद्वि० श्रु० के एशों अभ्ययनों में राजकुमार सुबाहु मादि अनेक भावक भाविकाएँ तुंगीयानगरी के भावों Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ११२ के सदृश तथा महासती द्रौपदी की तरह श्रीतीर्थंकरों की मूत्ति की भक्ति पूर्वक पूजा की थी। (१२) श्री उबवाईजी सूत्र (१३) श्री रायप्पसनीसूत्र ( इन चारों सूत्रों के मूल पाठ (१४)श्री जीवाभिगमन पिछले प्रकरणों में विस्तार (१५) श्रीजम्बुद्वीपपन्नति० । | पूर्वक आगये हैं। (१६ ) श्री पन्नावगासूत्र ‘ठवणा सच्चा' भाषापद. (१७) श्री सूर्य प्रज्ञाप्ति ! इन दोनों सूत्रों में राजधानी (१८) श्री चन्द्र प्रज्ञाप्ति । अधिकारे 'अट्ठसयजिण पडिमाणं' पाठ आता है (१९) निरियावलिकासूत्र, कालि आदि दश राणियों जयन्ति मृगावती और द्रौपदी के मुवाफिक जिनप्रतिमा की पूजा की । (२० ) कप्पवडिंसियासूत्र पद्मादि श्रेणिक के दश पौत्रों ने वीतराग देवों की पजा की जैसे तुगियानगरी के श्रावकोंने की थो। (२१) पुप्फीयासूत्र, सूर्याभदेव के सदृश शुक्रदेव बहुपुत्रा देवी ने प्रभु प्रतिमा की भाव भक्ति पूर्वक पूजा की। .(२२ ) पुष्फचूलिकासूत्र श्री ह्रीं घृति आदि दश देवियों ने जिनप्रतिमा की पूजा की (२३) विन्ही दशासूत्र में निषेढादि बारह श्रावकों के अानन्द के मुवाफिक जिनप्रतिमा की पूजा की। (२४) दशवेकालिकसूत्र चूलिका 'सिजंभव गणहर जिण पडिमा दंसणेण पडिबुद्धा' शय्यम्भव भट्ट श्रीशान्तिनाथ की प्रतिमा को देखकर Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ बतीस सूत्रों में मूर्ति पूजा प्रतिबोधित हुए और प्रभवस्वामि के पास जैनदिता ग्रहण कर जैनाचार्य हुए। (२५) श्री उत्तराध्ययन सूत्र । "गौतमस्वामी प्रसादमध्ये प्राप्तो निजनिजवर्णप्रमाणोपेताश्चतुर्विशति जिनेन्द्राणां भरतकारितप्रतिमा ववन्दे तासां चैव स्तुति चकार जगचिन्तामाणि जगनाह जगगुरु जगरक्खण इत्यादि 'दशवाँ अध्ययन टीका' "तत्वभावत्या अन्तेपुरमध्ये चैत्यगृहकारितं तत्रेयं प्रतिमा स्थापिता तांच त्रिकालं सा पवित्रा पूजयति । अन्यदा प्रभावती राज्ञी तत्प्रतिमायां पुरो नृत्यति राजा च वीणां वादयति इत्यादि। 'अट्ठारवाँ अध्ययनटीका' "प्रत्याख्यानानन्तरं चैत्यवन्दनाकार्य 'उचर्त सवां अध्य० टीका (२६) श्री अनुयोगद्वार सूत्र"नाम ठवणा दव्व भाव इत्यादि निक्षेपाधिकारे चार निक्षेप के अधिकार स्थापना निक्षेप में तीर्थंकरों की व आचार्य की स्थापना का विस्तृत उल्लेख है। (२७) श्री नन्दीसूत्र में 'थुभं' विशाला नगरी में श्री मुनि सुबत तीर्थकर का स्तूप होना लिखा है। ८-२९ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ ११४ (२८) श्री व्यवहार सूत्र 'जत्थय सम्मभावियाई चेइयाई पासेज्जा कप्पई से तस्संतिए बालोड़त्ता वा 'प्रथमोद्देश आलोचनाधिकारे' किसी साधु के दोष लगा हो और प्राचार्यादि गीतार्थ का अभाव हो तो वह साधु सुविहित प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा के पास आलोचना कर सकता है। (२९) बृहत्कल्पसूत्र के भाष्य में मूर्ति विषयक प्रचूरता से अधिकार है। (३०) निशीथसूत्र की चूणि मे भी मूर्ति पूजा का वर्णन पाता है। (३१) दशाश्रुत स्कन्ध में राजगृहादि नगरियों का वर्णन है जिसमें भो उववाई सूत्र की भलामण दी है जहाँ 'बहुला अरिहन्त चेइया' यानि बहुत से अरिहन्तों के मन्दिर हैं। ___(२२) आवश्य कसूत्र में 'अरिहन्त चेइयाणि' x x आदि बहुत विस्तार से जिनमन्दिर जिन्प्रतिमा की पूजा का अधिकार है। पूर्वोक्त ३२ सूत्रों में कहीं सामान्य कहीं विशेष परन्तु जैन सूत्रों में ऐसा कोई भी सूत्र नहीं कि जिसमें जैन मूर्तियों का अधिकार न हो ? जैसे सामायिक पौमह वगैरह धार्मिक विधान होने पर भी उनका जितना अधिकार सूत्रों में नहीं है उतना अधिकार मूर्तिपूजा का है । इतना होने पर भी कई अज्ञ लोग कह देते हैं कि ३२ सूत्रों में मूर्तिपूजा का अधिकार नहीं है, वे पक्षपाती और शास्त्रों के अनभिज्ञ हैं उनको भी पूर्व दोनों प्रकरण ध्यान पूर्वक पढ़ने से ज्ञात हो जायगा कि जैन सूत्रों में मूर्तिपूजा खास मोक्ष का कारण बतलाया है । अब अगले प्रकरण में हम Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीस सूत्रों में मूर्तिपूजा ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा मर्तिपूजा को सिद्ध कर बतलावेंगे। पाठक भ्यान पूर्वक पढ़ने का प्रयत्न करें। शुभम् उपसंहार एक मूर्ति को न मानने से हमारे स्थानकमार्गी भाइयों को कितना नुकसान हुआ है उसको भी जरा पढ़ लीजिये। (१) मूर्ति न मानने से जो लोग तीर्थ यात्रार्थ जाते थे, मास दो मास प्रारंभ, परिग्रह, व्यापार और गृह कार्य से निवृति पाते थे, ब्रह्मचर्य-व्रत पालन करते थे, शुभक्षेत्र में द्रव्य व्यय कर पुन्योपार्जन करते थे, उन सब कार्यों से उन्हें वंचित रहना पड़ा। (२) द्रव्य पूजा नहीं करने वाले भी मन्दिर में जाकर नवकार की माला, नमोत्थुणं या स्तवन बोल तीर्थकरों की निरन्तर प्रतिज्ञापूर्वक भक्ति कर शुभकर्मोपार्जन तथा कर्म निर्जरा करते थे, उनसे वंचित रहे, वे उा.टे निन्दाकर कर्मबन्ध करने लगे। (३) मूर्ति नहीं मानने के कारण ही वे लाखों करोड़ों रुपये की लागत के मन्दिर जो उनके पूर्वजों ने बनवाये उनके हक से भी वंचित रहे। (४) मूर्ति नहीं मानने के कारण ही वे ३२ सूत्रों के अलावे ज्ञान के समुद्र सूत्र व हजारों प्रन्थों से दूर भटकन लगे। यदि कोई उन ग्रन्थों को पढ़के ज्ञान हामिल करते भी हैं. पर जब चर्चा का काम पड़ता है तब उन ज्ञानदाता ग्रन्थों को अप्रमाणिक बतलाकरव अविनयकर कर्मबन्धन करते हैं । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चतुर्थ १.१६ (५) मूर्ति के नहीं मानने के कारण ही टीका नियुक्ति भाष्य चूर्णि वृत्यादि का अपमान कर वज्रपाप के भागी बनना पड़ा। और नई कपोलकल्पित टीकाएँ बनाकर अर्थ का अनर्थ करने में स्व पर का अहित करना पड़ा। (६) मूर्ति नहीं स्वीकरने के कारण ही अनेक प्रन्थ चरित्रादि के अन्दर से मूर्ति विषयक पाठ निकाल उनके बदले स्वेच्छ कल्पित पाठ बनाकर स्वयं कर्मबन्धन कर अन्यभद्रिकों को भी इस कार्य में शामिल किये जैसे जैन रामायण उपासक दशांग टीका श्रीपालादि हजारों ग्रन्थों से ग्रंथकर्ता की चोरी करनी पड़ी। (७) मर्ति नहीं मानने के कारण ही संघ में न्यातिजाति में कुसम्प पैदा हुआ और आप अपने को या दूसरों को बड़ा भारो नुकसान पहुँचाया। (८) भगवान महावीर और आचार्य ग्नप्रभसरि से जैनों में शुद्धि की मिशन स्थापित हुई थी और लाखों करोड़ों अजैनों की शुद्धि कर जैन बनाये थे पर मूर्ति नहीं मानने वालों के उत्पात के बाद नये जैन बनाने के दरवाजे बिलकुल बन्द हो गये और आपस की फूट से घटते ही चले आये हैं और उनको उल्टे उन उपकारी आचार्यों के प्रति कृतघ्नी बनना पड़ा। ___ पूर्वोक्त कार्य होने पर भी आज मूर्ति नहीं मानने वालों को मूर्ति की प्राचीनता भगवान महावीर के पश्चात् ८४ वर्ष में स्वीकार करनी पड़ी और भविष्य में कहाँ तक पहुँचेगा यह तो भावी के गर्भ में ही है। हम चाहते हैं कि शासन देव हमारे स्थानकमार्गी भाइयों को सद्बुद्धि प्रदान करे कि वे सत्य ग्रहण करने में समर्थ बनें। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवां ऐतिहासिक क्षेत्र में मूर्तियों का स्थान भारतीय धर्मों में प्रायः जैन, वेदान्तिक, और बौद्ध ये । तीन धर्म ही प्राचीन धर्म माने जाते हैं, और इन तीनों धर्मों के धार्मिक विधानों में मूर्तिपूजा का आसन सब से ऊँचा एवं आदरणीय है। .. गत प्रकरणों में जिस प्रकार हम जैनागमों में मूर्तिपूजा को प्राचीनता अनादि सिद्ध कर बतला आए हैं, उसी प्रकार बौद्ध और वेदान्तियों के शास्त्रों में भी मूर्तिपूजा विषयक लेख प्रचुरता से मिलते हैं। :: यद्यपि तात्त्विक विवेचन में शास्त्रीय प्रमाण भी असंदिग्ध एवं उपयोगी सिद्ध हैं किन्तु वे सर्वसमाज के लिए मान्य न होकर तत्तत् धर्माऽवलंबियों के लिए ही शांतिदायक और संतोषप्रद होते हैं अतः आज मैं इन सबका सहारा छोड़कर केवल ऐतिहासिक एवं युक्तिगम्य प्रमाणों से ही मूर्तिपूजा का अनादित्व सिद्ध करना चाहता हूँ क्योंकि उक्त दोनों प्रमाण सर्व साधारण जन समाज को भी पूर्ण सन्तोषप्रद सिद्ध हो चुके हैं। हम कह आए हैं कि ऐसा करने से शास्त्र कोई झूठे साबित नहीं होते हैं। परञ्च, जैनशास्त्र जैसे जैनियों के लिए मान्य हैं, वैसे ही बौद्धशास्त्र बौद्धों के लिए और वेदान्त वेदान्तियों के लिए ही मान्य हो सकते हैं । इतर धर्मावलंबी जैसे जैन आदिकों के लिए इनकी वस्तु Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवा ११८ विवेचन कोई कीमत नहीं रख सकता, किन्तु इतिहास सर्व देशीय होने से इसकी प्रमाणिकता की मुहर सबके ऊपर जबरन जोड़ दी जाती है। बस, इसी कारण से इतिहास का आश्रय ले, आज हम डंके की चोट यह सिद्ध करेंगे कि जिस मूर्तिपूजा के नाम पर आज के कुछ अज्ञ अपनी अज्ञता जाहिर करते हैं वह कितनी सदियों से हमारे देश में प्रतिष्ठित है जिनके लिये शास्त्रीय सत्य का ऐतिहासिक साधन साक्षी है, और ऐतिहासिक साधनों में प्राचीन शास्त्र भी अन्यतम साधन हैं, अत: इतिहास लिखने में शास्त्र भी उपयोगी एवं उपादेय हैं। मूर्तिपूजा का इतिहास आर्य-धर्म के इतिहास के साथ ही साथ प्रारंभ होता है किन्तु जब अनार्यों ने श्रार्यों का अनुकरण किया तो मूर्ति विषयक ज्ञान के लिये भी कुछ प्रयास करना पड़ा परन्तु वे इसमें अपनी जड़ बुद्धिवश सफल नहीं हो सके, अतः समयान्तर में कई एक अनार्यों ने मूर्तिद्वारा अपने भौतिक स्वार्थ साधनार्थ नाना प्रकार के अत्याचार करने शुरू कर दिये, यद्यपि यह मार्ग शास्त्र विरुद्ध तथा नैतिकता से परे था। किन्तु "संसर्गजाः दोषाः गुणाः भवन्तिः" के सिद्धान्तानुमार इसका दूषित प्रभाव कुछ आर्यों पर भी पड़ा और वे भी लोभवश हो धर्म को ओट ले ( देव देवियों को पशुबलि देना आदि) अनेक अनर्थ करने लगे। और जब यह मात्रा ज्ञान शून्य अनार्यों में जड़ पकड़ने लगी तथा साथ ही विवेक भ्रष्ट कुछ नामधारी आर्य भी इसे सींचने लगे तो उस हालत में इन अत्याचारों को रोकने, या बिगड़ी को सुधारने की किसी ने हिम्मत नहीं की, पर प्रत्युत मूल कारण को भूल, खास कार्य को ही निभूल करने का दुःसाहस किया, ___ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ मूर्तिपूजा की प्राचीनता अर्थात् मूर्तिपूजा की वास्तविकता को ठीक तरह न समम कर स्वयं मूर्ति की ओर ही अपनी क्रूर दृष्टि फेंक दी। ऐसा करने वालों में सब से पहला नम्बर पैगम्बर मुहम्मद साहब का था जो कि विक्रम की सातवीं शताब्दी में अरबिस्तान में पैदा हुए थे । तत्पश्चात् करीब ९०० नव सौ वर्षों के बाद उन अनार्यों का प्रभाव प्रज्ञ आर्यों पर भी पड़ा और उन आर्यों ने अनार्यो. चित धृष्टता कर मूर्तिपूजा का विरोध किया। परन्तु मूर्तिपूजा का सिद्धान्त इतना विशाल और विश्वव्यापी था कि सहज में उसकी सारी जड़ उखड़ न सकी किन्तु काल पाकर अपनी अनिन्द्य लोक-प्रियता के कारण पुनः पनपती रही। प्रत्यक्ष में भी यदि आज देखा जाय तो बिना मूर्ति के, क्या व्यवहारिक और क्या धार्मिक कोई भी काम चल नहीं सकता है, तदर्थ किसी भी रीति से क्यों न हो पर मूर्ति को तो सब संसार सिर मुकाता ही है। "गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज रखना" उस जमाने में जारी था, क्योंकि ज्ञान का भानु उस वक्त अस्ताचल पर था। जनता के हृदयों में अज्ञानाऽन्धकार छाया हुआ था। संशोधक गाढ़ निद्रा में सो रहे थे और इतिहास के साधन लुप्त नहीं किन्तु भूगर्भ में गुप्त जरूर थे अतः यह सब कुछ होना जरूरी था। परन्तु आज तो जमाना बदल गया है। आज का युग इतिहास का युग है। श्राज शास्त्रीय प्रमाणों की अपेक्षा ऐतिहासिक प्रमाणों पर सभ्य समाज का अधिक विश्वास है। (इसका स्पष्ट कारण हम पूर्व में लिख पाए हैं) अतएव आज मैं इस प्रकरण में ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा मूर्तिपूजा की प्राचीनता बतलाने की कोशिश करूँगा। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवां १२० • ऐतिहासिक साधनों में, प्राचीन शिलालेख, प्राचीन सिक्के, प्राचीन मूर्तिएँ, ताम्रपत्र एवं ध्वंसाऽविशिष्ट तथा प्राचीन समय के हस्त लिखित प्रन्थ-मुख्य साधन समझे जाते हैं । अतः इन साधनों पर हो पुरातत्व विशारदों का अधिक से अधिक विश्वास है। ____ विद्वद् समाज और विशेष कर स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे संशोधकों का कहना है कि संसार भर में सब से पहिले मूर्तिपूजा का प्रारम्भ जैनियों से ही हुआ, और अन्य धर्माऽवलंधियों ने मूर्तिपूजा का पाठ जैनियों से ही सीखा। अर्थात् जैनेतर लोगों में मर्ति का पूजना जैनियों का ही मात्र अनुकरण है। यदि यह बात सत्य है तो आज शोध खोजका काम करने से भूगर्भ में से जो ईस्वी सन् के भी ५ हजार वर्ष पहिले की मत्तिएँ उपलब्ध हो रही हैं वे जैनों की हैं या जैनेनरों की। यदि जैनों का अनुकरण करके ही अजैनों ने मूत्तिएँ बनाई हों तो यह निःसन्देह है कि पाँच हजार वर्षों पूर्व भी जैन मूर्तिएँ विद्यमान थीं। नीचे कतिपय उदारहण दिये जाते हैं, देखिये: (१) गौड़ देश के प्राषाढ नामक श्रावक ने इकोसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के शासन काल में आत्मकल्याणार्थ तीन प्रति. माएं बनवा कर उनकी प्रतिष्ठा कराई थी; उनमें से एक चारूप नगर में, दूसरी श्रीपत्तन में और तीसरी स्थंभन नगर में स्थापित की गई। काल क्रम से चारूप और श्रीपत्तन की मर्तयों का तो पता नहीं पर स्थंभनतीर्थ में श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा सांप्रतकाल में भी विद्यमान है और उस प्रतिमा के पिछले भाग में शिलालेख भी है। यथाः Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ तक्षशिला और मोरन जोडरा नमे स्तीर्थकृतस्तीर्थे, वर्षे द्विकचतुष्टये । आषाढ श्रावको गौडोऽकारयत् प्रतिमात्रयम् ॥ श्रीतत्व निर्णय प्रसाद पृष्ट ५३४ से इस शिलालेख से पाया जाता है कि नेमिनाथ भगवान् के २२२२ वर्ष बाद गौड़ देश के आषाढ़ श्रावक ने इस प्रतिमा को बनवा कर प्रतिष्ठा कराई थी, तथा २ प्रतिमाऐं और भी कराई, - इस विषय के और भी प्रमाण प्रभाविक चरित्र एवं प्रवचन परीक्षादि ग्रन्थों में भी मिल सकते हैं, तथा श्री ज्ञातासूत्र में द्रौपदी के अधिकार में भगवान् नेमिनाथ के शासन में भी जैन मंदिर होने के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं तो फिर कोई कारण नहीं कि हम पूर्वोक्त शिलालेख और नेमिनाथ के शासनाऽधिकार से -मन्दिर मूर्ति होने में थोड़ी भी शङ्का करें । अर्थात् इस शिला-लेख से स्पष्टतया यह सिद्ध होता है कि जैनों में लाखों वर्ष पूर्व भी मंदिर मूर्तियों का अस्तित्व था । (२) एक समय आर्य प्रजा में धर्मभावना इतनी दृढ़ थी कि वह आत्मकल्याणार्थ सर्वस्व अर्पण करने में ही अपना गौरव समझती थीं। तथा उसने अपने धर्म के स्तम्भ रूप मन्दिर मूर्तियों से समग्र मेदिनी मण्डल को आच्छादित कर दिया था एवं राजा महाराजाओं ने अपने चालू सिक्कों पर भी चैत्यचिन्ह कित कर दिये थे, ये सिक्के आज भी उत्तर हिन्द में भूगर्भ से बहुतायत में मिलते हैं तथा श्रीमान् डॉ. त्रिभुवनदास लेहरचंद ने अपने "प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास" द्वितीय भाग पृष्ट १३२ के अंदर ऐसे प्रायः २०० सिक्कों के चित्र दिये हैं । इन Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचाँ १२२ सिक्कों में कई ऐसे भी हैं जिनमें एक ओर हस्ती और दूसरी और चैत्य का दृश्य दीख पड़ता है। ये सिके मौर्यकालके होने, विद्वानों ने साबित किए हैं जो जैनियों का उत्कृष्ट अभ्युदय का समय था । इस प्रकार जब जैन चैत्यों के चिन्ह सिक्कों पर भी प्रारूढ़ होगए तब भूमि पर तो इनका एकछत्र राज्य होना खतः संभव है। मौर्यकाल का समय २३०० वर्षों का कहा जाता है और उस समय भारत भूमि धार्मिक मंदिरों से भूषित थी तो मंदिर मूर्तियों की प्राचीनता में सन्देह या शंका करने को स्थान ही कहाँ मिलता है । आर्यों में तथा विशेष कर जैनियों में तो मंदिर मत्तियों को धर्म साधन का अंग प्राचीन समय से ही समझा है। (३) तत्तशिला के पास अंग्रेजों ने खुदाई का काम करवा कर भूमध्य से एक नगर निकाला है जिसका नाम "मोहन जोडरा" रक्खा है । वहाँ भूमि से ५००० वर्ष पूर्व की ध्यान मुद्रावाली एक मूर्ति उपलब्ध हुई है उस पर पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि ई. सन् के पाँच हजार वर्ष पूर्व भी जैनधर्म में मूर्तिपूजा विद्यमान थी। इस प्रबल प्रमाण से एक और भी निपटारा हो सकता है और वह यह कि कई एक पुराण वादियों ने अपने चौबीस अवतारों में आठ रिषभाऽ वतार माना है । वह उनके वेद, उपनिषद् और श्रुति स्मृति में न होकर भी अर्वाचीन पुराणों में जरूर उल्लिखित है । मालूम होता है यह जैनियों का अनुकरण मात्र ही है क्योंकि जैनों के प्राचीन शास्त्रों में भगवान् रिषभदेव को प्रथम तीर्थक्कर माना है और प्रकृत प्राचीन मूर्ति से भी यही सिद्ध होता है कि ५००० वर्ष ___ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ मिन्ध और हरप्पा पूर्व भी जैनों में भगवान रिषभदेव को प्रथम तीर्थङ्कर मान, उनकी मूर्ति बना कर आत्म-कल्याणार्थ उनकी पूजा होती थी। परन्तु रिषभदेव को अाठवां अवतार मानने वाले पुराण-वादियों के पास इनके पुराणों के अलावा कोई भी प्राचीन प्रमाण होना स्पष्ट नहीं पाया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् रिषभदेव जैनियों के प्रथम तीर्थङ्कर थे और जिन्होंने भगवान् रिषभदेव को आठवां अवतार मान रक्खा है यह उनका भ्रम मात्र है । (४) सिन्ध और पञ्जाब की सरहद पर खुदाई का काम करते समय एक नगर भूमि से निकला है जो "हरप्पा" नाम से कहा जाता है । यह नगर ई० सन् के पूर्व पांच से दश हजार वर्ष पहिले का पुराना है । उस नगर में देवियों की मूर्तिऐं मिली हैं। ये मर्तिऐं उतनी ही प्राचीन हैं जितना कि प्राचीन यह नगर है । इस विषय में पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि भारत में मूर्शियों का मानना बहुत प्राचीन समय से था । जब यह कहा जाता है कि संसार भर को मर्तिपूजा का पाठ जैनियों ने ही सिखलाया अर्थात् मत्ति पजा सर्व प्रथम जैनियों ने चलाई और बाद में अन्य लोग जनों का अनुकरण करने लगे तो ऐसी दशा में हम यह क्यों नहीं मानलें कि १०००० वर्ष पहिले भी जैनों में तीर्थङ्करों की मलिऐं बड़े ही भक्ति भाव से पूजी जाती थी। (५) कलिङ्ग जिन (जिन मूर्ति) पर्व दिशा में उड़ीसाप्रान्त के कुमार कुमारी नामक दो पहाड़ों को पहिले जमाने में शत्रुञ्जय और गिरनार अवतार समझते थे, पर आज कल उन्हें खण्डगिरि और उदयगिरि नाम से कहते हैं। पहिले ये दोनों पहाड़ जैन मंदिरों से विभूषित थे अतः जैनसमाज इन दोनों पहाड़ों को अपना Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रकरण पांचवाँ १२४ परम पवित्र तीर्थधाम समझता था, तथा कई एक भावुक भक्त -बड़े २ संघ के साथ आकर के इन पर्वतों ( तीर्थ ) की यात्रा करते थे | एवं इनके पास जैन श्रमणों के ध्यान के लिए अनेक गुफाऐं भी थीं तथा उन गुफाभित्तियों पर जैन तीर्थङ्कों की विशालकाय सुन्दर २ मूर्ति अङ्कित थी जो आज भी यत्र तत्र 'अन्वेषण से दिखती है परन्तु दुःख है कि जिस कलिङ्ग देश में एक समय राजा और प्रजा सब जैनधर्म के परमोपासक थे वहाँ आज कुटिल काल चक्र के प्रभाव से एक भी जैनधर्मावलंबी नहीं है। ऐसा मालूम होता है कि किसी धर्मान्ध यवनों की आपत्तियों के कारण मानों जैनों को यहाँ से चिर समय के लिए ही निर्वासित कर दिया हो, तथापि प्राचीन जैन मंदिरों के ध्वंसाऽ विशेष, आज भी जैनों की पूर्व कालिक स्मृति तथा सांप्रतिक 'अकर्मण्यता का बोध कराते हुए ज्यों के त्यों खड़े हैं। ई० सं. १८२० में पादरी स्टर्लिङ्ग साहिब की शोध पूर्ण दीर्घ दृष्टि कलिङ्ग के इन पहाड़ों पर पड़ी थी और जब कई -गुफाओं तथा गुफाओं के अन्तर्गत उन प्राचीन मूर्त्तियों वगेरह का अवलोकन करते हुए हस्ती गुफा की ओर आगे बढ़े तब वहां का निरीक्षण करते वक्त आपको एक विशद शिलालेख के दर्शन हुए । शिलालेख एक श्याम पाषाण पर अंकित था और उस पाषाण की लंबाई १५ फीट एवं चौड़ाई ५ फीट थी। उस पर -बड़े २ अक्षरों में सुन्दर १७ लाइनों में प्रस्तुत लिखा खुदा हुआ था, यद्यपि दीर्घकाल और असावधानी से कईएक अक्षर घिस गए थे तो भी शेष लेख बड़ा महत्वपूर्ण था, पादरी साहब उस लेख को देखते ही बड़े प्रसन्न हुए, पर लेख की भाषा पालीलिपि Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ कलिंग जिन मूर्ति में होने से ठीक ठीक पढ़ नहीं सके, तयापि श्राप अकर्मण्य भारतीयों की भांति हतोत्साह नहीं हुए, अपितु इस लेख की प्रतिलिपी लेकर भारत और यूरोप में बड़ा भारी आन्दोलन मचा दिया। फिर तो डॉ-टामस, मेजर कीट, जनरल कनिंग होम विसेन्टस्मिथ और विहार के गवर्नर सर एडवर्ड साहिब आदि पुरातत्त्वज्ञों ने, तथा भारतीय इतिहासज्ञ श्रीमान् काशीप्रशाद जायसवाल, मिस्टर राखालदास बनर्जी, भगवानदास इन्द्रजी तथा अन्तिम सफलता प्राप्त करने वाले पुरातत्त्व विशारद श्रीमान् केशवलाल हर्षदराय ध्रुव ने बड़ी बारीकी से निर्णय किया अर्थात् एक शताब्दी के अन्दर अनेक विद्वानों के पूर्ण परिश्रम और सर्व मान्य निर्णय करने वाला श्रीमान् ध्रुव महोदय ने ईस्वी सन् १९१८ में यह निष्कर्ष निकाला कि यह शिलालेख कलिङ्गपति महामोघबाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल के समय का और उनकी खुद की विद्यमानता में लिखा हुआ है। आपने तो यहाँ तक कह डाला कि भारतीय शिलालेखों में इस शिलालेख का नम्बर अव्वल है। इस शिलालेख के गौरव का प्रभाव सम्पूर्ण भारत पर है, महाराजा खारवेल जैन धर्मोपासक होने पर भी सर्व धर्म पोषक थे; यही नहीं किन्तु वे जैन धर्म के कट्टर प्रचारक भी थे, यही कारण था कि आपने कुमारी पर्वत पर जैनों की एक विराट सभा कर दूर दूर से जैनाचार्यों और जैन संघ को आमंत्रित कर एकत्र किया था । शिलालेख से पता मिलता है कि महाराजा खारवेल ने अन्यान्य महत् कार्यों के साथ लुप्त होने वाले " चौसट अध्याय ® देखो मेरा लिखा प्राचीन जैन इतिहास ज्ञान भानु किरण नं ३ ___ ww Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चाँ १२६ वाला सप्तति" नामक पागम को भी पुनः लिखाया था। इससे यह भी मालूम होता है कि केवल देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के समय से ही आगम लिखने शुरु हुए हों सो नहीं किन्तु इनसे पहिले भी आवश्यकता पड़ने पर आगम लिपि बद्ध होते थे। महाराजा खारबेल के बाद श्राचार्य विमलसूरि कृत "पउमचरिय" नामक प्रन्थ को भी वि. सं. ६० में लिखे जाने का पता मिलता है। खारवेल के इस शिलालेख की १२ वीं पंक्ति में एक जैनमूर्ति का भी उल्लेख है जिसे हम प्रसङ्गोपात यहाँ उद्धत करते हैं:___..."मगधानां च विपुलं भयं जनेतो हथी सुगंगीय [-] पाययति [0] मागधं च राजानां वहसतिमित पादेवंदापयति [1] नंदराज नीतं च कालिंगजिनं संनिवेसं...... गह-रतनान पडिहारेहि अंग मागध वसुं च नेयाति [1] — हाथी गुफा शिलालेख पंक्ति १२ वीं इस शिलालेख से एक निर्णय स्वतः हो जाता है कि नंदवंशी राजा भी जैन धर्मोपासक थे क्योंकि जभी तो वे कलिंग पर आक्रमण करने के समय करिङ्गजिन (भगवान् ऋषभदेव की मूर्ति ) ले गये, और अपने वहाँ मन्दिर बनवाकर उनकी स्थापना कर सेवा पूजा करने लगे, बाद तोसरी पुश्त जब महाराजा खारवेल ने मगध पर चढ़ाई की तो वहां के राजा पुष्पमित्र को हरा कर सादि के साथ उसी मूर्ति को वापिस लाकर प्राचार्य सुहम्थी सरि द्वारा पूर्व मन्दिर में ही प्रतिष्ठा करवा कर सेवा पूजा करने लगे। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ मगधेश श्रेणिक का मन्दिर मगध के राजा नंद का समय महावीर निर्वाण से दूसरी शताब्दी का है, अतएव इस घटना से इतना तो निश्चयात्मक कहा जा सकता है कि उस समय जैन शासन में मूर्तिपूजा का प्रचार आम तौर पर था, पर यह नहीं कहा जा सकता है कि मूर्ति पूजा उसी समय शुरु हुई थी, क्योंकि राजा नंद जिस मंदिर से जैन मर्ति उठा के लेगया वह मंदिर उस रोज तो कोई बना ही नहीं था, और जब कभी बना होगा तब भी किसी दूसरे मंदिर के नकशे से बना होगा ? ऐसी हालत में मूर्तिपूजा की प्राचीनता में सन्देह करने वालों को कोई कारण शेष नहीं रहता है, फिर भी वे यदि अपने हठ को न छड़ें तो उनकी बुद्धि को क्या कहा जाय ? आगे चल कर हम यह बतावेंगे कि इस मंदिर को किसने बनाया ? ___जैन पट वलियों में आचार्य हेमवन्त सरि की पटावली सब से प्राचीन समझी जाती है। आचार्य हेमवन्त सूरि प्रसिद्ध स्कंदिलचार्य के पट्टधर थे, आपका नाम श्री नन्दीसूत्र की स्थविरावली में भी आता है हेमवन्त सूरि का समय विक्रम की पहिली शताब्दी का है । अतः हेमवन्त पटावली प्राचीन और प्रामाणिक व ही जा सकती है हेमवन्त पटावली में स्पष्ट लिखा है कि कलिङ्ग से राजा नंद जैनमूर्ति को मगध में लेगया, वह मूर्ति मगधेश महाराजा श्रेणिक ने स्थापित की थी, और यह बात सर्वथा मान्य भी कही जा सकती है । क्योंकि महाराजा श्रेणिक और नन्द के बीच केवल १५० डेढ़सौ वर्षों का अन्तर है । जिस मंदिर से राजा नद मति लेगया वह मन्दिर १५० वर्ष पर्व में बना हो तो यह बात सर्वथा मान्य हो सकती है। ___ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १२८ ... सम्राट श्रेणिक (बिम्बसार ) कट्टर जैन थे । भगवान् महावीर के परमभक्त थे । यह बात आपके जीवन से सुविदित होती है । महाराजा श्रेणिक प्रतिदिन १०८ सुवर्ण यव ( अक्षत) बनवाकर तीर्थङ्करों की मूर्ति के सामने स्वस्तिक करते थे। इस बात की पुष्टि के लिए मैतार्य मुनि का जीवन विद्य-. मान है। “मैतार्य मुनि एक सोनी के यहां गोचरी को गए: तो वहां सुवर्ण यवों को भक्षण करते कुकुट (मुर्गा) को देखा। बाद में सोनी ने आकर स्वर्ण यव नहीं देख.उस हालत में मुनि को हो चौर समझा और उनके सिर पर नीला (आर्द्र) चर्म कसके बांध दिया। मुनि ने जीव हिंसा के भय से कुर्कुट का नाम नहीं . बताया किन्तु बदले में अपना जीवन दे दिया । उन सुवर्ण यवों के लिये हमारे स्थानकवासी भाई यों कहते हैं कि: तुं जमाई राजा श्रेणिकानो, सोवन यव छ तेहना । साच वात तुं बोल साधुजी जीव जायला बीहुना ॥ इस कथनानुसार वे यव (जौ) दूसरा का नहीं किन्तु राजा श्रेणिक के ही थे और आप ऐसे सुवर्ण यव स्वयं सदैव के लिए बनवाता था, और उन्हें मर्ति के सामने स्वस्तिक बनाने के काम में लेता था। बस, महाराजा श्रेणिक ने इस अपूर्व भक्ति से ही तीर्थकर नाम कर्मोपार्जन किया, और श्रेणिक का देहान्त भगवान महावीर की मौजूदगी में ही हो गया था। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि कलिङ्ग का मन्दिर गजा श्रेणिक ने भगवान महावीर की विद्यमानता में बनाया और यह कार्य आत्म-कल्याण एवंधमकार्य साधन का एक खास अंग था, इसलिये भगवान महावीर ने उसे न तो मना Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ खारवेल का शिलालेख किया, और न किसी अन्यत्र स्थान पर इस कार्य साधनका विरोध किया, अतः यह समझना कोई कठिन कार्य नहीं कि भगवान महावीर भी इस कल्याणकारी कार्य में सहमत थे । प्रस्तुत महाराजा खारवेल के शिलालेख का प्रभाव योरोपियन और भारतीय विद्वानों पर तो पड़ा सो पड़ा ही किन्तु हमारे स्थानकवासी विद्वानों पर भी इसका प्रभाव कम नहीं पड़ा है । क्योंकि मूर्ति विषयक उनकी चिरकाल की दूषित मान्यता को इस लेख ने सहसा पलटा दिया है और इसके फलस्वरूप श्रीमान् संत बालजी ने मूर्तिपूजा को महाराज अशोक के समय से और स्वामी मणिलालजी ने भगवान् महावीर से दूसरी शताब्दी के सुविहितचायद्वारा प्रतिष्ठित मान ली है और इस प्रवृत्ति से जैन समाज पर महान् उपकार होना भी स्वीकार किया है । इतना ही नहीं पर वीरात् ८४ वर्ष का वड़ली ( अजमेर) वाला शिलालेख पढ़ कर तो स्थानकवाली विद्वानों को महावीर प्रभु के बाद ८४ वर्षों से ही मूर्तिपूजा का अस्तित्व मानना पड़ा है । पता नहीं फिर भी आगे इस शोध खोज से मूर्तिपूजा की प्राचीनता कहाँ तक सिद्ध होगी ? । सुविहित आचार्योंए श्राजिनेश्वरदेवनी प्रतिमानुं आलंबन बतान्यु अने तेनुं जो परिणाम मेळवावा आचार्योए धार्यु हतुं ते परिणाम केटक अंशे भव्युं पण खरू, अर्थात् जिनेश्वरदेवनी प्रतिमा स्थापना अने तेनी प्रवृत्ति ( पूजा ) थी घणां जैन जैनेतर थता अटक्या अने तेम करवामां थे आचार्यों जैन समाज पर महान उपकार कर्यो छे ओम कहवामाँ जर अ अतिशयोक्ति नथी" प्रभुवीर पटावली पृष्ट १३१. (९)- ३० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अकरण पांचाँ १५० विशेषता तो यह है कि जब वीरात् ८४ वर्ष बाद के इस शिलालेख से मूर्तिपूजा सिद्ध है और उस समय चतुर्दश पूर्वधर आचार्य विद्यमान थे और उस समय से लगा कर २००० वर्षों सक तो किसी ने भी मूर्तिपूजा का विरोध नहीं किया अपितु मूर्तिपूजा को ही परिपुष्ट किया, फिर २००० वर्षों के बाद कुछ अज्ञ लोगों ने मूर्ति का विरोध क्यों किया, यह समझ में नहीं आता है । फिर भी इस बारे में हमने जो कुछ लिखा है वह पाठक हमारी लिखी "लौंकाशाह के जीवन पर ऐतिहासिक प्रकाश", नामक पुस्तक में विस्तार से देखें। कलिङ्गपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा स्वारवेल के उस प्राचीन शिलालेख से तो भगवान् महावीर के समय में ही मूर्तिपूजा प्रमाणित हो जाती है, और इस विषय के और भी अनेक प्रमाण हमें प्राप्त हैं, किन्तु ग्रन्थ बढ जाने के भय से वे सर्वप्रमाण न देकर उनमें से कतिपय प्रमाण पाठकों के अवलोकनार्थ हम यहाँ दे देते हैं। जिन से यह सिद्ध होगा कि मर्तिपूजा कितनी प्राचीन है देखिये: (५) दशपुर नगर के इतिहास में एक जगह उल्लेख मिलता है कि "वीत भय पाटण" के महाराजा उदाई की पट्टाशी प्रभावती के अन्तःपुर गृह (जनाना) में भगवान महावीर की मति घर देरासर में थी, राजा और राणी हमेशां उनकी त्रिकाल पूजा करते थे, जब राणी प्रभावती ने दीक्षा ग्रहण की तब उस मूर्ति की सेवापूजा, महारानी प्रभावती की दासी सुवर्णगुलिका करती थी। इधर उज्जैन नगरी का राजा घण्डप्रद्योतन ने सुवर्णगुलिका ___ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ उदाइ मन्दिर दासी के रूप पर मोहित हो ऐसा षड्यंत्र रचा कि दासी के साथ उस महावीर की मूर्ति को गुप्त रूप से उज्जैन में बुला ली, किन्तु जब यह बात महाराजा उदाई को मालूम हुई तो वे अपना दल बल लेकर उज्जैन पर चढ़ गए । वहाँ चण्डप्रद्योतन के साथ घोर लड़ाई लड़ मर्ति, दासी, और स्वयं उज्जैन नरेश को बाँध अपने साथ लेकर चल पड़े, किन्तु लौटते वक्त मार्ग में वर्षा ऋतु श्राजाने से पानी बरसने लगा इससे अपार जीवोत्पत्ति हुई । उसे देख, उन सब ने जंगल ही में अपना डेरा डाल दिया, और वहीं धर्म कार्यों में अपने दिन बिताने शुरू किये। उन विशाल जन संख्या में राजा उदाई के साथ दश माण्डलिक राजा भी थे, जिन्होंने दशविभागों में अपनो २ छावनिएँ डाली, पर उस समय जंगल में खान पान की सामग्री कहाँ से आती, अतः आस पास के नगरों के व्यापारी लोगों ने वहाँ पर अपनी दुकानें जमा दी जिन से उस जन समुदाय को अपने लिए आवश्यक वस्तुओं की सुविधा हो गई। वहाँ पर इस प्रकार के विशाल श्रादान प्रदान तथा क्रय विक्रय को देख आसपास के अन्य लोग भी अपना माल बेचने और आवश्यक सामग्री खरीदने को आने लगे जिससे थोड़े ही दिनों में वहाँ एक व्यापार की अच्छी मण्डी चल पड़ी। चतुर्मास समाप्त होने पर राजा उदाई तो अपनी सेना के साथ वहाँ से राजधानी को लौट पड़े किन्तु जो व्यापारी लोग थे वे वहीं अपनी व्यापारिक सुविधा देख कर रह गए और कालान्तर में वे दश छावनियों दशपुर नगर के नाम से श्राबाद होगया ।" 8 यह कथा तो विस्तार से है पर यहाँ प्रसंग मूर्ति का है वास्ते इतना ही लिखा है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १३२ . पूर्वोक्त अधिकार हमारे उत्तराध्ययन सूत्र के अध्याय १८ तथा आवश्यक सूत्र की टीका में विस्तृत रूप से मिलता है और स्थानकवासी साधु अमोलखर्षिजी ने भी श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्रं चतुर्थ अधम्म द्वारा के पृष्ट ११४ पर "सुवरणागुलियए" इस मूलपाठ के हिन्दी अनुवाद में 'वीतभयपाटण के राजा उदाई की सुवर्णगुलिका दासी को उज्जैननगरी का राजा चण्डप्रद्योतन लेगया, इतना उद्धरण तो आपने दे दिया, परन्तु वह इसे क्यों लेगया, कैसे लेगया, और किसके साथ लेगया आदि का नाम तक न लिया, कारण ऐसा करने से उन्हें महावीर की मूर्ति का जिक्र करना पड़ता जो कि श्रापको सर्वथा अनभीष्ट था, किंतु ऐसा करना आपकी संकीर्ण मनोवृत्ति का ही प्रदर्शन है । नहीं तो जब मूलसूत्र में "सुवण्णगलियाए" पाठ में वीतभय, उज्जैन, उदाई और चण्डप्रद्योतन राजा का नाम नहीं होने पर भी आपने टीका से उन्हें लेलिया तब उसी टीका में-- गोशीर्षचन्दनमयीं श्रीमान्महावीरप्रतिमां राजमन्दिरान्तर्वार्तनी चैत्यभवनस्थितां" इस भगवान महावीर की मूर्ति के, समर्थक पाठ को क्यों छोड़ दिया। शायद आपके पूर्वजों से क्रमशः चली प्रती हुई वृत्ति का ही अापने अनुकरण कर इस सत्य को छिपाया हो तो आश्चर्य नहीं पर जब ऐतिहासिक साधनों से भगवान महावीर के शासन समय में ही मूर्तिपूजा सिद्ध होती है तो फिर ऐसी व्यर्थ तस्कर वृत्ति करने से क्या फायदा हो सकता है। इसे जरा सोचना चाहिये। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ विशाज स्तूप . (६) दूसरा उदाहरण महाराजा चेटक का है। जिस समय महाराजा चेटक तथा कोणिक (अजातशत्रु ) के हार हाथी और बलह कुमार के कारण आपस में घोर युद्ध हुआ था और आखिर कोणिक ने विशाला को घेर लिया, उस समय एक नैमित्तिक (शकुनज्ञ ) ने कहा कि जब तक आप इस विशाला नगरी में स्थित तीर्थकर मुनिसुव्रत के स्तूप (चैत्य ) को न गिरादें तब तक आपका विशाला पर अधिकार नहीं हो सकता। राजा कोणिक ने निमित्तिया के कथनाऽनुसार एक पतित साधु द्वारा उस चैत्य को गिरवा दिया और तत्क्षण विशाला को भंग कर अपनी विजय वैजयन्ती फहराई । विशाला नगरी के इस स्तूप का वर्णन हमारे ३२ सूत्रान्तर्गत नन्दीसूत्र नामक ग्रंथ में स्पष्ट रूप से है। पूर्वोक्त दोनों उदाहरण यद्यपि हमारे सर्वमान्य शास्त्रों के हैं तथापि इन उदाहरणों की सत्यता के विषय में मैं इतर लोगों के सन्तोषार्थ यहाँ ऐतिहासिक प्रमाण पेश करता हूँ जिससे इनकी सत्यता पर पूरा प्रकाश पड़ जाय । (७) जिला आकोला (बरार) के पास एक बारसी ताकली नाम का छोटा गाँव है उसमें एक घर की खुदाई का काम करते समय १९ । अखंडित और ७ मम्तकहीन जैन मूर्तिएँ उपलब्ध हुई हैं। उनमें कई एक मूर्तिएं ईस्वी सन् से ६०० या ७०० वर्ष पहिले की पुरातत्त्वज्ञों ने सिद्ध की हैं। ये मूत्तिएँ नागपुर के सेन्ट्रल म्यूजियम में रखी जाने का सरकार ने निश्चय किया है। यह समाचार प्रायः सब सामयिक समाचारपत्रों में प्रकाशित हो चुका है, जैसे--दैनिक अर्जुन ता० १७-५-३६ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ और वीर सन्देश ता० २५-५-३६ में । यदि यह बात सत्य है तो कोई कारण नहीं कि हम भगवान महावीर के पूर्व एक दो शताब्दी में मूर्तिपूजा नहीं मानें । अर्थात् इन सब प्राप्त प्राचीन मूर्तियों से सिद्ध होता है कि भगवान महावीर के पूर्व भी जैनों में मूर्तिपूजा का प्रचार प्रचुरता से था। सातवाँ तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का मन्दिर-महात्मा बुद्ध सबसे पहले अपने धर्म का उपदेश करने को राजगृह नगर में आये तब वहाँ सुपार्श्वनाथ के तीर्थ में ठहरे थे, ऐसा बौध ग्रन्थ "महावग्गा के १-२२-२३" में लिखा मिलता है । यद्यपि इस मन्दिर का नाम "सुपतित्थ" अर्थात् सुपार्श्वनाथ तीर्थ का पालीभाषा में संक्षिप्त रूप 'सुष्पतित्थ' लिखा है। दिगम्बर विद्वान् बाबू कामताप्रसादजी ने स्व लिखित 'महावीर भगवान् और महात्मा बुद्ध' नामक पुस्तक के पृष्ट ५१ पर कई दलीलें एवं प्रमाण देकर इस बात को सिद्ध की है कि महात्मा बुद्ध सब से पहिले राजगृह नगर में आये तब श्री सुपार्श्वनाथ के मन्दिर में ठहरे थे। इससे यह निश्चय हो जाता है कि भगवान महावीर के समय सुपार्श्वनाथ का मन्दिर था तो फिर कोई कारण नहीं कि हम महावीर के समय मन्दिर मूर्ति होने में किंचित् भी शंका करें। (८) अब रहा हमारा विशाला नगरी का स्तप जो ऊपर श्री नंदीसूत्र के उदाहरण से स्पष्ट कर आये हैं। इसी प्रकार मथुरा की खुदाई के काम तथा खण्डहरों में भी ऐसे अनेक स्तूप मिले हैं जिनकी प्राचीनता के विषय में एक पुरातत्त्व और मर्मक विष्पक्ष विद्वान् लिखते हैं कि: Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ मुंडस्थल मन्दिर ... The original erection of the Stupa in brick in the time of Parshwanath, the predecessor of Mahavir would fall of a date not later than 600 B. C. Probably therefore this Stupa, of which Dr. Fuhrer exposed the foundation, is the oldest known building in India. V. Smith Mutra Antiquities __"भगवान महावीर के पूर्ववर्ती भगवान पार्श्वनाथ के समय में जिस स्तूप को मूल रचना, ईटों से की हुई है वह ई. सन् ६०० वर्ष पूर्व के बाद का तो है ही नहीं ( याने ई.सन् ६०० या ७०० वर्षों के पूर्व का स्तूप है ) तथा डॉ. फुहररकी जांच के मुताबिक भी मथुग का यह स्तूप भारत के प्राचीनतम स्थापत्यों में सब से प्राचीन है।" इस प्रकार इन पाश्चात्य संशोधकों और विद्वानों के मत से भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्व समय में भी जैनों में स्तूप बनाने का प्रचार था तथा महावीर भगवान के पूर्व समय एक दो शताब्दी में मूर्तिों के ऐतिहासिक प्रमाण भी प्रचुरता से प्राप्त हो रहे हैं। ऐसी दशा में यह मानना कि जैनों में मूर्तिपूजा की प्रथा प्राच न ही नहीं किंतु प्राचीनतम है, बिल-कुल युक्ति युक्त एवं प्रमाण सङ्गत है । यही क्यों पर इस से बढ़ कर भी हम गत प्रकरणों में जो ऋषभदेव के समयवर्ती तीन रत्न रचित स्तूपों का शास्त्रीय प्रमाण दे आये हैं उनकी पुष्टि के लिए भी ये ऐतिहासिक प्रमाण पर्याप्त हैं। अब आगे चलकर और देखिये: Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १३६ __(8) भगवान महावीर दीक्षा लेकर सातवें वर्ष में भ्रमण करते हुए जब आबू के निकट मुण्डस्थल नामक नगर में पधारे और उसी स्थान पर आपके दर्शनार्थ राजा नंदिवर्धन श्राए तो उन राजा ने इस दर्शन लाभ की चिर स्मृति के लिए वहीं पर एक सुन्दर मन्दिर बनवा दिया, जिसकी प्रतिष्ठा श्री केशीश्रमणा चार्य ने कराई थी, उसके खण्डहर आज भी वहाँ दृष्टिगोचर होते हैं, जिसका पता तत्रस्थ शिलालेख से मिलता है, वह शिलालेख विद्वद्वर्य मुनि श्री जयंतिविजय जी महाराज ने अपनी खोज द्वारा प्राप्त किया है जो पुरातत्त्व पर अच्छा प्रकाश डालता है ! यह शिलालेख जैनपत्र ता० १५.३-३१ में मुद्रित भी हो चुका है। मधमानंदसूरीश्वरजी में हुई थी, ऐसा उमटा भगवान बार (१०) कच्छ भद्रेश्वर नगर में एक प्राचीन मन्दिर अब भी वर्तमान है जो भगवान महावीर के निर्वाण के बाद केवल २५ वर्षों में बना हुआ है । उस मन्दिर की प्रतिष्ठा भगवान सौधर्म स्वामी के कर कमलों से हुई थी, ऐसा उल्लेख मिलता है। श्री विजयानंदसूरीश्वरजी ने अपने 'अज्ञान तिमिर भास्कर' नामक ग्रंथ में इस मन्दिर के शिलालेख की नकल स्पष्ट और विस्तार से लिखी है। . (११) उपकेशपुर (ओसियों) और कोरण्टा के महावीर मन्दिर की प्रतिष्टा वीरात् ७० वर्ष में प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरी के कर कमलों से हुई थी। ये दोनों मन्दिर आज भी भक्त भव्यों का कल्याण करने में खड़े हैं, इस विषय में प्राचार्य श्रीकक सूरीश्वरजी महाराज फरमाते हैं कि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ली का शिलालेख "उपकेशे च कोरंटे तुल्यं श्रीवीरबिम्बयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥" तथा इन दोनों की प्रतिष्ठा के समय के बारे में लिखा है कि :“सप्तत्या वत्सराणां चरमजितेमुक्तास् वर्षे । पंचम्यां शुक्लपक्षे सुरगुरुदिवसे ब्रह्मण सन्मुहूर्ते ॥ रत्नाचार्यैः सकलगुणयुतैः सर्वसंघाऽनुज्ञातैः । श्रीमद्वरस्य बिम्भवशतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठा ॥" १३७ "उपकेशगच्छ चरित्र वि० सं० १३७१ का लिखा " यही बात आचार्य विजयानन्दसूरि अपनी जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर नामक पुस्तक में लिखते हैं कि - - " एरनपुरा की छावनी से ३ कोस के लगभग यह कोरंटा नाम का नगर आजकल ऊजड़ पड़ा है केवल उस स्थान पर कोरंटा नाम का एक छोटा सा गाँव आबाद है, वहाँ की प्रतिमा भी श्री रत्नप्रभसूरिजी की प्रतिष्ठा कराई" इन उद्धरणों से स्पष्ट जाहिर होता है कि पूर्वोक्त दोनों मन्दिर २३९३ वर्ष के प्राचीन हैं । 4 इतना ही क्यों पर इस कोरण्टा के प्राचीन मन्दिर का एक सबल प्रमाण प्रभाविक चरित्र में भी मिलता है देखों मेरी लिखी "सवाल जाति विषयक शंका समाधान", नामक पुस्तक | ( १२ ) सुघोषापत्र के तंत्री श्रीमान मूलचन्द आशाराम बेटी जैनपत्र वा २६-१-३० के अंक में "भूमि गर्भ में छपायेल अपूर्व शासन समृद्धि" शीर्षक लेखमें लिखते हैं कि: Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रकरण पांचवाँ १३८ "प्रेवीस जिलाना मालाना गांम मा खोद काम करतां समय बे प्रतिमाएँ उपलब्ध थई, जेमा अंक प्रतिमा पर वीर सं० ८२ अने बीजी ऊपर वीर सं० १०४ वर्ष नो शिलालेख के अने पुरती कोशीश करवा थी ते मूर्तियों त्यांना जैनों ने मिली छै" जैनपत्र ता० २६.१.३० (१३) वड़ली (अजमेर) का वीर सं० ८४ का शिलालेख । यह शिलालेख रायबहादुर पं० गौरीशंकरजी ओमा की शोध खोज से मिला है । इसपर लिखा है:"वीराय भगवते चतुरासिति वासे माझिामेके ।" ओझाजी की लिपिमाला पुस्तक यह लेख अजमेर के अजायब घर में सुरक्षित और लेखक की खुद की निगाह से भी गुजरा हुआ है । इस लेख से भी यही प्रमाणित होता है कि यह शिलालेख वीर निर्वाण सं० ८४ में अंकित किया गया है। इस शिलालेख में बतलाई माझिमिका वही प्रसिद्ध पुरानी नगरी माध्यमिका है, जिसका उल्लेख भाष्यकार पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में किया है। प्रस्तुत शिलालेख ने केवल जैनधर्म के इतिहास पर ही नहीं अपितु समग्र भारतीय इतिहास पर बड़ा भारी प्रभाव डाला है । विद्वद्वर्ग की ऐसी धारणा है कि आजतक के प्राप्त भारतीय शिला. लेखों में यह लेख सब से प्राचीन और महत्वपूर्ण है। श्रीमान् काशीप्रसाद जायसवाल और महामहोपाध्याय डॉ. सतीशचन्द्र Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ प्रचीन जैनमूर्तियाँ विद्या भूषण जैसे प्रकाण्ड विद्वानोंने अपनो २ राय प्रकट की है कि यह शिलालेख महावीर के निर्वाण बाद वास्तव में ८४ वर्ष का ही है और जैनधर्म की प्राचीनता तथा महत्ता पर विशेष प्रकाश डालता है । स्थानकवासियों को शंका के निवारणार्थं पं० बेचरदासजी ने भी इस लेख को बारीकी से देखा है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि श्रीमान् संत बालजी जो अशोक के समय से मूर्तिपूजा का प्रचलित होना मानते थे, अब अपनी उस मान्यता को छोड़ वीरात् ८४ वर्ष में मानने लगे हैं। विश्वास है यदि आगे भी इसी प्रकार की पुरातत्व की शोध खोज होती रही तो स्थानकवासियों को वीरात ८४ वर्ष के बाद की मूर्ति मान्यता को भी बदलकर भग-वान महावीर के पुरोगामी प्रभु पार्श्वनाथ के समय से भी माननी पड़ेगी। क्योंकि मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुए स्तूप के.. विषय में जिसका कि वर्णन हम ऊपर लिख आये हैं उससे भी प्रस्तुत स्तूप बहुत पूर्व का है यहाँ तक कि पार्श्वनाथ का समय भी इनसे बहुत पीछे का है । प्रभु (१४) पुरातत्व के अनन्य अभ्यासी श्रीमान् डॉ० प्राणनाथ का मत है कि ई० सन् के पूर्व पांचवी घट्टी शताब्दी में जैनियों के अन्दर मूर्ति का मानना ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध है । (१५) पटना की वस्ती श्रगम कुँया से मिली दो मूर्तियों के शिलालेखों से पुरातत्वज्ञ श्रीमान् काशीप्रसाद जायसवाल ने निर्णय पूर्वक यह घोषणा की है कि ये जैन मूर्तिएँ महाराजा कोणिक ( अजात शत्रु) के समय की ही हैं। भारतीय इतिहास को रूपरेखा जिल्द १ पृष्ठ ५०२ (१६) काठियावाड़ - जैतलसर के पास मायाबन्दर Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १४० स्टेशन से थोड़ी दूरी पर ढ़ाका प्राम में प्राचीन जैन मूर्तिएँ मिली हैं वे भी ईस्वी सन् के पूर्व कई शताब्दियों की हैं। (१७) पुरातत्त्वज्ञ श्रीमान् हीरानन्द शास्त्री ने एक विस्तृत लेख सरस्वती मासिक पत्र वर्ष १५ अंक २ में प्रकाशित करवाया है जिसमें आप लिखते हैं कि मथुरा से १४ मील के फासिले पर परखम नामक ग्राम में एक प्रतिमा मिली है, जिस पर ब्राह्मीलिपि में एक लेख है, उसको पढ़ने से पाया जाता है कि यह मूर्ति ईस्वी सन् के पूर्व२५० वर्षों की है । इसी प्रकार जैनधर्माविलंबिय के एक स्तूप का भी पता मिला है जो कि पिप्रावह के स्तूप से कम पुराना प्रतीत नहीं होता है । यह स्तूप गौतमबुद्ध के निर्वाण के बाद थोड़े ही समय में बना है, अर्थात् ईस्वी सन् के पूर्व ४५० वर्षों में यह बना था। (१८) जैसे पूर्व और उत्तर भारतमें जैनों के प्राचीन स्मारक 'चिन्ह मिलते हैं वैसे ही दक्षिण भारत और महाराष्ट्र प्रान्त में भी जैनों के स्तूप, मूर्तिएँ और गुफाएँ कोई कम नहीं मिलती हैं। और उन प्राप्त स्मारकों का समय भी मौर्य चन्द्रगुप्त व उनसे भी पूर्व का है देखो "प्राचीन स्मारक नामक पुस्तक ।" (१६) भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास पृष्ठ १६ में श्रीमान् त्रिभुवनदास लेहरचन्द ने लिखाहै है कि अंग्रेजों द्वारा खुदाई का काम करते वक्त एक महावीर की प्राचीन मूर्ति उपलब्ध हुई है और उसका चित्र देकर यह बतलाया है कि यह मूर्ति खारवेल के पूर्व अर्थात वि० सं० के पूर्व तीसरी शताब्दी की है इससे निःशंक है कि यह मूर्ति प्रायः २२०० वर्ष ___ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास धन कटक प्रान्त की बेनातट राजधानी के प्रदेश में खुदाई का काम करते समय श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्राचीन मूर्ति भूगर्भ से मिली है। यह मूर्ति चक्रवर्ति महामेघबहान खारबेल के पूर्व की अर्थात् भगवाज् महावीर के बाद दूसरी शताब्दी की होना निर्गीत हुआ है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास ! यह मूर्ति भगवान महावीर की है खुदाई का काम करते समय उपलब्ध हुई है और इसका समय भगवान् महावीर : और महात्मा बुद्ध के पश्चात् एक शताब्दी का विद्वानों ने निर्णीत किया है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ प्रचीन जैनमूर्तियाँ की प्राचीन है तथा उस समय भी जैनधर्म में मूर्तिपूजा आमतौर से प्रचलित थी इसका ही यह पर्याप्त प्रमाण है देखो चित्र । (१९) बैनातट नगर के प्रदेश में मिली हुई पार्श्वनाथ की प्राचीन मूर्ति विक्रम पूर्व दो तीन शताब्दियों की है जिसका चित्र इसी पुस्तक में अन्यत्र है। डॉ० त्रिभुवनदास लहरचंद ने भी अपने "भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास के दूसरा भाग में" इसको चर्चा करते हुये लिखा है कि यह मूर्ति विक्रम पूर्वं तीसरी शताब्दी की है। भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास पृ० १२२ (२०) श्रावस्ती नगरी के शोध खोज से भूमध्य में से एक श्रोसंभवनाथ का मन्दिर निकला है । इस मन्दिर ने ऐतिहासिक क्षेत्र पर अच्छा प्रकाश डाला है । इस खोद काम से और भी अनेक खण्डहर मिले हैं। जिनके विषय में विद्वानों का मत है कि ये भगवान् महावीर के पूर्व के स्मारक हैं और स्वयं भगवान् महावीर भी यहाँ पधारे हुए हैं । देखो जैन ज्योति अंक ता० २५-४-३६ (२१) अंग्रेजों के खोद काम से मिली हुई एक जैन मूर्ति पर वीरात् १८४ वर्ष का शिलालेख अङ्कित है, तथा वह मूर्ति कलकत्ता के म्यूजियम में सुरक्षित है। (२२)जैन पत्र ता० ८-१२-३५ पृष्ट ११३१ पर एक पुरा-- तत्वज्ञ ने एक मूर्तिपूजा की प्राचीनता बताते हुए भूगर्भ से प्राप्त एक (जैन) मूर्ति को ई० सन् के पूर्व छठी शताब्दी का बताया है। अर्थात् भगवान महावीर के सम सामयिक उस मूर्ति का होना. सिद्ध किया है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचव १४२ (२३) विशाला नगरी के आसपास के प्रदेश में पुरातत्व विभाग की ओर से शोध खोज का श्रारम्भ होने पर इतने ध्वंसाऽवशेष मिले हैं कि जिन पर गवेषणा पूर्वक विचार कर योरोपियन विद्वानों ने अपने निष्पक्ष मानस से यह स्पष्ट बतला दिया है कि ये स्मारक चिन्ह भगवान् महावीर के सम सामयिक हैं। भूगर्भ से प्राप्त इन साधनों से यह भी निःसंदेह पाया जाता है कि जैनियों में बहुत प्राचीन काल से ही धार्मिक साधनों में जैन मन्दिर, मूर्तिएँ, स्तूप और पादुकाए श्रादि प्रधान समझी जाती थीं। आजतक जैनों के जितने प्राचीन चिन्ह प्राप्त हुए हैं वे सब के सब मूर्तिपूजा के प्राचीनत्व को परिपुष्ट करते है । परन्तु ऐसा साधन तो एक नहीं मिला कि जो अपवाद रूप से भी कचित् मूर्तिपूजा का विरोध करता हो ? इतने पर भी क्या अब हमारे - स्थानकवासी भाई यह विचार करेंगे कि वास्तविक तथ्य क्या है ? (३) श्रोसियां में देवी के मन्दिर के पृष्ठ भाग में एक देहरी के पीछे प्राचीन जैन मूर्ति पूजित विराजमान है। यह मूर्ति भी उतनी ही प्राचीन है जितना कि प्राचीन श्रौसियां का जैन मन्दिर है । जिन्हें विश्वास न हो वे वहाँ जाकर स्वयं देख सकते हैं (२४) मारवाड़ की प्राचीन राजधानो मण्डोर के भन किले में एक दुमंजिला जैन मन्दिर खण्डहराऽवस्था में विद्यमान है, उसकी देहरियों के छबना के पत्थरों में भी छोटी-छोटो जैन मूर्तियें विद्यमान हैं, ये भी बहुत प्राचीन हैं जिनका कि चित्र यहाँ दिया जाता है । (२५) रायबहादुर पं० श्रीमान् गौरीशंकर ओझा ने Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास यह मूर्ति प्रभु पार्श्वनाथ की है जो ओसियां के देवी के मन्दिर में एक देहरी के पीछे अपूज विराजमान है । मूर्ति की प्राचीनता ओसियां के मन्दिर से मिलती जुलती है अर्थात् २३९३ वर्षों की है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास यह मूर्ति मारवाड़ की प्राचीन राजधानी मंडोवर के भग्न किले में एक दूमंजल जैन मन्दिर की एक भग्नदेहरी के खण्डहर के पत्थर में कोतारीहुई जैनमूर्तियों का दृश्य है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ विद्वानों के अभिप्राय अपने राजपूताना के इतिहास नामक पुस्तक के पृष्ट १४१३ पर लिखा है कि:___"इससे निश्चित है कि मेवाड़ में विक्रम संवत् पूर्व दूसरी शताब्दी के पूर्व में मूर्तिपूजा का प्रचार था। (जिसे २२०० से भी अधिक वर्ष हुए हैं )। (२६) मथुराके प्राचीन कंकाली टोला में खुदाईका काम करने से जो प्राचीन मूर्तियें, स्तूप, सिक्के आदि ध्वसाऽवशेष मिले हैं उन्होंने तो भारतीय इतिहास में एकवारगी ही क्रान्ति मचा दी है । इस टीले की खुदाई का काम शुरू में ईस्वी सन् १८७१ में जनरल कनिंघम ने कराया था। बाद में सन् १८७५ में मि० ग्रोस ने व सन् १८८७ से ९६ तक डॉ० बर्जल और डॉ० फूहरर की निरीक्षवा में काम हुआ, जिसमें सैकड़ों मूर्तिएँ, अनेकों पादुकाएँ, तथा तोरण, स्तूप पबासना आदि के खण्डहर और कइ अक्षत पदार्थ निकले । उनमें ११० एकसौ दश प्राचीन शिलालेख और अनेक तीथङ्कों की मूर्तिएँ तथा एक प्राचीन स्तूप जैनों के थे ऐसा निश्चयात्मक बतलाया गया है। ___इन मूर्तियों के शिलालेखों में मौर्यकाल, गुप्त समय और कुशानवंशी राजाओं के समय के शिलालेख सर्वाधिक हैं जिन्हें प्रायः २००० या २२०० वर्षों का कहा जा सकता है । जैन स्तूप तो इससे भी बहुत अधिक पहिले का है। कतिपय शिलालेख परिशिष्ट में दिये गये हैं। पुरातत्त्वज्ञ श्रीमान् सर विन्सेन्ट स्मिथ का मत है कि "The discoveries have to a very large extent supplied corroboration to the written Jain tradition Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचव १४४ and they offer tangible and incontrovertible proof of the antiquity of the Jain religion, of its early existence, very much in its present form. The series of twenty four Pontiffs (Tirthankaras) each with his distinctive emblem was evidently firmly believed in at the beginning of the Christian Era" Further the inscriptions are replete with information as to the organization of the Jain church in sections known as Gana, Kula. and Sakha, and supply excellent illustrations of the Jain booksBoth inscriptions and sculptures give interesting details proving the existence of Jain nuns and the influential position in the Jain church occupied by women. " अर्थात् इन खोजों से जैनियों के ग्रन्थों के वृत्तान्तों का बहुत अधिकता से समर्थन हुआ है और वे जैनधर्म की प्राचीनता व उसके बहुत प्राचीन समय में भी आज ही की भाँति प्रचलित होने के प्रत्यक्ष और अकाट्य प्रमाण हैं । ईस्वी सन् के प्रारम्भ में ही चौबीस तीर्थङ्कर उनके चिन्हों सहित अच्छी तरह से माने जाते थे, बहुत से लेख जैन सम्प्रदाय के गणों के या शाखाओं के विभक्त होने के समाचारों से भरे पड़े हैं और वे जैन ग्रन्थों के अच्छे समर्थक भी हैं।" इनमें के कई एक लेख व चित्र आदि डाँ० व्हूलर के " एफिमाफिया इण्डिका" नामक पत्र की पहिली जिल्द में छपवाये हैं जिन्हें जरूरत हो वहाँ से देखलें । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपजा का प्राचीन इतिहास SECEVEEVESVE NAERESERVED २३०० वर्षों की प्राचीन जैनमूर्ति, DAVLAT DASARAFELAGROS FEVER FELGEAE नाकटक से मिली हुई यह मूर्ति जैन धर्म के इतिहास पर अच्छा प्रकाश डालती है देखो भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास 2666661622636 ___ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास nennenenevencnnnnnnnnn ___२२०० वर्षों की प्राचीन जैनमूर्ति । MUAVASASAIBABUROPUBos Enancncncncncncncncnnnavaa nnearacas मथुरा के कंकाली टीला का खोद काम करते समय भूगर्भ से अनेक प्राचीन मूर्तियाँ मिली जिनमें यह भी एक है यह लखनऊ के म्यूजियम में सुरक्षित है। honau nennunenene unna Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास जैन तीर्थंकरों की प्राचीन मूत्तिएँ मथुरा के कंकाली टीला के खुदाई का काम करते समय जैन तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियां मिलीं जिनमें यह दो मूर्ति भी हैं। लखनऊ के म्यूजियम में विद्यमान हैं। इनका समय गुप्तकाल अर्थात् वि० पू० दो सौ वर्ष का बतलाया जाता है। इस समय के पूर्व भी जैन धर्म में मूर्तिपूजा प्रचलित थी जिसका यह एक अकाट्य प्रमाण है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास dealestation a cross seases.dedecesir JALNA TIRTHANKARAS BRYANAIS PAST-GOYTA IMALES जैन तीर्थहोकी मूर्तियां Rakests sikasitoskestasissississesi skasiksskssiestoskateakssksstosikestaste skeska skestastacitosis ___मथुरा के कंकाली टीला का खुदाई का काम करते समय जैन तीर्थकरों की मूर्तियां उपलब्ध हई। उनमें से यह मूर्ति भी एक है। लखनऊ के म्यूजियम में सुरक्षित है। इसका समय गप्तकाल ७ अर्थात् २२०० जितना प्राचीन बतलाया जाता है । : ୧୫ Y Y Y Y Y Y Y Y Y ୨୫ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ मथुरा कलां में जैनमूत्तिएँ वसुदेव शरण अग्रवाल एम० ए० एल० एल० बी० मथुरा लिखते हैं कि:____ "मथुरा कलां में जैन मूर्तियों की संख्या बौद्धमूर्तियों के समान ही समझी जानी चाहिए ! मथुरा की जैन कला महत्त्व में भी हिन्दू या बौद्धकला से कम नहीं है । नागावृत जैन तीथङ्करों की कई एक बहुत ही श्रेष्ठ और संजीव मूर्तिएँ मथुरा के संग्रहालय में हैं। जैनकला में सर्व तो भद्र-प्रतिमाएँ बहुत मिलती हैं, जिनमें एक ही पत्थर में चारों दिशाओं की ओर मुँह किए चार तीर्थङ्कर बने रहते हैं। इनमें एक तीर्थङ्कर सदा ही नाग के छत्र वाला पाया जाता है जिसे हम सुपार्श्वनाथ या पार्श्वनाथ मान सकते हैं।" नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग १३-अंक १ । जैनियों की मूर्ति स्तूपादि प्राचीन पदार्थ अभी तक तो मेरे खयाल से भूगर्भ में अधिक गुप्त हैं, क्योंकि आज तक जो कुछ उपलब्ध हुए हैं वे तो अन्यान्य धर्मावलंबी पुरातत्त्वज्ञों की ही शोध-खोज के परिणाम हैं न कि खास जैनियों के क्योंकि जैनियोंकी तरफ से तो इस ओर प्रयास होना दर किनारे रहा इस महत्त्वपूर्ण कार्य का श्रीगणेश भी नहीं हुआ है । इस विषय में सर विन्सेन्ट स्मिथ साहेब का मत है कि: "I feel certain that the remains at Kaushambi in the Allahabad district will prove to be Jain for the most part and not Buddhist aš Canningham supposed. The village undoubtedly represents the Kaushambi of the Jains and (१०)-३१ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १४६ the site where Jain temples exist is still, a place of pilgrimage for the votaries of Mabavira. I have good reasons for believing that the Buddhist Kausambi was a different place (J. R. A. S. July 1898 ). I commend the study of the antiquities at Kosam to the special attention of the Jain community” . अर्थात् - मुझे पूर्ण विश्वास है कि इलाहबाद जिले के कोसम नामक गाँव के खण्डहर आदि बहुतायत से जैन स्मारक सिद्ध होंगे, न कि बौद्ध । जैप कि डॉ. कनिंघम ने अनुमान किया था 'यह ग्राम निश्चय से जैन कौशाम्बी है। जिस स्थान पर जैनमंदिर बने हैं वे अब भी महावीर के उपासकों के तीर्थस्थान हैं । मेरे पास यह विश्वास करने के लिए कि बुद्ध कौशाम्बी एक अन्य स्थान है बहुत से दूसरे प्रमाण हैं । “जै० रि० ए० सो० जुलाई सन् १८९८ ।” मैं जैन सम्प्रदाय को इस जैन कौशाम्बी की प्राचीनता की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए आग्रह करता हूँ।" (२७) अहिछत्ता-नगरी के खोद-काम से प्राचीन खण्डहर तथा मन्दिर मूत्तिएँ प्राप्त हुई हैं, वे मूर्तिएँ ई० सन् के पूर्व दो सौ वर्ष को पुरानी हैं। “जैन सत्यप्रकाश अंक १ पृष्ठ २०-" "लेखक नाथालाल छगनलाल श्रावणमास वि० सं० १९९१” Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास:09 २२०० वर्षों का प्राचीन आयागपट्ट हर ११ Y Y 3 Diety: sufliayx HAyue T ऊपर का आयागपट्ट मथुरा का कंकालीटीला के खोद काम करते समय भूमि से प्राप्त हुआ है । और इसके लिये भारतीय विद्वान् पुरातत्वज्ञ श्रीमान् राखलदास वेनर्जी का मत है कि “साधारण रोते चार मत्स्य पूच्छना केन्द्र स्थले एक गोलाकार स्थानने विषय एक बेठी जैनमूर्ति होय छे वि० सं ना प्रारम्भ पूर्व बे सौ वर्ष उपर सिंहक वणिकना पुत्र अने कौसिकी गौत्रीय मात्ताना संतान सिंहनादि के मथुरा मां जे आयागापट्टनी प्रतिष्ठा करीहती तेमां उपरोक्त विवस्था जोवामा आवे छे क्या मूर्तिपूजा की प्राचीनता में अभी भी किसी को शंका है ? नहीं । Jain Education international For Private & Personal use only www.jalnelibrary.org Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् सम्प्रति का परिवार Eb6BFF ad Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास यह चतुर्थ श्रारा की प्राचीन जैन मूर्ति है। आबू जैनियों का प्राचीन तीर्थ है पर ब्राह्मणकाल में उसे नष्ट भ्रष्ट कर डाला था तथापि भूगर्भ से कई प्राचीन मूर्तियां वगैरह आज भी उपलब्ध होती हैं उनमें से यह एक है । विमलवसही के देहरी नं० २० में यह मूर्ति स्थापित है। कहा जाता है कि यह मूर्ति चतुर्थ आरा की है। For Private & Personal use only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Byssssssssksisatsskssksikasikasikasiksskssissississiksakestastessista * मर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास--- चंद्रावती के प्राचीन मंदिरों का ध्वंस खंडहर Brocksakasiks stosksiksaks skestasks kissssssssskasississiests shastratissississe skestaskedieskosledissskosis straints चन्द्रावती नगरी राजा चन्द्रसेन ने वीर की पहिली शताब्दी में बसाई थी जिसको २४०० वर्ष हुए हैं। www.jalinelibrary.org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० हर्मन जेकोबी का मत इसी प्रकार महाराजा वसुपाल के सहस्रकुट नामक जिना - लय के विषय में कथाकोष ग्रन्थ में भी उल्लेख मिलता है । " अहिछत्रपुरे राजा, वसुपाल विचक्षणः । श्रीमज्जैनमते भक्तो, वसुमत्यभिधस्त्रिया ॥ तेन श्रीवसुपालेन, कारितं भुवनोत्तमम् । लसत्सहस्रकुटे, श्रीजिनेन्द्रभवने शुभे ॥" १४७ इससे स्वतः सिद्ध है कि जैनों में मन्दिर मूर्त्ति का पूजन करना प्राचीन समय से ही प्रचलित है । ( २८ ) जर्मनी के प्रखर विद्वान् डॉ० हरमन जेकोबी के अभिप्राय ...... आप जब अजमेर आये थे तब उन्हें कई मूर्ति नहीं मानने वालों ने मूर्तिपूजा विषयक अभिप्राय देने को कहा। डॉक्टर साहब को उस समय इतना जैनागमों का बोध न था । अगर आपने सूत्र पहले देखे भी थे तो विशेष कर आचार सम्बन्धी ही । आपके परिपक्काभ्यास के अभाव में श्रापने यह कह दिया कि No distinct mention of the worship of the idols of the Tirthankaras seems to have been made in the Angas and Upangas × × × I can not enter into details of the subject, but if I cannot be greatly mistaken I have somewhere expressed my opinion that worship in the temples is not an original element of Jain religion. - पर्य यह है कि आपके देखे जैन अंगों-पांगों सूत्रों में, मूर्तिपूजा के लेख धार्मिक विधानों में नहीं है । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पाचवाँ १४८ यह उनके निखालस और पक्षपात रहित हृदय की बात है। उन्होंने यह तो कहा ही नहीं कि जैनागमों में मूर्तिपूजा है ही नहीं। आपने ने अपने कृत अभ्यास से यह कहा कि मुझे मेरे अभ्यास में ऐसा पाठ देखने में नहीं आया। इतने पर तो हमारे भाई फूले न समाये और डॉक्टर महोदय के वचनों को किसी अतिशय ज्ञानी के वचन की तरह मान नाद फूंकने लगे कि डॉ० जेकोबोने जैनागमों के गूढ अभ्यास से यह निश्चय किया है कि जैनागमों में मूर्तिपूजा का विधान है ही नहीं । पर उन्हें यह पता नहीं था कि पाश्चात्य विद्वान् मुकाबले उनके इतने हठधर्मी नहीं हैं, बल्कि सत्य के उपासक ही हैं। .. ... उपरोक्त घटना घटी उस वख्त शास्त्र विशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्म सूरीश्वरजी महाराज जोधपुर में थे, और आपके ही प्रयत्न से जैन साहित्य सम्मेलन की एक विराट् आयोजना हो रही थी डॉक्टर महोदय को भी सम्मेलन में आने का था । श्राप जोधपुर पधारे और श्राचार्य महाराज से भेट कर अपनी कई शंकाओं के साथ साथ ज्ञातव्य प्रश्न भी किये । सूरीश्वरजी ने डॉक्टर साहब की अनेक शंकाओं का निराकरण अच्छी योग्यता से करके उनको सत्य. मार्ग बताया आपके हृदय में जैनधर्म सम्बन्धी आदर्श स्थान हो गया। आपने सूरिजी की मुक्तकंठ से भूरि-भूरि प्रशंसा की। मूर्तिपूजा का प्रश्न भी अनेक प्रश्नों में से एक था। ऊपर की बात भीडॉक्टर महोदय ने सूरिजी के आगे कही । फिर क्या था आचार्य महाराज अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों से डॉक्टर साहब के मन को शंकाओं को मिटाकर जैनागमों में श्रीभगवतीसूत्र श्रीज्ञातासूत्र, श्रीउपासकदशांगसूत्र श्रीप्रश्न व्याकरण, श्रीउववाईसूत्र श्रीराजप्रसेणीसूत्र Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. हर्मन जोकोबी श्रीजीवाभिगमसूत्र आदि अनेक आगमों में मूर्तिपूजा विषयक पाठ बताये । डॉक्टर साहब को बड़ा ही आश्चर्य हुआ तथा सत्य हृदय से मत्तिपूजा को सहर्ष स्वीकार किया और अजमेर में आपने जो कुछ कहा था, उससे गलतफहमी न फैले इस ख्याल से आपने सत्य जाहिर किया। आपके दिये हुए व्याख्यान में ही आपने यह कहा कि: "He pointed out to me the passage in the Angas, which refer to the worship of the idols of Tirthankaras and assisted mein many more ways." : ता० ४-३-१४ के जैन साहित्य सम्मेलन सभा में दिया हुआ 'व्याख्यान के शब्द' जैन साहित्य सम्मेलन मुद्रित ई० स० १९१६ पृष्ट ३७। इससे यह स्पष्टतया जाहिर हो जाता है कि डॉक्टर साहब का. श्राखरी मंतव्य जैन आगमों में मूर्तिपूजा के विधान का ही है। (२९) शोधखोज के अजोड अभ्यासक प्रकांड विद्वान् सद्गत श्रीयुत राखलदास वन्द्योपाध्याय अपनी दीर्घ विचारणा के अंत में जिनप्रतिमा ही नहीं पर पूजन विधि के लिये ही अकाट्य दलीलें रज्जू करते हैं.... आज से२२०० या २५०० वर्ष पहले जैनो क्या पूजते थे ? किस तरह पूजते थे? इसका पता लगाना ही चाहिये । ई० सं० पूर्व २००-३०० वर्षों पहिले उत्तर भारत के जैन मूर्ति पूजा करते थे । प्रमाण रूप में मौजूदा समय में भी मथुरा कौशाम्बी श्रादि प्राचीन नगरों में से मूर्तिऐं मिलती हैं। .. उपरोक्त इन पुरातत्त्वज्ञों के शोध-खोज से प्राप्त साधनों से जैन समाज का लुस प्राय इतिहास आज बहुत कुछ प्रकाश में ___ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचाँ १५० आ रहा है, और यह प्रयास अभी तक निरन्तर चालू है जिससे आशा की जाती है कि अचिर भविष्य में हो संसार के इतिहास के साथ जैन साहित्य समाज और धर्म का इतिहास भी अधिकांश में परिम्फुट होगा। क्योंकि इस प्रभावशाली और महत्त्व के कार्य से जो कुछ स्तूप, मूर्तिएँ शिलालेखादि प्राप्त होते हैं उन्हें भारतीयता के पक्षपात से रहित योगेपियन विद्वान् अपने अपने ग्रंथों में सचित्र छाप निष्पक्षतया अपना निर्भीक अभिप्रायदेते हैं, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तविक सत्य क्या है ? हमें पूर्ण विश्वास है कि पुरात्वज्ञों के प्रयत्न द्वारा यह खुदाई की प्रथा यों की यों कुछ काल तक जारी रहो तो सारी दुनियां में यह बात स्वयं जाहिर हो जायगी कि जैन धर्म की मूर्तिपूजा संसार में सब से प्राचीन है, और फिर हमारे उन मूर्तिपूजक भाइयों को जो रातदिन हमें इसके लिये कोसा करते हैं, प्रत्युत्तर देने का स्थान तक नहीं मिलेगा। क्योंकि हमारे कई एक भाई केवल पक्षपात के विमोह में फंस, बिल्कुल बेभान हो मूत्ति के बारे में यद्वा-तद्वा वचन बोल छठते हैं, पर इस प्रकार जब वे अपने प्राप्त पूर्व इतिहास की ओर नजर डाल देखेंगे तो उनकी अज्ञता का पड़दा स्वयमेव दूर हो जायगा, और लाचार हो यह कहना पड़ेगा कि हमारे पूर्वजों ने जैनमूर्तियों का निर्माण करवा कर न केवल हम पर ही किंतु बड़े बड़े राजा महाराजों पर भा जैन धर्म का कैसा जबर्दस्त प्रभाव डाला था । तथा उसका कारण उन राजामहाराजाओं ने अपने विशाल दुर्गों, गढों और किलों तक में कैसे २ आलीशान एवं ऊँचे शिखरोंवाले मन्दिर बनवाकर किस तरह जैन धर्म को Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ राजाओं के दुर्गों में जैनमन्दिर सदा सर्वदा के लिए संसार में स्थायी बनाया था। यद्यपि बहुत से किलों के मन्दिर अनार्य यवनों ने अपनी सत्ता में नष्ट भ्रष्ट कर दिए फिर भी अनेक ऐसे २ मन्दिर उत्तंग पहाड़ों पर, अगम्य किलों पर और निर्जन वनों में शेष रह गये जो आज के इस गये गुजरे जमाने में भी भारतीय जैनों की प्राचीन विभूति की स्मृति दिला रहे हैं। उदाहरणार्थ अवशिष्ट मन्दिरों का कुछ परिचय नीचे दिया जाता है। १-चित्रकोट (चित्तौड़) के किले में जैनमन्दिर तथा जैनों का कीर्ति स्तम्भ, जैनों के उज्ज्वलभूत का परिचय दे रहे हैं। २-कुम्भलगढ़ के दुर्ग में आज भी कई जैनमन्दिर मौजूद हैं। ३-मारवाड़ की प्राचीन राजधानी मंडोर के भग्न किल्ले में सांप्रत समय में भी दुमजिला मन्दिर शेष है।। ४-जैसलमेर के दुर्ग में देवभवन के सदृश आठ मन्दिर विद्यमान हैं जहाँ कि हजारों भावुक यात्रा करते हैं।। ५-नागपुर ( नागोर) के किले में मन्दिर होने का उल्लेख उपकेशगच्छ चरित्र में मिलता है । पर यवनों ने अपने राजस्व काल में उसे तोड़ फोड़ उस मन्दिर के मसाले से मसजिद बना डाली है। ६-ग्वालियर के किले में पूर्व जमाने में जैन मन्दिर होने का उल्लेख मिलता है। ७-फलोदी के किले में भी जैनमन्दिर होने का जनप्रवाद है। ८-दौलताबाद के दुर्ग में बहुत से जैनमन्दिर होने का उल्लेख शत्रु जय के पंद्रहवां उद्धरक समरसिंह के चरित्र में मिलता है और आज भी वहाँ से बहुत सी जैनमूर्तिएँ निकल रही हैं। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १५२ . ९-बदनावर के किले में पहिले जैन मन्दिर था। - १०-ईडर के किले में एक विशाल जैनमन्दिर आज भी विद्यमान है,जिसकी हजारों भावुकलोग यात्राकर प्रानन्द लुटते हैं। ११-जालौर के किले में बड़े भव्य जैनमन्दिर अब भी सुरक्षित हैं जिन्हें लोग सौन्दर्य के कारण आधा शत्रुञ्जय कहते हैं। : १५-मांडवगढ़ के दुर्ग में जैनमन्दिर विद्यमान है। १३-रणथंभोर के किले में भी जैन मन्दिर थे। .: १४-अलवर के किले में धर्मवीर हीरानन्दजौहरी ने जैन मन्दिर बनवाया था। १५-त्रिभुवनगिरि के किले में खुद वहाँ के राजा ने जैन मन्दिर बनवाया था। १६-किराटकंग के किले में भी जैन मन्दिर था । - इत्यादि इनके अलावा और भी जैन पटावलियों वंशावलियों और चरित्रादि ग्रन्थोंसे पता चलता है कि अनेक राजा महाराजाओं के दुर्गों में जैन मन्दिर थे। इस उपर्युक्त तालिका से इतना तो अवश्य पाया जाता है कि जैनों में मन्दिर मतियों का मानना बहुत प्राचीन समय से है। और इन दुर्गस्थ मन्दिरों ने राजा महाराजाओं पर ही नहीं परन्तु संसार भर में जैनधर्म का अच्छा प्रभाव डाला। अब आगे चलकर हम भारत के रमणीय पहाड़ों पर के जैन मन्दिरों की संक्षिप्त सूची लिखते हैं: १-कलिङ्ग देश के खण्डगिरि और उदयगिरि पहाड़ियों पर पालीशान जैनमन्दिर थे, जिनका जिक्र चक्रवर्ती महाराजा खारवेल के शिलालेख से मिलता है।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमणीय पहाड़ों पर जैन मन्दिर २-हिमालय पहाड़ पर भी एक समय जैनमन्दिर थे और यह पहाड़ जैनों का धाम तीर्थ समझा जाता था, इसका उल्लेख श्री जिनप्रभसूरि कृत तीर्थकल्प में मिलता है । ३-सम्मेत शिखरगिरि-यह जैनियों का तीर्थ धाम है । वर्तमान चोवीस तीर्थंकरों में से वीस २० तीर्थङ्करों का निर्वाण इसी पवित्र पहाड़ पर हुआ था । वहाँ यदि मन्दिर और पादुकाएँ हो तो इसमें आश्चर्य क्या है। ४-राजगृह के उदयगिरि पर जैन मन्दिर । ५-राजगृह के रत्नगिरि पहाड़ पर जैन मन्दिर । ६-राजगृह के विपुलगिरि पहाड़ पर जैन मन्दिर । ७-राजगृह के व्यवहारगिरि पहाड़ पर जैन मन्दिर । ८-राजगृह के सोनगिरि पहाड़ पर जैन मन्दिर । ९-क्षत्रिय कुण्ड की पहाड़ी पर जैन मन्दिर । १०-पहाड़पुर ( बङ्गाल ) के बड़ा टोला पर जैन मन्दिर । ११-कोलसी पहाड़ ( भद्रलपुर ) पर जैन मन्दिर । १२-ढकांगी की पहाड़ी पर जैन मन्दिर । . १३-तोर्थाऽधिराज श्री शत्रुञ्जय-यह जैनों का प्रसिद्ध तीर्थ धाम है । और वह जैनमन्दिरों से खूब ही विभूषित है हजारों लाखों लोग वहाँ यात्रार्थ जाकर सेवा पूजा कर अपनी आत्मा को पवित्र और निर्मल बना देते हैं। १४-श्री गिरिनारजी के पहाड़ पर भी बहुत जैनमन्दिर हैं। - १५-आबूजी के पहाड़ पर अपनी शिल्पकला से संसार को चमत्कृत करनेवाला विशाल जैन मन्दिर है । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ १६ –— कुम्भारियाजी पहाड़ पर भी पूर्व जमाना में ३०० - मन्दिर कहे जाते हैं । उनमें से ५ तो आज भी विद्यमान हैं । १७ – तारंगाजी के पहाड़ पर गगन चुम्बी भव्य जैन मन्दिर हैं । प्रकरण पाँचवाँ १८ - तलाजा कदम्बगिरि पहाड़ों पर भी विशाल जैन मन्दिर हैं। १९ - नारलाई ( मारवाड़) की दोनों पहाड़ियों पर जैन मन्दिर हैं, जिन्हें लोग मारवाड़ के शत्रुश्ञ्जय और गिरनार अवतार कहते हैं । २० - पाली की पहाड़ी पर जैन मन्दिर है । २१ - जोधपुर के पास गुगं का तलाब की छोटी सी पहाड़ी पर दो रमणीय जैनमन्दिर हैं । २२ - राजगढ़ (मेवाड़) की पहाड़ी पर श्रीमान् दयालशाह का बनाया हुआ भव्य एवं दर्शनीय जैनमन्दिर हैं । २३- अरावली पहाड़ के बीच त्रिलोकदीपक राणकपुर का मन्दिर जो अपनी समता का भारत में एक ही जैन मन्दिर है । उ र्युक्त पहाड़ों के अलावा भी श्री शंखेश्वर, चारूप, कुलपाक, श्रान्तरिक, मक्सी, माँडव, उज्जैन, केशरियानाथ, भाँदक जारी कापरड़ा और, ओसियां आदि के मशहूर जैन मन्दिर हैं जो अपनी प्राचीनता. भव्यता और दृढ़ता के लिए विश्व विख्यात हैं । जैन मन्दिर और मूर्ति का इतना निरबाध प्रचार होने का कारण यह है कि जैन मूर्तियों की, त्याग, शान्ति और ध्यानमय प्रकृति संसारी जीवों का कल्याण करने में समवायि कारण है । क्योंकि ऐसो भव्याकृति भवतापतप्त जीवों का मन स्वतः शान्ति को और खींच Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ जैन मूर्तियों का सर्वत्र प्रचार लेती हैं । अतः इन्हें जैन तो क्या पर जैनेतर जनता भी सहसा अपना इष्टदेव मान लेती हैं। उदाहरणार्थं देखियेः १ - श्री जगन्नाथपुरी में शान्तिनाथ भगवान् की मूर्ति । २ - श्री बद्रीधाम में भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति । ३ - कांगड़े के किले में श्री ऋषभदेव की मूर्ति । इस प्रकार महाराष्ट्रादि प्रान्तों में भी बहुत से जैनेतर लोग जैन मूर्तियों को अपने तीर्थधामों में तथा मन्दिरों में स्थापित कर वेष्ठ लाभार्थ पूजन अर्चन करते हैं । कहने की आवश्यकता नहीं कि इन मूर्तियों की स्थापनवेला में जैनों की धर्म भावना कैसी थी, और इन धार्मिक कार्यों से उन पूर्वजों के पुण्य किस प्रकार बढ़ते थे, वे कैसे समृद्धिशाली थे कि लाखों करोड़ों का द्रव्य व्ययकर राजा महाराजाओं के किलों में तथा ऊँचे २ पहाड़ों पर अनेक भव्य मन्दिर बनवाकर अपने मानव जीवन को सफल बना गए । अपने भाइयों को ही इन मन्दिरों का विरोध करते तथा जिन महानुभावों ने अपना तन, मन, और धन अर्पण कर इन मन्दिरों को आत्मकल्याणार्थ बनाया उनकी ही संतान को तीर्थङ्करों की मूर्तियों की विराधना करते देखते हैं तो बड़ा दुःख होता है और इनकी बुद्धि पर तरस आता है । पर जब हम आज क्या - मन्दिर निर्माता हमारे पूर्वजों ने स्वप्न में भी यह विचार किया होगा कि आज हम जिस पसीने की कमाई को पानी की तरह बहा अपने स्वर्ण चाँदी को पत्थरों की कीमत में जुड़ा धर्म की चिर स्थापना के लिए ये दृढ़ स्तंभ रूप मन्दिर बनवा रहे हैं, कल हमारे ही सपूत जन्म लेकर इन मन्दिरों के लिए हमें बेव -- Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पाँचवाँ १५६ कूफ बताकर हमारी मखौल उड़ायेंगे ! तथा सदा के लिए मन्दिरों के द्वार बंद कराने का दुःसाहस करेंगे ? नहीं! कदापि नहीं !! हर्गिज नहीं !!! फिर भी यह बात बहुत खुशी की है कि सत्य की कदर करनेवाले जैनेतर पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वान् संशोधकों ने प्राचीन ऐतिहासिक साधनों को जुटा २ कर हमारे भ्रान्त भाइयों को भी भान कराया है जिससे ये लोग भी अब भगवान् महावीर के बाद दूसरी शताब्दी एवं वीरात् ८४ वर्ष से भी मूर्तियों का अस्तित्व स्वीकार करने लगे हैं। परन्तु हमें तो इससे भी पूर्ण सन्तोष नहीं होने का। किन्तु हम तो चाहते हैं कि ये भाई भी हमारी तरह मन्दिर मूर्तियों का गौरव समझ कर उनकी भक्ति भाव से सेवा पूजा करें, तथा इन मन्दिर मूर्त्तियों का गौरव अपनो नस नस में भरें जो कि हमारे पूर्वजों में था तभी जैन की उन्नति, धर्म का अभ्युदय, और आत्मा का कल्याण हो सकता है । अन्यथा केवल कहने मात्र से कि हाँ ? मूर्ति पूजा प्राचीन तो है पर "इस थोथी उक्ति से कोई भी काम शासन नहीं चल सकता | भूतकाल में जैनमूत्तियों का सार्वभौम प्रचार पूर्व में हम लिख आए हैं कि जैन-धर्म अपनी दिव्य -योग्यता के कारण विश्वप्रिय एवं जगत् व्यापी धर्म हो गया था. अतः उनके प्रबल प्रमाण एवं धर्म स्तम्भ रूप मन्दिर केवल भारत में ही अपना अटल साम्राज्य जमाए बैठे हों सो नहीं किन्तु भारत के - बाहिर यूरोप आदि विदेशो में भी इनका एक छत्र राज्य था, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास 1891 1001cor + यह मूर्ति भगवान महावीर की है आष्ट्रीय देश के बुद्धप्रेस्त नगर के एक किसान के खेत में खोद काम करते भूगर्भ से मिली है इसकी प्राचीनता सम्राट चन्द्रगुप्त या सम्प्रति के समय की बतलाई जाती है जिसको आज २२०० वर्ष से अधिक वर्ष हुए हैं । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के अमूल्य साधन खुदाई के काम में भूगर्भ से मिले हुए प्राचीन जैन स्मारक KALA000000000000000०००००००००००००००००००० Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ योरोप में जैनमूर्चियाँ वहाँ भी जैन-धर्म के उपासक अपरिमित संख्या में थे जिन्होंने जैन-धर्म के प्रचारार्थ तथा उसके चिरस्मरणार्थ उन प्रदेशों में भी अनेक जिनालय बनाए। कालचक्र की कुटिल गति से आज वहाँ के निवासी भले ही जैन-धर्म की आराधना नहीं करते हों ? परन्तु पूर्व जमाना के प्राचीन स्मारक अब भी वहाँ उपलब्ध होकर अपने भव्यभूत का परिचय देते हैं। पुरातत्त्वज्ञ विद्वद् वर्ग का एकान्त निश्चित मत है कि किसी जमाने में यूरोप में भी जैन-धर्म का काफी प्रचार था। उदाहरणार्थ लीजिये। १-श्राष्ट्रिया प्रदेश के हंगरी प्रान्त के बुदापेस्ट प्रामके एक किसान को भूमि खोदते हुए भूगर्भ से भगवान महावीर की मूर्ति प्राप्त हुई है । और यह मूर्ति प्रायः महाराजा चन्द्रगुप्त या सम्राट सम्प्रति के समय की बतलाई जा रही है। जैन-धर्म का लिखित ऐतिहासिक साहित्य इस बात को और भी पुष्ट करता है क्योंकि उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि महाराजा श्रोणिक और चन्द्रगुप्तादि ने भारत के बाहिर प्रदेशों में भी जैन-धर्म का प्रचुर प्रचार किया था। महाराजा श्रोणिक के पुत्र अभयकुमार ने अनार्यदेश एवं आर्द्रकपुर नगर के राजकुमार आर्द्रकुमार के लिए भगवान् ऋषभदेव की मूर्ति भेजी थी। उस मर्ति के दर्शन से उस कुमार को बोधिलाभ हुआ और उसने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया। उपर्युक्त कथन में हम किसी प्रकार की शंका नहीं कर सकते क्योंकि महाराजा चेटक, श्रोणिक उदायन और कुणिक के समय जैनों में मूर्तिपजा का पर्याप्त प्रचार था जिसे हम गत प्रकरणों में सिद्ध कर आये हैं। प्राष्ट्रिया में खुदाई करने से और भी जैन मूर्तिएं मिली है इस Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचों १५८ हालत में यदि स्याद्वाद निधान अभयकुमार ने आर्द्रककुमार के लिए मूर्ति भेजी हो तो यह सर्वाश में सत्य है। __२-अमेरिका में भी खोद काम करते समय ताम्रमय सिद्ध चक्र का गट्टा मिला है, वह भी उतना ही प्राचीन बताया जाता है जितनी कि प्राष्ट्रिया वाली प्राप्त मूर्ति प्राचीन हैं। ३-बम्बई समाचार नामक दैनिक अख़बार ता ४ अगस्त १९३४ के अंक में "जैन-चर्चा" शीर्षक स्तम्भ में एक यूरोपयात्रीय विद्वान लेखक ने विस्तृत लेख लिखकर इस बात को प्रबल प्रमाणों द्वारा सिद्ध की है कि अमेरिका और मंगोलिया देशमें एक समय जैनोंकी घनी बस्ती थी। प्रमाण रूप आजभी वहाँ के भूगर्भ से जैन मन्दिर मतियों के खण्डहर प्रचुरता से मिलते हैं । लेखक महोदय ने तो वहाँ की वस्ती के प्रमाण में यहाँ तक कल्पना कर डाली है कि शास्त्रोक्त जैनों का महाविदेह क्षेत्र शायद यही प्रदेश तो न हो। और वहाँ से बहुत लोगों का भारत में आने का भी अनुमान किया है। कुछ भी हो पर इतना तो निःशङ्क माना जा सकता है कि जैनों में मूर्ति का मानना बहुत प्राचीन समय से प्रचलित तथा जैन मूर्ति- जा का प्रचार विश्वव्यापी था। ४-श्याम में एक पहाड़ी पर प्राचीन जिनालय अब भी विद्यमान है। कई एक लोगों की यह धारणा है कि मूर्ति का विरोध केवल हम ही नहीं पर क्रिश्चियन और मुसलमान भी करते हैं। उनकी इस भ्रान्त भावना के परिष्कार के लिए हमारा इतना ही कहना है कि क्रिश्चियन और मुसलमान किस प्रकार मर्ति का विरोध Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ योरोप में मूर्तिपूजा करते हैं ? इन्हें अभी तक इसका पता ही नहीं है । जरा निम्नांकित उदाहरणों पर ध्यान लगाकर हृदय पर हाथ रख विचार करें। १-उत्तर अफ्रीका में प्राचीन इजिप्त (मिश्न) देश में असिरिश और आइरिस नामक लिंग अब भी पूजे जाते हैं। शिव के सदृश असिरिश के मस्तक में सर्प और हाथ में त्रिशूल एवं अंग में व्याघ्र धर्म का परिवेष्ठन है । ऐपिस नामक वृषभ के ऊपर बैठे हैं। इस देश में एक बिल्व सदृश वृक्ष होता है उसी के पत्ते इस मूर्ति पर हमेशा चढते हैं। दुग्ध से स्नान कराया जाता है। जिस प्रकार अपने देश में शवों का काशीधाम है वैसे ही उनके वहाँ पर एम्पिस नामक प्रसिद्ध नगर है। उस देश में लिङ्ग का बीजाक्षर "ट" है मूर्ति का रंग काला है। असिरिश वृषभ और आइसिस गोरूप में स्थित है। २-उत्तर अफ्रिका की जितनी अरब जातियां हैं, सबलिंग और शक्ति की पूजा करती हैं। ३-ग्रीस देश में लिंग पूजा अभी तक चलती है। ४-इफसिस देश में डायना नामक देवी की पूजा होती है। ५- ग्रीश देश में आधा हिस्सा बकरे का और आधा मछली का इस शकल की पान नामक मूर्तिकी, तथा और भी प्रीवायस, मीना, पीगेश नामक मूर्तियों की पूजा होती है। . ६-रोम और फ्लारेन्स नगर में बेक्त नामक देवकी पूजा होती है। ७-नोमन केथोलिक संप्रदाय के लोग जो क्रिश्चियन हैं इटली में लिंग और अन्य मूनिए पूजते हैं । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १६० ८-इङ्गलैण्ड के यॉर्क प्रान्त में 'स्टोनहेज' नामक मूर्ति की पूजा होती है । और भी केमलक मन्दिर में मर्तिपूजा होती है । ९-नवटन स्टीन, राउण्डजीरा, और इजीस्मीऊरा जो आयलैण्ड में हैं, वहाँ के चर्चा के दरवाजों पर स्त्री श्राकार को मूर्ति होती है जिसे लोग पूजते हैं । १०-स्काटलैण्ड के ग्लासगो नगर में वहाँ पर श्रीसूर्य के मन्दिर में सुवर्ण पत्र जड़ित सूर्य के आकार वाली मूर्ति की पूजा होती है। . ११-फ्रान्स देश की स्त्रिये, सौभाग्य, तन्दुरुस्ती और आयुष्य के लिए स्त्री पुरुष चिन्हाकार वाली मर्तिएं पूजते हैं । १२-अष्ट्रोहण गिरि देश में ताम्रश्वक नामक शिवलिङ्ग की पूजा होती है। १३-तुर्की के असीर्यानामक मुल्क के बाबिलिन शहर में ३०० घन फीट का शिवलिङ्ग है। तापंडा, पोलिस नाम के अन्य स्थानों में ३०० घन फीट की एक शिवमूर्ति है। .. १४-अरबस्तान में मुहम्मद के जन्म के पहिले से ही लात, मनात, अल्लात और अल्लाउजा नामक मूर्ति पूजी जाती थीं। १५-मकका में सङ्ग, अस्वह और मक्केश्वर महादेव की मूर्ति का चुम्बन होता है। मक्के के जम जम कुए में एक और मूर्ति तथा नजरा में खजूर की पत्तियों की पूजा होती है। १६-भारतवर्ष के पूर्वीय द्वीप, फज्ज, जावा, और सुमात्रा में लिंग की पूजा होती है। तथा वहां महाभारतादि की कथाएँ एवं अन्य पुराणों के पाठ भी ज्यों के त्यों माने जाते हैं। , Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योरोप में मूर्तिपूजा १७–फिनिशिपा देश में बाल नामक सूर्य रूप स्त्री की पूजा होती है । बलबलक में सूर्य के मन्दिर हैं। १८-फिजिशियन और यहूदिया देश में निनिवानगर और सीलोन में भी मूर्ति पूजा होती है । अफरिदस्तान के स्वात, चित्राल, काबुल, बल्क, बुखारा, और काफ आदि पहाड़ी प्रान्तों में पञ्चसर और पञ्चवीर नामक मूर्तिएँ पूजी जाती हैं । १९-श्याम देश में एकोनिस और एष्टर गेटिस नामक मूत्तिएँ पूजी जाती हैं। ___२०-फिजिशियन देश में ऐटिस नामक लिंगाकार मूर्ति की पूजा होती है। २१-निनिवा नगर में एशिरानामक मूर्ति की पूजा होती है २१--यहूदिया देश में इज़राइल व यहूदी लोगों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तिएँ अभी तक पूजी जाती हैं। उन लोगों में लिंग मूर्ति स्पर्श करके शपथ खाने की प्रथा प्रचलित है । प्रसिद्ध इब्राहीम के नौकर के लिङ्ग स्पर्श की शपथ देते हैं। याकूब जब अपने पिता की अस्थियों के लिए मिश्र देश को गया था तो अपने नौकर को लिंग स्पर्श करवाया था। यहूदी राजा लोग भी लिंग पूजकर कचहरी जाते हैं। २३-जापान में श्राइस नगर में सूर्य, लक्ष्मी, और विष्णु की मूर्तियों की पूजा होती है। २४-लंका और सिंहल द्वीप में भी लिङ्गाकार मूर्तिपूजा होती है। २५-ईरान में ज्वालामय लिङ्गमति की पूजा होती है। २६-साइवेरिया तासकंद में शेवयिन लोग लिङ्ग पूजते हैं। (११)-३२ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पाँचवाँ १६२ २७-ओशिनिया, मंडाविच और हवाई टापुत्रों में हैजा, महामारी, आदि उपद्रव होने पर लिङ्गपूजा होती है। २८-दक्षिण अमेरिका के ब्राजिल देश में बहुत प्राचीन समय की शिवगणेश की मूत्तिऐं मिलती हैं, और कई एक जैनधर्म की मूर्तिऐं तथा सिद्धचक्र के गहे एवं उनके ध्वंसाs वशेष मिलते है। २९-पेन के सोमटेस नामक मन्दिर के दरवाजे की एक बाजू पुरुषाकार मूर्ति तथा दूसरी ओर स्त्रोकार वाली मूर्ति की पूजा हाती है। ३०-मेड्रिड शहर में मंदिर और कबरिस्तान में स्त्री आकार की नङ्गी मूर्ति की मिट्टी के धड़ पर पूजा होती है। ... ३१--नॉर्वे और स्वीडन में लिंगपजा होतो है। ३२- होडुगश देश में पेनिको नगर में दो मुंह वाली पत्थर की मूर्ति की पूजा होती है । ३३-मेक्सिको देश में हाथी के मस्तक के समान आकृति वाली मूर्ति की पूजा होती है। . ३४-लंका में बुद्ध चरणों की पूजा की जाती है । इत्यादि भारत के बाहिर अन्य विदेशों में तत्तद्देशीय प्रजा की भावना के अनुकूल मूर्ति की पूजा की जाती है । जिन लोगों ने स्वयं यूरोप की यात्रा कर इन मूर्तिपूजा को अपनी आँखों से देखा है उन्हीं के यात्रा वृतान्तों में से कुछ मूर्तिपूजा के उदाहरणों का सङ्केत हमने यहाँ किया है । यूरोप तथा अन्य विदेशों में पूजा जाने वाली ये मूर्तिऐं कितनी प्राचीन हैं इसके लिए हम कतिपय पाश्चात्य प्रमाण यहां दर्ज करते हैं जो पूर्ण विश्वासपात्र हैं। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ मूर्तियों की प्राचीनता क्योंकि आजकल यूरोपादि विदेशों का खुदाई का काम होते वक्त भूमध्य में से सैकड़ों मूर्तिये श्रादि मिलती हैं और वे वहां के म्यूजियमों में सुरक्षित रखी जाती हैं । - श्रीमान् रतिलाल भीखाभाई ने बंबई समाचार दैनिक पत्र सा० २४-४-३६ के अङ्क में "श्री लौकाशाह और जैनधर्म शीर्षक " एक विस्तृत लेख में लिखा है कि यूरोप की ये मूत्तिएँ अति प्राचीन हैं । यथाः....१-श्रामेन के एक बड़े पादरी रूई की मूर्ति पत्थर में खोदी हुई तीन फीट ऊँची जो ३९०० वर्ष पूर्व की अभी मिली है ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित है। ... २-ओलंपिया के पास "हीरा" नामक मंदिर जो कि २५०० से ३००० वर्ष का पुराना है उसके खण्डहर अभी तक मौजूद हैं। ३-रंगून में पैगोड़ा का ३५० फीट ऊँचा स्तूप अभी खक विद्यमान है जो कि बहुत प्राचीन है। . . ४-एलिफेन्टा की गुफाओं में २८०० वर्ष पूर्व को खुदी हुई शिव पार्वती की मूत्तिऐं वर्तमान में भी स्थित हैं । इनके फोटो भी इण्डिया ओफिस ने लिए हैं बंबई के हिंदू लोग शिवरात्रि महोत्सव वहीं पर स्टीमरों से जाकर मनाते हैं। . ५-अजन्ता और इलोरा में भी द्रविड़, जैन, बौद्ध, और ब्राह्मण संस्कृति वाले प्राचीन मन्दिर दीखते हैं । ६.-इजिप्त की संस्कृति द्योतक एडुफु का मंदिर २२०० वर्ष का बना हुआ अभी तक भग्नाऽवस्था में पड़ा है। .. ७-लगभग ५४०० वर्ष पूर्व की एबिडोस नामक Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पाँचवाँ १६४ ( इजिप्ट) राजा की मूर्ति हाथी दाँत में कुतरी हुई ब्रिटिश म्यूजियम में है। ८-लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व की नागदेवी की मूर्ति वाला लीला पत्थर चिद्रागो नेचरल हिस्ट्री के फील्ड म्यूजियम में मिल सकता है। ९-लगभग ४८०० सौ वर्ष पूर्व काहिमोटेप नामक डाक्टर का बावला ब्रिटिश म्यूजियम में है । ____ इस प्रकार ईस्वी सन् के ५-६ हजार पूर्व की मूर्तिऐं सो भूमि से निकल रही हैं। किन्तु कह नहीं सकते कि अब फिर मूर्तियों की प्राचीनता कहाँ तक पहुँचेगी क्योंकि ज्यों ज्यों शोध खोज और भूगर्भ की खुदाई होती जाती है त्यों २ जगत का प्राचीन इतिहास बताने वाले अमल्य रत्न मिलते जाते हैं इसलिए "इयत्तयैव मति प्राचीनत्व सिद्धम्" को हम निश्चयात्मक नहीं बता सकते हैं। इसका निर्णय तो भविष्य पर है । परन्तु आशा होती है कि इन नितरां प्राप्त साधनों से हमारे ग्रन्थों में बताई हुई अनादि मर्तिपूजा की सिद्ध होगी। आज करीब १३०० वर्षों से मुसलमान, क्रिश्चियन, पारसी तारनपन्थी और लौकामत वाले लोगों का मूर्तिपूजा के लिए घोर विरोध करने पर भी संसार में मूर्ति-पूजक लोग कितनी संख्या में हैं जब कि सारे संसार को मनुष्य गणना करीबन दो अर्ब की है जिसमें मर्तिपूजक इस प्रकार हैं । १ बौद्ध ( बुद्धमताऽनुयायी) ५८००००००० २ रोमन केथोलिक ( यूरोपियन ) ३९००००००० ३ ग्रीक १००००००० Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ ४ ऐनिमिस्ट ५ हिन्दू भिन्न-भिन्न जातियाँ ७ जैन मुस्लिम धर्म में मूर्तिपूजा १५३२००००० २७००००००० २७००००० १०००००० कुल मू० पू० १४०६९००००० Platinas -अब जरा मूर्ति नहीं मानने वालों की भी हालत और संख्या देखिये । मूर्ति नहीं मानने वालों में सर्व प्रथम नंबर मुसलमानों का है जो संसारभर में करीबन २२ करोड़ कहे जाते हैं। परन्तु न तो इनका काम बिना मूर्ति के चलता है और इसलिए येन मूर्ति पूजा से वश्चित ही रहे हैं। जैसे कि ये लोग ताजिया ( ताबूत), मसजिद और कबरें बनाते हैं जिनमें अपनी भावना अनुसार एक निश्चित आकार की ( मूर्ति ) श्राकृति स्थापित करते हैं और उसे पूज्य भाव से देखते हैं, उस पर पुष्प चढ़ाते हैं उसे लोबान आदि का धूप देते हैं, प्रसाद ( मिष्टान्न ) आदि रखते हैं, तथा अजमेर में ख्वाजापीर ( खास का पीर ) की एक दरगाह है वहाँ सैकड़ों कोस दूर दूर से मुसलमान लोग आते हैं और उसको पवित्र स्थान जानकर बहुमानपूर्वक पूजते हैं, इतना ही क्यों पर हज़ारों मुसलमान हज ( यात्रा ) के लिए मक्का मदीना जाते हैं उसे अपना तीर्थधाम समझ कर वहाँ अपने -माने हुए अनेक सत्कार्य करते हैं, वहाँ जाने में उनकी भावना आत्मकल्याण साधन की रहती है। वहाँ जाकर वे किस प्रकार पूजा आदि करते हैं इस विषय में एक अनुभवी सज्जना लिखते हैं: Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ .. In Pilgrim garb they walk seven times round the sacred Mosque, they kiss the black stone seven times, they drink the water intensely brackish of the well of Zemzem, they shave their heads. and pair their nails and have their hair and nails burried. They then ascend mount Arafat, throw showers of stones at the pillars. This is understood to be stoning the devil. . J. Murray Mitchel .' ( The great religions of India "अर्थात् यात्री लोग पवित्र पोशाक पहिन कर मसजिद की सात बार प्रदिक्षणा करते हैं तथा वहाँ पर जो काला पत्थर स्थापित किया हुआ है उसको सात बार चूमते हैं। जम जम कुत्रा का पानी जो बिलकुल खारा है उसका चरणाऽमृत लेते हैं। वहाँ वे शिर मुंडवा अपने बालों को गाड़ देते हैं । बाद में अराबूत पहाड़ पर चढ़ते हैं, वहाँ जो तीन स्तम्भ दोखते हैं उनकी ओर पत्थर फेंकते हैं, यह करने का उनका इरादा रहता है कि पिशाचों को मार भगा।" जे० मुरे मिचल्स "दि प्रेट रिलिजन्स ऑफ इण्डिया" यह सब मूर्तिपूजा का ही रूपान्तर नहीं तो और क्या है ? इसके अलावा काबाशरीफ नाम का मक्का में एक पुराना मंदिर है जिसे मुसलमान लोग किबला कहते हैं। वह हिन्दुस्तान से पश्चिम की ओर है अतः मुसलमान लोग पश्चिम की तरफ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ मुस्लिम धर्म में मूर्तिपूजा मुँह करके नमाज पढ़ते हैं । उस मदिर को मसजिदअलहगम के नाम से पुकारते हैं। यहाँ एक पत्थर का बना हुआ चौरस मकान है और वह काला पत्थर इसी मकान में स्थापित है जिसका कि यात्री मुसलमान लोग चुम्बन करते हैं । इस काबा (किबला) को मान देने का कुरान में भी बहुत जगह लिखा हुआ है। यदि हम पं० दरबारीलालजी के शब्दों में कहें तो स्पष्ट हो जायगा कि मुसलमान लोग भी मूर्ति पूजक ही हैं जैसा कि आपने लिखा है___"हाँ, यह बात कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि एकाध अपवाद को छाड़ कर सभी मनुष्य मूर्ति पूजक हैं। बल्कि ति पूजा के विरोधो मूर्ति के द्वारा पूजा करने वाले ही नहीं होते किन्तु मूर्ति पूजक भी होते हैं। एक मुसलमान मसजिद में मूर्ति रखना पसन्द नहीं करता किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि वह मूर्ति पूजक नहीं है, उसकी मूर्ति पूजकता बजाय घटने के कुछ बढ़तो ही गई है। अब उसने छोटी सी मूर्ति के बदले समूची मसजिद को ही मूर्ति माननी है । मसजिद की एक एक ईट को वह मूर्ति के हाथ पैर की तरह सन्मान की चीज समझता है । वह यह भूल जाता है कि मसजिद की ईटों और साधारण मकान को ईटों में कोई फरक नहीं है । साधारण मकान में भी उतना ही खुदा है जितना कि मसजिद में । परन्तु एक बुतपरस्त जिस प्रकार मूर्ति की पवित्रता में विश्वास रखता है और उसकी ओट में अहंकार की पूजा करने के लिए प्राण लेने और देने को तैयार होजाता है, इसी प्रकार बुतपरस्त को घृणा की Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचा १६८ दृष्टि से देखने वाला मुसलमान मसजिद की पवित्रता में विश्वास करता है और उसकी ओट में अहंकार की पूजा करने के लिए प्राणों की बाजी लगाने में उतारू हो जाता है । इसी प्रकार दोनों में से यदि अहंकार भाव की पूजा निकल भी जाय तो भी मर्ति के अपमान की तरह मसजिद का अपमान दिल को अवश्य चोट पहुंचायगा । क्योंकि मूर्ति पूजकों के समान अमूर्तिकों के पास भी ह्रदय है और हृदय सदैव मूर्तिपूजक ही होता है । मूर्ति के हटाने पर बड़ी बड़ी मसजिदें और कबरें मूर्तियें बन जाती हैं। सस्य सन्देश पाक्षिक वर्ष ११ अंक १५ पृष्ठ० ३७० - इससे पाठक स्वतः समझ गये होंगे कि मुसलमान लोग भी मूर्ति पूजक ही हैं + + ..२-इससे आगे मूर्ति नहीं मानने वालों में दूसरा नम्बर क्रिश्चियन लोगों का है। उनमें रोमन केथोलिक तो मर्तिपूजा को मानते हैं पर प्रोटेस्टेण्ट मुंह से मूर्ति का इन्कार करते हैं इन प्रोटेस्टेण्टों की संख्या १८ करोड़ कही जाती है परंतु मूर्ति बिना इनका भी काम नहीं चलता है. वे लोग भी प्रकरांतर से मूर्ति पूजक ही है । क्योंकि ईशू क्राइष्ट को जिन दुश्मनों ने शूली पर चढ़ाया था, क्रिश्चियन लोग उसी शुली पर लटकती ईसामसीह की प्राकृति को बड़े आदर से देखते हैं। जेरूसलम इन लोगों का बड़ा ही पवित्र यात्राधाम है, वहां हजारों क्रिश्चियन योत्रार्थ आते हैं और वे लोग गले में क्रॉस लटकाया रखते हैं और उसका भक्तिभाव पूर्वक चुम्बन करते हैं। क्या यह मर्ति पूजा नहीं है ? हमारी समझ में तो अपने किसी श्रद्धेय की स्मृति में कोई चिन्ह बना उसके प्रति पज्य भाव रखना ही मर्तिपूजा है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ अंग्रेजों में मूर्तिपूजा - देखिये-प्रोटेस्टेण्ट ईसाई कितना हो मति विरोधी क्यों न हो पर ईसामसीह के चित्र और क्रॉस का तो अपमान वह किसी प्रकार से सहन नहीं कर सकता । कारण वह मुंह से भले ही कहदे कि मैं मूर्ति पूजा नहीं मानता हूँ पर उसका हृदय इसकी साक्षी नहीं देगा वह तो अपने परोपकारी इष्ट देव की ओर तत्क्षण झुकेगा ही । सदा से मूर्ति की मान्यता रखने वाला निर्मल मनुष्य हृदय अपने मान्य महा पुरुष का अपमान कभी नहीं सह सकता। इतना हो क्यों पर जब वह कहीं ईसा का चित्र भी देख लेता है तो तत्काल टोप उतार उसका सम्मान अवश्य करता है । क्या यह मर्ति पूजा से कोई भिन्न रीति है। इससे आगे चलिये एक चार आना में कपड़ा खरीदिये उस पर यूनियन जैक ( अंग्रेजी झण्डा ) का निशान बना दीजिये और उसे अब पैरों तले कुचलिए क्या कोई ईसाई ऐसा करने देगा नहीं, वह उसकी रक्षार्थ अपने श्रापकी बाजी लगा देगा पर अपने राष्ट्रीय चिन्ह देश के निशान, उस अमर मूर्ति का अपमान नहीं होने देगा तो बस, इसी का नाम तो मूर्तिपूजा है। .. जिस ईसामसीह ने मूर्ति पूजा का विरोध किया था आज उसी के शिष्यों में से सोक्रेटिस (शुकरत्न) ने अनेकों प्रमाणों द्वारा मूर्ति पूजा को ठोक सिद्ध किया है और अनेकों अंग्रेज आज गिरजाघरों, चित्रों और अखबारों में जहाँ देखो वहीं पर मूर्ति से ही काम ले रहे हैं। यही नहीं किन्तु सारे संसार को यह प्रेरणा कर रहे हैं कि प्रभु ईसा की शरण आयो। क्या ऐसी दशा में कोई यह प्रमाणित कर सकता है कि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ pieb प्रोटेस्टेण्ट अंग्रेज मूर्ति नहीं पूजते ? यदि नहीं तो फिर क्यों HET Fiat F6 afiqar ola ABBI ___अस्तुत: अंग्रेजों की मूर्तिपूजा के बारे में आप उन्हीं के विद्वानों के वाक्यों को पढ़िये, एक विद्वान लिखता है (From Murtipuja Book, Page 103 ) Logicians may reason about abstractions, but the great mass of men must have images. The strong tendency of the multitude in all ages and nations to idolatry can be explained on no other principle. There is every reason to believe, that the first inhabitants of Greece,worshipped one invisible Diety, but the necessity of having something more definite to adore produced in a few centuries, the innumerable orowd of Gods and Godesses. In like manner, the anceint Persians thought it impious to exhibit the creator under a human form. Yet even these transferred to the sun worship which, in speculation be considered due only to the supreme mind. The history of the Jews, is the record of a continued struggle between pure Theism supported by the most terrible sanctions, and the strongly fascinating desire of having visible and tangible object of adoration. God, the uncreated, the incomprehensible, the invisible attracted few worshippers. A Philosopher might admire so noble a conception but the Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ अंग्रेजों में मूर्तिपूजा crowd turned away in disgust from words which presented no image to their minds. Soon after Christianity had achieved its triumph, the principle which has assisted it, began to corrupt. It became a Paganism. Patron saints assumed the offices of household Gods. St. George took the place of Mars. St. Elmo consoled the mariner for the loss of Castor and Pullut. The virgin mother and Cicelia succeeded to Venus and the Muses. Reformers have often made a stand against these feelings but never with more than apparent and partial success. The man who demolished the images in cathedrals have not always been able to demolish these which were enshrined to their minds. "अर्थात् नैयायिक भले ही इस बाबत में हलका संवाद करें पर जन समुदाय को तो मूर्तियों की जरूरत होगी ही । सब जमानों में समस्त प्रजाओं की मूर्तिपूजा की तरफ झुकावट रही है और इसका कोई दूसरे अभिप्राय पर खुलासा नहीं हो सकता । ग्रीस देश वासियों के लिए यह मानने के बहुत कारण हैं कि वे पहिले कोई एक दृश्य देव की पूजा करते थे । फिर भी पूजा भक्ति के लिए किसी एक अव्यक्त वस्तु की आवश्यक्ता ने थोड़ी ही सदियों में असंख्य देवी देवताओं का एक मण्डल खड़ा कर दिया, इसी तरह प्राचीन ईरानो ( पारसी ) भी जगत् Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १७२ कत्तों को मनुष्याकार में प्रस्तुत करना बहुत अधार्मिक कृत्य समझते थे। उनका भी वह विचार आखिर सूर्यदेव की पूजा में परिणत हुआ। और पूजा को खुले दिल से योग्य मानने लगे। जब यहूदियों का इतिहास एक तरफ तो शुद्ध एकेश्वरवाद से जो कि भयंकर राज्य कानूनों से परिपुष्ट है, और दूसरी तरफ पूजा भक्ति के लिए स्पष्ट ( रूप से तैयार ) दिखाई देता है, और हाथ से स्पर्श हो ऐसी चीज के लिए आश्चर्यकारक अत्यन्त बलवती इच्छा, इन दोनों के आपसी झगड़ों की सिर्फ नोंध है । ___जिसको किसी ने उत्पन्न नहीं किया है तथा जो अदृश्य है ऐसा परमेश्वर अपनी तरफ बहुत कम को आकर्षित कर सकता है । कोई तत्त्वज्ञ पुरुष भले ही ऐसे उत्तम विचार की तारीफ करे परन्तु साधारण जन समूह तो ऐसे शब्द जो कि “ उनके मन में मूर्ति का कुछ भी प्रादुर्भाव नहीं कर सकते" उन से घृणा कर दूर भगेंगे। क्रिश्चियानीटी ने जो अपनी ( सैद्धान्तिक ) विजय शीघ्र ही करली इस में उसे जो सिद्धान्त सहायक हुए थे वे (वापिस ) विगड़ने लगे और एक नवोन मर्ति पूजा जन्मो । क्रिश्चियिन मूल साधुओं ने घर देवताओं की जगहें संभाल ली । सेन्ट ज्योज ने मंगल का स्थान लिया । सेन्ट ऐल्मो, कैस्टर और पोल कस के बदले मछुओं को दिलासा देने वाले के पद पर कायम हुए। कुमारिका माता और सिसीलिया गौरी तथा सरस्वती के स्थान पर मानी गई। सुधारकों ने ऊपर कही हुई अनेक बातों पर कई दफा जोर दार आक्रमण किया है। पर परिणाम सिर्फ स्वल्प विजय के Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ यहूदियों में मूर्तिपूजा सिवाय कुछ न हुआ। भले ही वे मनुष्य मन्दिरों की मूर्तियों का नाश करने में शक्तिमान हुए हों पर मूर्तिऐं जो कि जन समाज के हृदय मन्दिर में सर्वदा निवास करती हैं उन्हें तोड़ने को किसी के पास कोई शक्ति है ही नहीं। ___लार्ड मेकोले मिल्टन के निबन्ध का अभिप्राय" उपरोक्त कथन से अंग्रेज प्रोटस्टेन्ट भी मति पूजक ही है। ३- मर्ति पूजा नहीं मानने वालों में तीसरा नम्बर यहूदियों का है जिन की संख्या प्रायः १२ करोड़ है। परन्तु गौर कर देखा जाय तो वे लोग भी मर्तिपूजा से सर्वथा बचे नहीं रह सक्ते हैं। क्योंकि किसी न किसी रूप से वे लोग भी मूर्ति को स्वीकार कर उनकी पूज्य भाव से पूजा अवश्य करते हैं । देखिये " वाइबिल" के पूर्वार्द्ध में इस विषय का उल्लेख कैसा मिलता है। __ दाऊद को यह विचार आया कि मुझे गड़रियों में से ईश्वर ने राजा बनाया था। अब तो मैं बहुत बढ़िया मकान में रहता हूँ और ईश्वर को तम्बू के परदे में रखता हूँ। ऐसा न होना चाहिये। इतने ही में नथान नामक पुरोहित के स्वप्न में खुद परमेश्वर ने दर्शन देकर कहलाया कि : Go and tell ny servant David, thus saith the God, shalt thou build me a house for me to dwell in ? Old I. II Samuel. Chap. VII/5 Whereas I have not dwelt in any house since the time that I brought up the children of Israel Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १७४ out of Egypt even to this day but have walked in tent and in a tabeunacle. ____Old I. II Samuel. Chap VII/6. ___“जा और मेरे सेवक दाऊद को यह कह कि परमेश्वर यह कहता है कि क्या तूं मेरे रहने को एक घर बन्धायेगा।" ____ इजिप्त से जब मैंने इजरायल के वंशजों को छुडवाये तब से श्राज की घढ़ी तक मैं तम्बू और डेरों में फिरा करता हूँ। ईश्वर के इस हुकम की तामील दाऊद ने कर ईश्वर के लिये एक आलीशान मकान (मन्दिर ) बनवा के वहां वह ईश्वर की आकृति की भक्ति पूर्वक उपासना करने में तत्पर हुआ । क्या यह मूर्ति जा से भिन्न रीति है ? ४-मूर्ति पूजा नहीं मानने वालों में चौथा नम्बर पारसियों का आता है । इनकी संख्या करीब १ लाख है पर मूर्तिपूजा से वे भी वंचित नहीं रहे हैं। वे लोग अग्नि को देवता के रूप में मानते हैं और उनका बड़ा ही आदर सत्कार करते हैं। क्या यह मूर्ति पूजा नहीं है ? इतना ही क्यों पारसी लोग अपने पैगम्बर जरथोत्र का सुन्दर फोटो भी रखते हैं क्या सभ्य समाज इसे मूर्ति पूजा न कह कर मूर्ति-खण्डन कहेगा ? आगे चल कर देखें तो पारसियों के सूर्यदेव को भी उपासना है । ५-मत्ति विरोधकों में पाँचवाँ नंबर स्थानकमार्गी भाइयों का श्राता है । ये लोग मुँह से कहते हैं कि हम मत्रीि को नहीं मानते हैं परन्तु आभ्यन्तर रूप में अपने पज्य पुरुषों की मत्तिएँ, पादुकाएँ, उनके चित्र, समाधि और फोटो खिंचवा कर उनकी पूज्यभाव से पूजा करते हैं। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमेश्वर की मूर्ति नहीं मानने वाला स्था० समाज अपने मृत साधु साध्वियों की किस प्रकार पूजा करता है ? CHEESE STREERDOI ANET SIDERSARESBEEra EMARRIEBER R ORIEWS भरतपुर में स्था० आरजियां इन्द्रांजी का समाधि मन्दिर और उसके अन्दर पाषाणमय पादुका का यह फोटू (चित्र) है Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103००००D०००००००००००००००००D०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० गोरी ग्राम के उपाश्रय की एक दीवार का गौख में स्था० साधु हर्षचन्दजी की मूर्ति का यह फोटू है three In 800000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० S69 परमेश्वर की मूर्ति नहीं मानने वाला समाज Sese श्रीश्री श्रीहरूकचंदनी महाराज 12 13 14 २०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ARTICLES 20 121 *e कई स्था० साधु साध्वि दूर-दूर से दर्शन को आते हैं स्थानिक भक्त लोग नलयेरादि से पूजा और सब लोग वन्दन करते हैं 0000000000000000000000000000000000000000000000000००००००००००००००000000 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ सिखों में मूर्तिपूजा __ मारवाड़ के गीरी ग्राम में स्था० साधु हरखचंदजी की पाषाणमय मारी है, सादड़ी में ताराचन्दजी की पाषाग की मूत्ति है । बड़ोति (जिला मेरठ ) में स्था० साधुओं की समाधिएँ और उन पर पादुकाएँ चिन्ह भी हैं । अंबाला (जि० पंजाब) में भी स्था० साधुओं की समाधि विद्यमान हैं । और भी अनेक स्थानों पर गुरुभक्ति के लिए ऐसे स्मारक बनाए गए हैं और आज भी बनाए जा रहे हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि तीर्थंकरों की मूत्तियों की पूजा नहीं करने वाला स्था० समाज अपने मान्य पूज्यों की गति स्थिति तक का पूरा ठिकाना नहीं है; धूप, दीप, और पुष्पादि से पजा करता है । सैकड़ों कोसों से उनके दर्शनार्थ आता है । हम इनसे पछते हैं कि यह श्राना, समाधि पर लगे पत्थरों के वास्ते है या उन समाधि और पादुका में गुरुत्व का पूज्यभाव रखने का कारण है ? । यदि गुरुत्व का पूज्यभाव है तब तो गुरु के अभाव में उनके स्मृति चिन्हों का श्रादर करना गुरु की मूर्तपूजा है। और यदि उन समाधि आदि को कोरे पत्थर और काष्ठ जानकर पूज्यभाव रखते हैं तो इधर उधर घूम फिर कर नाहक समय, शरीर और धन का दुरूपयोग करना अव्वल नंबर की मर्खता है। यदि साधारण साधु श्रादि छदमस्थों के लिए भी आप यह पूज्यभाव रखते हैं तो फिर उन जगदुपकारी विश्ववंद्य तीर्थङ्करों के प्रति यह पज्यभाव न रखना कहाँ की बुद्धिमता है ?। ___स्थानकवासी साधु साधियों के चित्र और फोटो उनके भक्तों के कई घर घर में पूजे जाते हैं क्या भक्तों की साधुओं के प्रति यह मूर्तिपूजा नहीं है ? । यदि मूर्तिपूजा में हिंसा का प्रश्न किया जाय तो स्था० समाज में मूर्ति, पादुका, समाधि और फाटो Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पाँचवाँ १७६ आदि खिंचवाने में कौनसी अहिंसा है। इनमें भी तो जैनों के मन्दिर मूर्ति सदृश हो हिंसा होती है, फिर यह दुराग्रह क्यों ? कि जैनों की मन्दिर मत्तिएँ बनने में होता है, और हमारे मर्ति, पादुका, समाधि, फोटो, चित्र, तथा स्थानक बनवाने में अहिंसा होती है । निष्कर्ष यह है कि केवल हठवादी स्थानकवासी अपने चित्त के सन्तोष के लिए ऊपर से यह भले ही कह दें कि हम मूर्तिपूजा नहीं मानते है, पर उनका हृदय तो इस असत्य की साक्षी नहीं देगा । वह मूर्तिपूजक है और भविष्य में भी रहेगा। यदि ऐसा नहीं होता तो ये क्यों अपने पूज्य पुरुषों के पूर्वोक्त स्मारक बनाने में तथा पूज्यभाव रखने में अपना समय गंवाते ? । ६-इससे आगे चलने पर छठवाँ नंबर सिक्ख संप्रदाय और आर्य समाजियों का मूर्ति विरोध में आता है । किन्तु इनका भी वही हाल है जो पूर्व संप्रदायों का है, ये भी मात्र मुँह से कहते हैं कि हम मूर्ति नहीं मानते किन्तु मानते ये भी जरूर हैं । मूर्ति बिना इनका भी काम नहीं चल सकता । उदाहरणार्थ देखिये: सिक्खों के पज्य पुरुषों की कई जगह समापिएँ बनी हुई हैं। हजारों सिक्ख उन समाधियों के दर्शनार्थबहुत दूर दूर से आते हैं और नाना द्रव्यों से उन समाधियों की पूजा करते हैं तथा आर्य समाजी भी जब अपना जुलूस निकलाते हैं तब स्वामी दयानन्द सरस्वती के सुन्दर फोटो को पुष्पादि से सजाकर उसे पालको या सवारी आदि में रख शहर भर में घुमाते हैं । यह प्रक्रिया उनकी स्मृति में की जाती है कि जिन्होंने हिन्दू जाति को नये सिरे से मूर्तिपूजा के विरोध का पाठ पढ़ाया था। हम आर्य ___ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PALAAAAAAAAAA स्थापना और द्रव्य विक्षेपों को अपूज्य मानने वाला समाज अपने पूज्य पुरुषों के मृत शरीर रूपी द्रव्य निक्षेप और आकृति रूप स्थापना निक्षेप का तो इस प्रकार से भक्तिभाव और सत्कार करे और तीर्थंकरों के द्रव्य और स्थापना निक्षेप मानने को इन्कार करे, इससे अधिक पक्षपात क्या हो सकता है ? AcAGAGAGAGA स्थानकमार्गी तपस्वीजी माणकचन्द्रजीऋषि आपके भक्तों ने आपके मृतक शरीर और पालकी के साथ फोटू ली है । और उन्होंने आपका समाधिस्थान (मन्दिर) भी बनवाया है । AAAA EGEO AAAACACA Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीरालालजी म० । पूज्यश्रीलालजी म० । पूज्य शोभाचंदजी म० -प्र०व० साधु चोथमलजी और आप के गुरु।। पूज्यश्री रत्नचन्दजी म० की समुदाय के पूज्य इन मूर्तियों (फोटू) के बनाने का अर्थ तो यही होगा कि इन पूज्यों की मूर्तियों को देख भक्तजनों के हृदय में उन उपकारी पूज्यों के प्रति पूज्यभाव पैदा हो । इसी कारण इन पूज्यों की मूर्तियों को (फोटू) भक्त अपने स्वच्छ मकानों में रख प्रातः समय दर्शन कर तथा धूप उखेव कृतकृत्य बने । यदि ऐसा ही है तो तीर्थंकरों की मूर्तियों के प्रति मलीन भाव क्यों ? इसको ज़रा शान्त चित्त से सोचें, विचारें और मनन करें। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदाबाद में यह ग्रूप तैयार करवा के जाहिर खबर द्वारा तीन पाई )।।। में बेचा गया है क्या इस ग्रूप (मूर्तियों) से मूर्तिपूजा सिद्ध नहीं होती है ? भाditter रामा URiews SHIJD RAHAN माय यी तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा-पूजा का विरोधी और अपनी फोटू-पूजा का अभिलाषी Jain gजरात कच्छ काठियावाड़ का स्थानकमार्गी साधु मण्डल TOnly inelibraryrg Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थथ मृतक शरीर के पास में बैठ कर स्था० आ० पार्वताजी (पंजाबी) यू स्था० पूज्य गोपालजी स्वामिका 00000000000000000.0000000000000 मोहनऋषि. ढूंढनी पार्वतीजी. मणिलालजी. नथुजीऋ.प. उनकी चलीजोवी. 000000000000000000000000000000000000000000 तीर्थंकरों की सूर्ति के कट्टर विरोधी समाज आप अपने को पूजाने का कैसे पीपासु हैं ? क्या इसको मूर्तिपूजा नहीं कहा जा सकता है ? इन तीनों साधुओंने फोटू खंचाया है । * स्था० आ० जीवीजी (पंजाबी) 2 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ स्थानकवासियों में मूर्तिपूजा समाजी भाइयों से पूछते हैं कि ऐसा करने में क्या आपके ये मनोभाव नहीं रहते कि सारी जनता हमारे महर्षि के फोटो को देखे, और उनके प्रति श्रद्धा का भाव रख उनके मन्तव्यों को माने ? यदि हाँ, तब तो यह मूर्तिपूजा का ही एक प्रकार है ! और नहीं तो ऐसा करना केवल श्रम मात्र है। यदि स्वामीजी के फोटो की सवारी में तुम्हारा भाव पूज्यता का है तब तो हम तुम से क्या विशेष करते हैं। हम भी विश्वोपकारी परमेश्वर की मूर्ति बना उसकी तरफ अपनी श्रद्धा प्रकट कर सारे संसार को उसके गुण गाने का इशारा करते हैं। तब ऐसा करने में तुम्हारी गुरुपूजा पूजा नहीं और केवल हमारी ईश्वर की मूर्तिपूजा ही मूर्ति पूजा है इस प्रकार यह मिथ्या हठ क्यों ? तुम्हारे पूज्य पुरुष विशेष केवल हम तुम जैसे साधारण मनुष्य ही हैं उनसे प्राथना करने से कोई काम नहीं निकलने का; अतः उनके चित्र के आगे तुम्हारी प्रार्थना न करना भी उचित हो है । तब हमारे ईश्वर सवज्ञ परमेश्वर उनकी पूजा, उनसे प्रार्थना में हमारी चित्तवृत्ति निर्मल और आत्मा का विकास होता है अतएव प्रभुपूजा करना मनुष्य मात्र का कर्तव्य है। इस विषय में श्रीमान् पं० दरबारीलालजी ने क्या हो खूब लिखा है जो नीचे दिया जाता है:___एक आर्यसमाजी कदाचित् महात्मा राम और कृष्ण की मूर्तियों का अपमान देख ले परंतु स्वामी दयानन्द के चित्र के अपमान से उसका हृदय भर जाता है । यह बात दूसरी है कि शास्त्रार्थ में अपनी पक्ष सिद्धि के लिए आवश्यक होने पर कोई आर्यसमाजी विद्वान् , स्वामी दयानंद सरस्वती के चित्र पर जूता (१२)-३३ ___ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पाँचवाँ १७८ चला दे, परंतु यह कार्य करते समय जो उसके हृदय में वेदना होती है, इसके खेद में जो उसके मुँह से उद्गार निकलते हैं समाज में जो क्षोभ होता है, उससे यही मालूम होता है कि आर्यसमाजियों के हृदय भी साधारण मूर्तिपूजक मनुष्य के समान ही हैं। यही बात स्थानकवासियों, तारन पथियों, ब्राह्मसमाजियों, व प्रार्थनासमाजियों आदि के लिए भी कही जा सकती है" "सत्य सन्देश पाक्षिक वर्ष ११ अं १५ पृ. ३७० । यदि कोई व्यक्ति अज्ञता से यह प्रश्न करे कि मूर्ति तो हम मानते हैं पर जल चंदनादि से उस जड़ मूर्ति की हम पूजा नहीं कर सकते हैं । यह कहना नितान्त अनप्लमम और पक्षपातपूर्ण है क्योंकि जब उस जड़ मूर्ति को हम ईश्वर या अपने इष्ट आराध्य पूज्यपुरुषों की मूर्ति समझते हैं तो ऐसा कौन कृतघ्नी होगा कि जो शक्ति के होते हुए भी उसकी भक्ति न करे, अर्थात् जहाँ तक बन सके वहाँ तक तन, मन, और धन से ईश्वर की भक्ति करनीचाहिए देखियेः मुसलमान लोग ताजिया, (तायूत) मसजिदें और पीरों के तकियों पर पुष्प, नारियल चढ़ाते हैं, लोबान का धूप देते हैं। ईसाइयों के गिरजाघरों में होली वर्जिनादि की मूर्तिएँ रक्खी जाती है और उन पर हीरा,पन्ना,माणक, मोती का जड़ाव किया जाता है तथा उन मूर्तियों के आगे भक्ति-भाव पूर्वक घुटने टेक नमस्कार करते हैं । वहाँ पर अनेकों मोमबत्तिएँ जलाई जाती हैं । स्थानकवासी भाई भले ही जैनमंदिर में जाकर पूजा नहीं करते हों पर अपने गुरु की मूर्ति को नारियल आदि चढ़ाते हैं । ये हनुमानजी को रोट और रामदेवजी को चूरमा भी जरूर चढ़ाते हैं । फिर यह क्यों कहा जाता है कि हम मूर्तिपूजा नहीं करते हैं ? । क्या Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ मूर्तिपूजा का महत्व आपके उपर्युक्त विधान मूर्तिपूजा सूचक नहीं हैं ? यदि हां, तो फिर गुड़खाना और गुलगुलों से परहेज रखना कहां की योग्यता है । ____ अंत में मैं यह कह देना चाहता हूँ कि संसार भर में जितने मतमतान्तर हैं उनमें से अधिक लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं फिर भी उनकी उपासना करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं, परन्तु निराकार ईश्वर की उपासना कैसे की जाय ? यह उनकी बुद्धि के बाहिर की बात है। क्योंकि निराकार ईश्वर या ईश्वर के गुणों का जब कोई आकार ही नहीं तो उनकी उपासना कोई कैसे कर सकता है ? । यदि कोई कहे कि हमें मन्दिर मूर्तियों की क्या जरूरत है ? । हम तो हमारे हृदय में निराकार ईश्वर की कल्पना कर उपासना कर सकते हैं। परन्तु यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन है। ऐसा कहने वाले लोग अभी निरे अज्ञ हैं और पक्षपात के दलदल में फंसे हुए हैं । क्योंकि हृदय में ईश्वर की कल्पना करना यह भी तो एक प्रकार की श्राकृति ( मूर्ति ) पूजा ही है । जब ईश्वर निराकार है और उसके आकार की कल्पना की जाती है तो उस समय जो श्राकार है वही मूर्ति है। दूसरा सवाल यह है कि अच्छा, यदि हमने मूर्ति मान भी ली और उसके प्रति पूज्य भाव रखना भी कबूल कर किया परन्तु उसकी पुष्पादि से पूजा करना क्या हेतु रखता है ? यह बात रुचि और अधिकार पर निर्भर है। जैसे किसी मनुष्य के घर एक परोपकारी पुरुष चला जावे, और घर वाले को उस पुरुष से भविष्य में महान् लाभ होने की आशा हो जावे, तो. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पाँचवाँ . १८० वह घरपति अपनी शक्ति, संपत्ति, और अधिकार के सद्भाव में होकर उस परोपकारी पुरुष की सेवा और स्वागत ही करेगा। आपही बतलाइये कि आपके मन में ऐसे परोपकारी पुरुष के देखते ही क्या पूज्य भाव पैदा न होगा ? क्या आप उनकी अपनी शक्ति के अनुसार पुष्पादि से पूजा नहीं करेंगे? यदि हाँ, तो फिर उस परम प्रभू के विषय में ही ये निर्मूल शङ्काएं क्यों की जाती हैं । यदि कोई कठोर हृदय, कुबुद्धि पुरुष कदाग्रह के वश हो ऐसा नहीं करे तो क्या वह अपनी कुभावना से भविष्य में लाभ उठा सकता है ? क्या कोई सभ्य उसके इस कुकृत्य की प्रशंसा कर सकता है ? कदापि नहीं। ____ इसी प्रकार अधिकार और सामग्री के होते हुए भी जो परमेश्वर की द्रव्य भाव से पूजा न करे वह अपने हृदय की कठोरता के कारण भविष्य में कुछ भी लाभ नहीं उठा सकता। इसे आप स्वयं समभाव दिल से सोच लें। हम निराकार ईश्वर की उपासना उसकी आकृति (मूर्ति ) बना कर के ही कर सकते हैं, इसलिए ईश्वर की उपासनार्थ परमेश्वर की मूर्ति की परमावश्यकता है। आत्म कल्याण के लिए जो मूर्ति की आवश्यकता है सो तो है ही, परन्तु सांप्रत * इस विषय में यदि कोई अज्ञ स्वकल्पना से कुतर्क करें तो उनके निराकरणार्थ मेरी लिखी “मूर्ति पूजा विषयक प्रश्नोत्तर" नामक पुस्तक को ध्यान पूर्वक पढ़ें ? जो कि इसी पुस्तक के अनन्तर मुद्रित करवा दी गई है। उसमें प्रायः तमाम कुतर्कों के उत्तर युक्ति, शास्त्र और इतिहास के प्रमाणों से दिए गए हैं। उसे पढ़ने पर अज्ञों की की हुई कोई कुतर्फ घोष नहीं रह सकती । जिज्ञासु जन उसे पढ़ अपना आरम कल्याण करें। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ मूर्ति पूजा का महत्व बैज्ञानिक युग में तो सांसारिक कार्यों के लिए भी पग पग पर मूर्ति की आवश्यकता रहती है । जैसे किसी व्यक्ति ने यहां रह कर यूरोपादि किसी प्रदेश का विवरण पढा तो उसे यह ज्ञान नहीं हुआ कि अमुक नगर, देश, पहाड़, बगीचा आदि किस श्राकार का और कहां पर है । परन्तु जब उस प्रदेश का हूबहू नकशा लाकर सामने रख दिया तो वह उन पदार्थों का अच्छी तरह से ज्ञान हासिल कर सकता है। यही क्यों, एक मनुष्य के खास चित्र से वह प्रत्यक्ष होने पर उसे हम पहिचान सकते हैं। क्या यह मूर्ति का प्रभाव नहीं है ? यदि है तो तत्त्वज्ञ मुमुक्षुओं को चाहिये कि पक्षपात को दूर हटा कर परमेश्वर की शान्त मुद्रस्थित ध्यान युक्त पद्मासनों पविष्ट मूर्ति का पूजन, वंदन कर अनेकों पुण्यों से प्राप्त इस अमूल्य मनुष्य जीवन को सफल बनावें । यही हार्दिक भावना है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट कलिङ्गाधिपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल के प्राचीन शिलालेख की ___ "नकल" (श्रीमान् पं० सुखलालजी द्वारा संशोधित) विशेष ज्ञातव्य-असल लेख में जिन मुख्य शब्दों के लिए पहिले स्थान छोड़ दिया गया था, उन शब्दों को यहाँ बड़े टाइपों में छपवाया है। विराम चिन्हों के लिए भी स्थान रिक्त है । वह खड़ी पाई से बतलाये गये हैं। गले हुए अक्षर कोष्टबद्ध हैं और उड़े हुए अक्षरों की जगह विन्दियों से भरी गई हैं। [प्राकृत का मूलपाठ] (पंक्ति १ ली)-नमो अराहतानं [1] नमो सवसिधानं [0] ऐरेन महाराजेन महामेघवाहनेन चेतिराज बसवधनेन पसथ-सुभलखनेन चतुरंतलुठितगुनोपहितेन कलिगाधिपतिना सिरि खारवेलेन १. (पंक्ति २री)-पंदरसवसानि सिरि-कडार-सरीरवता कीडिता कुमारकीडिका [D] ततो लेखरूपगणना-ववहार। विधि-विसारदेन सवविजावदातेन नववसानि योवरजं पसासितं [0] संपुण-चतु-चीसति-वसो तदानि वधमानसेसयो वेनाभिविजयोततिये २. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ कलिंग का शिलालेख (पंत्ति ३ री)-कलिंगराजवंस-पुरिसयुगे महाराजा भिसेचनं पापुनाति [D] अभिसितमतो च पधमे वसे वातविहत-गोपुर-पाकार-निवेसनं पटिसंखारयति [1] कलिंगनगरि [f] खबीर-इसि-ताल-तडाग-पाडि यो च बंधापयति [0] सवुयानपटिसंठपनं च ३. . (पंक्ति ४ थी)-कारयति [॥] पनतीसाहि सतसहसेहि पकतियो च रंजयति ॥ दुतिये च बसे अचितयिता सातकणि पछिमदिसं हय-गज-नर-रध बहुलं दंडं पठापयति [] कहनां गताय च सेनाय वितासितं मुसिकनगरं [0] ततिये पुन वसे ४. (पंक्ति ५ वी)-गंधव-वेदबुधो दंप-नत-गीतावादित संदसनाहि उसव-समाज कारापनाहि च कीडापयति नगरिं [0] तथा चवुथे वसे विजाधराधिवासं अहत-पुवं कालिंग पुवराज-निवेसितं...."वितध-मकुसपिलमढिते च निखित-छत-५. (पंक्ति ६ ठी)-भिंगारे हित-रतन-सापतये सवरठिक भोजके पादे वंदापयति []] पंचमे च दानी वसे नन्दराज-ति-बस-सत-अोघाटितं तनसुलिय-वाटा पनाडि नगरं पवेस [य] ति []सो' "भिसितो च राजसूय [-] संदस-यंतो सव-कर-वणं ६. ___ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचव १८४ (पंक्ति ७ वीं) - अनुमह - अनेकानि सतसहसानि विसजति पोरं जानपदं [1] सतमं च वसं पसासतो वजि रघरव [ ] ति- घुसित - घरिनीस [ - मतुकपद - पुंना ] [ ति ? [[1] अठमे च वसे महता सेना " कुमार गोरधगिरिं ७ ( पंक्ति ८ वीं) घातापायिता राजगहं उपपीडापयति [1] एतिनं च कंमापदान - संनादेन संवित-संन वाहनो विभुं चितु मधुरं श्रपयातो यवनराज डिमित [मो] पलव ८. यछति [वि] ( पंक्ति ६ वीं ) - कपरुखे हय- गज - रघ- सह - यंते सवरा - वास-परिवसने स गिठिया [1] सब-गहनं च कारयितुं म्हणानं जातिं परिहारं ददाति [] अरहतो - "वन ंगिय ६, • ( पंक्ति १० वीं ) [का] मान [ति ] रा [ज] - संनिवासं महाविजयं पासादं कारयति श्रठतिसाय सतसहसेहि [1] दसमे च वसे दंड-संधी - साममयो भरधबस - पठानं महि— जयनं ति कारापयति [ निरितय उयातानं च मनिरतना [नि ] उपलभते [1] १०. ( पंक्ति ११ वीं ) मंडं च अवराजनिवेसितं पीथुड - गदभ - नंगलेन कासयति [f] जनस दंभावनं च तेरसबस - सतिक [] - तु भिदति तमरदेह - संघातं [1] ......... Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ कलिंग का शिलालेख वारसमे च वसे 'हस' के. ज, सबसेहि वितासयति उतरापथ-राजानो, (पंक्ति १२ वी)... 'मगधानं च विपुलं भयं जनेतो हथी सुगंगीय [ ] पाययति [0] मागधं च राजानं बहसतिमितं पादे वंदापयति [1] नंदराज-नीतं च कालिंगजिनं संनिवेसं.... 'गह-रतनान पडिहारेहि अंगमागध-वसुं च नेयाति [1] १२. . (पंक्ति १३ वीं) "तु[ ] जठरलिखिल-बरानि सिहरानि नीवेसयति सत-वेसिकनं परिहारेन [] अभुतमछरियं च दृथि-नावन परीपुरं सव-देन हय-हथीरतना मा निकं पंडराजा चेदानि अनेकानि मुतमणिरतनानि अहरापयति इध सतो १६. (पंक्ति १४ वीं)... "सिनो वसीकरोति [1] तेरसमे च वसे मुपवत-विजयचक-कुमारीपवते अरिहते [य ?] प-खोण संसतेहि कायनिसीदीयाय यापबावकेहि राजभितिनि चिनवतानि बसासितानि [1] पूजाय रत-उवास-खारवेलं-सिरिना जीवदेह-सिरिक परिखिता [0१४. (पंक्ति १५ वीं).....[ सु] कतिसमणमुविहितानं (नु-१) च सत दिसानं [ नुं ? ] बानिनं तपसि-इसिनं संघियनं [जें?] [:] अरहत-निसीदिया समीपे ___ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचव १८६ पभारे बराकर - समुथपिताहि अनेक योजनाहिताहि प. सि. ओसिलाह सिंहपथ - रानिसि - [] धुडाय निसयानि १५. ( पंक्ति १६ वीं ) " "घंटालत्तो चतरे च बेरियमे थंभे पतिठापयति [ ] पान - तरिया सत सहसेहि [1] मुरिय-काल वोधिनं च चोयठिअंग-सतिर्क तुरियं उपादयति [] खेमराजा स वढराजा स भिखुराजा धमराजा पसंतो सुनंतो अनुभवतो कलाणानि १६. ( पंक्ति १७ वीं ) गुण - विसेस - कुसलो सबपांस-टपूजको सव-देवायतनसंकारकारको [ अ ] पतिहत चकिवाहिनिबलो चकधुरो गुतचको पवत - चको राजसि - वस - कुलविनिसितो महा-विजयो राजा खारवेल - सिरि १७. । ... * इस लेख का विशेष विवरण मेरो लिखी जैन प्राचीन इतिहास संग्रह तीसरा भाग की पुस्तक में देखो ! Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा की प्राचीन जैन मूर्ति ऊपर के शिलालेख। डॉ-कनिंगहाम (Sir. A. Cunningham ) के आर्चीमोलोजीकल रिपोर्ट (Archaeological Report) के तीसरे वोल्यूम में नं० १३ से १६५ में छपे हुए मथुरा का शिलालेखों से नमूने के तौर पर कतिपय शिलालेख यहाँ दिये जाते हैं । "सिद्धं सं० २० ग्रमा १ दि० १०+२ कोट्टिया तो गणातो, वाणियतोकलतो, वैरितो शाखातो शिरिकातो भचितोवाचकस्य आर्यसंघसिहस्य निवर्तन, दत्तिलस्य"वि लस्य कोठठुबिकियेजयबालस्य, देवदासस्य, नागदिनस्य, च नागदिनाये च मातुये श्राविकाये दिनाये दांनइ (श्री) वर्तमान प्रतिमा" ___ ऊपर का लेख सं० २० का भगवान महावीर की प्रतिमा पर खुदा हुभा है। __“सिद्ध, महाराज्यस्य, कनिष्कस्यराज्ये सवत्सरे नवमें 8 मासेपथमें १ दिवसे ५ अस्यं पूर्वासे कोहियातो गणतो वाणियतो कुलतो, वैरितो शाखातो, वाचकस्य नागनंदिस, निवरतनं ब्रह्मघतुये भदिमितसं कुठबिनिये विकटाये श्रीवर्द्धमानस्य प्रतिमा करिता सर्व सत्वानां हित मुखाये" Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवा १८८ यह लेख कनिष्कराज्य के नौवां वर्ष का भगवान् महावीर को मूर्ति पर का है। ' x x x x "संवत्सरे ६०....""स्य कुटुंबनिय दानस्य (बोधुय) कोहियातो गणतो, प्रश्नवाहनकुलतो, मज्जमातोशाखातो सनिकायभतिगालाऐ, थवानि........" यह लेल सं० ९० का एक खण्डित मूर्ति पर का है। ___ "सं०४७ ग्र०२दि० २० एतस्य पूर्वाये चारणे गणेये तिघमिक कुलवाचकस्य रोहनदिस्य शिष्यस्य सेनस्य निर्वतन सावक''इत्यादि । यह लेख सं० ४७ का एक पत्थर खण्ड पर है। x xxx __ "सिद्ध, नमोअरिहंतो महावीरस्य देवस्य, राज्ञा वसुदेवस्य संवत्सरे ६८ वर्ष-मासे ४ दिवसे ११ एतस्य पूर्वा वे आर्य रोहतियतोगणतो परिहासककुलतो पोन पत्ति कातो शाखातो गणस्य आर्यदेवदत्तस्य"इत्यादि । ___ मथुरा की कंकालीटीला की खुदाई के काम से जो मतियाँ स्तूपादि उपलब्ध हुए हैं उनके प्राचीन एवं महत्वपूर्ण शिलालेख डॉ. स्मिथ की 'जैन स्तूप और मथुरा की एन्टोकोटीज' में मुद्रित हो चुके हैं इनके अलावा और भी शिलालेखों को जो बड़े ही महत्वपूर्ण हैं और जैनों को प्राचीन जाहुजलाली बतलाने वाले हैं, इन सबका संग्रह 'ऐपीग्राफीश्रा इन्डीका के सं० १९१० अनवरीमास Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ मथुरा का शिलालेख के अंक में पुरातत्त्वविद् और भारतीय प्रखर विद्वान डॉ० रा० बेनरजी ने मुद्रित करवाये थे उसके कतिपय लेख यहाँ उद्धत किये जाते हैं। ___ "सिद्ध सं०६ हे० ३ दिन १० ग्रहमित्रस्य धितु शीवशिरिस्य वधु एकडलस्य कोट्टियातो गणतो, आर्यतरिकस्य कुटुविनिये, ठानियातो कुलतो वैरातो शाखातो निवर्तना गहपलाये दिति" ____ भावार्थ सिद्धं [ सिद्ध को नमस्कार ] सं० ९ वा वर्ष हेमन्त का तृतीय मास के १० वें दिन कोट्टीयगण स्थानीयकुल और वनशाखा के आर्य तरिक की आज्ञा से एक डल की स्त्री शिवश्री की पुत्रवधु प्रहभित्रा का पुत्र गयला को बनाई यह मूर्ति हुई । ऊपर के शिलालेख वाली मूर्ति मथुरा से मिली और लखनऊ के म्यूजियम में सुरक्षित है । मूर्ति खड़ी ध्यान में है पर मस्तक खण्डित हैं मूर्ति के दक्षिण को ओर पुरुषाकृति के दो पुरुष हाथ जोड़ कर खड़े हैं, बायीं ओर एक स्त्री हाथ जोड़कर खड़ी है मूर्ति पर का लेख अपभ्रंश संस्कृत भाषा का एवं उस समय कुशान लिपि में खुदा हुआ है। इस भाँति कुशान सं० १० के समय को जैनमूर्ति रोहीलखंड के रामनगर के खुदाई के काम करते समय मिली है जिसके विषय में डॉ० फूरर ने अपने लेख में उस मूर्ति को महत्व का स्थान दिया है। इसके अलावा एक मूर्ति पर निम्नांकित शिलालेख है। ___ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचा १९० सं० १२ व ४ एतस्य पूर्वायां कोट्टियातो गणतो बम्ल दासियातो कुल तो उचेन-"इत्यादि। संवत् १२ चौथा मास ग्यारहवें दिन कोटिगण ब्रह्मदासी याकुल और उच्च नागौरी शाखा के आर्य कुलकी शिष्या इत्यादि । सजा का प्राय है, क्या कह० अर्थ मुसलमानों के राजत्व काल में कई अज्ञ लोगों ने मूर्तिपूजा के विषय में यद्व-तद्व बोलकर जीवत रह सके। यदि वही मौर्यराजकाल का समय होता तो मूर्ति के विषय में थोड़ा भी अपशब्द बोलने वाले बड़ा भारी सजा का पात्र हो जाता। देखिये महामन्त्री चाणक्य का अर्थशास्त्र जो सर्वमान्य है, क्या कहता है। श्राक्रोशादेव चैत्यानां उत्तम दंड महर्ति-कौ० अर्थ ३-१८। भावार्थ-देवता और धर्म मन्दिरों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था उनके प्रति किसी प्रकार का कुवाक्य बोलने पर कड़ा दंड मिलता था। “मौर्यसाम्राज्य का इतिहास" बुद्धिमान विचार कर सकते हैं कि सम्राट चन्द्रगुप्त का समय वि० सं० पूर्व चौथी शताब्दी का है । मौर्य चन्द्रगुप्त कट्टर जैन था और मन्दिरों के प्रति उनकी अटूट भक्ति थी । अस्सी करोड सोनइयें उनके मंदिरों के निमित व्यय किये थे। उनके राजस्व समय में कोई व्यक्ति देवमन्दिरों की अाशातना तो क्या पर कटु शब्द बोलने वाला भी दंड का पात्र समझा जाता था । मूर्तिपूजा के अस्तित्व में इससे बढ़कर क्या प्रमाण हो सकता है ? xx ___ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय शिल्प कला श्रीमान् रा० ब० पं० गौरीशंकरजी श्रोमा ने भारतीय शिल्पकाल और विशेष में आबू के जैनमन्दिर के बारे में अपने उद्गारों को किस प्रकार प्रकाशित किये हैं सो नीचे पढ़िए "जब से राजपूताने पर मुसलमानों के हमले होने लगे तभी से वे समय समय पर धर्म-द्वेष के कारण यहाँ के सुन्दर मन्दिरों आदि को नष्ट करते रहे इसलिये १२०० वर्ष से अधिक पूर्व के शिल्प के उत्तम नमूने यहाँ बिरले ही रह गये हैं, तिस पर भी इस देश में कई भव्य प्रासाद आदि अब तक ऐसे विद्यमान हैं, जिनकी बनावट और सुन्दरता देखने से पाया जाता है कि प्राचीन काल में यहाँ भी भारत के अन्यान्य प्रदेशों के समान तत्क्षणकला बहुत उन्नत दशा में थी । महमूद गजनवी जैसा कट्टर विधर्मी मथुरा के मन्दिरों की प्रशंसा किये बिना न रह सका । उसने अपने ग़जनी के हाकिम को लिखा कि, "यहाँ ( मथुरा में ) असंख्य मन्दिरों के अतिरिक्त १००० प्रासाद मुसलमानों के ईमान के सदृश दृढ़ हैं । उनमें से कई तो संगमरमर के बने हुए हैं, जिनके बनाने में करोड़ों दीनार खर्च हुए होंगे । ऐसी इमारत -यदि २०० वर्ष लगे तो भी नहीं बन सकतीं ।" बाड़ोली ( मेवाड़ में) के प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर की तक्षण कला की प्रशंसा करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है कि "उसकी विचित्र और भव्य बनावट का यथावत् वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है यहाँ मानो हुनर का खजाना खाली कर दिया गया है । उसके स्तम्भ, छतें और शिखर का एक एक पत्थर छोटे से मंदिर का दृश्य बतलाता है । प्रत्येक स्तम्भ पर खुदाई का काम इतना सुन्दर और बारीकी के साथ किया गया है कि उसका वर्णन नहीं I १९१ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पांचवाँ १९२ हो सकता है। यह मन्दिर सैकड़ों वर्षों का पुराना होने पर भी अब तक अच्छी स्थिति में खड़ा है।" मन्त्री विमलशाह और वस्तुपाल के बनवाये हुए आबू पर के जैनमन्दिर भी अनुपम हैं। कर्नल टॉड ने, अपनी 'ट्रैवल्स इन वेस्टर्न इंडिया' नाम को पुस्तक में विमलशाह के मन्दिर के विषय में लिखा है कि, 'हिंदु. स्तान भर में यह मन्दिर सर्वोत्तम है और ताजमहल के सिवा कोई दूसरा स्थान इसकी समता नहीं कर सकता। वस्तुपाल के मन्दिर के सम्बन्ध में भारतीय शिल्प के प्रसिद्ध ज्ञाता म० फर्मूसन ने 'पिकचस इलस्ट्रेशन्स ऑफ एनशिएंट आर्किटेक्चर इन हिन्दुस्तान' नामक पुस्तक में लिखा है कि इस मन्दिर में, जो संगमरमर का बना हुआ है, अत्यन्त परिश्रम सहन करने वाली हिन्दुओं की टांकी से फ़ोते जैसी बारीकी के साथ ऐसी मनोहर आकृतियां बनाई गई हैं, कि उनको नक्कल कागज पर बनाने में कितने ही समय तथा परिश्रम से भी मैं सफल नहीं हो सका। ऐसे ही चितौड़ का महाराणा कुम्भा का कीर्ति स्तम्भ एवं जैन स्तम्भ, बाबू के नीचे की चंद्रावती और झालगपाटन के मन्दिरों के भगनावशेष भी अपने बनाने वालों का अनुपम शिल्पज्ञान, कौशल, प्राकृतिक सौंदर्य तथा दृश्यों का पूर्ण परिचय और अपने काम में विचित्रता एवं कोमलता लाने की असाधारण योग्यता प्रकट करते हैं, इतना ही नहीं किन्तु ये भव्य प्रासाद परम तपस्वी की भाँति खड़े रह कर सूर्य का तीक्ष्ण ताप, पावन का प्रचंडवेग और पावस की मूसलाधार वृष्टियों को सहते हुये आज भी अपना मस्तक ऊँचा किये, अटल रूप में ध्यानावस्थित खड़े, दर्शकों की बुद्धि को चकित और थकित कर देते हैं। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ परिशिष्ठ इन थोड़े से उपरोक्त स्थानों के अतिरिक्त राजपूताने में और भी अनेक कला कौशल के उज्ज्वल उदाहरएरूप स्थान विद्यमान हैं जिनका वर्णन हम आगे यथा प्रसंग करेंगे । इसी तरह मुसलमानों के इस देश पर अधिकार करने के पूर्व की सुन्दर खंडित मूर्तियां जो मथुरा, कामां (भरतपुर राज्य में ), राजोरगढ़ (अलवर राज्य में ), हर्षनाथ के मन्दिर (जयपुर राज्य के शेखावाटी प्रदेश में ), हाथमों (जोधपुर राज्य में ), बघेरा (अजमेर जिले में), नागदा, धौड़, बाडोली, मैनाल (चारों उदयपुर राज्य में ) बड़ौदा (डूंगरपुर राज्य की पुरानी राजधानी ), तलवाड़ा (बांसवाड़ा राज्य में ) आदि कई स्थानों से मिली हैं, उनको देखने से यही प्रतीत होता है, कि मानों कारीगर ने उनमें जान ही डाल दी हो । मुसलमानों का इस देश पर अधिकार होने के पीछे तक्षणकला में क्रमशः भद्दापन ही आता गया।xxx "राजपूताना का इतिहास पृष्ठ २२" Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास समाप्तम् - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा विषयक प्रश्नोत्तर Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FE LLESSE Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पु० नं० १६५ मूर्तिपूजा विषयक प्रश्नोत्तर। [वर्षाकी मौसम थी, आकाश चारोंओर काले मेघोंसे अच्छादित था। बिजली की म्लान चमक रह २ कर दुनियाँ के भाग्य पर मन्द मुस्कान कर रही थी तो मेघों की भयङ्कर गर्जना ब्रह्माण्ड को ही फोड़ डालने का मानों मिथ्या प्रयास कर रही थी। बीच २ में रिमझिम २ बूंदों का बरसना बड़ा भला जान पड़ता था। प्रफुल्लित वनराजि और हरे-भरे खेत अपनी स्वाभाविक सुन्दरता से सहसा मन को मोह लेते थे। बाग-बगीचों में फूलों की सुगंधि भौरों को मस्त बना रही थी। पक्षियों का कोमल कलरव कानों को बड़ा मीठा लगता था । गोपाल और किसान लोग वर्षा की खुशी में मस्त हो मीठी २ रागें आलाप रहे थे । व्यापारियों की थकावट नगर बाहिर की बगीचियों की शिलाओं के रगड़ों से दूर भाग रही थी । धूरिये बोहरे, किसानों के खेतों से फूक, फली, काकड़ी, तरबूज आदि की गांठे कंधों पर लादे आ रहे थे । नगर के बाहिर चारों ओर कुँए और तालाब जल से उमड़ पड़े थे। साधुओं के उपाश्रयों में लम्बी २ ललकारों से व्याख्यान हो रहे थे। मन्दिरों में स्नात्रमहोत्सवों और प्रभुपूजा की सूचना पेटीतबले दे रहे थे। मालरों के झंकार और घंटाओं के गुजार से नगर का पाप पलायन कर रहा था। दानियों को दान कीर्ति Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ मू० पू० वि० प्रभोत्तर और तपस्वियों की तपस्या का तेज चारों ओर फैल रहा था। दिन के ११ बजे का जिक्र है कि एक नवयुवक मन्दिर से परमेश्वर की पूजा कर उपाश्रय जा रहा था, रास्ते में एक व्यक्ति ने उस नवयुवकसे कुछ प्रश्न किए और नवयुवक ने उसको समीचीन उत्तर दिए आज वे ही प्रश्नोत्तर । हम विचारज्ञ पुरुषों के मनोविनोदार्थ यहाँ उद्धृत करते हैं । प्रश्नकर्ता का नाम प्रश्नचंद्र और उत्तरदाता का नाम उम्मेदचंद्र था खयाल रहे ] "प्रकाशक" प्रश्नचंद्र-क्या आप मूर्तिपूजक हैं ? उम्मेदचंद्र-नहीं। प्रश्न-तो फिर आपके कपाल में तिलक क्यों है ? । उम्मेद-यह तो जैनी होने का निशान (मार्क) है। क्या आपने नहीं सुना है: "देवी के टीकी कही, शिव की जांणोपाड़। तीखा तिलक जैनों तणा, विष्णु की दो फाड़ ॥" प्र०-आप मूर्ति की पूजा तो करते हैं । ': उ-मैं केवल मूर्चि की, पूजा नहीं करता हूँ। क्योंकि यदि मैं मूर्ति ही की पूजा करता तो मूर्ति के सामने यह कहता कि हे मूर्ति! तू अच्छी है, बड़ी सुंदर है, तुम्हारे बनानेमें मैंने इतना द्रव्य व्यय किया । तू कैसे सुंदर चिकने पत्थर की बनी हुई है। इतने लोगों ने तुम्हें इतने समय में किस चतुराई से बनाया है ? इत्यादि, परंतु ये शब्द कोई भी भावुक भक्त मूर्ति के सामने उचारण नहीं करता है अतः मैं केवल मूर्तिका ही पूजक नहीं हूँ। प्र०-तो फिर आप किस चीज की पूजा करते हैं ? । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ___ उ०-मैं मूर्ति द्वारा शुद्ध, सनातन, सर्वज्ञ, ईश्वर, परमात्मा तीर्थङ्करों की पूजा करता हूँ। मूर्ति तो मात्र निमित्त कारण है। जैसे वीतरागको वाणीको पूजा के लिए सूत्रोंके पन्ने हैं वैसे ही सर्वज्ञ तीर्थंकरों को खुदकी पूजाके लिए मर्ति है जरा नीचे की बातों को ध्यान लगा कर सुनो। मूर्ति के निमित्त कारण से । सूत्रों के निमित्त कारण से ___ तीर्थंकरों की पूजा | तीर्थंकरों की वाणी की पूजा मूर्ति के दर्शन मात्र से । सूत्रों को देखते व पठन मेरे हृदय में तीर्थंकरों के प्रति | पाठन करते ही हमारे हृदय में पूज्यभाव पैदा होता है और | तीर्थंकरों की वाणी के प्रति हम लोग यह कहते हैं कि:- पूज्य भाव पैदा होता है और हमारे मुँह से सहसा यह निकल जाता है कि:अपार संसार स मुद्दपारं। जिण वयणे अणुरत्ता, पता शिवं दितु सुइक्क सारं । जिण वयण जे करति भावात्र सव्वे जिणंदा सुरविंद वंदा।| अमला असंकलिहा. कल्लाण कल्लीण बिसाल कंदा।। तेहुंति परत संसारे ॥ 'कल्याण कंद स्तुतिः 'उतरा० अ० ३३ ॥ मूर्तियों को मैं तीर्थङ्कर कहता हूँ | सूत्रों कोहम जिनवाणी कहते हैं। जिन तीर्थङ्करों की मूर्तिएं हैं उन्हें | सूत्रों को भी तीर्थंकरों की मैं उसी नाम से पुकारता वाणी कहते हैं और उन्हें उन्हीं के नामसे यों कहतेहैं जैसे: Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २०० यह भगवानऋषभ देवको मूर्ति है। यह वाणी भगवान्ऋषभदेवकी है। यह भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति है। यह वाणीभगवान्पार्श्वनाथनेकही। यह भगवान् महावीरकी मूर्ति है। यहबातभगवान्महावीर नेकही। मूर्ति के निमित्त कारण से | सूत्रों के निमित्त कारण से भी तीर्थंकरों का ज्ञान होता है। तीर्थंकरों का ज्ञान होता है इसलिए मूर्ति उपकारी है। अतः सूत्र उपकारी है मूर्ति तीर्थंकरों की होने से | सूत्र तीर्थंकरों की वाणी होने से उनकी ८४ श्राशातना टाली ___ उनकी ३४ असज्जाइये जाती है। बरजी जाती हैं। मूर्ति तीर्थंकरों की होने के सूत्र तीर्थंकरों की वाणी होने से कारण उच्च पबासन पर ___ उच्च पाट तथा ठवणी पर विराजमान कर पूजी जाती रख पढ़े जाते हैं। सूत्रों के है । मूर्ति के पक्षाल, मुकुट पढ़ने से ती करों की कुण्डल ध्यानमुद्रा देखने से बाल्याऽवस्था, राज्याऽवस्था तीर्थकरों की क्रमशः जन्म, और वीतरागाऽवस्था का राज्य और वीतराग दशा का ज्ञान होता है। ज्ञान होता है। इस प्रकार मूर्ति और सूत्र ये दोनों तीर्थंकरों का वास्तविक ज्ञान होने के निमित्त कारण हैं और इन कारणों से हमको ज्ञान, वैराग्य और शान्ति मिलती है। अतः हमारे लिए दोनों पज्य हैं । हम केवल भूर्ति पूजक ही नहीं पर मूर्ति के द्वारा तीर्थकरों के पूजक हैं। हमारे चैत्यवन्दन में, स्तुति में, स्तवन में, प्रार्थना में जहाँ देखो वहाँ तीर्थंकरों की ही पूजा, आती है न कि केवल मूर्ति की जरा हमारे भक्ति भरे हृदय के उद्गार तो देखिये कि हम मूर्ति के सामने बद्धकर हो क्या कहते हैं: ___ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ "नमोत्थु, अरिहंताणं, भगवंताणं” इति । कहिये ! यह नमस्कार किसको है भगवान् को या केवल मूर्ति को ? । आगे हम क्या प्रार्थना करते हैं कि " जिणारां जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुताणं मोगाणं, सव्वनूणं सव्वदरिसिणं" इस बात को साधारण बुद्धि वाले भी समझ सकते हैं कि हम जैन लोग केवल मूर्त्ति पूजक हैं या मूर्त्ति द्वारा तीर्थकरों के पूजक हैं ? | प्र० - तो फिर कई एक लोग आपको जड़-उपासक क्यों कहते हैं ? मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर उ०- ऐसा कहने वालों की खुद की बुद्धि की जड़ता है कि वे दूसरों के भावों को या विधानों को न समझ कर केवल द्वेष भाव से यद्वा तद्वा निंदा कर अपना कर्म बंधन करते हैं । प्र० - जब आप वीतराग भगवान के उपासक हैं, तो मूर्त्ति की क्या जरूरत है । वीतराग की उपासना तो बिना मूर्त्ति के भी हो सकती है । उ०—ऐसा कहना एकान्त भूल और अज्ञानता सूचक है क्योंकि कारण के अभाव से कार्य की सिद्धि हो ही नहीं सकती है । यह कथन केवल एक धर्म या एक व्यक्ति के लिए नहीं पर समग्र संसार के लिए है। और कारण कार्य की बदौलत सारा विश्व मूर्त्ति पूजक है। यह बात एक दूसरी है कि कोई सद्भाव मूर्त्तिमाने और कोई श्रसद्भाव मूर्त्ति को माने, पर मूर्ति बिना तो किसी का भी कोई काम नहीं चल सकता है । - प्र० -काम क्यों नहीं चल सकता, हम लोग मूर्त्तिपूजा बिलकुल नहीं मानते हैं और हमारा सब काम ज्यों का त्यों चल रहा है। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्रोत्तर २०२ उ०-महाशय ! यह बात केवल मुँह से कहने की है कि हम मूर्ति नहीं मानते, न कि वास्तव में यह सच्ची है। देखिये कभी कोई अनभिज्ञ व्यक्ति अपने अपमानादि के कारण क्रोधित हो या आवेश में आकर कह दे कि हम मूर्ति नहीं मानते हैं “पर जिस को मूर्ति का मार्मिक रहस्य ही मालूम नहीं है ऐसे अबोधात्मा का यह कहना कौन समझदार ठीक मान सकता है । हाँ ! या तो कोई उस कहने वाले के सदृश ही स्वयं अबोध हो या जिस पर पक्षपात का भूत सवार हो वह व्यक्ति क्षण भर के लिए हठधर्मी बन कर खुद मूर्तिमान होते हुए भी मुँह से कह देता है कि हम मूर्ति नहीं मानते हैं । और जब प्रमाण पूछा जाता है तो मट से अपने उन पूर्वजों का नाम लेलेते हैं कि जिन्होंने कुछ न जानते हुए केवल अपने अपमानादि के कारण से मूर्ति नहीं मानी थी। परन्तु क्या यह कह देना समझदारों का काम है ? कदापि नहीं । प्र०-अच्छा तो आप ही बताइये कि हम लोगों ने कब मन्दिर में जाकर मूर्ति पूजा की थी। ___ उ०-क्या मन्दिर में जाना ही मूर्ति पूजा है ? नहीं, हम कहते हैं कि किसी भी हालत में मूर्ति (आकृति ) का अवलंबन करना यही मूर्तिपूजा है और ऐसा प्राणी मात्र को करना पड़ता है। प्र०-आप केवल मुंह से ही वारंवार कहते हैं कि "तुम भी मूर्ति-पूजक हो" परंतु उदाहरण देने में आप नितान्त कमजोर हो। अन्यथा बतलाना चाहिए कि हम किस आकृति का ___ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर अवलंबन करते हैं जिससे कि आप हमें मूर्ति-पूजक करार देते हो। उ०-आप अपने गुरुजी को नमस्कार करते हो ? । प्र०-जी हाँ ! पर इससे क्या हुआ, हमारे गुरुजी में तो ज्ञानादि गुण हैं। ___ उ०-आप गुणों को नमस्कार करते हैं या शरीर को ? यदि गुणों को नमस्कार करते हो तो ज्ञानादि गुण तो अरूपी हैं जो कि आपके दृष्टिगोचर नहीं होते। और आत्मा में अनन्त ज्ञान दर्शनादि गुणों का खयाल करके दृश्य शरीर को नमस्कार करते हो तो यह प्राणी मात्र अर्थात् क्या एकेंद्रिय,क्यापञ्चेद्रिय, क्या भव्य, क्या अभव्य, सब जीवों में विद्यमान है अतः प्राणी मात्र को नमस्कार करना चाहिए । यदि केवल शरीर ही को बंदना करते हो तो शरीर तो जड़ और हाड मांस का पुतला है और यह भी मनुष्य मात्र के होता है अतः कमसे कम सब प्राणियों को नहीं तो मनुष्य मात्र को तो नमस्कार करना ही चाहिये । प्र०-हमारे गुरुजी का शरीर, जड़ है तो क्या हुआ, पर हमारे लिए तो वे पूज्य हैं । हम उनके अन्दर गुणों की भावना करके ही वन्दन पूजन करते हैं। आपको इसमें क्या आपत्ति है ? ___उ०-हमको इसमें कोई आपत्ति नहीं, परन्तु यदि आप इसी प्रकार मूर्ति में भी गुणों की कल्पना करके मूर्ति द्वारा तीर्थकरों का वन्दन जन करो तो, आपको क्या आपत्ति है । प्र०-हमारे गुरुजी तो रजोहरण, मुंहपत्ती, आदि रखते और संयम पालते हैं । मर्ति क्या रखती और कौनसा संयम पालती है जो उसे हम वन्दन पूजन करें ? । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २०४ उ०-संयम रूपी हैं या अरूपी ? प्र०-संयम रूपी नहीं किन्तु अरूपी हैं । उ०-तो अरूपी संयम को आप कैसे देख सकते हो ? । प्र०-अरूपी संयम को हम देख तो नहीं सकते हैं, पर तीर्थङ्करों के वचनों से जानते हैं। उ-तीर्थङ्करों ने तो स्वलिङ्गी, अन्यलिङ्गो और गृहलिङ्गी तीनों को सिद्ध होना बतलाया है (देखो भगवती सूत्र) क्या आप इन तीनों को नमस्कार करते हैं ? प्र०-नहीं हमको मालूम पड़े कि इनमें संयम हैं उन्हीं को हम नमस्कार करते हैं। उ०-आपको कितना ज्ञान है ? जो आपको अंतःस्थ अरूपी संयम का पता पड़ जाय, भला, बताइये तो सहीकि आपके गुरु भव्य हैं या अभव्य ? ___प्र०--यह तो ज्ञानी ही जान सकते हैं, पर रजोहरण मुंह'पत्ती आदि साधुत्व के चिन्ह होने से हम परम्पराऽऽगत व्यवहार से जान लेते हैं कि यह साधु है। ___उ०--तबतो आपके वन्दन पूजन के कारण गुरुजी के रजो हरण और मुंहबत्ती आदि वाह्यचिन्ह हुए जो कि जड़ हैं फिर आप यह क्यों कहते हैं कि "हम जड़ आकृति ( मूर्ति) को नहीं मानते हैं। आप स्वयं यह सोचिये कि आपके गुरुजी का शरीर और रजोहरण आदि एक आकृति रूप है या नहीं ! तथा ये जड़ हैं या चेतन । यदि ये, आकृति जड़ रूप हैं तो इन जड़ ‘पदार्थों में ज्ञानादि अरूपी गुणों की कल्पना करना और उनकी चन्दन पूजन करना क्या जड़ पदार्थ की सेवा नहीं है ? यदि है Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर तो जरा विचार करें कि मूर्तिपूजक लोग इससे अधिक क्या करते हैं ? वे भी तो मूर्ति में आदर्श गुणों का आरोप कर उन्हीं गुणों का वन्दन , जन करते हैं।। प्र०-हमारे गुरुजी तो बोलते चालते हैं, मूर्ति क्या भी बोलती है ? ___ उ०-बोलने चालने में तो योगोंकी चञ्चलता होनेसे हिंसा होती है और उनसे उल्टा कर्मों का बन्धन होता है और इन कर्म बन्धन से बचने के लिए ही आपके गुरुजी और अध्यात्म योगी बन सके तो कुछ समय के लिये मौन व्रत धारण करते हैं । अब आप ही बताइये कि ज्यादा बोलना अच्छा है, या नहीं बोलना अच्छा है ? प्र०-हमारे गुरुजी तो उपदेश करते हैं जिससे सुनने वालों को ज्ञान होता है क्या आपकी मूर्ति भी कोई उपदेश करती है जिससे कि उसके उपासकों को उपदेश हो। उ०-उपदेश तो मात्र निमित्त है उपादान तो प्रात्मा ही है कई लोग मूर्ति द्वारा तीर्थंकरों के स्वरूप चिन्तवन से वैराग्य को प्राप्त कर लेते हैं तब कई लोग साधुओं के व्याख्यान से राग द्वेष कर कर्मबन्धन कर बैठते हैं । आपके गुरुजी के उपदेश करने पर भी कई लोग उनकी तारीफ और कई लोग निंदा करते हैं जो आप प्रत्यक्ष में भी देख रहे हैं, पर मूर्ति ध्यान स्थित होने पर भी उनके चरणों में सारा विश्व सिर मुकाता है । यदि उपदेश नहीं देने के कारण ही आप मूर्वि को नहीं मानते हैं तब तो सिद्धों को भी नहीं मानना चाहिए कारण वे भी उपदेश नहीं देते हैं। किन्तु उन्हें तो तुम दिन में कई बार “नमोत्थुणं" देते हो इसका फिर क्या अर्थ हुआ ? यदि उपदेश न देने पर भी तुम उन सिद्धों Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोचर २०६ को नमस्कार करते हो तो मूर्ति भी उन्हीं सिद्धों को है फिर उसे नमस्कार वन्दन आदि क्यों ने किया जाय ? हमारी राय में तो जरूर करना चाहिये। __ भाई साहिब ! किन्हीं विद्वानों के पास कुछ काल रह कर पहिले जरा जैन शास्त्रों को खूब समझलो कि मति कारण है और सिद्ध कार्य हैं और "कारणकार्ययोरभेदः" इस न्याय के अनुसार दोनों का कार्य कारण रूप अभेद ( एकी भाव ) सम्बंध है, जैसे आपके गुरुजी का जड़ शरीर और रजोहरण, मुंहपत्ती श्रादि कारण है और संयमादि गुण कार्य है, इस प्रकार कुछ समम बूम कर शंका करो। अन्यथा व्यर्थ का वितण्डावाद खडा करने में मुंह की खानी पड़ती है । अच्छा ! आगे चल कर मैं आपको इस विषय को समझाने के लिए एक उदाहरण फिर बतलाता हूँ कि पहिले श्राप बताइये कि आपके जो सूत्र हैं वे अमूर्ति हैं या मूर्ति ? प्र०-सूत्र कोई मूर्ति थोड़े ही हैं । उ०-तो क्या अमूर्ति हैं ? प्र०-क्या आप सूत्रों को मूर्ति मानते हो। उ०-वेशक ! क्योंकि सूत्रों के पन्नों की और अक्षरों की आकृति है या नहीं ? प्र०-आकृति तो है। उ०-तो बस होगया; आकृति और मूर्ति कोई भिन्न दो वस्तुए नहीं हैं किन्तु श्राकृति मूर्ति शकल स्थापना आदि सब एकार्थी पर्यायवाची शब्द हैं। प्र०-अच्छा सूत्रों के पन्नों को तो आप मूर्ति मानते हो Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर पर जब सूत्रों के पन्ने ही नहीं थे और सूत्रों का ज्ञान कण्ठस्थ था उस समय के हमारे पूर्वज क्या मत्ति मानने वाले थे। . उ०-हाँ, वे भी मूर्तिपूजक ही थे। प्र०-वे कैसे मूर्तिपूजक थे। ३०-यद्यपि पन्ने तो नहीं थे किन्तु फिर भी वे शब्दोचारण में "क" को क और "ख" को ख उच्चारण करते थे। यह भी तो क और ख की मूर्ति ही है । कारण, क की आकृति को क कहना और ख की आकृति को ख कहना यही तो मूर्ति है । मूर्ति का अर्थ है कि अमुक आकृति द्वारा अमुक भावों का ज्ञान होना भाव तो है कार्य और जिस आकृति द्वारा उसका ज्ञान होता है वह कारण है समझे न ? प्र०-यदि हम मूर्ति को कारण मान भी लें तो भी इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि हम उन सूत्रों के पन्नों को पुष्पादि से पूजें। ____न०-भल ही पुष्पादि से मत पूजो पर जिस कारण से आपको ज्ञान प्राप्त हुआ उसका उपकार मानना तो आपका कर्तव्य है न ? प्र०- हाँ, उपकार तो जरूर मानना ही चाहिए । उ०-परन्तु उपकार बिना पूज्य भाव आए नहीं माना जा सकता है। प्र०-हाँ, पूज्य भाव तो श्राता हो है। उ०-तो बस ! कारण के प्रति पूज्य भाव पैदा होना ही कारण की पूजा है। फिर वह चाहे द्रव्य पूजा करे चाहे भाव Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २०८ पूजा । पर कार्य की सिद्धि के लिए कारण की पूजा सब संसार करता है। प्र०-आप संसार भर को मूर्ति पूजक बतलाते हो किन्तु संसार में मत्ति नहीं मानने वालों की संख्या करोड़ों की है, कहिये यह कब से और क्यों ? ___उ०-इतिहास के प्रखर विद्वानों ने अपक्षपात भाव से शोध और खोज कर यह निष्कर्ष निकाला है कि "संसार भर में मूर्ति पूजा का प्रचुरता से प्रचार था और सब लोग अपने अपने माने हुए देवों की मूर्तियों द्वारा ख व शास्त्र कथित विधानों से पूजा कर आत्म-कल्याण करते थे परन्तु काल की कुटिल गति से विक्रम की सातवीं शताब्दी से अरबिस्तान में एक मुहम्मद साहिब नाम की व्यक्ति हुई जिन्होंने उस समय अरबिस्तान में मूर्तियों की ओट से होने वाले स्वार्थान्ध अत्या-- चारों को रोकने का बीड़ा उठाया पर उनको यह बात समझ में नहीं आई कि शरीर पर पैदा हुए क्षत को मिटाने के लिए उसी का उपचार करना चाहिये या समचे शरीर को ही इस संसार से मिटा देना चाहिए अतः उन्होंने उस बिगड़ी दशा का वास्तविक सुधार न कर मूर्तिपूजा का ही विरोध कर अपना "मुस्लिम मजहब" नामक नया पन्थ निकाला, जिसे आज १३५८ वर्ष हुए हैं। उनका यह कार्य पूर्वोक्त उदाहरणाऽनुसार ऐसा ही घटित हुआ कि जिस मनुष्य के सिर पर बाल बढ़ गए हों और वह उस झंझट को मिटाने के लिए नाई के पास जाय, तब नाई उन बालों को न काट बाल पैदा करने वाले सिर को ही काट डाले कि न रहे बांस न बजे बांसुरी,, किन्तु मुहम्मद साहिब ने Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर इन सब पर कुछ विचार न कर इसी माग का अनुसरण किया मुहम्मद साहिब की इस बात से पाश्चात्य देशों में बड़ी भारी अशान्ति फैली पर सौभाग्यवश इस अयोग्य कार्य में मुहम्मद साहिब को पूर्ण सफलता नहीं मिली क्योंकि उनके पास कोई ऐसा प्रमाण या युक्ति नहीं थी जो कि जनता के हृदय पटल को सहसा पलट सके। उनके पास तो केवल तलवार का बल था जिनके भरोसे पर वे अपने विचारों को जन साधारण में प्रचलित करना चाहते थे पर भला यह कब होने का था, हठात् कोई किसी के विचारों का विनिमय क्या कर सकता है ? अतः वे इसमें फैल रहे और प्रमाण स्वरूप विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक तो जर्मनादि पाश्चात्य प्रदेशों में मूर्तिपूजा की प्रथा ज्यों को त्यों चालू रही । इतना ही क्यों पर खास मक्का में तो चौदहवीं सदी में जैनमंदिर मूर्तिएँ भी पूजी जाती थी। विक्रम की सातवीं शताब्दी से विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत पर अनेक मुस्लिम जातियों के अगणित हमले हुए और धर्मान्धता के कारण उन विधर्मी मुसलमानों ने भारत की स्थाई शिल्पकला के अनेक उद्भट नमने, हजारों लाखों सुन्दर मन्दिर सदा के लिए नष्ट भ्रष्ट कर दिए । ज्ञानोपलब्धि के अनन्य साधन हजारों पुस्तकालयों को ज्यों का त्यों जला दिया किन्तु इतना अत्याचार होने पर भी आर्य प्रजा पर उनका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा, और विक्रम की सोलहवीं सदी तक अखिल भारत में प्रत्येक धर्मावलम्बी अपने २ इष्ट देव की मूर्ति की पूजा करता रहा। किंतु आखिर उन मुसलमानों की अनार्य संस्कृति हमारे नामधारी आर्यों पर पड़ ही गई और Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर २१० मुहम्मद के शिष्य समुदाय में सबसे पहिले हमारे लौकाशाह ने और बाद में गुरु नानकशाह, कबीर, और रामचरण आदि व्यक्तियों ने उस अनार्य संस्कृति का अन्धाऽनुकरण किया, जो अद्याऽवधि भी जारी है पर यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि जितने मूर्ति विरोधी आज तक हुए हैं और अपना अलग मत चलाया है, वे सबके सब मूर्तिपूजा से किसी हालत में बच नहीं सके हैं । चाहे वे इस प्रक्रिया को किसी अन्य रूप में माने पर इस (मूर्तिपूजा) को मानते जरूर हैं । यही क्यों किन्तु वे मूर्तियों की पुष्पादि से भी पूजा करते हैं। प्र०-बताइये ? कि मुसलमान लोग कैसे मूर्ति पूजक हैं ? उ०-मुसलमान लोग मूर्तिपूजक हैं इसको कौन इन्कार करता है ? मुसलमान लोग मूर्तिपूजक नहीं हैं तो फिर वे हजारों रुपये खर्च कर, अनेक कष्ट उठाकर, मक्का मदीना की यात्रार्थ क्यों जाते हैं ? तथा वहाँ जो काबा नाम के मंदिर में काला पत्थर रक्खा हुश्रा है उसकी सात बार प्रदक्षिणा करके अपने कृत पापों को नष्ट करने की भावना से उसका सात वार चुम्बन क्यों करते हैं ? एवं वहाँ जो झमझम नाम का खारा पानी का कुआँ है; उसके जल का चरणामृत क्यों लेते हैं ? उन्हें फूल फल क्यों चढ़ाते है ? और मणों (बन्द) लोबान धूप क्यों खेवते हैं ? यह सब क्यों किया नाता है ? वे ताबूत ताजिया आदि फिर किस लिए बनाते हैं । मसजिदों में पीरों की स्थापना किस कारण होती है ? अजमेर को ख्वाजापीर की दरगाह को यात्रार्थ सैकड़ों कोस दूर २ से असंख्य मुसलमान आते हैं यह क्या जानकर आते हैं ? इन सब उपर्युक्त कृत्यों के संपादन करने में मुसलमानों की आन्तरिक Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.११ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर है भावना आत्म-कल्याण साधन की रहती यह ऐसा क्यों है ? क्या इन सब विधानों से यह सिद्ध नहीं होता कि मुसलमान लोग मूर्तिपूजक हैं। क्या यह प्रकार मूर्तिपूजा का नहीं है ? यदि है तो आपका कथन नितान्त अनर्गल है । प्र० - खैर ! आपके कथनानुसार माना कि मुसलमान तो मूर्तिपूजक हैं परन्तु क्रिश्चियन (अंगरेज) लोग तो मूर्तिपूजक नहीं हैं, इसका क्या उत्तर है ? उ०- - इसका उन्हार यह है कि क्रिश्चियनों में रोमन कैथोलिक लोग तो प्रत्यक्ष में ही मूर्तिपूजा करते हैं अतः उनके लिए कुछ कहना व्यर्थ है । परन्तु प्रोटेस्टेण्ट पार्टी वाले भी केवल मुँह से कहते हैं कि हम मूर्तिपूजा नहीं मानते हैं किन्तु वे भी अपने गिरजाघरों में महात्मा ईसामसीह की शूली सर लटकती हुई मूर्ति रखते हैं, उसे देख उनका दिल रोमाञ्चित हो जाता है पुष्प धूपादि से उसकी पूजा करते हैं। सिर पर से टोप नीचे उतार कर घुटने टेक वे उस मूर्त्ति को नमस्कार करते हैं क्या यह मूर्तिपूजा नहीं है ? हमारी समझ में तो यही मूर्तिपूजा का विधान है । प्र० -- माना कि अंगरेज भी मूर्तिपूजा मानते हैं परन्तु पारसी लोग तो मूर्ति का नाम ही नहीं लेते कहिये यहाँ क्या नवाब है ? उ०. -भाई खूब कहा, पारसी लोग मूर्ति का नाम भी नहीं लेते ? हम तो जानते हैं कि पक्के मूर्तिपूजक तो पारसी ही हैं | देखिये उनका इष्टदेव अग्नि है और वे अग्निदेव की पूजा करते हैं, अग्नि के सामने बाजा बजाते हैं, पुष्प घृत आदि Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २१२ होमते हैं क्या यह मूर्तिपूजा नहीं है ? पारसी लोग सूर्यदेव कोभी पूजते हैं तो फिर क्यों कहा जाता है कि पारसी मूर्तिपूजक नहीं हैं। ___०-ठीक पारसी भी मूर्तिपूजक हैं किन्तु सिक्ख और कबीर पंथी आदि तो मूर्ति नहीं मानते हैं । ____ उ०-यह सब कहने मात्र को बाहिरी ढोंग है, जिन लोगों ने अज्ञानता वश यह एक प्रकार का हठ पकड़ लिया है और जानते हुए भी उसे नहीं छोड़ते हैं यह बात दूसरी है, पर मन तो उनका भी मूर्ति की ओर रज्जू अवश्य है, यदि ऐसा न होता तो वे अपने पूज्य पुरुषों को समाधिएँ फिर क्यों बनाते ? और सैकड़ों हजारों कोस दूर से चला कर वे उन समाधियों के दर्शनार्थ एक जगह इकट्ठ क्यों होते तथा उन समाधियों को पूज्य भाव से क्यों देखते एवं पुष्प हार, धूप, दीप नारियल श्रादि से उनकी पूजा क्यों करते ? परन्तु वे ऐसा सब कुछ करते हैं इसलिए सिद्ध होता है कि ये भी मूर्ति पूजक अवश्य हैं। प्रबो०-माना, ये भी मूर्तिपूजक हैं किन्तु तारण पंथी. लौकाऽनुयायी, स्थानकवासी और तेरहपंथी लोग तो मूर्ति को नहीं मानते हैं। ___उ०-- तारणपंथी लोग भले ही मूर्ति को नहीं माने पर वे लोग भी शास्त्रजी को तो एक उच्चासन पर स्थापित कर अच्छे सुन्दर वस्न आदि से उनको सजावट करते हैं, पुष्प अक्षत आदि से तथा स्वर्ण, चांदी के बने कृत्रिम पुष्पों से सोत्साह शास्त्रजो को पूजते हैं और इस प्रकार से पूजा करने में वे तीर्थङ्करों की भक्ति कर अपना प्रात्म-कल्याण समझते हैं क्या यह मूर्ति पूजा नहीं है ?। दूसरा लौकामत के लिए तो अब यह सवाल ही Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर नहीं रहा कि वे मूर्तिपूजक हैं या नहीं क्योंकि लौंकाऽनुयायी तो अब खुलेआम अपने उपाश्रयों में साक्षात् भगवान् तीर्थङ्करों की मूर्त्तिएँ स्थापित कर उनकी द्रव्य भाव से पूजा करते हैं, तथा तीसरा नंबर है स्थानकवासियों का सो उनमें भी मूर्त्तिएं, गुरु पादुकाएँ, समाधिएँ और साधु-साध्वियों के फ़ोटो पूजे जाते हैं। देखो ग्राम गिरि ( मारवाड़ ) में स्था० साधु हर्षचंद जी की तथा गांव सादड़ी ( मारवाड़ ) में स्था० ताराचंदजी की पाषाण मय मूर्ति अष्ट द्रव्य से पूजी जाती है । आगरा में स्था० साधु रत्नवन्दजी की पादुकाओं की पूजा होती है । बड़ोद व अंबाला में स्थानक० साधुओं की बहुत काल से समाधिएँ हैं जो अत्यादर से पूजी जाती हैं, वहां हर साल मेला भरता है और हजारों लोग एकत्र होते हैं क्या यह मूर्तिपूजा का रूपान्तर नहीं है ? । अब रहे तेरहपन्थी लोग, सो वे भी इस मूर्त्तिपूजा से बिलकुल वश्चित नहीं रहे हैं। अभी एक ताजा उदाहरण लीजिए, कि इसी वर्ष गांव गंगापुर ( मेवाड़ ) में तेरह पन्थी पूज्य कालू रामजी स्वामी का देहान्त हुआ था तब आपके भक्त लोगों ने उस मृत शरीर ( शत्र) का स्वर्ण रजत ( चांदो ) निर्मित पुष्पों से पूजन किया । इस उत्सव में भक्त लोगों ने हजारों रुपये खर्च कर अपने माने हुए ( मान्य) धर्म की उन्नति समझो। अपने पूज्यजी के दाह स्थान पर एक स्मारक ( चबूतरा ) बनाया । हम पूछते हैं कि अब उस स्थान पर जो तेरहपन्थी साधु, साध्वियों श्रावक और भक्ताखिएँ जायेंगी उनका दिल क्या इस स्मारक को देख भक्ति भाव से द्रवित नहीं होगा ? क्या उसे देख इन भक्तजनों को पूज्यभाव या स्मरण नहीं आएगा कि इस स्थान पर Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २१४ हमारे पूज्यजी दग्ध हुए ? श्रादि । यदि हाँ तो बस ये भी मूर्ति पूजक हैं यह सिद्ध हो गया, क्योंकि अन्यथा पूज्यजी के शरीर से जीवात्मा के विदा लेने के बाद तो वह शरीर एक प्रकार की नर श्राकृति वाली मिट्टीही शेष रही और बाद उस मिट्टी केपुतले कोसोने-चाँदी के पुष्पों से सत्कारकरना यह स्थापना और द्रव्य निक्षेप की पूजा नहीं तो और क्या है ? जरा नेत्रों को मूंद सच्चे दिल से हृदय में विचारिये कि हम लोग फिर अपनेमान्य प्रभुकी मूर्ति के बारे में इस रीति से भिन्न और किस अनोखी रीति सेपूजा करते हैं ? प्र०- खैर ! यह तो जो कुछ है सो सुन लिया, पर अब आप यह बतावे कि संसार में आम तौर से प्रत्यक्ष मूर्ति पूजने वालों की संख्या कितनी है ? .. उ०-यों तो मनुष्य और देवता सब के सब मूर्ति पूजक ही हैं परन्तु हां जो नरक के जोव और विकल मनुष्य हैं वे मूर्ति का स्पर्श नहीं करते हैं, इनके अलावा क्या आर्य, और क्या अनार्य सब मूर्तिपूजक हैं तथापि स्पष्ट ज्ञान के लिए देखिये: बौद्धमत के ... ५८००००००० रोमन कैथोलिक ३९००००००० हिन्दु ... ... २७००००००० जैन ... ... ...१०००००० श्रीकादिको गिना जाय तो कुल १४०६९००००० हैं। . इनके सिवाय भी मुँह से मूर्तिपूजा नहीं माननेवाले किन्तु हृदय से माननेवालों की संख्या अलग है । कारण देहधारी जीव का हृदय सदा से मूर्तिपूजक रहा है अतः वह येन केन प्रकारेण मूर्ति माने बिना नहीं रह सकता। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर प्र०-खैर हमारी तो मान्यता सूत्रों पर है, पर क्या जैन सूत्रों में मूर्तिपूजा का विधान है ? उ०-अरे भाई ! सूत्रों में तो क्या पर सूत्र स्वयं भी तो मूर्ति स्वरूप हैं:-पन्ने, मूर्ति-स्याही, मूर्ति-कलम मूर्ति, लिखने वाला मूर्ति, लिखाने वाला मूर्ति, पढ़ने वाला मूर्ति, पढ़ाने वाला मूर्ति, समझने वाला मूर्ति, समझाने वाला मूर्ति, उपदेश देने वाला मूर्ति, और उपदेश सुनने वाला मूर्ति, इस प्रकर सारा विश्व तो मूर्ति मय है फिर सूत्रों में मूर्ति विषयक उल्लेख का पूछना ही क्या है। ऐसा कोई सूत्र नहीं है, जिसमें मूर्ति विषयक उल्लेख न मिलता हो। चाहे ग्यारहअंग, बत्तीससूत्र और चौरासी आगम देखो, मूर्ति सिद्धान्त व्यापक है, यदि इस विषय के पाठ देखने हों तो हमारी लिखी प्रतिमा छत्तीसी, गयवर विलास और सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली तथा हाल ही में छपा "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास," नाम की पुस्तकें देखो। प्र०-सूत्रों को श्राप मूर्ति कैसे कहते हैं ? । उ०-मूर्ति का अर्थ है, आकृति (शकल ) सूत्र भी स्वर, व्यजन वर्षों की श्राकृति ( मूर्ति ) ही तो है ।। प्र०-मूर्ति को तो आप वन्दन, पूजन करते हो, पर आपको सूत्रों का वन्दन पूजन करते नहीं देखा ?।। ___उ०-क्या आपने पयूषणों के अन्दर पुस्तकजी का जुलूस नहीं देखा है ? जैन लोग पुस्तकजी का किस ठाठ से वन्दन पूजन करते हैं ! और आप भी तो सूत्रों का बहुमान करते हैं । प्र०-हम लोग तो सूत्रों का वन्दन पूजन नहीं करते हैं । उ०-यही तो आपकी कृतघ्नता है कि सूत्रों को वीतराग Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २१६ की वाणी समझ उनसे ज्ञान प्राप्त कर. आत्मकल्याण चाहते हो और न वाणी की वन्दन पूजन करने से इन्कार करते हो, इस्रोसे तो आपकी ऐसी बुद्धि होती है। श्री भगवती सूत्र के आदि में गणधर देवों ने " णमो बभीए विीए" कहकर स्थापना सूत्र ( ज्ञान ) को नमस्कार किया है। मूर्त्ति अरिहन्तों का स्थापना निक्षेप है और सूत्र अरिहन्तों को वाणी की स्थापना है, एवं ये दोनों वन्दनीक तथा पूजनीक हैं । प्र० - महावीर तो एक ही तीर्थकर हुए हैं पर आपने ( मूर्तिपूजकों ने ) तो ग्राम ग्राम में मूर्त्तिएँ स्थापन कर अनेक महावीर कर दिये हैं । उ० -यह अनभिज्ञता का सवाल है कि महावीर एक ही हुए परन्तु भूतकाल में महावीर नाम के अनन्त तीर्थंकर हो गये हैं। इसलिये उनकी जितनी मूर्तिऐं स्थापित हो उतनी ही थोड़ी हैं । यदि आपकी मान्यता यही है कि महावीर एक हुए हैं तो आपने अपने पन्ने पन्ने पर महावीर की स्थापना कर उन्हें शिर पर क्यों लाद रक्खा है ? मन्दिरों में मूर्ति महावीर का स्थापना निक्षेप है और आपके पन्नों पर जो “महावीर” ये अक्षर लिखे हुए हैं वह भी महावीर का स्थापना निक्षेप है । इसमें कोई अन्तर नहीं है । तब स्वयं तो ( अक्षर ) मूर्ति को मानना और दूसरों की निन्दा करना यह कहाँ का न्याय है । प्र०—कोई तीर्थकर किसी तीर्थंकर से नहीं मिलता है पर आपने तो एक ही मन्दिर में चौबीसों तीर्थंकरों को एकत्र बैठा दिया । उ०- हमारा मन्दिर तो बहुत लम्बा चौड़ा है उस में तो Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर चौबीसों तीर्थंकरों की स्थापना सुख पूर्वक हो सकती है, और राजप्रश्नी सूत्र में कहा भी है कि एक मन्दिर में "अट्ठसयं जिणपडिमाणं" पर आप तो पाँच इंच के छोटे से एक पन्ने में ही तीनों चौबीसों के ७२ तीर्थंकरों की स्थापना कर, और उस पन्ने को पुस्तक में खूब कसकर बाँध अपने सिर पर लाद कर सुखपूर्वक फिरते हैं। भला, क्या इसका उत्तर आप समुचित दे सकेंगे ? या हमारे मन्दिर में चौबीसों तीर्थंकरों का होना स्वीकार करेंगे ? प्र-सूत्रों में तो तीन चौबीस का नाम मात्र कहा है वही हमारे पन्नों में लिखा है, स्थापना कहाँ है ? । उ-जो नाम लिखा है वह अक्षर ही तो स्थापना है । जब मूर्ति स्वयं अरिहन्तों की स्थापना है, तो सूत्र उन अरिहन्तों की बाणी की स्थापना है इसमें कोई अन्तर नहीं है। प्र०-सूत्रों के पढ़ने से ज्ञान होता है । क्या मूर्ति के देखने से भी ज्ञान होता है । उ.-ज्ञान होना या नहीं होना आत्मा के उपादान कारण से सम्बन्ध रखता है। सूत्र और मूर्ति तो मात्र निमित्त कारण हैं, सूत्रों से एकांत ज्ञान ही होता है तो जमाली गोशालादि ने भी यही सूत्र पढ़े थे, फिर उन्हें सम्यक्ज्ञान क्यों नहीं हुआ ? आप भी तो यही सूत्र पढ़ते हो फिर आपकी यह दशा क्यों ? और जगवल्लभाचार्य को मूर्ति के सामने केवल चैत्य-वन्दन करने ही से कैवल्य ज्ञान कैसे हो गया ? । इसी प्रकार अनेक पशु पक्षियों व जलचर जीवों को मूर्ति के देखने मात्र से जाति-स्मरणादि ज्ञान हो गये हैं, अतः नाम की अपेक्षा स्थापना से विशेष ज्ञान हो सकता Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २१८ है। आप पुस्तक पढ़ने की अपेक्षा एक नकशा सामने रक्खो जिससे आपको तमाम दुनियाँ का यथार्थ ज्ञान हो जायगा। प्र०-श्राप जिन-प्रतिमा को जिन-सारखी कहते हो क्या यह मिथ्या नहीं है । ___ उ०-आप ही बतलाइये यदि हम जिन-प्रतिमा को जिनसारखी नहीं कहें तो फिर क्या कहें ! उन्हें किन के सारखी कहें। क्योंकि यह आकृति सिवाय जिनके और किसी के सदृश मिलती नहीं है जिससे उनकी इन्हें उपमा दें। जिन प्रतिमाको जिनसारखी हम ही नहीं कहते हैं किन्तु खास सूत्रों के मूल पाठ में भी उन्हें जिन-सारखी कहा है, जैसे-जीवाभिगम सूत्र में यह लिखा है कि “धूवदाउणं जिनवराणं" अर्थात् धूप दिया जिनराज को, अब आप विचार करें कि देवताओं के भवनों में जिन-प्रतिमा के सिवाय कौन से जिनराज हैं ? अर्थात् शास्त्रकारों ने जिन प्रतिमा को ही जिनराज कहा है। समवसरण में तीर्थङ्करों के तीन दिशा में जिन प्रतिमा रखते हैं और चतुर्विध श्रीसंघ उनको जिनवर सदृश समम वन्दन भक्ति करते हैं यदि हम आपके फोटू को आपके जैसा कहें तो कौनसा अनुचित हुआ ? यदि नहीं तो फिर जिनरान की प्रतिमा को जिन-सारखी कहने ही में क्या दोष है ? यदि कुछ नहीं तो फिर कहना ही चाहिए। प्र०-यदि मूर्ति जिनसारखी हैं तो उसमें कितने अतिशय हैं ? । उ०-जितने अतिशय सिद्धों में हैं उतने ही मूर्ति में हैं, क्योंकि मूर्ति भी तो उन्हीं सिद्धों ही की है। अच्छा अब आप बतलाइये कि भगवान् की वाणो के पैंतीस गुण हैं, आपके सूत्रों में कितने गुण हैं । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर प्र० - यदि जिन-प्रतिमा जिन-सारखी है तो फिर उस पर पशु पक्षी वीटें क्यों कर देते हैं ? उनको अर्पण किया हुआ नैवेद्य आदि पदार्थ मूषक मार्जार क्यों ले जाते हैं तथा उन्हें दुष्ट लोग हड्डियों की माला क्यों पहना देते हैं ? । उनके शरीर पर से आभूषण आदि चोर क्यों ले जाते हैं, एवं मुसलमान लोगों ने अनेक मन्दिर मूर्तियाँ तोड़ कैसे डालीं ? इत्यादि उ०- हमारे वीतराग की यही तो वीतरागिता है कि उन्हें किसी से राग-द्वेष या प्रतिबन्ध का अंश मात्र भी नहीं है । चाहे कोई उन्हें पूजे या उनकी निन्दा करें, उनका मान करें या अपमान करें, चाहे कोई द्रव्य चढ़ा जावे, या ले जावे, चाहे कोई भक्ति करे या शातना करें । उन्हें कोई पुष्पहार पहिना दें या कोई अस्थिमाला आकर गले में डाल दें इससे क्या ? वे तो राग द्वेष से परे हैं उन्हें न किसी से विरोध है, और न किसी से सौहार्द, वे तो समभाव हैं, देखिये - भगवान् पार्श्वनाथ को कमठ ने उपसर्ग दिया और धरणेन्द्र ने भगवान् की भक्ति की, पार्श्वनाथ का तो दोनों पर समभाव ही रहा है। कहा है “कमठ्ठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभो स्तुल्य मनोवृत्तिः पार्श्वनाथ श्रियेऽस्तुवः ॥" पर प्रभु जैसा कि इसी प्रकार भगवान् महावीर के कानों में गोवल ने खीलें ठोकीं, वैद्य ने खीलें निकाल लीं, परंतु भगवान् का दोनों पर समभाव ही रहा, जब स्त्रयं तीर्थकरों का समभाव है तो उनकी मूर्तियों में तो समभाव का होना स्वाभाविक ही है आखिर वे मूर्तियाँ भी तो उन वीतराग देवों की ही हैं और हमारे देव वीतराग होने की Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोतर २२० साबूती यह मूर्तियाँ बतला रही हैं क्योंकि उन्हीं की मुद्रा में ही निस्पृहता फलक रही है । क्या इसके अलावा आपके पास कोई ऐतिहासिक साधन है कि आप अपने देव की वीतरागिता - बतला सको ? अच्छा ! हम थोड़ा सा आपसे भी पूछ लेते हैं कि जब वीतराग की वाणी के शास्त्रों में पैंतीस गुण कहे हैं तो फिर आपके सूत्रों को कीड़े कैसे खा जाते हैं ? तथा यवनों ने उन्हें जला कैसे दिया ? और चोर उन्हें चोर के कैसे ले जाते हैं ? क्या इससे सूत्रों का महत्व घटजाता है ? - यदि नहीं तो इसी भांति मूर्तियों का भी समझ लीजिये कि मूर्ति और सूत्र ये दोनों स्थापना निक्षेप है । C मित्रों ! ये कुतकें केवल पक्षपात से पैदा हुई हैं यदि समदृष्टि से देखा जाय तब तो यहो निश्चय ठहरता है कि ये मूर्तियें और सूत्र, जीवों के कल्याण करने में निमित्त कारण मात्र हैं । इनकी सेवा, भक्ति, पठन, श्रवणादि से परिणामों की शुद्धता, निर्मलता होती है । यही आत्मा का विकास है, इसलिए मूर्तिएँ और सूत्र वन्दनीय एवं पूजनीय है । प्र० - प्रतिमा पूजने ही से मोक्ष होती हो तो फिर तप, संयम आदि कष्टट-क्रिया की क्या जरूरत है ? उ०- प्रतिमा पुजन मोक्ष का कारण है इसमें कोई सन्देह नहीं हैं फिर भी यदि आपका यह दुराग्रह है तो स्वयं बताइये कि तुम दानशील से मोक्ष मानते हो, वह क्यों ? कारण यदि दान-शील से ही तुम्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है तो फिर दीक्षा लेने का कष्ट क्यों किया जाता है ? परन्तु बन्धुओं ! यह ऐसा नहीं हैयद्यपि दानशील एवं मूर्तिपूजन ये सब मोक्ष के कारण हैं फिर ܟ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर भी जैसे - गेहूँ धान्य, बीज रूप गेहूँ से पैदा होता है फिर भी ऋतु, जल, वायु, और भूमि की अपेक्षा रखता है वैसे ही ये दानशील मूर्तिपूजन आदि भी तप, संयमादि साधनों की साथ में आवश्यकता रखते हैं । समझे न ? प्र० - यदि मूर्तियाँ वीतराग की हैं और वीतराग तो त्यागी थे, फिर उनकी मूर्तियों को भूषणादि से अलंकृत कर उन्हें भोगी क्यों बनाया जाता है ? उ० – जो सच्चे त्यागी हैं वे दूसरों के बनाये भोगी कभी नहीं बन सकते, यदि बनते हों तो तोर्थंकर समवसरण में रत्न -- खचित सिंहासन पर विराजते हैं पीछे उनके प्रभामण्डल ( तेजोमण्डल ) ऊपर अशोक वृक्ष, शिर पर तीन छत्र और चारों ओर ६४ इंद्र चमरों के फटकारे लगाया करते हैं। आकाश में धर्मचक्र एवं महेन्द्रध्वजा चलती है तथा सुवर्ण कमलों पर वे सदा चलते हैं और ढीच प्रमाणे पुष्पों के ढेर एवं सुगन्धित धूप का धुआँ चतुर्दिश फैलाया जाता है। कृपया कहिये, ये चिन्ह भोगियों के हैं या त्यागियों के, यदि दूसरे की भक्ति से त्यागी भोगी बन जाय तो फिर वे वीतराग कैसे रहें ? असल बात तो यह है कि भावुकात्मा जिनमूर्ति का निमित्त लेकर जन्मावस्था को लक्ष्य में रख पक्षाल राजावस्था के कारण मुकुट कुण्डल हार, जेवर पहनाते हुए भी भक्तों का दृष्टिविन्दु उन वीतराग की भक्ति करने का ही हैं, इससे इनके चित्त की निर्मलता होती है और क्रमशः मोक्षपद की प्राप्ति भी हो सकती है। प्र० - मन्दिरों में अधिष्ठायक देवों के होते हुए भी मन्दिरों में चोरियें क्यों होती हैं ? Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २२२ उ०- यह तो स्थापना है पर प्रभु वीर के पास एक करोड़ देवता होने पर भी समवसरण में दो साधुओं को गोशाला ने कैसे जला दिया था, भला भवितव्यता भी कोई टाल सकता है ? अपने घर में ही देखो ३५ गुणवाले सूत्र चोर चुराके क्यों ले जाते हैं ? प्र० - कई लोग ऐसी टेरें गाया करते हैं कि - "पाळा क्यों आये मुक्ति जाय के जिनराज प्रभुजी ।" क्या आप इसका समाधान कर सकेंगे ? उ०- -- टेर को समाधान टेर से करना ही न्याययुक्त है । "पाचा इम आया, निन्हव प्रगट्या है श्रारे पांच में । पा० न हम गये न हम आये, घट घट ज्ञान हमारा । जिनके नाम से रोटी मांगे, उनका नाम बिसारा रे पा. । नमोत्थुणं देकर मुझको, पिच्छा मनुष्य बनावे | नय निक्षेप का भेद न जाने, मन माने जिऊ गावे रे० । पा० हम लोग तो मूर्त्तियों को तीर्थंकरों का शास्त्रानुसार स्थापना निक्षेप मान के स्थापित करते हैं, पर ऐसा कहनेवाले खुद ही मोक्ष प्राप्त सिद्धों को वापिस बुलाते हैं। देखिये, वे लोग हर वक्त चौवीस्तव करते हैं तो एक "नमोत्थुणं” अरिहन्तों को और दूसरा सिद्धों को देते हैं। सिद्धों के "नमोत्थुणं" में "पुरिस सिंहाणं, पुरिसवरपुडरीयाणं, पुरिसवरगन्वद्दत्थीणं" इत्यादि कहते हैं। पुरुषों में सिंह और वर गन्धहस्ती समान तो जब ही होते हैं कि वे देहधारी हों । इस "नमोत्थुणं" के पाठ से तो वे लोग सिद्धों को पीछा बुलाते हैं, फिर भी तुर्रा यह कि अपनी Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर अज्ञता का दोष दूसरों पर डालना। सजनों! जरा सत्रों के रहस्य को तो समझो, ऐसे शब्दों से कितनी हँसी और कर्मबन्धन होता है। हमारे सिद्ध मुक्ति पाकर वापिस नहीं आये हैं। पर मोक्ष-प्राप्त सिद्धों की प्रामाणिकता इन मूर्तियों द्वारा बताई गई हैं कि जो सिद्ध मुक्त हो गए हैं उनकी ये मूर्तिएँ हैं। पर मूर्ति नहीं मानने वाले अपने सिद्ध होने का क्या सबूत दे सकते हैं कि वे किस अवस्था में सिद्ध हुए हैं। प्र०--यदि ये मूर्तिएँ अरिहंतों की हैं तो इन पर कच्चा पानी क्यों डालते हो ? ____उ०-अरे भाई ! श्राप इन पूज्य पुरुषों की जन्मादि क्रियाओं की भक्ति सूत्र पढ़ कर बतलाते हो कि अरिहन्तों का जन्म होता है तब इन्द्रादि देव मरु पर लेजाके हजारों कलशों द्वारा प्रभु का स्नात्र करते हैं। वे इन्द्रादि देव सम्यग्दृष्टि, महाविवेकी, तीनज्ञानसंयुक्त, भगवान के परम भक्त और एकावतारी थे इत्यादि तब हम लोग यह सब करके बतलाते हैं इसमें अनुचित क्या है यह दोनों के अभिप्राय रूप रूपान्तर मूर्ति पूजा का ही द्योतक है और पूज्य पुरुषों की पूजा संसार मात्र कर रहा है। प्र०-कई लोग कहते हैं किमुक्ति नहीं मिलसी प्रतिमा पूजियों, क्यों झोड़ मचावो ।। इसका उत्तर आप क्या फरमाते हो ? ___उ०—जैसा प्रश्न वैसा ही उत्तर लीजियेप्रतिमा पूजा बिन मुक्ति नहीं मिले, क्यों कष्ट उठाओ । प्रभु पूजा से दर्शन शुद्धि, दर्शन मोक्ष का धाम ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर बिन दर्शन व्रतों को वेचो, वटे न पुण छदाम रे क्यों। मनुष्य भव में या देवभव में, पूजा करनी पड़सी । यदि नरक में जाना चाहे, वे ही पूजा से वचसीरे क्या० । समझ गये न । क्या और कुछ पूछना है। प्र०-जिन प्रतिमा को पूजकर कोई मुक्ति को गया है ? उ.-सिद्धों में ऐसा कोई जीव हो नहीं है जो बिना जिन प्रतिमा-पूजन के मोक्ष को गया हो, चाहे वे मनुष्य के भव में या चाहे देवताओं के भव में हो परन्तु वे मोक्षार्थ मूर्तिपूजक अवश्य ही है । पर कृपया आप यह बतलावें कि कोई श्रावक दान देकर या शील पालकर मोक्ष गया है ? नहीं। इतना ही क्यों मोक्ष तो तेरहवाँ गुणस्थान वृति संयोग केवली की भी नहीं। वह भी चौदहवें गुणस्थान अयोग केवली होता है तब मोक्ष होती है तब श्रावक तो पाँचवें गुणस्थान में है उस की तो मोक्ष हो ही कैसे । यदि यह कहो कि दानशील मोक्ष का कारण है तो उससे ही पहिले मूर्तिपूजा भी मोक्ष का अवश्य कारण हैं बल्कि मूर्तिपूजा व्रतों के पूर्व समकित की करनी है इसके बिना श्रावक की कोई भी क्रिया किसी हिसाब में नहीं है, समझे न भाई साहिब । __ प्र०-जब तो जो मोक्ष का अभिलाषी (मुमुक्ष ) हो उसे जरूर मत्रि-पूजन करना ही चाहिये ? उ०-इसमें क्या सन्देह है ? क्योंकि आज जो मर्ति नहीं पूजते हैं अथवा नहीं मानते हैं, उन्हें भी यहाँ पर नहीं तो देवताओं में जा कर तो जरूर सर्वप्रथम मर्ति पूजन करना ही पड़ेगा, हो ! यदि मर्ति-द्वेष के पाप के कारण उन्हें नरक या तिर्यग-योनि Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर का नसीब हुआ हो तो भले ही वे थोड़े काल के लिये मूर्त्ति पूजा से बच सकते हैं, अन्यथा मूर्त्ति-पूजन जरूर करना ही होगा प्र० – देवताओं में जाकर मूर्ति-पूजन करना पड़ेगा ही, इसका श्रापके पास क्या प्रमाण है ? उ०- देवताओं का कुल जैन है और वे उत्पन्न होते ही यही विचार करते हैं कि मुझे पहले क्या करना और पीछे क्या करमा और पहले व पीछे क्या करने से हित, सुख कल्याग और मोक्ष का कारण होगा इसके उत्तर में यह ही कहा है कि पहले पीछे मूर्ति का पूजन करना ही मोक्ष का कारण है देखो राजप्रश्नी और जीवाभिगम सूत्र का सूत्र १ पाठ । मूल प्र० - कई मेरे मित्र इस प्रकार कहते हैं ? परचो नहीं पूरे पारसनाथजी सब भूंठी बातें । प० उ०- - उत्तर में यह कहा जा सकता है किपरचो पूरे है पार्श्वनाथजी मुक्ति के दाता । प० बिन परचे किसको नहीं पूजे, यह है लोक व्यवहार ॥ परचो न माने गावे ध्यावे, वे ही असल गँवार हो मुक्ति । प्रत्येक परचो पार्श्वनाथ को, जीव असंख्य तारा ॥ -- श्रद्धा भक्ति इष्ट जिन्हों के, भव भव सुख अपारा हो मु० । यह ठीक है क्योंकि परचा का अर्थ लाभ पहुँचाना है अर्थात मनोकामना सिद्ध करना, जो भव्यात्मा प्रभु पार्श्वनाथ की सेवा, पूजा, भक्ति करते हैं उन्हें पार्श्वनाथजी अवश्य परचा दिया करते हैं, ( उसे लाभ पहुँचाया करते हैं ) उसकी मनोकामना सिद्ध १ सूत्र का मूल पाठ देखो सू० पू० का इ० पृष्ट ६१ (१५) - ३६ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर .२२६ करते हैं, भक्तों की प्रधान मनोकामना मोक्ष की होती है और सब से बढ़ कर लाभ भी यही है, यदि पार्श्वनाथ परचो नहीं देवे तो फिर उनकी माला क्यों फेरते हो ? स्तवन क्यों गाते हो ! तथा लोगस्स में हरवक्त उनका नाम क्यों लेते हो ? अभिलाषा तो लाभ की ही है न ? | प्र० -- सूत्रों में चार निक्षेप बतलाए, जिसमें एक भाव निक्षेप ही वन्दनीय है ! तो स्थापना निक्षेप को वन्दन करने में क्या फायदा है ? १ उ०- यदि ऐसा ही है तो फिर नाम क्यों लेते हो ? अक्षरों में क्यों स्थापना करते हो, अरिहन्त मोक्ष जाने के बाद सिद्ध होते हैं, वे भी तो अरिहन्तों के द्रव्य निक्षेप हैं, उनको नमस्कार क्यों करते हो ? बिचारे भोले लोगों को भ्रम में डालने के लिए ही कहते हो कि एक भाव निक्षेप ही वन्दनीय है, यदि ऐसा ही है तो उपरोक्त तीन निक्षेपों को मानने की क्या जरूरत है, परन्तु करो क्या ? न मानों तो तुम्हारा काम ही न चले, इसोसे लाचार हो तुम्हें मानना ही पड़ता है । शास्त्रों में कहा है कि जिसका भाव निक्षेप वन्दनीय है उसके चारों निक्षेप वन्दनीय है । और जिस का भाव निक्षेप अवन्दनीय है उसके चारों निक्षेप भी अवन्दनीय है । एक श्रानन्द श्रावक का ही उदाहरण लीजिए, उसने अरिहन्तों को तो वन्दनीय माना और अन्यतीर्थियों के वन्दन का त्याग किया। यदि अरिहन्तों का भाव निक्षेप वन्दनीय और तीन निक्षेप वंदनीय है तो अन्यतीथियों का भाव निक्षेप वन्दनीय और शेष तीन निछेप वन्दनीय ठहरते हैं, पर ऐसा नहीं होता, देखिये Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर अरिहन्तों के चार निक्षेप | अन्यतीर्थियों के चार निक्षेप (१) नाम निक्षेप-अरिहन्ता (१) नाम निक्षेप-अन्यतीर्थयों - का नाम वन्दनीय । | का नाम अवन्दनीय । (२) स्थापना-निक्षेप-अरि- (२) स्थापना निक्षेप-अन्य हन्तों की मूर्ति या अरि- तीथियों की मूर्ति अवन्द- हन्त ऐसे अक्षर लिखना नीय । वन्दनीय । (३) द्रव्यनिक्षेप भावअरिहंतों (३) ट्रव्यनिक्षेप-भावनिक्षेप ___ का, भूत, भविष्यकाल के का भूतभविष्यकाल के अरिहन्त वन्दनीय । । अन्यतीर्थी अवंदनीय । (४) भावनिक्षेप-समवसरण (४) भावनिक्षेप--वर्तमान के ____स्थित अरिहन्त वन्दनीय अन्यतीर्थी अवंदनीय । यह सीधा न्याय है कि स्वतीर्थियों के जितने निक्षेप वन्दनीय हैं, उतने ही अन्यतीर्थियों के अवन्दनीय है अर्थात् स्वतीर्थियों के चारों निक्षेप वन्दनीय हैं और अन्यतीर्थियों के चारों निक्षेप अवन्दनीय है। प्र-सात नय में मूर्तिपूजा किस नय में है ? उ-सात नय में सिद्धों को नमोत्थुणं कहते हो वह किस नय में हैं ? प्र-आपही बतलाइये ? उ-मूर्तिपूजा और सिद्धों को नमोत्थुणं दिया जाता है वह नैगम और व्यवहार नय का मत हैं क्योंकि नैगम और व्यवहार नय के मत वाले निक्षेप चार मानते हैं और भी Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू०पू० वि० प्रश्नोत्तर . २२८ नैगमनय के तीन भेद हैं ( १ ) अंश ( २ ) आरोप ( ३ ) विकल्प। दूसरे आरोप, के पुनः तीन भेद हैं भूतकाल में हो गया उसका आरोप भविष्य में होने वालों का भारोप, वर्तमान का आरोप । मूर्ति और सिद्धों को नमोत्थुणं अरिहन्ताणं पुरिस सिंहाणं "तन्नाणं तारियाण" इत्यादि पाठ बोले जाते हैं यह वर्तमान सिद्धों में नहीं है पर भूतकाल का आरोप करके ही कहा जाता है और पद्मनाभादि तीर्थंकर भविष्य में होने वाले हैं उनका स्थानायांगादि जैनागमों में व्याख्यान है वह भविष्य का आरोप है इसी कारण भरत चक्रवर्ती ने अष्टापद पर २३ भावि तीर्थंकरों की मूर्तियें बनाई एवं उदयपुर में पद्मनाभादि भावि तीर्थङ्करों की मूर्तियां विद्यमान हैं प्र०--मूर्ति जड़ है उसको पूजने से क्या लाभ ? उ.-जड़ में इतनी शक्ति है कि चैतन्य को हानि लाम पहुंचा सकता है । चित्र लिखित स्त्री जड़ होने पर भी, चैतन्य का चित्तीचंचल कर देती है। जड़ कम चैतन्य को शुभाऽशुभ फल देते हैं । जड़ भांग, चैतन्य को भान ( होश ) भुला देती है। जड़सूत्र चैतन्य को सद्बोध कराते हैं, जड़मूर्ति चैतन्य के मलीन मन को निर्मल बना देती है। मित्रों ! आजकल का जड़ मैस्मरेज्म और साइन्स कैसे २ चमत्कार दिखा रहे हैं, फिर यहां जड़ के बारे में कोई शंका न करके केवल मूर्ति को ही जड़ मान उप्तसे कुछ लाभ न मानना अपनी जड़ बुद्धि का द्योतक नहीं तोऔर क्या है ? प्र०--पाँच महाव्रत की पच्चीस भावना और श्रावक के ९९ अतिचार बतलाये हैं। पर मूर्ति की भावना या अतिचार को कहीं भी नहीं कहा, इसका कारण क्या है ? Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३० - दर्शन की प्रस्तुत भावना में, शत्रुंजय, गिरनार, अष्टापदादि तीर्थों की यात्रा करना श्राचारांगसूत्र भद्रबाहु स्वामि कृत नियुक्ति में बतलाया है और मूर्ति के अतिचार रूप ८४ श्राशातना चैत्यवन्दन भाष्यादि में बतलाई है, यदि मूर्त्ति पूजा ही इष्ट नहीं होती तो तीर्थयात्रा और ८४ आशातना क्यों बतलाते ? प्रः -- तीन ज्ञान ( मति श्रुति और अवधि ज्ञान ) संयुक्त तीर्थकर गृहवास में थे, उस समय भी किसी व्रतधारी साधु श्रावक ने वन्दन नहीं किया, तो अब जड़ मूर्ति को कैसे वंदन करें ? उ०- तीर्थकर तो जिस दिन से तीर्थकर नाम कर्म बांधा उसी दिन वंदनीय हैं जब तीर्थकर गर्भमें आये थे, तब सम्यक्त्व घारी, तीनज्ञान संयुक्त शक्रेंद्र ने “नमोत्थुणं" देकर वंदन किया। ऋषभदेव भगवान् के शासन के साधु या श्रावक जब चौवीस्तव (लोगस्स ) कहते थे, तब अजितादि २३ द्रव्य तीर्थंकरों को नमस्कार एवं वंदना करते थे, "नमोत्थुणं" के अन्त में पाठ है कि: जे या सिद्धा, जे भविस्संतिणागये काले | संपय वडूमाणा, सव्वे तिविहेण वन्दामि ॥ इसमें कहा गया है कि जो तीर्थकर होराये हैं, और जो होने वाले हैं और जो वर्तमान में विद्यमान हैं, इन सबको मन वचन, काया से नमस्कार करता हूँ। फिर भी आप तेरह पंथियों से तो अच्छे ही हो, क्योंकि तेरह पन्थी तो भगवान को चूकाबतलाते हैं, श्राप अवन्दनोय बतलाते हैं, कदाच आप शास्त्र में इसी खण्ड के पृष्ठ ११० से पाठ देखा Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २३० व्यक्तिगत नामोल्लेख के लिए ही कहते हो तो समझना चाहिये कि भगवान के दीक्षा लेने के बाद भी किसी साधु श्रावक को उन्हें वन्दना करने का उल्लेख नहीं मिलता है तो क्या आप भी भगवान को दीक्षा की अवस्था में अवन्दनीय ही मानते हैं ? क्योंकि आपकी दृष्टि से साधु श्रावक जितना भी गुण उस समय (दीक्षाऽवस्था में) भगवान में न होगा ? मित्रो! अज्ञानता की भी कुछ हद हुआ करती है। - प्र०-मूर्ति वन्दनीय है तो उसमें गुणस्थान कितना पावें । ___ उ० --जितना सिद्धों में पावें, क्योंकि मूर्ति भी तो सिद्धों की है । एवं जीवों के भेद योगादि भी जितने सिद्धों में है उतने ही मूर्ति में समझे। 'प्र०-श्रावक के १२ व्रत हैं, मूर्ति पूजा किस व्रत में है ? उ०-मूर्ति पूजा, मूल सम्यक्त्व में है जिस भूमि पर १२ घ्रत रूपी महल खड़ा है वह भूमि समकित हैं । आप बतलाइये, सम संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा श्रास्ताये १२ व्रतों में से किस व्रत में है, थदि कहो कि १२ ब्रतों में तो नहीं है पर ये तो सम्यक्त्व के लक्षण हैं तो मूर्तिपूजा भी समकित को निर्मल करनेवाली व्रतों की माता है । मूर्तिपूजा का फल यावत् मोक्ष बतलाया है तब व्रतों का फल उत्कृष्ट धारहवां देवलोक (स्वर्ग)ही बताया है और समकित बिना व्रतों की कीमत भी नहीं है । जैनमूर्ति नहीं माननेवाले लोग मांसमदिरादि भक्षक, भैरूं भवानी यक्षादिदेव और पीरपैगम्बर आदि देवों को वन्दन पूजन कर शिर झुकाते हैं, यही उनकी अधिकता है। प्र०-यह तो हमारा संसार खाता है ? Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर उ०- क्या संसार खाता समझ मिथ्यात्व सेवन करने पर कर्म नहीं बंधता है ? अवश्य बंधता है फिर भी मैं पूछता हूँ कि आपको यह किसने समझाया कि संसार खाता में मिथ्यात्व सेवन की भी तुम्हें छूट है हाँ कई मायाचारी व्यापारी इन्कमटेक्स की चारी करने के लिये इस प्रकार दो खाते रखते होंगे । जैसे एक सरकार को दिखाने को दूसरा निज हिसाब को । पर जब इस बात का ज्ञान सरकार को होता है तब उस दो खाते वाले का क्या हाल होता है कभी आपको ही यह हाल तो न होगा जरा ख्याल करिये । प्र० -- पत्थर की गाय की पूजा करने पर क्या वह दूध दे सकती है ? यदि नहीं तो फिर पाषाण की मूर्ति कैसे मोक्ष दे सकती है ? - हां ! जैसे मूर्ति मोक्ष का कारण है वैसे ही पत्थर की गाय भी दूध का कारण हो सकती है, जैसे "किसी मनुष्य ने पत्थर की गाय देखी उससे उसको असली गाय का भान जरूर होगया कि गाय इस शकल की होती है फिर वह एक समय जंगल में भूखा प्यासा भटक रहा था और उसने जंगल में एक चरती हुई गाय देखी, वह फट उस पूर्व दृष्ट ज्ञान से उसका दूध निकाल अपनी भूख प्यास को बुझा सकता है, क्यों यह पत्थर की गाय का प्रभाव नहीं है ? | मित्रो आखिर तो नकली से ही असली का ज्ञान होता है जैसे छठे गुणस्थान प्रमादावस्था नकली साधु है पर आगे चलकर वह ही तेरहवें गुणस्थान पहुँच सकता है । प्र०- - क्या पत्थर का सिंह प्राणियों को मार सकता है उ०- हाँ पत्थर का सिंह भी मार सकता है ? | इतना ही 111 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोरार २३२ नहीं पर पत्थर का सिंह देखने वाला अपनी जान भी बचा सकता है। यों समझिये कि यदि किसी ने पत्थर के सिंह से वास्तविक सिंह का ज्ञान प्राप्त किया हो और वह फिर जंगल में चला जाय और वहाँ उसे असली सिंह मिल जाय तो वह शीघ्र वृक्षादि पर चढ़ अपने प्राण बचा सकता है, अन्यथा नहीं बचा सकता । देखा पत्थर का प्रभाव ? । इस पत्थर उपासना से श्राप भी तो नहीं बचे हैं देखिये आपके साधु हर्षचंदजी की गीरीग्राम में पाषाणमय मूर्ति और ताराचंदजी की सादड़ी में पाषाणमय मूर्ति हैं वे क्यों बनाई गई हैं कारण तो यही होगा कि वे आपके उपकारी हैं उनकी मूर्तियों के दर्शन और पूजाभक्ति से आपका हृदय निर्मल और कृतज्ञ बनता होगा या कोई अन्य कारण हैं यदि पूर्वोक्त कारण ही है तो उनसे भी महान् उपकारी तीर्थंकरों की मूर्तियों मानने पूजने में आपको शर्म या लज्जा क्यों आती है ? प्र-एक विधवा औरत अपने मृत पति का फोटू पास में रखके प्रार्थना करे कि स्वामिन् ! मुझे सहवास का अानन्द दो तो क्या फोटू आनन्द दे सकता है ? ____उ०-इसका उत्तर जरा विचारणीय है, जैसे विधवा अपने मृत पति का फोटू अपने पास रख उससे भौतिक आनन्द की आकांक्षा रखती है परन्तु उसे कोई आनन्द नहीं मिलता, कारण भौतिक आनन्द देने में भौतिक देह के अस्तित्व की आवश्यकता है और वह देह इस समय है नहीं । उसका अधिष्ठाता उसका प्राणवायु और वह शरीर इस समय है नहीं फिर उसे आनन्द कहाँ से मिले ? अस्तु ! आपका तो मूर्ति से द्वेष मालूम होता है इसी से Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर आप ऐसा प्रश्न करते हैं नहीं तो माला तो आप भी हमेशा फेरते हो और उससे आत्म-कल्याण की भावना रखते हो, ऐसे विधवा भी यदि हाथ में माला ले अपने पति के नाम को रटे तो क्या उस स्मरण मात्र से उसका पति उस विधवा की इच्छाएँ पूर्ण कर सकता है ? कदापि नहीं | तब माला लेना और फेरना भी व्यर्थ हुआ । सज्जनों नाम लेने में तो एक नाम निक्षेप ही है पर मूर्ति में नाम और स्थापन दोनों निक्षेप विद्यमान हैं, इसलिये नाम रटने की अपेक्षा मूर्ति की उपासना अधिक फलदायक है, क्योंकि मूर्ति में स्थापना के साथ नाम भी आ जाता है । जैसे आप किसी को यूरोप की भौगोलिक स्थिति मुँहजबानी समझाते हैं परन्तु समझाने वाले के हृदय में उस वक्त यूरोप का हूबहू चित्र चित्त में नहीं खिंच सकेगा जैसा कि आप यूरोप का लिखित मानचित्र (नशा) उसके सामने रख उसे यूरोप की भौगोलिक स्थिति का परिचय करा सकेंगे । इससे सिद्ध होता है कि केवल नाम के रटने से मूर्ति को देख कर ही नाम का रटना विशेष लाभदायक है । - जब आप मूर्ति को पूजते हो तब मूर्ति के बनाने वाले को क्यों नहीं पूजते ? प्र० " उ०- आप अपने पूज्यजी को वन्दना करते हो, परन्तु उसके गृहस्थावस्था के माता पिता जिन्होंने उनका शरीर गढ़ा है वन्दना क्यों नहीं करते हों ? पूज्यजी से तो उनको पैदा करने वाले आपके मतानुसार अधिक ही होंगे। क्यों ठोक है न । प्र० - मूर्ति सिलावट के यहां रहती है तब तक आप उसे नहीं पूजते और मन्दिर में प्रतिष्ठित होने के बाद उसे पूजते हो इसका क्या हेतु है ? Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोचर उ०-आप वैरागी को दीक्षा देते हैं दीक्षा लेने के पूर्व तो उसे कोई वन्दना नहीं करता और दीक्षा लेने के बाद उसी वक्त वन्दना करने लग जाते हो तो क्या दीक्षा आकाश में घूमती थी, जो एकदम वैरागी के शरीर में घुस गई कि वह वन्दनीक बन गया ? प्र०-उनको ( वैरागी को ) तो सामायिक का पाठ सुनाया जाता है इससे वे वन्दनीय हो जाते हैं। उ०-इसी तरह मूर्ति की भी मंत्रों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा को जाती है जिससे वह भी वन्दनीय हो जाती है । प्र-सिलावट के घर पर रही, नई मूर्ति की आप आशातना नहीं टालते और मन्दिर में आने पर उसकी आशातना टालते हो इसका क्या कारण है ? ___उ०-गृहस्थों के मकान पर जो लकड़ा का पाट पड़ा रहता है उस पर श्राप भोजन करते हैं, बैठते हैं, एवं अवसर पर जूता भी रख देते हैं परन्तु जब वही पाट साधु अपने सोने के लिए ले गए हों तो श्राप उसकी आशानता टालते हो। यदि अनुपयोग आशातना हो भी गई हो, तो प्रायश्चित लेते हो। इसका क्या रहस्य है ? । जो कारण तुम्हारे यहाँ है वह हमारे भी समझ लीजिए। मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा होने से उसमें दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होता है। प्र-पाषाण मूर्ति तो एकेन्द्रिय होती है उसकी, पाँचेन्द्रिय मनुष्य पूजन कर के क्या लाभ उठा सकते हैं ? ___ उ०-ऐसा कोई मनुष्य नहीं है कि वह पत्थर की उपासना करता हो कि हे पाषाण ! मुझे संसार सागर से पार लगाइए, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर किन्तु वे तो मूर्ति में प्रभुगुण अारोपण कर एकाप्रचित्त से उसी प्रभु की उपासना व प्रार्थना करते हैं। "नमोत्थुणं" कहकर परमात्मा के गुणों का स्मरण करते हैं। पर सूत्रों के पृष्ट भी जड़ हैं, आप उन जड़ पदार्थ से क्या ज्ञान हासिल कर सकते हैं ? । यदि कर सकते हैं तो यह भी स्वतः समझ लीजिए। . प्र०-मन्दिर तो बारहवर्षी दुष्काल में बने हैं, अतएव यह प्रवृत्ति नई है । उ०-बारहवर्षी दुष्काल कब पड़ा था आपको यह मालूम है ? प्र०-सुना जाता है कि आज से १००० वर्ष पहले बारहवर्षी काल पड़ा था। ___उ०-सुना हुआ ही कहते हो या स्वयं शोध खोज करके कहते हो । महरवान ! ज़रा सुनें और सोचें, देखिये पहला बारह वर्षी काल चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु स्वामी के समय पड़ा था, जिसे आज २३०० वर्ष के करीब होते हैं। और दूसरा बारहवर्षी काल दशपूर्वधर वनस्वामी के समय में पड़ा, इसे करीब १९०० वर्ष होते हैं। आपके मताऽनुसार बारहवर्षी दुकाल में ही मन्दिर बने यह मान लिया जाय तो पूर्वधर श्रुत केवलियों के शासन में मन्दिर बने और उसका अनुकरण २३०० वर्षों तक धर्मधुरंधर आचार्यों ने किया और करते हैं तो फिर लौंकाशाह को कितना ज्ञान था कि, उन्होंने मंदिर का खण्डन किया और उन्होंने पूर्व प्राचार्यों का अपमान किया। मित्रों मंदिरों की प्राचीनता सूत्रों में तो हैं ही। पर आज विद्वान लोग इतिहास के अन्वेषण से मन्दिरों के अस्तित्व को प्रभु महावीर के समय विद्यमान होना Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू. पू. वि. प्रश्नोत्तर २३६ बताते है । देखिये (१) उड़ीसा प्रांत की हस्तीगुफा का शिलालेख जिसमे महामेघवाहन, चक्रवर्ती, राजा खारबेल, जिसने "अपने पूर्वजों के समय मगध के रोजा नंद, भगवान् ऋषभदेव की जो मूर्ति ले गए थे उसे वापिस ला आचार्यसुस्थीसूरि से प्रतिष्ठा कराई। यह मूर्ति राजा श्रीणिक ने बनाई थी। (२) विशाला नगरी की खुदाई से जो मूर्तियों के खण्डहर निकले हैं, उन्हें शिल्पशास्त्रियों ने २२०० वर्ष के प्राचीन स्वीकार किये हैं। और (३) मथुरा के कंकाली टोला को अंग्रेजों ने खुदवाया, उसमें जैन बौद्ध और हिंदू मंदिर भर्तियों के प्रचुरता से भग्नाऽवशेष प्राप्त हुए हैं, उनपर शिलाक्षरन्यास भी अंकित हैं, जिनका समय विक्रम पूर्व दो तीन शताब्दी का है । आबू के पास मुण्डस्थल नामका तीर्थ है वहाँ का शिलालेख प्रगट करता है कि वहां महावीर अपने छदमस्थपने के सातवें वर्ष पधारे थे उसी समय वहाँ पर राजा नन्दीवर्धन ने मंदिर बनाया (५) कच्छ भद्रेश्वर में वीरात् २३ वर्ष वाद का मंदिर है जिसका जीर्णोद्वार दानवीर जगडुशाह ने करायो । (६) ओशियों और कोरण्टा के मंदिर वीरात् ७० वर्ष बाद के हैं जो आज भी विद्यमान हैं। क्या इस ऐतिहासिक युग में कोई व्यक्ति यह कह सकता है कि मंदिर बनाने की प्रारंभिकता को केवल १००० वर्ष ही हुए हैं ? कदापि नहीं। यदि आपको इनसे भी विशेष प्रमाण देखने की इच्छा हो तो, देखो मेरी लिखी "मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक । प्र---यह भी सुना जाता है कि मंदिर मार्गियों ने मंदिरों में विस्तार देखो प्रकरण पांचवाँ । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर धामधूम, और प्रारंभ बहुत बढा दिया, इस हालत में हम लोगों ने मंदिरों को बिलकुल छोड़ दिया ? ____उ०-शिर पर यदि बाल बढ़ जाय तो क्या बालों के बदले शिर को ही उड़ा देना योग्य है ? यदि नहीं तो फिर मन्दिरों में श्रारम्भ बढ़ गया तो आरम्भ और धाम-धूम नहीं करने का उपदेश देना था, पर मन्दिर मूर्तियों का ही इनके बदले निषेध करना तो बालों के बदले शिर काटना ही है फिर भी जब शीतकाल आता है तब सभी जन विशेष वस्त्र धारण करते हैं । इस प्रकार जब आडम्बर का काल आया तब धामधूम (विशेष भक्ति ) बढ़ गई तो क्या बुरा हुआ ? और यह अनुचित हो था तो इसे उपदेशों द्वारा दूर करना था नकि मन्दिरों को छोड़ना । धामधूम का जमाने ने केवल मन्दिरों पर ही नहीं परन्तु सब वस्तु पर समान भाव से प्रभाव डाला है। आप स्वयं सोचें कि प्रारम्भसे डरने वाले लोगों के पूज्यजी आदि स्वयं बड़े बड़े शहरों में चतुर्मास करते हैं, तो उनके दर्शनार्थी हजारों भावुक आते हैं। उनके लिये 'चन्दा कर चाका खोला जाता है । रसोईये प्राय: विधर्मी ही होते हैं, नीलण, फूलण और कीड़ों वाले छांणे ( कण्डे) और लकड़ियें जलाते हैं। पयूषणों में खास धर्माऽऽराधन के दिनों में बड़ी २ भट्टियें जलाई जाती हैं । दो दो तीन तीन मण चावल पकाते हैं । जिनका गरमा गरम (अत्युषण ) जल भूमि पर डाला जाता है जिससे असंख्य प्राणी मरते हैं, बताइये क्या आपका यही परम पु त अहिंसा धर्म है ? हमारे यहां मन्दिरों में तो एकाध कलश ठंडा जल, और एकाध धूपबत्ती काम में ली जाती हैं उसे प्रारम्भ २ के नाम से पुकारते हो और घर को पता ही नहीं । यह अनूठा न्याय आप ___ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २३८ को किसने सिखाया ? साधु हमेशा गुप्त तप और पारणा करते हैं पर आज तो हिंसा के पैगम्बर तपस्या के प्रारम्भ में ही पत्रों द्वारा जाहिर करते हैं कि अमुक स्वामीजी ने इतने उपवास किये अमुक दिन पारणा होगा इस सुअवसर पर सकुटुम्ब पधार कर - शासन शोभा बढ़ावें । इस पारणा पर सैंकड़ों हजारों भावुक एकत्र हो बड़ा आरंभसारंभ कर स्वामीजोका माल लूट जाते हैं। इसका नाम धामधूम है या भक्ति की ओट में आरम्भ है ? ऐसे अनेक कार्य हैं कि जिनमें मूर्तिपूजकों से कई गुणा धामधूम और रंभ होता है जरा आंख उठा के देखो आप पर भी जमाने ने कैसा प्रभाव डाला है ? प्र० - इसको तो हम संसारखाता समझते हैं ? उ०- क्या दर्शनार्थी लोग वारात या मुकाण सर ( मरशान्ते, समवेदना सुचक मिलन) पर आए हैं कि जिसे श्राप संसार खाता बतलाते हैं । हम तो श्रापसे यह पूछते हैं कि यदि पूज्यजी का चतुर्मास न होता तो यह आरंभ होता या नहीं ? यदि नहीं होता तो अब इसमें पूज्यजी निमित्त कारण हुए या नहीं ? आप अपने स्वधर्मी भाइयों का स्वागत करते हो, इसमें पुण्य मानते हो या पाप ? | यदि पाप मानते हो तो इसका पश्चात्ताप कर कहना चाहिये कि आज हम पाप में डूब गये, फिर तो तेरहपन्थी और आपकी श्रद्धा में कोई भेद ही नहीं है और पुण्य समझते हो तो मन्दिरों की सेवा पूजा और आपके इस कृत्य में कोई फरक नहीं है । फिर गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज रखना यह आपकी कोरी प्रवश्वना ( माया- कपटता) नहीं तो और क्या है ? | हमने नो यह चतुर्मास का जिक्र किया है, यह तो मात्र एक उदाहरण Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ म० पू० वि० प्रश्नीत्तर है नहीं तो आडम्बर, श्रारम्भ, और धामधूम से आप भी बिल्कुल बेदाग नहीं बच सके हो किन्तु उससे सराबोर ही हो । देखिये जिस स्वामिवात्सल्य और प्रभावना की आपके समाज में एक दिन तीब्र निन्दा की जाती थी; उनको आज प्रोत्साहित करते हो; और जिन मन्दिर मतियों के बनाने में पाप समझते होआज श्राप भी वे आलीशान स्थानक, और पौषधशाला बनाने में, साधुओं के फोटू उतारने में पुस्तक छपवाने में श्रारंभ के होते हुए भी पुण्य एवं सत्कार्य समझने लगे हो। और पूर्वोक्त कार्यों में द्रव्य देने वालों को लंबे चौड़े विशेषणों से भाग्यशाली और पुण्योपार्जन करने वाले कहते हो जिन्हें कि ( सुकृत कार्य में द्रव्य व्यय करने वालों को) तुम स्वयं पाप कार्य कहते थे, जैसे कि आज तेरह पन्थी बता रहे हैं परन्तु सज्जनों इस आडम्बर से तेरहपन्थी भी नहीं बच सके हैं, इनके पूज्यजी के चातुर्मास में कितना प्रारंभ होता है यह सब जानते हैं । माघ शुक्ल ७ को जहां कहीं पूज्यजी होते हैं वहाँ हजारों आदमी आते हैं । प्रारंभ करते हैं हजारों रुपये रेलवे किराया के देते हैं । उन पैसों से पञ्चेन्द्रिय जीवों तक की हिंसा होती है । क्या स्वामी भीषमजी ने किसी भक्त को नियम दिलाया था कि, साल में एक बार पूज्यजी का दर्शन अवश्य करना ? जो तेरहपन्थी श्राज कर रहे हैं । अभी संवाद मिला है कि गंगापुर में तेरहपन्थी पूज्य कालूरामजी का देहान्त हुआ उस समय हजारों रुपये खर्च किए इतना ही क्यों पर उस पूज्यजी के मृत शरीर (यानी मिट्टी) की सोना चांदी के फूलों से पूजा की और उनके दाह स्थान पर चौतरा बनाया क्या यह मूर्तिपूजा का रूपान्तर नहीं है । ? तेरहपन्थी लोग अपने स्वधर्मी भाइयों को Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २४० भोजन करवाने में महा पाप समझते हैं क्योंकि वह भोजन करने के बाद प्रारंभादि करेगा यह सब पाप भोजन करानेवाले को लग जाता है जब पूज्यजी के मृत शरीर के ऊपर हजारों रुपयों की उछाल की वे कई अनार्य व मुसलमानों के हाथ आये वे बकरा मारेंगे, उनका पाप पूज्यजी को ही लगेगा या उछाल करने वालों कों। फिर भी इस आरम्भ और महापाप के कार्य में भी अपने धर्म की उन्नति समझना क्या बतलाता है इसको जरा सोचें समझें । कहने का तात्पर्य यह है कि आरम्भ आडम्बर तो समयाऽनुसार आज सर्वत्र बढ़ रहा है फिर मन्दिर मूर्तियों पर ही कटाक्ष क्यों ? पहिले घर की आग बुझा लो बाद में दूसरों की बुझाना उचित है । मन्दिरों में तो सेवा, पूजा, भक्ति, वरघोड़ा आदि सदैव से होते ही आए हैं। पर मन्दिर नहीं मानने वाले और रूखी दया दया की पुकार करनेवालों में मन्दिरों से भी कई गुणा विशेष आरंभ आडम्बर बढ़ गया है, और न जाने भविष्य में फिर कितना बढ़ेगा, क्या यह जमाने का प्रभाव नहीं है ? प्र० - यह तो ठीक परन्तु यदि लौंकाशाह का कहना सत्य नहीं होता तो उसका " मत" कैसे चल गया ? | उ०- भद्रिक जनता में मत का चल पड़ना कौन बड़ी बात है । केवल मत चल जाने से ही उनकी सत्यता नहीं समझी जा सकती। क्योंकि यदि मत चलनेका प्रमाण सत्यता ही है तो दया, दान की जड़ काटने वाले तेरह पंथियों को भी सच्चा मान लो कारण मत तो उनका भी चल गया । हिन्दू धर्म में आज ७०० मत ( पन्थ) हैं, जिसमें एक कुण्डापन्थियों का भी मत है क्या यह Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर I भी सच्चा है ? क्या मत चलने से ही उनकी सत्यता जानी जाती है ? कदापि नहीं । जितने अलग अलग मत निकले हैं इनमें अधिकांश अज्ञानियों के ही निकाले हुए हैं न कि विद्वानों के । क्योंकि विद्वान् कभी अलग मत नहीं निकालते । जब हम लाशाह की ओर देखते हैं तो पता चलता है कि लौकाशाह न तो विद्वान् थे और न उनमें इतनी योग्यता ही थी । आज पर्यन्त भी लोकाशाह का कोई भी ग्रन्थ, ढाल, चौपाई, स्तवन, या मूर्त्तिखण्डन विषयक साहित्य ढूंढने से भी उपलब्ध नहीं हुआ है । कई एक लोग कहा करते हैं कि लौंकाशाह ने सूत्रों की दो दो प्रतिएं लिख कर, एक एक यतिजी को दी, और एक एक अपने पास रक्खी। इस प्रकार बत्तीस सूत्र लिखे, और इन्हीं सूत्रों से यह मत चलाया, पर इसमें कोई प्रमाण नहीं मिलता, कारण हजारों वर्ष के पुराणे ग्रन्थ मिलते हैं, तब लौकाशाह को तो केवल ४५० वर्ष ही बीते हैं। उन्होंने ३२ सूत्र यतिजी को दिए और ३२ अपने पास रक्खे, परन्तु उसमें का आज एक पन्ना भी प्राप्त नहीं होता। तो केवल इसे कल्पना के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? लौकाशाह ने यदि कारण विशेष से अपमानित हो, नया मत निकाला भी परन्तु उसकी नींव बहुत कमजोर थी, जिससे उसके १०० वर्ष के बाद ही पूज्य मेघजी स्वामी ने ५०० पाँचसौ साधुओं के साथ जगत्पूज्य आचार्य हीरविजयसूरि के चरणों में आकर जैन-दीक्षा स्वीकार की, बाद में लौंकों के श्रीपूज्य या साधु भी अपने उपाश्रयों में मूर्त्तियों की स्थापना कर सेवा, भक्ति, एवं पूजा करने लग गए, वह पद्धति श्राज तक भी चालू है। जोधपुर, बीकानेर, ( १६ ) – ३७ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २४२ फलोदी आदि स्थानों में जहां लौंकों के उपाश्रय हैं, वहां मूर्तिएं अवश्य हैं । बाद विक्रम सम्वत् १७०८ में लौका के यति लवजी ने, मुंहपर दिन भर मुंहपत्ता बांध कर दढिया पन्थ चलाया, जिसे आज हम स्थानकवासो कहते हैं, पर इसके अन्दर से भी सैकड़ों साधु सूत्रों का संशोधन कर, असत्य को त्याग कर संवेग दीक्षा ले मूर्ति के उपासक बने, जिनमें स्वामी बटेरायजी, आत्मारामजी, मूलचन्दजी, वृद्धिचन्द्रजी, श्रादि विशेष प्रख्यात हैं। भान भी कई लिखे पढ़े स्थानकवासी साधु यद्यपि अपने मत को तो नहीं छोड़ सकते पर मूर्ति के विषय में तटस्थ भाव रखते हैं, और जमाने को लक्ष्य में रख, (संवेगी तथा स्थानकवासी) एक पाट पर बैठ व्याख्यान देते हैं । इस हालत में भी स्वच्छन्द, अल्पज्ञ और निरंकुशों की समाज में कमी नहीं जो मौके बेमौके खण्डनाऽऽत्मक साहित्य प्रकट कर शान्त समाज में फूट को गरल (विष ) वमन कर बैठते हैं, और शांत समाज में क्लेश फैलाते हैं, इतना ही नहीं पर देखा जाय तो जैन जाति को पतन के गर्त में गिराने का भी श्रेय इन्हीं को ही है । प्र०-कई लोग जब खण्डन करते हैं तब दूसरे उसका मण्डन करते हैं, यों तो दोनों समान ही हुए ? ___ उ.-जो लोग खण्डन करते हैं उनमें न तो शास्त्रीय प्रमाण हैं और न इतिहास के प्रमाण हैं, केवल मनगढन्त कुयुक्तियाँ लगाकर भद्रिक लोगोंको भ्रम में डाले, उसे सद्धर्म से पतित बनाते हैं, ऐसी दशा में हमारा कर्तव्य है कि हम शास्त्र, इतिहास, एवं युक्ति द्वारा सत्य वस्तुका दिग्दर्शन करवाके, पतनोन्मुखी भद्र जनता को गर्त में गिरने से बचावें। आप ही सोचिये जब खण्डन Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर होता है तभी उसके मण्डन की जरूरत रहती है फिर दोनों समान कैसे हैं ? - प्र. यदि मन्दिर, मूर्ति, शास्त्र एवं इतिहास प्रमाणों से सिद्ध है तो फिर स्थानकवासी खण्डन क्यों करते हैं ? क्या इतने बड़े समुदाय में कोई आत्मार्थी नहीं है कि जो उत्सूत्र भाषण कर वज्रपाप का भागी बनता है ? उ०-यह निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता है कि किसी समुदाय में आत्मार्थी है या नहीं। पर इस सवाल का उत्तर आपही दीजिये कि दया दान में धर्म व पुण्य, शास्त्र, इतिहास और प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध हैं पर तेरहपन्थी लोग इसमें पाप होने की प्ररूपणा करते हैं क्या इतने समुदाय में कोई भी आत्मार्थी नहीं है कि खुले मैदान में उत्सूत्र प्ररूपते हैं जैसे आप तेरहपन्थियों को समझते हैं वैसे ही हम आपको समझते हैं आपने मूर्ति नहीं मानी, तेरहपन्थियों ने दया दान नहीं माना, पर उत्सूत्र रूपी पापके भागी दोनों समान ही हैं और स्थानकवासी एवं तेरह पन्थियोंमें जो आत्मार्थी हैं वे शास्त्रोंद्वारा सत्य धर्म की शोध करके असत्यका त्यागकर सत्यको स्वीकार कर ही लेते हैं ऐसे अनेक उदाहरण विद्यमान हैं कि स्थानकवासी तेरहपन्थी सैकड़ों साधु संवेग दीक्षा धारणकर मूर्ति उपासक बन गये और बनते जा रहे हैं। - प्र.-स्थानकवासी और तेरहपन्थियों को आपने समान कैसे कह दिया कारण तेरहपन्थियोंका मत तो निर्दय एवं निकृष्ट है कि वे जीव बचाने में या उनके साधुओंके सिवाय किसीको Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २४४ भी दान देने में पाप बतलाते हैं इनका मत तो वि० सं० १८१५ में भीखमजी स्वामी ने निकाला है। उ०-जैसे तेरहपन्थियों ने दया-दानमें पाप बतलाया वैसे स्थानकवासियों ने शास्त्रोक्तमूर्तिपूजाहोने पर भी उसकी पूजा में पाप बतलाया जैसे, तेरहपन्थी समाजको वि० संवत् १८१५ में भीखमजी ने निकाला वैसे ही स्थानकवासी मत को भी वि० संवत् १७०८ में लवजीस्वामीने निकाला। बतलाइये उत्सूत्र प्ररूपणा में स्थानकवासी और तेरहपन्थियों में क्या असमानता है ? हाँ ! वर्तमान में दया-दान के विषय में हम और आप ( स्थानकवासी) एक ही हैं। प्र-जब आप मूर्तिपूजा अनादि बतलातेहो तब दूसरे लोग उनका खण्डन क्यों करते हैं ? ।। ____उ०-जो विद्वान् शास्त्रज्ञ हैं वे न तो मूर्ति का खण्डन करते थे और न करते हैं । बल्कि जिनमूर्तिपूजक आचार्यों ने बहुत से राजा, महाराजावक्षत्रियादि अजैनों को जैन-ओसवालादि बनाये, उनका महान उपकार समझते हैं और जो अल्पज्ञ या जैनशास्त्रों के अज्ञाता हैं वे अपनी नामवरी के लिए या भद्रिक जनता को अपने जाल में फँसाए रखने को यदि मूर्ति का खण्डन करते हैं तो उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है ? कुछ नहीं। उनके कहने मात्र से मूर्ति माननेवालों पर तो क्या पर नहीं मानने वालों पर भी असर नहीं होता है । वे अपने ग्राम के सिवाय बाहर तीर्थों पर जाते हैं वहाँ निःशंक सेवा पूजा करते हैं और उनको बड़ा भारी आनन्द भी आता है। फिर भी उन लोगों के खण्डन से हमको कोई नुकसान नहीं, पर एक किस्म से लाभ ही हुआ है Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ज्यों ज्यों वे कुयुक्तियों और असभ्यता पूर्वक हलके शब्दों में मूर्ति की निन्दा करते हैं त्यों त्यों मूर्तिपूजकों की मूर्ति पर श्रद्धा दृढ़ एवं मजबूत होती जा रही है। इतना ही नहीं पर किसी जमाने में सदुपदेश के अभाव से भद्रिक लोग मूर्तिपूजा से दूर रहते थे वे भी अब समझबूझ कर मूर्ति उपासक बन रहे हैं जैसे-आचार्य विजयानन्दसूरि ( आत्मारामजी ) का जोधपुर में चतुर्मास हुआ उस समय मूर्तिपूजक केवल १०० घर ही थे पर आज ६००७०० घर मूर्तिपूजकों के विद्यमान हैं । इसी प्रकार तीवरी गाँव में एक घर था आज ५७ घर हैं, पीपाड़ में नाम मात्र के मूर्तिपूजक समझे जाते थे आज बराबर का समुदाय बन गया, बीलाड़ा में एक घर था आज ४० घर हैं, खरिया में सवेगी साधुओं को पाव पानी भी नहीं मिलता था आज बराबरी का समुदाय दृष्टिगोचर हो रहा है इसी भांति जैतारण का भी वर्तमान हैं। रूण में एक भी घर नहीं था आज सबका सब ग्राम मूर्तिपूजक है, खजवाना में एक घर था आज ५० घरों में २५ घर मूर्तिपूजने वाले हैं कुचेरा में ६० घर हैं। बड़े-बड़े शहर तथा नगरों में तो और भी विशेष जागृति हुई है और मेवाड़ मालवादि में भी छोटे-बड़े प्रामों में मन्दिर मूर्तियों की सेवा-पूजा करने वाले सर्वत्र पाये जाते हैं जहां मन्दिर नहीं थे वहाँ मन्दिर बन गये, जहाँ मन्दिर जीर्ण होगये थे वहाँ उनका जीर्णोद्धार हो गया। जो लोग जैन सामायिक प्रतिक्रमणादि विधि से सर्वथा अज्ञात थे वे भी अपनी विधि विधान से सब क्रिया करने में तत्पर हैं। मेहरबानों यह आपकी खण्डन प्रवृत्ति से ही जागृति हुई है। श्रात्म-बन्धुओं ! जमाना बुद्धिवाद का है जनता स्वयं अनु ___ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर भव से समझने लग गई कि हमारे पूर्वजों के बने बनाये मन्दिर हमारे कल्याण के कारण हैं वहाँ जाने पर परमेश्वर का नाम याद आता है । ध्यान-स्थित शान्त मूर्ति देख प्रभु का स्मरण हो आता है जिससे हमारी चित्त-वृत्ति निर्मल होती हैं वहाँ कुछ द्रव्य चढ़ाने से पुण्य बढ़ता है पुण्य से सर्व प्रकार से सुखी हो सुखपूर्वक मोक्षमार्ग साध सकते हैं ! अब तो लोग अपने पैरों पर खड़े हैं । कई अज्ञ साधु अपने व्याख्यान में जैनमंदिर मूर्तियों के खण्डन विषयक तथा मंन्दिर न जाने का उपदेश करते हैं तो समझदार गृहस्थ लोग कह उठते हैं कि महाराज पहिले भैरूं भवानी पीर पैगम्बर कि जहाँ मांस मदिरादि का बलिदान होता है त्याग करवाइये । आपको झुक-मुक के वन्दन करनेवालियों के गले में रहे मिथ्यात्वी देवों के फूलों को छुड़वाइये । चौरी, व्यभिचार, विश्वासघात, धोखाबाजी आदि जो महान् कम बन्ध के हेतु हैं इनको छुड़वाइये । क्या पूर्वोक्त अनर्थ के मूल कार्यों से भी जैन मन्दिर में जाकर नवकार व नमोत्थुणं देने में अधिक पाप है कि आप पूर्वोक्त अधर्म कार्यों की उपेक्षा कर जैन मन्दिर मूर्तियाँ एवं तीर्थ यात्रा का त्याग करवाते हो। महात्मन् ! जैनमन्दिर मूर्तियों की सेवा भक्ति छोड़ने से ही हम लोग अन्य देवी देवताओं को मानना व पूजना सीखे हैं । वरन् नहीं तो गुजरातादि के जैन लोग सिवाय जैन मंदिरों के कहीं भी नहीं जाते हैं। उपदेशकों से आज कई असों से मंदिर नहीं मानने का उपदेश मिलता है पर हमारे पर इस उपदेश का थोड़ा ही असर नहीं होता है कारण हम जैन हैं हमारा जैनमंदिरों बिना काम नहीं चलता है। जैसे-जन्मे तो मन्दिर, व्याहें तो मंदिर, मरें तो मन्दिर, अट्ठाई Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर आदि तप करें तो मन्दिर, आपद् समय अधिष्ठायक देव को प्रसन्न करें तो मंदिर, संघ पूजा करें तो मंदिर, संघ पूजा देवें तो मंदिर, दीपमालकादि पर्व दिनों में मंदिर, पर्दूषणों में मंदिर तीर्थ यात्रा में मन्दिर, इत्यादि मन्दिर बिना हमारा काम नहीं चलता है । भला वैष्णवों के रेवाड़ी, मुसलमानों के ताजिया, तो क्या जैनों के कुछ नहीं है । जैनियों के पूर्वज इतने कमजोर थे कि दुनियां की धर्म धोड़ से वे पीछे हैं ? नहीं जब इतिहास देखते हैं तो यह स्पष्ट पाया जाता है कि उन लोगों ने खास कर जैनियों का ही अनुकरण किया है शास्त्रीय प्रमाण से देखा जाय तो सम्राट् कोणिक और दर्शनभद्र ने भगवान वन्दन के समय वरघोड़ा चढ़ाया था वह ठाठ मानों एक इन्द्र की सवारी ही थी। इस हालत में जैनियों के खासाजी (वरघोड़ा) होना अनुचित है ? नहीं किन्तु अवश्य होना ही चाहिये । यदि जैनों के वरघोड़ा न हो तो बतलाइये हम और हमारे बाल-बच्चे किस महोत्सव में जावें ? । महाराज ! जिन लोगों ने जैनों को जैनमन्दिर छुड़वाया है उन्होंने इतना मिथ्यात्व बढ़ाया है कि आज जैनियों के घरों में जितने व्रत वरतोलिये होते हैं वे सब मिथ्यात्वियों के ही हैं। हिन्दू देवी देवता को तो क्या ? पर मुसलमानों के पीर पैगम्बर और मसजिदादि की मान्यता पूजन से भी जैन बच नहीं सके हैं, क्या यह दुख की बात नहीं है ? क्या यह आपकी कृपा (?) का ही फल नहीं है ? । जहाँ संगठन और एकता का आन्दोलन होरहा हो वहां आप हमको किस कोटि में रखना चाहते हैं ? ...प्र०-भला ! मूर्ति नहीं मानने वाले तो अन्य देवी देवतामों Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २४८ के यहां जाते हैं पर मूत्ति मानने वाले क्यों जाते हैं । ___उ०-जैन लोग जैन देवी देवताओं के सिवाय किसी अन्य देव देवियों की मान्यता व पूजा नहीं करते थे विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी तक मारवाड़ के तमाम जैनों का एक ही मूर्ति मानने का यम था वहीं तक जैन अपनी प्रतिज्ञा पर भडिग थे बाद मूर्ति मानने नहीं मानने का भेद पड़ा। कई अज्ञ लोगों ने जैन मंदिरों को छोड़ा उस हालत में वे अन्य देव देवियों को जाकर शिर झुकाने लगे। और दोनों के जाति-व्यवहार एक (शामिल) होने से मूर्ति मानने वालों की लड़कियों मूर्ति नहीं मानने वालों को ब्याही और मूर्ति नहीं मानने वालों की बेटियों, मूर्ति मानने वालों को दी। इस हालत में जैनियों के घरों में आई हुई स्थानकवासियों की बेटियों अपने पीहर के संस्कारों के कारण अन्य देव देवियों को मानने लगी इससे यह प्रवृत्ति उभयपक्ष में चल पड़ी तथापि जो पक्के जैन हैं वे तो आज भी अपनी प्रतिज्ञा पर डटे हुये हैं जो अपवाद हैं वह भी स्थानकवासियों की प्रवृत्ति का ही फल है तेरहपंथी तो इनसे भी नीचे गिरे हुए हैं। ___ प्र-हमारे कई साधु तो कहते हैं कि मूर्ति नहीं मानना लौकाशाह से चला है । तब कई कहते हैं कि हमतो महावीर की वंश परम्परा से चले आते हैं इसके विषय में आपकी क्या मान्यता है ? उ०-जैनमूर्ति नहीं मानना यह मत लौकाशाह से चला यह वास्तव में ठीक ही है । इस मान्यता को हाल ही में स्था. मुनि शोभागचंदजी ने जैन प्रकाश पत्र में "धर्मप्राण लौकाशाह नाम को लेखमाला में भली भाँति सिद्ध कर दिया है" कि भग ___ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर वान महावीर के बाद २००० वर्षों से जैन मूर्ति नहीं मानने वाला सबसे पहले लौकाशाह ही हुआ पर जो लोग कहते हैं कि हम महावीर की वंश परम्परा से चले आते हैं और कल्पित नामों की पट्टावलियां भी बनाई हैं, पर वे इस ऐतिहासिक युग में मिथ्या ठहरती हैं कारण महावीर के बाद २००० वर्षों में केवली, चतुर्दश पूर्वधर, और श्रुतवली सैकड़ों धर्म धुरंधर महान् प्रभाविक आचार्य हुए। वे सब मूर्ति उपासक ही थे यदि उनके समय में मूर्ति नहीं मानने वाले होते तो वे मूर्ति का विरोध करते पर ऐसे साहित्य की गन्ध तक भी नहीं पाई जाती है जैसे दिगम्वर श्वेताम्बर अलग हुए तो उसी समय उनके खण्डन मण्डन के अन्य बनगये पर मूर्ति मानने, नहीं मानने के विषय में वि० सं० १५०८ पहिले कोई भी चर्चा नहीं पाई जाती, इसी से यह कहना ठीक है कि जैन मूर्ति के उत्थापक सबसे पहिले लौकाशाह ही हैं। यदि वीर परम्परा से आने का दावा करते हो तो लौंकाशाह के पूर्व का प्रमाण बतलाना चाहिये कारण जैनाचार्यों ने हजारों लाखों मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई हजारों लाखों ग्रन्थों की रचना की, अनेक राजा महाराजाओं को जैन धर्म में दीक्षित किये, ओसवालादि जातिएँ बनाई इत्यादि । भला! एकाध प्रमाण तो वे ही बतलावें कि लौकाशाह पूर्व हमारे साधुओं ने अमुक ग्रन्थ बनाया या उपदेश देकर अमुक स्थानक बनाया या किसी अजैनों को जैन बनाया। कारण जिस समय जैनाचार्य पूर्वधर थे उस समय मूर्ति नहीं मानने वाले सबके सब अज्ञानी तो नहीं होंगे कि उन्होंने कोई ग्रन्थ व ढाल चौपाई कवित्त छन्द का एक पद भी नहीं रचा हो ? बन्धुओ! अब जमाना यह नहीं Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर है कि चार दीवारों के बीच भोली भाली बहिनों के सामने कल्पित बात पर आप अपने को सच्चा समझलें। आज जमाना तो अपनी मान्यता का प्रामाणिक प्रमाणों द्वारा मैदान में सत्य बतलाने का है। क्या कोई व्यक्ति यह बतला सकता है कि लौकाशाह पूर्व इस संसार में जैनमूर्ति नहीं मानने वाला कोई व्यक्ति था ? कदापि नहीं! विशेष खुलासा देखो ऐतिहासिक नोंध की ऐतिहासिकता, नामक पुस्तक । प्र०-भगवान् के फरमाये हुये सूत्र कितने हैं। उ०.-भगवान् ने सूत्र नहीं बनाये उन्होंने तो अर्थ रूपी देशना दी जिनको गणधरों ने द्वादशांगी अर्थात् १२ अंगों की रचना-संकलना की और इन १२ अंगों में सब लोकालोक का ज्ञान आजाता है। प्र०-फिर यह क्यों कहा जाता है कि ३२ सूत्र भगवान के फरमाये हुए हैं। ___उ०-ऐसा किसी सूत्र में लिखा है ? या भोलों को भ्रम में डालने का धोखा है । क्योंकि यह कहीं पर नहीं लिखा है कि जैनों में ३२ सूत्रों को भगवान ने कहा उनकी ही मान्यता है यदि ३२ सूत्रों को माना जाय तो इसमें नन्दी सूत्र भी शामिल है और नन्दीसूत्र में ७३ सूत्र और १४००० प्रकरण मानने का भी उल्लेख है । यदि ७३ सूत्रादि नहीं मानें तो ३२ सूत्र को भी नहीं माना जा सकता है फिर यह क्यों कहा जाय कि हम ३२ सूत्र मानते हैं स्थानायांग सूत्र में चार पन्नति सूत्र कहे हैं उसमें तीन को मानना और एक द्वीपसागरपन्नति सूत्र को नहीं मानना कहां का न्याय Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्र है ? अब बत्तीस सूत्रों का हाल भी सुन लीजिये । ३२ सूत्रों में ११ अंग तो गणधर कृत हैं पर शेष २१ सूत्र तो स्थविरों के बनाये हुये हैं । जब श्यामाचार्य कृत प्रज्ञापना सूत्रों को मानना और भद्रबाहु कृत नियुक्ति को नहीं मानना यह अज्ञानता नहीं तो और क्या है ? यदि यही इरादा हो कि मूर्ति नहीं मानने के कारण ही ३२ सूत्र माने गये हैं तो ३२ सूत्रों के मूलपाठ में मूत्ति विषयक बहुत उल्लेख हैं फिर अथाह ज्ञान का समुद्र छोड़ कर केवल ३२ सूत्रों को मानने का अर्थ क्या हुआ ? यदि ३२ सूत्र ही मानते हो तो मूलपाठ मानते हो या पञ्चाङ्गी सहित ? प्र०-हम ३२ सूत्र मूलपाठ मानते हैं और मिलती हुई टीका वगैरह भी मानते हैं ? | ___उ०-मिलती का क्या अर्थ होता है ? जब एक वस्तु के सामने दूसरी वस्तु रक्खी जाती है तब मिलती, नहीं मिलती कही जा सकती हैं सो तो आपके पास कुछ है नहीं, फिर किससे मिलाके मानते हो ? सज्जनो! आप जानते हो वृक्ष का मूल धूल में रहता है और शाखा प्रतिशाखा पत्र फल में रस मिलता है इसी भाँति मूल सूत्र सूची मात्र है पर उनका भावार्थ पञ्चाङ्गी द्वारा ही समझा जाता है यदि आपका यही दुराग्रह है कि हम तो ३२ सूत्र मूल ही मानते हैं तो बतलाइये कि आपके माने हुए ३२ सूत्रों के मूल में ' (१) स्याद्वाद "जो जैनियों का मूल सिद्धान्त है," का खरूप किस मूल सूत्र में है ? (२) जैनयों की सप्तभंगी का अन्य समाज में बड़ा ही महत्व है जिसका वर्णन किस मूल सूत्र में है ? Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पु० वि० प्रश्नोत्तर २५२ (३ ) जिस चौबीसतीर्थंकरों को आप परमपूजनीय मानते हो उनका विस्तार पूर्वक जीवन किस मूल सूत्र में है ? (४) इस भांति चक्रवर्ती बलदेव, बासुदेव, प्रतिबासुदेवादि का जीवन किस मूल सूत्र में है ? (५) सामायिक प्रतिक्रमण व्रतोचारण अन्तिम आलोचना मृतसाधु के पीछे करने योग्य क्रियादि का विधि विधान किस मूल सूत्र में है ? ५ ६ ) बत्तीस मूल सूत्रों के मूल पाठ में एक दूसरे से परस्पर विरोव के अनेक पाठ हैं । उसका समाधान किस मूल सूत्रों से कर सकोगे ? (७) ऐसी सैंकड़ों बातें हैं कि ३२ सूत्रों के मूलपाठ से जिनका निर्णय हो ही नहीं सकता है देखो हमारी लिखी प्रश्नमाला नामक किताब । पञ्चाङ्गो और पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के बिना न तो स्थानकवासियों का काम चलता है और न तेरहपन्थियों का । स्था० पू० जवाहरलालजी ने 'सद्धर्ममण्डन' नामक ग्रन्थ तेरहपन्थियों के खण्डन में बनाया है जिसमें टीका चुणि भाष्य को प्रमाणिक मान अपनी पुष्टि में अनेक स्थानों में प्रमाण दिया है। इसी भांति तेरहपंथियों ने अपने भ्रमविध्वंसन नामक ग्रंथ में स्थानकवासियों का मतखंडन के विषय में अनेक स्थानों पर टीका चूर्णि भाष्य को प्रमाणिक मान प्रमाण दिया है पर यह कितनी अज्ञानता एवं कृतघ्नता है कि जिन ग्रन्थों से अपना इष्ट सिद्ध करना और काम पड़ने पर उन्हीं ग्रन्थों का अनादर करना इसके सिवाय वज़पाप हो क्या होता है ? प्र०-आप भी तो ४५ आगम मानते हो? Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर उ.-हम ४५ आगम के अलावा जितने सूत्र और पूर्वाचार्य रचित प्रन्थादि हैं; सब मानते हैं परयह कभी आपने सुना है कि हमारे किसी विद्वान ने यह कहा है कि अमुक ग्रंथ को हम नहीं मानते । अब४५ आगम मानने का तात्पर्य भी सुन लीजिये। नैन साधु आगम पढ़ते हैं तब उनको योगद्वाहन ( तपश्चर्या) करना पड़ता है । मजबूत संहनन वाले सब भागमों के योगद्वाहन कर सकते थे पर इस समय ऐसे संहनन नहीं है कि लगातार वर्षों तक तपश्चर्या कर सकें इस लिये योगद्वाहन ४५ आगम का ही रखा है पर इससे यह नहीं कहा जा सकती कि जैन ४५ पागम के अलावा शेष सूत्र प्रन्थ नहीं मानते हैं। प्र०-क्या ३२ सूत्रों में मूर्तिपूजा करने का उल्लेख है ? उ.-यह तो हमने पहले से ही कह दिया था कि ऐसा कोई सूत्र नहीं है कि जिसमें मूर्ति का उल्लेख न हो । कदाचित् आपको किसी ने भ्रम डाल दिया हो कि ३२ सूत्रों में मूर्ति का बयान नहीं है तो सुन लीजिये । (१) श्री आचारांग सूत्र दूसरा श्रुतस्कन्ध पन्द्रहवें अध्ययन में सम्यक्त्व की प्रशस्त भावना में शत्रुजय गिरनारादि तीर्थों की यात्रा करना लिखा है (भद्रबाहु स्वामिकृत नियुक्ति) (२) श्री सूत्रकृतांग सूत्र दूसरा श्रुतस्कन्ध छटे अध्ययन में अभयकुमार ने आर्द्रकुमार के लिये जिनप्रतिमा भेजी जिसके दर्शन से उसको जाति स्मरण ज्ञान हुआ । (शी० टी०) इन ३२ सूत्रों के मूर्तिपूजो विषयक पाठ देखो मेरा लिखा 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास'। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर . (३) श्री स्थापनायांग सूत्र चतुर्थ स्थानक में नन्दीश्वर द्वीप में ५२ मन्दिरों का अधिकार है। . (४) श्री समवायांग सूत्र के सतरहवें समवाय में जंघाधारण विद्याचारण मुनियों के यात्रा वर्णन का उल्लेख है। (५) श्री भगवती सूत्र शतका३ उ० १ के चमरेन्द्रके अधिकार में मूर्ति का शरणा कहा है। (६) श्री ज्ञात सूत्र अध्याय ८ में श्री अरिहन्तों की भक्ति करने से तीर्थकर गोत्र बन्धता है तथा अध्याय १६ में द्रौपदी महासती ने १७ भेद से पूजा की है। (७) श्री उपासक दशांग सूत्र में आनन्दाधिकार में जैन मूर्ति का उल्लेख है। (८.९ ) श्री अन्तगढ़ और अनुत्तरोवाई सूत्र में द्वारिकादि नगरियों के अधिकार में उत्पातिक सूत्र के सदृश जैन मन्दिरों का उल्लेख है। (१०) प्रश्न व्याकरण सूत्र तीसरे संवरद्वारमें जिन प्रतिमा की व यावच्च ( रक्षण) कम निजरा के हेतु करना बतलाया है। (११) विपाक सूत्र में सुबाहु आदि ने तुंगिया नगरी के श्रावकों के समान जिनप्रतिमा पूजी है। (१२) उत्पातिक सूत्र में चम्पा नगरी के मुहल्ले २ जैनमंदिर तथा अंबड़ श्रावक ने प्रतिमा का वन्दन करने की प्रतिज्ञा ली थी। (१३) राजप्रश्नी सूत्र में सूरियामदेव ने सत्रह प्रकार से जिन प्रतिमाओं की पूजा की है। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर . (१४) जीवाभिगम सूत्र में विजयदेव ने जिनप्रतिमा की पूजी की है। :- (१५) प्रज्ञापना सूत्र में ठवणा सच्च कहा है। (१६ ) जम्बुद्वीप प्रज्ञापति सूत्र में २६९ शाश्वत पर्वतों पर ९१ मन्दिर तथा जम्बुकदेव ने प्रतिमा पूजी । प्रभु आदीश्वर के निर्वाण के बाद उनकी चिता पर इन्द्र महाराज ने रत्नों के स्थूभ (चैत्य) बनाये। ( १७ ) चन्द्र प्रज्ञापति सूत्र में चन्द्र विमानमें जिन प्रतिमा । ... ( १८ ) सूर्य प्रज्ञापति सूत्र में सूर्य विमान में जिन प्रतिमा । (१९.२३) पांच निरयावलिका सूत्र में नगरादिअधिकार में जिन प्रतिमा। . (२४) व्यवहारसूत्र उदेशापहला आलोचनाधिकारे जिन प्रतिमा। ( २५ ) दशश्रुत स्कन्ध सूत्र, राजगृह नगराधिकारे जिन प्रतिमा। . (२६) निशीथ सूत्र जिन प्रतिमा के सामने प्रायश्चित लेना कहा। (२७) वृहत्कल्प सूत्र नगरियों के अधिकार में जिन चैत्य है। - (२८) उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १० अष्टापद के मन्दिर, अध्याय १८ वा उदाइराजा की राणी प्रभावती के गृह मन्दिर का अधिकार, अध्ययन २९ में चैत्यवन्दन का फल यावत् मोक्ष बतलाया है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २५३ (२९) दशवैकालिक सूत्र जिन प्रतिमा के दर्शन से शय्यंभव भट्टको प्रतिबोध हुआ। (३०) नन्दीसूत्र में विशल नगरों में जिनचैत्य को महा प्रभाविक कहा है। (३१) अनुयोगद्वार सूत्र में चार निक्षेप का अधिकार में स्थापना निक्षेप में अरिहन्तों की मूर्ति अरिहन्तों की स्थापना कही है। (३२) आवश्यक सूत्र में अरिहन्त चेइप्राणिवा तथा कित्तिय वंदिय महिया जिसमें कित्तिय वंदिय तो भाव पूजा और महिया द्रव्य पूजा कहा है। इन ३२ सूत्रों के अलावा भी सुत्रों में तथा पूर्वचार्यों के ग्रंथों में जिन प्रतिमा का विस्तृत वर्णन है पर आप लोग ३२ सूत्र ही मानते हैं इसलिये यहां ३२ सूत्रों में ही जिन प्रतिमा का संक्षिप्त से उल्लेख किया है। प्र०-इसमें कई सूत्रों के आपने जो नाम लिखे हैं वहाँ मूलपाठ में नहीं पर टीका नियुक्ति में है वास्ते हम लोग नहीं मानते हैं ? उ०--यह ही तो आपको अज्ञानता है कि स्थविरों के रचे उपांगादि सूत्रों को मानना और पूर्वधरों की रची नियुक्ति टीका नहीं मानना । भला पहले दूसरे सूत्रों के अलावा ३. सूत्रों के मूल पाठ में मूर्तिपूजा का उल्लेख है, वे तो आपको मान्य हैं ? यदि है तो उसको तो आप मान लीजिये कि आपका कल्याण हो । प्र०-आप मुंहपत्तो हाथ में रखते हो इसमें खुले मुंह ___ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर बोलने से वायुकाय के जीवों की हिंसा का पाप तो लगता ही होगा? उ०- मुँहपत्ती बोलते समय मुँह के पास रखने के लिये है न कि दिन भर मुँह पर बाँधने के लिये । छदमस्थों का उपयोग न रहने से उड़ता हुआ मक्षिकादि जीव मुंह में न आ पड़े। किसी से वार्तालाप करते थूक न उछल पड़े इसलिये मुंहपत्ती रखना बतलाया है न कि वायुकाय के जीवों की रक्षा के हेतु । यदि ऐसा हो तो तीर्थकर कुछ भी वस्त्र नहीं रखते हैं और वे घन्टों तक देशना दिया करते हैं । आप यह भी नहीं कह सक्ते कि तीर्थंकरों का अतिशय है । कारण ३४ अतिशय में यह अतिशय नहीं है कि तीर्थकर खुले मुंह बोले और उनसे वायुकाय के जीवों की हिंसा न हो कारण तीर्थकर व्याख्यान देते हैं उस समय भी समय-समय वेदनीकर्म का बन्ध होता है इसका कारण वायुकाय की हिंसा ही है । मेहरबानों ! मुंह पर मुंहपत्ती तो क्या पर एक लोहा का पत्र भी चिपका दिया जाय तो भी बोलते समय वायुकाय के जीवों का बचाव नहीं हो सकता है क्योंकि जहाँ थोड़ा ही छिद्र है वहाँ वायुकाय के असंख्य जीव हैं । मुँह तो बहुत लम्बा चौड़ा है पर आंखों के पलकों के बीच भी वायुकाय के जीव भरे हैं और एकबाल चलने पर असंख्य जीवों की हिंसा होती है। इस हिंसा को छदमस्थ तो क्या पर केवली भी रोक नहीं सकते हैं। इतना जरूरी है कि जहाँ तक बन पड़े यत्न करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है । पर दिनभर मुँहपर मुँहपत्ती बन्धने से कितना नुकसान हुआ-अव्वल तो जैन मुनियों के पवित्र वेशको कलंकित किया, दूसरा दिनभर मुंहपत्ती बन्धने से असंख्य त्रस जीवों की उत्पत्ति (१७)-३८ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २५८ होती है तोसरा स्पष्ट बोला भी नहीं जाता है चतुर्थ गन्धी वायुके कारण बीमारी होती है पञ्चम लोगों में धर्म को निंदाका कारण है इतना होने पर भी लाभ कुछ नहीं; एवं दिनभर मुँहपत्ती बांधना, शास्त्राज्ञा के विरुद्ध है। प्र०-हमने कई पुस्तकों में देखा है कि बाहुबल ब्रह्मो सुन्दरी पांचांडव और भगवान् ऋषभदेव और महावीर के मुंहपर भी मुंहपत्ती बन्धी हुई है क्या यह असत्य है ? उ०-मैं तो क्या पर इस बात को खास स्थानकवासी समाज भी गलत मानते हैं और सख्त विरोध करते हैं । ऐसे मनकल्पित चित्र बनाने से सत्यता नहीं कही जाती है। आज पुराणे चित्र इतने उपलब्ध हैं कि जिनके अन्दर अनेक श्राचार्यों के चित्र हैं वे सब हाथ में मुंहपत्ती रखते थे। ओसियों के मन्दिर के रंग मण्डप में एक जैनाचार्य की पाषाणमय मूर्ति है वे सामने स्थापना और हाथ में मुँहपत्ती रख व्याख्यान दे रहे हैं। यदि यह मूर्ति श्रीरत्नप्रभसूरि के समय की है तो उसको आज २३९२ वर्ष हुए हैं ऐसे अनेक प्रमाण मिल सकते हैं। पर मुँह पर मुँहपत्ती बन्धने वाले वि० सं० १७०८ के पूर्व का एक भी प्रमाण दे नहीं सकते कि इस समय के पूर्व जैन साधु मुंहपत्ती मुंहपर बान्धते थे। हम तो आज भी यह दावे के साथ कहते हैं कि कोई भी स्थानकवासी तेरहपन्थी अपनी मान्यता को साबित करनेको ऐसा प्रमाण जनता के सामने रखे कि वि० सं० १७०८ पूर्व किसी जैन मुनि ने मुंह पर मुंहपत्तो बांधी थी ? दूसरा यह है कि एक प्रथा से न देखो मेरो लिखी "क्या जैन तीर्थकर डोराडाल मुंह पर मुंहपत्ती बान्धते थे" नामक किताब । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ मू०प० वि० प्रश्नोत्तर दूसरी प्रथा चलती है तब उसका खण्डन मण्डन भी उसी समय से चल पड़ता है पर हम अढ़ाई हजार वर्षों का इतिहास एवं साहित्य देखते हैं कि किसी स्थान पर यह नहीं पाया जाता है कि मुंहपत्ती हाथ में रखने का खण्डन मण्डन हो । किन्तु मुंहपत्ती मुंहपर बाँधने की चर्चा केवल वि० सं० १७०८ से ही शुरू होती है इससे सिद्ध होता है कि मुंहपत्ती बान्धने की प्रथा वि० सं० १७०८ में लवजी स्वामी से ही प्रारंभ हुई है। प्र०-फिर क्या पुस्तकों में मूठे ही छपा दिये हैं ? उ०-मताग्रह में मनुष्य क्या नहीं करता है । पुस्तकों में किस किस आधार से छपाई, क्या कोई इसकी प्राचीन मूल कापी बतला सकता है ? आप छापने की क्या बात पूछते हैं कई लोगों ने श्रीकृष्ण के चित्र में बतलाया है कि गोपियें स्नान करती थीं उस समय श्रीकृष्ण उनके वस्त्र उठाके ले गये फिर उन्होंने नग्न गोपियों को अपने पास बुलाया । क्या कोई विद्वान इस बात को सत्य मान सकता है ? क्या श्रीकृष्ण ऐसे थे ? क्या ऐसा चित्र प्रामाणिक माना जासकता है ? नहीं कदापि नहीं। इसी भाँति किसी ने अपने दुराग्रह के वशीभूत हो मन कल्पित चित्र बनाके छपवा दिये हों तो क्या वह सत्य हो सकता है ? कदापि नहीं । हम तो हाथ में मुंहपत्ती रखने वाले हैं परन्तु पहले मुंहपर बांधने वालों को तो पूछो कि वे उन चित्रों का क्यों विरोध करते हैं। सब से निकट का प्रमाण तो यह है कि लौकाशाहकी परम्परा के यति श्राज पर्यन्त मुँहपत्ती हाथ में रखते हैं और मुंहपर बाँधने का घोर विरोध करते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि लौंकाशाह के बाद मुंहपर दिनभर मुँहपत्ती बांधने की प्रथा शुरू हुई है अर्थात् हाथ में मुंह Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २६० पत्ती रखना यह परम्परा महावीर की है और मुंह पर बांधना यह वि० सं० १७०८ लवजी स्वामि को चलाई नूतन प्रथा है । प्र०—- आप सामायिकादि क्रिया को आदि में मुँहपत्ती का प्रतिलेखन करते हो वह शायद दिन को तो जीवों को देखने के लिये करते होंगे, पर रात्रि में भी मुँहपत्तो का प्रतिलेखन क्यों करते हो क्या रात्रि में भी जीव देखते हो ? उ०- मुँहपत्ती का प्रतिलेखन केवल जीवों को देखने के लिये ही नहीं है पर इसमें बड़ा ही रहस्य है। सामायिकादि प्रत्येक क्रिया करने के पहिले आत्मशुद्धि को श्रावश्यकता है और मुँहपत्ती प्रतिलेखन द्वारा पहले श्रात्मशुद्धि की जातो है । मुँहपत्ती प्रतिलेखन केवल कपड़े को इधर उधर करना ही नहीं है पर उसके अन्दर निम्नलिखित चिन्तवन करना पड़ता है जैसे मुँहपत्ती के पुड़ खोलते समय कहा जाता है कि ( १ ) सूत्र अर्थ सच्चा श्रद्ध हूं ( २ ) सम्यक्त्व मोहनीय ( ३ ) मिध्यात्व मोहनीय ( ४ ) मिश्र मोहनीयपरिहरू (परित्याग करूँ ) बाद दृष्टिप्रतिलेखन समय (५) कामराग, ( ६ ) स्नेहराग ( ७ ) दृष्टिराग परिहरू, बाद (८) सुदेव ( ९ ) सुगुरु (१०) सुधर्म बदरूँ, बाद (११) कुदेव ( १२ ) कुगुरु (१३) कुधर्म परिहरूँ | बाद (१४) ज्ञान (१५) दर्शन (१६) चारित्र श्राद (१७) ज्ञान विराधना ( १८ ) दर्शन विराधना ( १९ ) चारित्र विराधना परिहरूँ ( २० ) मनोगुप्ति ( २१ ) वचनगुप्ति ( २२ ) काय गुप्ति श्रादरूँ ( २३ ) मनोदंड ( २४ ) बचनदण्ड (२५) कायदण्ड परिहरू एवं २५ बोलों द्वारा मुँहपत्ती का प्रतिलेखन करके बाद शरीर का प्रतिलेखन किया जाता है जैसे - मुँहपत्ती को मस्तक पर W Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर लगा के कहना कृष्णलेश्या नोललेश्या, कापोत लेश्या परिहरु | मुँहपर मुँहपती लगाके ऋद्धिगारव, रसगारव सातागारव, परिहरू । हृदयपर लगा के मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यादर्शनशल्य, परिहरूँ । जीमखान्धे पर क्रोध मान डाबेखान्धेपर माया, लोभ परिहरू । डाबा हाथकी बाँह पर हास्य, रति, रति, एवं जीमणे हाथ की बाँह पर, शोक, भय, जुगप्सा, परिहाँ । डावे पैर पर पृथ्वी, अप, तेड, एवं जीमणे पग पर, वायु, वनस्पति, और त्रस काय की विराधना परिहरूँ । इस प्रकार २५ बोलों का चिन्तवन मुँहपत्ती और २५ बोलों का चिन्तवन शरीर के कुल ५० बोलों का चिन्तवन करने से मुँहपत्ती का प्रतिलेखन होता है और सामायिक लेना, पारना, गुरुवन्दनकरना, प्रतिक्रमण करना, पच्चखानलेना, पारणा, चैत्यवन्दन संस्तारा पौरुषी श्रालोचनादि सब क्रियाओं की आदि में पूर्वोक्त ५० बोलों का चिन्तवन द्वारा मुँहपत्ती का प्रतिलेखन करना शास्त्रकारों ने बतलाया है । प्र० - हमने तो यह विधान आज ही सुना है और यह है भी उत्तम ? उ०- आपने अभी जैनों का घर देखा ही क्या है ? ऐसी २ तो अनेक क्रियाएं हैं कि जिससे आत्म-कल्याण का सुगमता पूर्वक साधन हो सकता है। जैनों में जितनी क्रिया हैं वह सब उपयोग पूर्वक विवेक के साथ करने की है। प्र० - आप क्रिया के समय ठवणी पर क्या रखते हो १ उ०- श्राचार्य महाराज की स्थापना । प्र० यह क्यों ? उ०- विना स्थापना, क्रिया करना अशुद्ध है । कारण प्रत्येक Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २६२ क्रिया में गुरु आदेश (आज्ञा) लेना चाहिए । यह बिना स्थापना आज्ञा किसकी लेवें । इसीसे स्थापना की आवश्यकता है। प्र०-हमारे तो सब साधु या श्रावक पूज्यजी या बड़े साधुओं की आज्ञा लेते हैं ? उ०-पर पूज्यजी किसकी आज्ञा लेते हैं ? प्र०-श्री सीमंधर स्वामी की आज्ञा लेते हैं। उ०--श्री सीमंधर स्वामी कहां पर हैं ? उ०-महाविदेह क्षेत्र में तीर्थकर हैं। प्र०- भरतक्षेत्र में तो इस समय शासन महावीर के पट्टधर सौधर्म गणधरका चल रहा है इस हालत में सीमंधर स्वामी की आज्ञा कैसे ले सकते हो ? उ०-वे तीर्थंकर हैं उनकी आज्ञा लेना क्या अनुचित है ? प्र०-वे तीर्थंकर महाविदेह क्षेत्र के हैं एवं हमारे वन्दनीय पूजनीय अवश्य हैं, पर भरतक्षेत्र में उनकी आज्ञा नहीं ली जाती है। उ०-क्या कारण ? प्र०-उनके शासन का आचार व्यवहार भरतक्षेत्र से भिन्न है जैसे भरत में इस समय पांच महाव्रत हैं वहां चार ही हैं। वहां दोष लगे तो प्रतिक्रमण करे । पर यहां अवश्य किया जाता है इत्यादि । भला ! आप सोमंधर स्वामी की आज्ञा लेते हो तो वे यहां मौजूद नहीं है। __उ०-ईशान कोन में श्रीसीमंधरस्वामी की कल्पना कर आज्ञा मांग लेते हैं। प्र०-कल्पना करना यह भी स्थापना ही है फिर भरतक्षेत्र के Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर आद्याचार्य सौधर्म गणधर की स्थापना कर आज्ञा लेना कौनसा अनुचित है ? कारण इस समय साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका जो धर्म क्रिया करते हैं वे सब सौधर्मगणधर के आज्ञावर्ती होने से सौधर्मगणधर की ही आज्ञा ले सकते हैं । जिनके अभाव जैसे जिन प्रतिमा है वैसे प्राचार्य के अभाव स्थापनाचार्य है और श्री समवायांगजी सूत्र के बारहवां समवाय में प्राचार्य की स्थापना करना कहाभी है । इसलिये सामायिक प्रतिक्रमणादि जितनी क्रिया की जॉय वे सब स्थापनाजी के आदेश से ही होना शुद्ध है ? यदि स्थापनाचार्य न हो तो वन्दना के समय में प्रवेश करना निकलना तथा 'अहो काय काय संपासं' यह पाठ कहना भी व्यर्थ होजाता है अतएव स्थापना रखना खास जरूरी बात है समझे न ? प्र०-पांच पदों में मूर्ति किस पद में है ? उ०-अरिहन्तों की मूर्ती अरिहन्तपद में और सिद्धों को सिद्धपद है। प्र०-चार शरणों में मूर्ति किस शरणा में है ? उ०-मूर्ति अरिहन्त और सिद्धों के शरणा में है। प्र०-सूत्रों में अरिहन्त का शरणा कहा है पर मूर्ति का शरणा नहीं कहा है ? उ०-कहा तो है पर आपको नहीं दोखता है । भगवती सूत्र श० ३ ० १ में अरिहन्त, अरिहन्तों को मूर्ति और भवितात्मा साधु का शरणा लेना कहा है और आशातना के अधिकार में पुनः अरिहन्त और अनगार एवं दो ही कही । इससे सिद्ध हुआ कि जो अरिहन्तों की मूर्ति की आशावना है वह ही अरिहन्तों ___ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २६४ की आशाता है । आप भी भैरू की स्थापना को पीठ देकर नहीं बैठते हो कारण उसमें भैरूं की शातना समझते हो । प्र० -भगवान ने तो दान, शील, तप, एवं भाव, यह चार प्रकार का धर्म बतलाया है। मूर्तिपूजा में कौनसा धर्म है ? .... - उ०- मूर्तिपूजा में पूर्वोक्त चारों प्रकार का धर्म है जैसे(१) पूजा में अक्षतादि द्रव्य अर्पण किये जाते हैं यह शुभक्षेत्र में दान हुआ । ( २ ) पूजा के समय, इन्द्रियों का दमन, विषय विकार की शान्ति, यह शीलधर्म हुआ । ( ३ ) पूजा में नवकारसी पौरुसी के प्रत्याख्यान यह धर्म हुआ । ( ४ ) पूजा में वीतराग देव की भावना गुणस्मरण यह भाव धर्म । एवं पूजा में चारों प्रकार का धर्म होता है । में तो हम धमाधम देखते हैं ? प्र० पूजा ज्ञान है ? दया उ०- कोई अज्ञानी सामायिक करके या दया पाल के धमाधम करता हो तो क्या सामायिक व दया दोषित और त्यागने योग्य है या धमाधम करने वाले का पालने में एकाध व्यक्ति को धमाधम करता देख यह शुद्ध भावों से दया पालने वालों को ही दोषित ठहराना क्या श्रन्धवाद नहीं है ? इसी प्रकार यदि किसी स्थान या किसी व्यक्ति का धामधूम करना देख विद्वान पूजाको बुरा नहीं समझता है । आप लोगोंने अभी पूजा के रहस्यको नहीं समझा है तब आपको मालूम ही क्या कि कैसे और किसकी पूजा होती है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर प्र० - आपही बतलावें कि पूजामें पेटी तबला और ताल के सिवाय आप करते ही क्या हैं । - उ० – पेटी तबला और तालादि तो संगीतके साधन हैं जैसे सुरियाभदेवने प्रभु महावीर के सामने नाटक किया था, उस समय ४९ जाति के वाजित्र थे । प्र० - आप बाजे बजाते हो उसमें क्या गाते हो इसकी मालूम नहीं पड़ती है। उ०- तबही तो आप प्रभुपुजाकी निंदा कर कर्म बन्धन करते हो | कभी पूजा में श्राकर सुनो कि हम क्या करते है । जैसे स्नान पूजा में तीर्थंकरों के जन्म महोत्सव गाते हैं जैसे गणधरोंने जीवाभिगम सूत्र में गाया था। नौपदजी की पूजा में अरिहन्त सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का वर्णन' आता है और हम लोग बड़े ही आनन्द से उनके गुण गाते हैं। इसी प्रकार बीसस्थानकजी की पूजा में तीर्थकर नाम बन्धने के बीस स्थानक के गुण हैं नीनाणवे प्रकार की पूजा में तीर्थशत्रुञ्जय पर अनेक मुनियों ने मोक्ष प्राप्त की उनके गुण, चौसठ प्रकार की पूजा में आठ कमों से मुक्त होने की प्रार्थना, बारह व्रत की पूजा" में भगवान् ने श्रावक के बारह व्रतों का १ श्री स्थानार्याग सूत्र में । २ श्री ज्ञातासूत्र ८ वाँ अध्यायन । ३ श्री अन्तगढ दशांग और ज्ञातासूत्र में । ४ श्री पनवगासूत्र तथा कर्मग्रन्थादि में । ५ श्री उपाशकदशांगसूत्र । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मृ० पू० वि० प्रश्नोत्तर २६६ स्वरुप बतलाया है सत्रह भेदी पूजा' में तीर्थकरों की भक्ति । पैतालीस आगमों को पूजा में श्रागमाराधना इत्यादि पूजा करते हैं कभी पूजा की किताब को उठाकर ध्यान पूर्वक पढ़े तो आपको ज्ञात हो जाय कि हम पूजा किसकी और किस प्रकार करते हैं । प्र०-तप संयम से कर्मों का क्षय होना बतलाया है । पर मूर्तिपूजा से कौन से कर्मों का क्षय होता है वहां तो उल्टे कर्म बन्धते हैं ? उ०-मूर्तिपूजा तप संयम से रहित नहीं है जैसे तप संयम से कर्मों का क्षय होता है वैसे ही मूर्तिपूजा से भी कमों का नाश होता है । जरा पक्षपात के चश्मे को उतार कर देखिये-मूर्तिपूजा में किस किस क्रिया से कौन से २ कमों का क्षय होता है। (१) चैत्यवन्दनादि भगवान के गुण स्तुति करने से ज्ञानाऽऽवरणीय कर्म का क्षय । (२) भगवान के दर्शन करने से दर्शनावरणीय कर्म का नाश । (३) प्राण भूत जीव सत्व को करुणा से भसाता वेदनी का क्षय । (४) अरिहन्तों के गुणोंका या सिद्धों के गुणों का स्मरण करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और मोहनीय कर्म का क्षय होता है। (५) प्रभु पूजा में तल्लीन और शुभाऽऽध्यवसाय से उमी १ श्री राजाप्रश्नी सूक्ष २ श्री समवायांगसूत्र तथा श्री नंदीसूत्र में । ३ विविध पूजा संग्रहादि पुस्तकें मुद्रित हो चुकी हैं उनके मंगवा कर एक बार अवश्य पढिये। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर भव में मोक्ष प्राप्ति होती है । यदि ऐसा न हो तो शुभ गति का श्रायुष्य बन्ध कर क्रमशः ( भवान्तर ) मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है। (६) मूर्ति पूजा में अरिहन्तादि का नाम लेने से अशुभ नाम कर्म का नाश । (७) अरिहन्तादि को वन्दन या पूजन करने से नीच गौत्र कर्म का क्षय। (८) मूर्तिपूजा में शक्ति का सदुपयोग और द्रव्यादि का अर्पण करना अन्तराय कर्म को दूर कर देता है। मेहरवान ! परमात्मा की पूजा करने से क्रमशः आठ कर्मों की देश व सर्व से निर्जरा होती है मूर्ति पूजा का आनन्द तो जो लोग पूर्ण भाव-भक्ति और श्रद्धा पूर्वक करते हैं वे ही जानते हैं । जिनके सामने आज ४५० वर्षों से विरोध चल रहा है, अनेक कुयुक्तिएँ लगाई जा रही हैं पर जिनका आत्मा जिनपूजा में रंग गयो है उनका एक प्रदेश भी चलायमान नहीं होता है । समझे न। प्र०-यह समझ में नहीं आता है कि अष्टमी, चतुर्दशी जैसी पर्व तिथियों में श्रावक लोग हरी वनस्पति खाने का त्याग करते हैं जब भगवान् को वे फल-फूल कैसे चढ़ा सकते हैं ? ____उ०-यह तो आपके समझ में आ सकता है कि अष्टमी चतुर्दशी के उपवास ( खाने का त्याग ) करने वाले घर पर आये हुए साधुओं को भिक्षा दे सकते हैं और उनको पुण्य भी होता है। जब आप खाने का त्याग करने पर भी दूसरों को खिलाने में पुण्य समझते हैं तो श्रावकों को पुष्पादि से पूजा करने में Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २६८ प्र० - साधुधों को तो फाशुक अचित आहार देने में पुराय है पर भगवान् को तो पुष्पादि सचित पदार्थ चढ़ाया जाता है और उसमें हिंसा अवश्य होती है ? उ०- पर वह अचित आहार बनातो सचित से ही है न । फिर आपका सब ठीक और हमारा खराब क्या यह समदृष्टिपना है । यह तो आपके दिल में एक तरह का भ्रम डाल दिया है जहाँ तहाँ हिंसा का पाठ पढ़ा दिया है पर इसका मतलब आपको नहीं समझाया है। हिंसा तीन प्रकार की होती है ( १ ) अनुबन्ध हिंसा ( २ ) हेतु हिंसा ( ३ ) स्वरूप हिंसा । इसका मतलब यह है कि हिंसा नहीं करने पर भी मिध्यात्व सेवन करना उत्सूत्र भाषण करना इत्यादि वीतरागाज्ञा विराधक जैसे जमाली प्रमुख मिथ्यासेवी दया पालने पर भी उसका तप संयम भी अनुबन्ध हिंसा है (२) गृहस्थ लोग गृह कार्य में हिंसा करते हैं वह हेतु हिंसा है ( ३ ) जिनाज्ञा सहित धर्म क्रिया करने में जो हिंसा होती है उसे स्वरूप हिंसा कहते हैं जैसे नदी के पानी में एक साध्वी बहीं जा रही है साधु उसे देखकर पानी के अन्दर जाकर उस साध्वी को निकाल लावे इसमें यद्यपि अनंत जीवों की हिंसा होती है पर वह स्वरूप हिंसा होने से उसका फल कटु नहीं, पर शुभ ही लगता हैइसी प्रकार गुरु वन्दन, देव पूजा, स्वाधर्मी "भाइयों की भक्ति श्रादि धर्म कृत्य करते समय छः काया से किसी भी जीवों की विराधना हो उसको स्वरूप अहिंसा कहते हैं। सचित और श्रचित का विचार अधिकारी और पात्र पर निर्भर है भगवान् की मौजूदगी में साधु को अचित आहार पानी दिया जाता था तब Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ मू० पु० वि० प्रश्नोत्तर - भगवान के समवसरन में एक योजन का मण्डल में ढीचणः प्रमाण फूलों के ढेर लगते थे। क्या यहां पर भी आप सचित अचित का सवाल उठा सकते हो ? कदापि नहीं। प्र०-पानी से साध्वी को निकालना या गुरुवन्दन करने में तो भगवान की आज्ञा है ? | उ०-तो मूर्तिपूजा करना कौनसी हमारे घर की बात है वहाँ भी तो भगवान की ही आज्ञा है । प्र०-भगवान ने कत्र कहा कि तुम हमारी पूजन करना । उ०-साधुओं ने कब कहा कि तुम हमको वन्दन करना ? प्र०-साधुओं को वन्दन करना तो सूत्रों में कहा है। उ०-मूर्तिपूजा करना भी तो सूत्रों में ही कहा है। प्र०-बतलाइये किस सूत्र में कहा है कि मूर्तिपूजा से मोक्ष होती है ? ___ उ०-आप भी बतलाइये कि साधुओं को वन्दन करने से मोक्ष की प्राप्ति का किस सूत्र में प्रतिपादन किया है। प्र०-उधवाई सूत्र में साधुओं को वन्दना करने का फल यावत् मोक्ष बतलाया है। जैसे कि (१) हियाए-हित का कारण (२) सुहाए-सुख का कारण (३) रकमाए-कल्याण का कारण (४) निस्सेसाए-मोक्ष प्राप्ति का कारण (५) अनुगमिताए-भवोभव में साथ साधु वन्दन का फल तो मोक्ष बताया है पर मूर्तिपूजा का Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २७० सूत्र फल किसी में मोक्ष का कारण बतलाया हो तो आप भी मूलसूत्र पाठ बतलावें । प्र० - सूत्र पाठ तो हम बतला ही देंगे पर आप जरा हृदय में विचार तो करें कि साधु को वन्दन करना मोक्ष का कारण है तब परमेश्वर की मूर्त्तिपूजा में तो नमोत्थुर्गादि पाठों से तीर्थङ्करों को वन्दन किया जाता है क्या साधुओं को वन्दन जितना ही लाभ तीर्थङ्करों के बन्दन पूजन में नहीं है ? धन्य है आपकी बुद्धको । प्र० - हो या न हो यदि सूत्रों में पाठ हो तो बतलाइये | उ० – सूत्र श्री रायपसणीजी में मूर्तिपूजा का फल इस • प्रकार बतलाया है कि www (१) हियाए - हित का कारण ( २ ) सुहाए - सुख का कारण ( ३ ) रकमाए – कल्याण का कारण -- ( ४ ) निस्साए - मोक्ष का कारण (५) अनुगमिताए- भवोभव साथ में इसी प्रकार आचारांग सूत्र में संयम पालने का फल भी पूर्वोक्त पांचों पाठ से यावत् मोक्ष प्राप्त होना बतलाया है इसपर साधारण बुद्धिवाला भी विचार कर सकता है कि वन्दन पूजन और संयम का फल यावत् मोक्ष होना सूत्रों में बतलाया है जिसमें वन्दन और संयम को मानना और पूजा को नहीं मानना सिवाय अभिनिवेश के और क्या हो सकता है ? प्र० - यह तो केवल फल बतलाया पर किसी श्रावक ने प्रतिमा पूजी हो तो ३२ सूत्रों का मूलपाठ बतलाओ ? Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर उ.- ज्ञाता सूत्र के १६ वें अध्ययन में महासती द्रौपदी ने सतरह प्रकार से पूजा की ऐसा मूलपाठ है । प्र०-द्रोपदी की पूजा हम प्रमाणिक नहीं मानते हैं ? उ०-क्या कारण है ? प्र०-द्रोपदी उस समय मिथ्यत्वावस्था में थी। उ०-मिथ्यात्वावस्था में थी तब उसने घरदेरासर की पूजा कर फिर नगर देरासर की पूजा क्यों की और नमोत्थुणं के पाठ से स्तुति कर यह क्यों कहा कि 'तन्नाणं तारयाणं' क्या मिथ्यात्वी भी इस प्रकार जिनप्रतिमा की १७ भेदी पूजा कर नमोत्थुणं द्वारा यह प्रार्थना कर सकते हैं कि हे प्रभो । आप तरे और मुझ ने तारो ? प्र०-यह तो लग्न प्रसंग में की,पर बाद में पूजा का अधि. कार नहीं आया ? उ०-लग्न जैसे रंगराग के समय भी अपने इष्ट को नहीं भूली तो दूसरे दिनों के लिये तो कहना ही क्या था । धर्मी पुरुषों की परीक्षा ऐसे समय ही होती है । द्रौपदी ने नारद को असंयमी समझके वन्दन नहींकी, पद्मोत्तरके वहाँ रह कर छट्ठतप किया यह सब प्रमाण द्रौपदी को परम धर्मी सम्यग्दृष्टि जाहिर करता है खैर इस चर्चा को रहने दीजिये परन्तु द्रौपदी को आज करीबन ८७००० वर्ष हुए । द्रौपदी के समय जैनमन्दिर और जिनप्रतिमा तो विद्यमान थी और वे मन्दिर मूर्तिएं जैनियों ने अपने आत्म कल्याणार्थ ही बनाई इससे सिद्ध हुआ कि जैनों में मूर्ति का मानना प्राचीन समय से ही चला आया है । द्रौपदी के अधिकार ___ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २७२ में मुरियाभदेव का उदाहरण दिया है और राजप्रश्नी सूत्र में सुरियामदेव ने विस्तारपूर्वक पूजा की है। ___प्र०-सुरियाभ तो देवता था उसने जीत आचार से प्रतिमा पूजी उसमें हम धर्म नहीं समझते हैं ? ____उ०--जिसमें केवली-गणधर धर्म समझे और आप कहते हो कि हम धर्म नहीं समझते तो आप पर आधार ही क्या है कि श्राप धर्म नहीं समझे इससे कोई भी धर्म नहीं समझे । पर मैं पूछता हूँ कि सुरियाभदेव में गुणस्थान कौनसा है ? उ०--सम्यग्दृष्टि देवताओं में चौथा गुणस्थान है । प्र०-केवली में कौनसा गुणस्थान ? उ०-तेरहवाँ चौदहवाँ गुण स्थान । प्र०-चौथा गुणस्थान और तेरहवाँ गुणस्थान की श्रद्धा एक है या भिन्न र? उ०-श्रद्धा तो एक ही है। प्र०-जब चौथा गुणस्थान वाला प्रभु पूजा कर धर्म माने तब तेरहवाँ गुणस्थान वाला भी धर्म माने फिर आप कहते हो कि हम नहीं मानते क्या ये उत्सूत्र और अधर्म नहीं है ? हम पूछते हैं कि इन्द्रों ने भगवान् का मेरु पर्वत पर अभिषेक महोत्सव किया, हजारों कलश पाणी ढोला, सुरियामादि देवताओं ने पूजा की। इससे उनके भवभ्रमण बढ़े या कम हुए ? पुण्य हुश्रा या पाप हुआ ? यदि भवभ्रमण बढ़ा और पाप हुआ हो तो भगवान ने उनको पूर्वोक्त कार्यों के लिये मना क्यों नहीं किया क्योंकि उन बिचारोंने जो किया वह भगवानके निमित्त से ही किया था फिर भी वे सब एकावतारी कैसे हुए; वे भव और पाप कहाँ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर पर भोग लिया ? यदि भव घटिया एवं पुण्य बढ़ा हो तो आपका कहना मिथ्या हुआ। प्र०-यह तो हम नहीं कह सकते कि भगवान् का महोत्सवादि करने से भव भ्रमण बढ़ता है ? - उ०-फिर तो निशंःक सिद्ध हुआ कि प्रभु पूजा पक्षालादि स्नान करने से भव घटते हैं और क्रमशः मोक्ष की प्राप्ति होती है। ____ प्र०-यदि धामधूम करने में धर्म होता तो सूरियाभदेव ने नाटक करने की भगवान से आज्ञा मांगी उस समय आज्ञा न देकर मौन क्यों रखी ? ____उ०--नाटक करने में यदि पाप ही होता तो भगवान ने मनाई क्यों नहीं की । इससे यह निश्चय होता है कि आज्ञा नहीं दी वह तो भाषा समिति का रक्षण है पर इन्कार भी तो नहीं किया । कारण इससे देवताओं की भक्ति का भंग भी था । वास्तव में सत्र में भक्तिपूर्वक नाटक का पाठ होने से इसमें भक्तिधर्म का एक अंग है इसलिये भगवान् ने मौन रक्खो, पर मौन स्वीकृित ही समझना चाहिये। यह तो आप सोचिये कि चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीवों के व्रत नियम तप संयम तो उदय हैं नहीं और वे तीर्थकर नाम कर्मोपार्जन कर सक्ते हैं तो इसका कारण सिवाय परमेश्वर की भक्ति के और क्या हो सकता है ? प्र०-कहा जाता है कि भगवान महावीर के निर्वाण समय उनकी राशी पर दो हजार वर्षों की स्थितिवाला भस्मगृह आने से अमण संघ की उदय २ पूजा नहीं होगी, वि० सं० १५३० में (१८)-३९ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पृ. वि. प्रभोत्तर २७४ भस्मगृह उतरा उसी समय लौकाशाह ने धर्म का उदय किया, क्या यह बात सत्य है ? उ०-बतलाइये, लौकाशाह ने धर्म का क्या उदय किया ? धर्म के उदय के कारण जैनमन्दिर, मूर्तियां और शास्त्र थे उनका तो लौं काशाह ने सबसे पहले नाश ( खण्डन ) किया, इस हालत में तो लौकाशाह को धर्मनाशक कहना भी अनुचित नहीं है। दूसरे, आचार्य रत्नप्रभसुरि से जैनों में शुद्धि की मशीन जोर से चली श्राती थी। वि० सं० १५२५ तक तो अजैनों को जैन बनाये जा रहे थे, बाद लौंकाशाह के उत्पात के कारण वह मशीन बन्द हो गई जैनों का संघ संगठन, न्यातिशक्ति बढ़ी मजबूत थी पर लौकाशाह के कदाग्रह के कारण प्रामोग्राम फूट, कुसम्प और धड़ाबन्धी के कारण वे शक्तियां छिन्न-भिन्न हो गई । जैनों की वीरता, उदारता, परोपकारता और अहिंसा की विश्व में एक बड़ी भारी छाप थी। लौकाशाह की मलीन क्रिया एवं संकुचित विचारों से और कायरता बढ़ाने वाली रूक्ष दया ने जैनों का तप तेज फीका कर दिया, लौकाशाह के समय जैनों की संख्या ७००००००० सात करोड़ की थी वह घर की फूट कुसम्प के कारण आज बारह तेरह लक्ष की रह गई। जो जातियां हमारे आधीन में रहती थीं वह ही आज हर प्रकार से हमें दबा रही हैं । यह सब लौंकाशाह के उत्पात काही कारण है । बतलाइये लोकाशाह ने मुसलमान संस्कृति का अनुकरण कर जैनों को अपना इष्ट छुड़ाने के सिवाय क्या उद्योत किया ? क्या पूर्वाचार्यों के अनुसार किसी राजा महाराजा को प्रतिबोध कर जैनी बनाया था ? क्या कोई तत्वज्ञान विषयक मौलिक प्रन्थ बना के किसी विषय पर प्रकाश डाला Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर था जिसको आप उदय मानते हैं । वास्तव में महावीर की राशी पर भस्मगृह आया और उसकी २००० वर्षों की स्थिति होने के कारण श्रमण संघ की उदय व पूजा प्रतिष्ठा नहीं हुई तथापि समय समय के बीच शासन का उदय होता ही रहा जैसे ( १ ) आचार्य रत्नप्रभसूरि आदि ने लाखों जैनों को जैन बनाके शासन की महान् प्रभावना की । (२) आचार्य भद्रबाहु ने राजा चन्द्रगुप्त को जैम बनाके भारत के बाहर अनार्य देशों में जैन धर्म का झण्डा फहराया । (३) आचार्य सुहस्तीसूरि ने सम्राट् सम्प्रति को जैन बनाके भारत और अनार्य देशों में जैन धर्म का प्रचार करवाया । तथा मन्दिरों से मेदनी मरित करवाई । ( ४ ) श्राचार्य सुस्थीसूरि ने महामेघवाहन महाराजा खारवेल को जैन-धर्मी बना के जैनधर्म की भूरि-भूरि प्रभावना करवाई। ( ५ ) श्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने राजा विक्रम को जैन बनाके जैन धर्म का प्रचार किया । ( ६ ) श्राचार्य बप्पभट्ट सूरि ने कन्नौज के राजा श्रम आदि को जैन बनाये । (७) श्राचार्य शीलगुणसूरि ने पाटण का राजा बनराज को जैन बना के जैन-धर्म का प्रचार एवं प्रभावना की । ( ८ ) कजिकाल सर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्रसूरि ने राजा कुमारपाल को प्रतिबोध कर जैन बना के द्वारा देश में अहिंसा का प्रचार किया । , ( ९ ) इसी प्रकार आचार्य भद्रबाहु सिद्धसेन दिवाकर मल्ल Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २७६ बादिसूरि, वृद्धबादीसूरि, देवऋद्धिखमासणा, जिनभद्रगणि, हरिभद्रसूरी, उद्योतनसूरि, नेमिचन्दसरि, अभयदेवसूरि, आर्यरक्षितसूरि, स्कंदलाचार्य, पादलीप्तसूरि, यक्षदेवसूरि, कक्कसरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसूरि, सर्वदेवसरि, यशोदेवसूरि, यशोभद्रसूरि, विजयहीरसूरि, आदि सैकड़ों आचार्यों ने हजारों लाखों प्रन्थों की रचना की, एवं शासन सेवा कर शासन को स्थिर रखा और हजारों लाखों मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा के धर्म का गौरव बढ़ाया। इन आचार्यों के उपासक बड़े २ राजा महाराजा श्रेष्ठवर्य्य एवं साहुकार हुए कि जिन्होंने तन मन और धन से शासन की प्रभा. वना की इत्यादि । जब वि० सं० १५३० में भस्मगृह उत्तरा तो उसी समय श्रीसंघ की राशी पर धूमकेतु नामक विग्रह उत्पादक गृह आ बैठा जिसके प्रभाव से ही लौंकाशाह जैसा निन्हव पैदा हुआ और उसने जैन-धर्म के अन्दर कुसम्प और अशान्ति पैदा कर सर्वनाश करने का दुःसाहस किया पर शासन के स्थंभाचार्यों के सामने उनका कुछ भी नहीं चला । जहाँ जैन साधुओं का विहार कम था, वहाँ के अज्ञ लोगों को अपने जाल में फंसा के सद्धर्म से पतित बनाने के सिवाय लौंका और उनके अनुयायिओं ने कुछ भी नहीं किया और इष्ट-भ्रष्ट आदमी कुछ कर भी तो नहीं सकते हैं। प्र०-प्रतिक्रमण के छः श्रावश्यक सबके एक होने पर भी आपका प्रतिक्रमण बड़ा और हमारा प्रतिक्रमण इतना छोटा क्यों है ? ... उ०-आपका प्रतिक्रमण शास्त्रानुसार नहीं पर मन-कल्पित है। प्र०-ऐसे तो हम भी कह सकते हैं कि आपका प्रतिक्रमण मनकल्पित है, पर क्या आप कुछ प्रमाण से साबित कर सकते हो ? Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ... उ०-आप ही अन्तरदृष्टि से सोचें कि प्रतिक्रमण अतिचार की आलोचना है । पर श्राप तो अतिचार के स्थान हमेशा व्रतोच्चारण करते हो, जैसे आप कहते हो कि___ "पहला थुल प्रणातिपात त्रस जीव बेन्द्रिय तेन्द्रिय चौरि. न्द्रिय पंचेन्द्रिय जाणी पीच्छी उदेरी संकुटी बिना अपराध त्रसजीव हणणे का पञ्चक्खाण जाव जीवाए दुविहं तिविहिणं नकरेमि नकरावेमि मणसा वायसा कायसा + + . अब इस पर जरा विचार करें कि दोय करण, तीन योग अर्थात् तेवीस का अंक और चालीसवाँ भाँगा से आपके समाज का प्रत्येक श्रावक पञ्चक्खाण करता है, उस पर भी तुर्रा यह कि इस पञ्चक्खाण में जावजीव का पाठ बोलने पर भी हमेशा पचखाण करना यह पञ्चक्खाण क्या एक बच्चों का खेल है ? क्या दो करण तीन योग से जावजीव व्रत कोई भी श्रावक इस समय पाल सकता है जो दो घड़ी की सामायिकमें भी दोकरण तीन योग स्थिर नहीं रहता है तो जावजीव दोकरण तीनयोग कैसे पले ? यदि नहीं पले तो हमेशा यह बात कहना पागल की पुकार और गेहली का गीत ही हुआ। आगे सातवां व्रत में २६ बोलों के नाम लेकर जिन्दगी भर में २६ द्रव्य रखते हो ? क्या कोई श्रावक ने आजपर्यन्त यह विचार किया है कि हमने २६ द्रव्यों का नियम जावजीव तक किया है तो आज तक कितने द्रव्य लगे यदि नहीं तो यह कल्पित एवं पोप क्रिया के सिवाय और क्या है ? मित्रो! वास्तव में आपका प्रतिक्रमण आवश्यक सूत्रअनुसार नहीं पर आनन्द श्रावक ने महावीरप्रभु के पास व्रतोच्चारण किया और उन्होंने अपनी जिन्दगी में जो व्रत लिया एवं जा Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २७८ द्रव्य रखा उसका उल्लेख उपाशकदशांगसूत्र में है जप्त पाठ को प्रतिक्रमण में घुसेड़ दिया जो बिल्कुल असंगत है । कारगा आनन्द ने तो एक दिन व्रत लिये, बाद उनके अतिचारों का प्रतिक्रमण किया था पर अज्ञानी लोगों ने तो उन व्रतोच्चारण का पाठ हमेशा कहना शुरू कर दिया कि जिसका कुछ मतलब ही नहीं और न उस पाठ का प्रतिक्रमण के साथ कुछ भी सम्बन्ध है। इस कारण आपका प्रतिक्रमण शास्त्रानुसार नहीं पर मन कल्पित नाम मात्र का छोटा प्रतिक्रमण है। इतना ही क्यों पर आपके जो प्रावश्यक सूत्र हैं उसमें न तो श्रावक के सामायिक, पोसह और प्रतिक्रमण हैं न साधुओं का पूरा प्रतिक्रमण है । इतना ही क्यों पर आपके आवश्यक में तो साधु-श्रावक के पञ्चक्खानों का भी सिलसिलेवार विधान नहीं है । इससे स्पष्ट है कि आपके प्रतिक्रमण नहीं पर एक कल्पति ढ़ांचा है और इसका कारण मात्र इतना ही कि सौधर्माचार्य के प्रतिक्रमण में अरिहन्त चैत्य का विधान पाता है उसको नहीं मानना ही है। जैनियों में राई, देवसी, पक्खी, चौमासी और संवत्सरी एवं पांच प्रतिक्रमण हैं तब आप केवल कल्पित कलेवर से ही काम चलाते हैं । जैनियों में राइ देवसी प्रति. क्रमण में ४ लोगस्स, पाक्षी में १२, चौमासी में २०, और संवत्सरी में ४० लोगस्स के काउस्सग्ग शास्त्रानुसार करते हैं, तब आपके कई समुदाय में तो इसी भांति, पर कई में संवत्सरी के प्रायश्चित्त में भी हमेशा की मुवाफिक ४ लोगस्स और कई टोलों में १६ लोगस्स का काउस्सग्ग करते हैं । यदिशास्त्रानुसार प्रतिक्रमण होता तो यह भेद क्यों ? अभी अजमेर के साधू सम्मेलन में तो ४-१६.४० लोगस्स को किनारे रख, २० लोगस्स मुकर्रर किया है । जहाँ मन Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ मू० पु० वि० प्रश्नोत्तर कल्पना से काम चलाना हो वहाँ शास्त्र की दरकार ही क्यों रखी जाती है समझे न भाई साहिष । मैं तो कहता हूँ कि अब भी आप निर्णय कर सौधर्माचार्य की परम्परा की क्रिया कर स्व-पर का कल्याण करें। प्र०-क्या साधुओं के व्याख्यान में श्रावक सामायिक कर सकता है ? ___उ०-साधुओं के व्याख्यान में श्रावकों को इतर काल की सामायिक करना शास्त्रीय विधान नहीं है। कई लोगों के सामायिक का नियम होता है कि वह अन्य टाइम खर्च नहीं करके दाल के साथ ढोकलो पका लेता है किन्तु व्याख्यान में सामायिक करना एक बैगार निकालना है, बुगलाभक्ति एवं धार्मिकपना का ढोंग बतलाना है। साथ में उपदेशकों की अल्पज्ञता भी है क्योंकि शास्त्र. कारों का स्पष्ट फरमान है कि एक समय में दो काम ( उपयोग) होही नहीं सकता, कारण सामायिक का अर्थ है समभाव से प्रात्मचिन्तवन करना और व्याख्यान का अर्थ है बिनय के साथ उपयोग पूर्वक गुरु के सन्मुख बैठ शास्त्रों का श्रवण कर उनको ठोक समझना। यदि सामायिक में उपयोग है तो व्याख्यान एवं सूत्र और गुरु की आशातना के कारण विराधक होगा, और व्याख्यान में उपयोग रहेगा तो सामायिक का विराधक है अर्थात् सामायिक करना निरर्थक है। यदिसामायिक का अर्थ आश्रवद्वारों को रोकना ही है तो श्राश्रवद्वार व्याख्यान के उपयोग से रुक जाता है फिर सामायिक का अधिक क्या फल हुआ ? यदि फल नहीं है तो अर्थशून्य क्रिया करना विलापात के सिवाय और क्या है ? मेहरबान ! सामायिक ऐसी साधारण वस्तु नहीं है कि Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २८० हरेक व्यक्ति हरेक टाइम में घड़ी रख, कपड़ा खोल कर बैठ जावे, धूल पड़ती जाय और सामायिक आती जाय, पर उसको पूछा जाय कि सामायिक क्या वस्तु है ? जैसे किसी अनधिकारी को अधिकार पद दे देने से उस पद का महत्व मिट्टी में मिल जाता है इसी भांति आज अज्ञ लोगों ने सामायिक का महात्म्य कम कर दिया है। हमारे कथन का यह अर्थ नहीं है कि सामायिक करना बुरा है ? सामायिक अवश्य करनी चाहिये पर पहले सामायिक के भावार्थ को समझना चाहिये कि सामायिक का क्या अर्थ है, कितनी योग्यता वाला सामायिक करने का अधि. कारी है, उनका आचरण कैप्सा होना चाहिये । ज्ञान शून्य दिनभर सामायिकें करने की बजाय ज्ञान संयुक्त एक सामायिक करना हो महान् लाभ का कारण हो सकता है। समझे न___ प्र.-"श्री आचाराङ्ग सूत्र में लिखा है कि-छः काया के जीवों की हिंसा करने वालों को भवाऽन्तर में अहित और अबोध का कारण होता है ?" उ०-आपने इस पाठ और अर्थ को ठीक नहीं देखा है, यहाँ तो खास मिथ्यात्वियों के लिये कहा है। यदि आप अपने पर लें तो आपका ऐसा कोई श्रावक या साधु नहीं है, कि छः काया की हिंसा से बच सका हो । क्योंकि गृहस्थ लोग घर, हाट कराने में छः काया की हिंसा करते हैं। साधु के आहार-विहारादि की क्रिया में वायु-काय की हिंसा अवश्य होती है । आपके मताऽनुसार तो उनको भी अहित और अबोध (मिथ्यात्व ) का कारण होता ही होगा, परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। यह उल्लेख मिथ्या दृष्टियों की अपेक्षा है, उनकी मिथ्या श्रद्धा और अशुभ परिणाम Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर के कारण अहित-अबोध का कारण बतलाया है नहीं तो आनन्द कामदेव गृह कार्य में प्रारम्भ करते हुए भी एकावतारी हुए हैं। समझे न ? प्र०-प्रश्न व्याकरण सूत्र में जीव हिंमा करने वालों को मन्दबुद्धिया और दक्षिण नरक में जाने वाला बतलाया है ? ____उ०- जब आपके साधु श्रावक की तो नरक के सिवाय गति ही नहीं है । क्योकि आपके प्रत्येक कार्य में जीवहिसा तो होती ही है, चाहे त्रस जीवों की हो, चाहे स्थावर जीवों की; जहाँ चलनादि क्रियाएँ होती हैं वहाँ जीव हिंसा अवश्य हुआ करती है। भगवती सूत्र में श्रावक को तीन क्रिया-- आरम्भ, परिग्रह, और माया तथा साधु को दो क्रिया आरम्भ और माया की बताई है। आपके मताऽनुसार प्रारम्भ करने वाला दक्षिण की नरक में जाना चाहिये । बलिहारी है आपके ज्ञान की १ मित्रों! किसी विद्वान् से सत्रों के अर्थ-रहस्य को समझो । फिर प्रश्न करो। वास्तव में प्रश्न व्याकरण सूत्र में श्राश्रव द्वार का वर्णन है । क्रूरकर्मी, निध्वंस परिणामी, मिथ्यादृष्टि अनार्य लोग, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक प्राणियों की हिंसा कर घर, हाट, देवल, छत्री, चूल्हा, चक्की, ऊखल, मूशल आदि बनाते हैं, वह अपने अशुभ पारणामों से दक्षिण के नरक में जाते हैं। यदि यह पाठ अनार्य मिथ्यादृष्टि के लिए न हो तो श्रानन्द कामदेव जैसे श्रावकों के भी घर हाटादि कार्यों में हिंसा होती थी, अतः उन्हें भी दक्षिण नरक में जाना चाहिये था पर नहीं, वे स्वर्ग में गये और अब एक भव कर मोक्ष में जायेंगे। यदि आपकी भावना है कि आरंभ करने वाला दक्षिण की नरक में ही जाता है तो आप भले ही Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर पधारें पर एक बात आप से पूछ लेते हैं कि यदि आप जैसे नवकार मंत्र गिनने वाले भी दक्षिण की नरक में पधारेंगे तो विचारे कर कर्मी कसाई कहाँ जावेंगे ? प्र०-हम तो संसार के लिये आरंभादि हिंसा करते हैं और श्राचारांगसूत्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र में पूर्वोक्त पाठ धर्मार्थ हिंसा करने का है । ____उ०-मले। श्रापतो संसार के लिए कह कर छूट जाते हो पर केवली भगवान् तो धर्म के लिये ही हलते चलते व्याख्यान देते हैं और साधु भी धर्म के लिए ही सब क्रिया करते हैं और केवली या साधु पूर्वोक्त क्रिया करते हैं उसमें हिंसा अवश्य होती है भले वे कहा जावेगा। क्या आप अपनी भांति उनको भी दक्षिण की नरक में नहीं भेज दें और अहित-अबोध का कारण तो न बतला दें ? सत्य है अज्ञानी लोग क्या अनर्थ नहीं करते हैं। क्या अब भी आप इन दोनों सूत्रों के पाठों को अनार्य मिथ्या-दृष्टि क्रूरकर्मी और निध्वंस परिणामी के लिए मान लेंगे। प्र०-उपासक दशांग सत्र में आनन्द कामदेव के व्रतों का अधिकार है पर मूर्ति का पूजन कहीं भी नहीं लिखा है ? ___उ०—लिखा तो है परन्तु आपको दीनता नहीं। अानन्द ने भगवान् वीर के सामने प्रतिज्ञा * की है कि आज पीछे मैं अन्य तीर्थों और उनकी प्रतिमा तथा जिनप्रतिमा को अन्यतीर्थी ग्रहण कर अपना देव मान लिया हो तो उप प्रतिमा को भी मैं नमस्कार नहीं करूँगा। इससे सिद्ध है कि आनन्दादि श्रावकों ने - देखो मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास-प्रकरण तीसरा । ___ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ मू०पू० वि० प्रभोत्तर जिन प्रतिमा को वन्दन, पूजन, मोक्ष का कारण समझ के ही किया था। और उत्पातिक सूत्र में अंबड़श्रावक जोर देकर कहता है कि आज पीछे मुझे अरिहन्त और अरिहन्तों की प्रतिमा का वन्दन करना ही कल्पता है। ... प्र०-ज्ञाता सूत्र में २० बीस बोलों का सेवन करना, तीर्थकर गोत्र बाँधना बतलाया है, पर मूर्तिपूजा से तीर्थकर गोत्रबन्ध नहीं कहा है ? ___उ०-कहा तो है, पर आपको समझाने वाला कोई नहीं मिला। ज्ञाता सूत्र के २० बोलों में पहिला बोल अरिहन्तों की भक्ति और दूसरा बोल सिद्धों की भक्ति करने से, तीर्थङ्कर गोत्रीपार्जन करना स्पष्ट लिखा है, अरिहन्त सिद्ध अाज विद्यमान नहीं हैं पर यही भक्ति मन्दिरों में मूर्तियों द्वारा की जाती है। महा. राजा श्रेणिक अरिहन्तों की भक्ति के निमित्त हमेशा १०८ सोने के जौ ( यव ) बनाके मूर्ति के सामने स्वस्तिक किया करता था, और भक्ति में तल्लीन रहने के कारण ही उसने तीर्थङ्कर गोत्र बाँधा । कारण दूसरे तप, संयम, व्रत तो उनके उदय ही नहीं हुए थे, यदि कोई कहे कि श्रेणिक ने जीव दया पाली उससे तीर्थङ्कर गोत्र बँधा, पर यह बात गलत है, कारण जीवदया से साता वेदनीकर्म का बन्ध होना भगवती सूत्र श० ८ उ० ५ में बतलाया है, इसलिए श्रेणिक ने अरिहन्तों एवं सिद्धों की भक्ति करके ही तीर्थङ्कर गोत्रोपार्जन किया था। प्र०-उत्तराध्ययन के २९ वें अध्यायन में ७३ बोलों का फल पूछा है, पर मूर्तिपूजा का फल नहीं पूछा ? ... उ०-चैत्यवन्दन ( मूर्ति-पूजा ) का फल पूछा तो है, परन्तु Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पु० वि० प्रश्नोत्तर २८४ दुःख है कि आपने उसको देखा नहीं, ७३ बोलों में १४ वाँ बोल "थई थुई मंगलेणं" अर्थात् तीर्थकरों को स्तुति रूप चैत्यवन्दन करने का फल पूछा, उत्तर में भगवान ने कहा कि तीर्थङ्करों की स्तुति करने से ज्ञान-दर्शन चारित्र की आराधना होती है, जिससे उसी भव में मोक्ष या तीन भव से तो ज्यादा कर ही नहीं सकते हैं। ___प्र:-जम्बूद्वीप पन्नति सूत्र में २६९ पर्वत शाश्वत कहा है उसमें शत्रुञ्जय का नाम नहीं आया, जिसे आप शाश्वत बताते हैं ? उ०-शत्रुञ्जय पर तो आप फिर पधारें पर पहिले २६९ शाश्वत पर्वतों पर ही ९१ जिनमन्दिर शाश्वत होना लिखा है, इस मूलपाठ को तो आप भी मानते हो ? अब रही शत्रुजय की बात सो अापके ज्ञातासूत्र पाँचवें अध्ययन में थावञ्च पुत्र मुनि ने १००० साधुओं के साथ शत्रुक्षय तीर्थ पर मुक्ति प्राप्त की, तथा सुखदेव मुनि ने १००० मुनियों के साथ वहाँ निर्वाण पद प्राप्त किया। शैलक मुनि, ५०० मुनियों के साथ वहीं मोक्ष हुए और भी पंडव, जाली, मयाली श्रादि असंख्य जीवों ने उसी पवित्र तीर्थ पर जन्म मरण मिटाया, इसे तो आप भी सादर स्वीकार करते हो, जैसे इस चौबीसी में असंख्य जीव इस तीर्थ पर मुक्त हुए, वैसे गत चौबीसी में भी मुक्त हुए, ऐसी हालत में इसे सदा के लिए पवित्र और तोथ रूप मान लिया जाय तो न्याय संगत प्र०-भगवती सूत्र में पंचम पारा के अन्त में इस भारत ___ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ मू० पु० वि० प्रश्नोतर वर्ष में गंगा, सिंधु और वैताड़ पर्वत के सिवाय, शत्रुञ्जय आदि सब पदार्थों का नष्ट होना लिखा है ? उ-जम्बूद्वीप पन्नति सूत्र में भरत चक्रवर्ती छः खण्ड साधने को जाते हैं तब ऋषभकूट पर पहिले के चक्रवर्ती का नाम देख, क्रोध के साथ उस नाम को नेस्तनाबूद कर देते हैं और अपना नाम लिखते हैं। अब बतलाइये भरत चक्रवर्ती के पूर्व अठोरा कोड़ाकोड़ सागरोपम में चक्रवर्ती हुए, उन्होंने ऋषभकूट पर अपना नाम लिखा था, इससे यह सिद्ध हुआ कि ऋषभकूट शाश्वत है, पर सूत्रों में इसका नाम शाश्वत रहना नहीं बतलाया है, यह मौख्य और गौणता सूत्रों की शैली है इसी तरह शत्रुञ्जय को भी समझ लीजिये। प्र.-भगवती सूत्र में कृत्रिम पदार्थ की स्थिति संख्यात कोल की लिखी है, तो अष्टापद पर भरत के बनाये मन्दिरों की यात्रा गौतम स्वामी ने कैसे की ? क्योंकि भरत और गौतम के बीच तो असंख्य काल का अन्तर है। . उ०--जम्बूद्वीप पन्नति सूत्र में छः आरों का वर्णन है, पहिले पारा के वर्णन में बावड़िये बतलाई हैं । पहिले पारा के पूर्व, नौ कोडाकोड़ सागरोपम तो युगलिया रहे, उन्होंने तो वे बावड़ियें बनाई नहीं और उन बावड़ियों को शाश्वती सूत्रों में भी कहीं नहीं तो फिर वे बावड़िये असंख्य काल कैसे रहीं। यदि यह कहा जाय कि देवताओं की सहायता से असंख्य काल रह सकती हैं तो अष्टापद के मन्दिर भी देवताओं की सहायता से असंख्य वर्ष रह गए हों तो क्या आश्चर्य है ? प्र०-यदि जैन-मूर्ति नहीं मानने वालों का मत भूठा है तो Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० ५० वि० प्रश्नोत्तर २८६ आज लौंकाशाह के मत को पाँच लाख मनुष्य कैसे मान __उ-जन संख्या अधिक होने से ही किमी मत की सत्यता नहीं कही जाती है। यदि ऐसा हो है तो मुसलमान धर्म को भी आपको सत्य मानना पड़ेगा, क्योंकि उसको तीस करोड़ मनुष्य मानते हैं । दूसरा आप अपनी संख्या पाँच लाख की कहते हैं यह भी दुनियाँ को धोखा देना ही है, कारण कुल १३ तेरह लाख के करीबन जैनी हैं, जिसमें दिगम्बर कहते हैं कि हम छः लाख है, तेरह पन्थी कहते हैं कि हम २ लाख हैं और आप कहते हो कि हम ५ लाख हैं, इस प्रकार ६.२ और ५ कुलतेरह लाख तो तुम ही हो गये तो फिर श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक समाज का तो नाम ही न रहा। धन्य है आपकी सत्यता को । ___जैन श्वेताम्बर मूत्ति-पूजक समुदाय के भारत भर में ४०००० मन्दिर हैं, यदि एक मन्दिर के कम से कम १५-१५ उपासक ही गिने जाँय तो भी मूर्ति-पूजक जैनों की संख्या ६ लाख होने में कोई सन्देह नहीं रहता है । वास्तव में विचार किया जाय तो भारत में ४ लाख दिगम्बर, ६ लाख श्वेताम्बर मूर्तिपूजक और ३ लाख स्थानकवासी और तेहरपन्थो जैनी होना सम्भव है। कारण गोड़वाड़ और सिरोही राज्य में एक लाख जैनों में ५०० मनुष्य शायद् स्थानकवासी हैं, गुजरात प्रान्त मैं प्रायः जैन मूर्ति पूजक ही हैं, केवल अहमदाबाद में ४०००० मूर्तिपूजक जैन हैं, इसी प्रकार बम्बई में मी ४०००० मूर्तिपूजक जैन हैं । और भी भावनगर, जामनगर, सूरत, भरूच, बड़ोदा, पाटण, मैहसाणा आदि बड़े २ नगरों में प्रायः श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों की ही वस्ती है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर मूर्तिपूजक जैन भारत के चारों ओर फैले हुए हैं। स्थानकवासियों की ऐसी शायद ही कोई बस्ती हो जहाँ मूर्तिपूजकों का बिलकुल अस्तित्व न हो। यह छोटे ग्रामों की नहीं पर बड़े नगरों की बात है। इस हालत में मूर्तिपूजक हम श्वेताम्बिरियों का नितांत अस्तित्व मिटा आप अपने को ५ लाख समझना यह भ्रम नहीं तो और क्या है ? --भगवान् ने तो जगह २ पर अहिंसा धर्म का उपदेश दिया है और श्राप हिंसा में धर्म क्यों बताते हो। ___ उ०-गजब २ यह किसने कहा ? क्या आप किसी धोखेबाज के फन्दे में तो नहीं फंस गए हो, जो ऐसी बिना सिर पैर की बातें करते हो ? हम क्या कोई अनजान जैन भी हिंसा में धर्म नहीं मानता है ? जैन धर्म का तो “अहिंसा परमो धर्मः" यही महा वाक्य है, हिंसा मे धर्म माननेवाले का जैन, मिथ्यात्वी समझते है । यदि जैन हिंसा में ही धर्म मानते तो अधिकाधिक हिंसा करते फिर एकेन्द्रिय को हिंसा ही क्यों करें ? पंचेन्द्रिय की हिंसा करें जिससे धर्म भी अधिकाधिक हो । वाह महाशय ! वाह ! क्या किसी मूर्तिपूजक ने यह कहीं लिखा यो कहा है कि हिंसा करने में धर्म होता है ? प्र०-मूर्तिपूजकों के मुँह से तो नहीं सुना और न उनके लेख में पढ़ा, पर कई लोग ऐसी बातें कहते जरूर हैं ? उ. कई लोगों के कहने से जैनों पर व्यर्थ दोषारोपण करना यह कितना भारी अन्याय है ? जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक अहिंसा धर्म के कैसे प्रचारक हैं यह किसी से छिपा नहीं है। आर्य सुहस्ती सरि के उपदेशों से सम्राट् सम्प्रति ने भारत ___ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ मू० ५० वि० प्रश्नोत्तर और भारत के बाहिर अनार्य देशों में भी अहिंसा धर्म का प्रचार किया था, आचार्य रत्नप्रभसरि ने हिंसक मनुष्यों को अहिंसक बनाया, जो ओसवाल नाम से आज भी प्रसिद्ध हैं। प्राचार्य हेमचन्द्रसरि ने अट्ठारह देशों में अहिंसा का झंडा फहराया। उनके अहिंसा उपदेश को श्रवण कर भक्त लोगों ने तालाब, नदियें, कुआ, आदि पर जल छानने के वस्त्र बाँध दिये थे, ऊँट बकरी आदि बन के एवं नगर के पशुओं को भी छना हुआ जल पिलाया जाता था। प्राचार्य विजयहीरसरि ने बादशाह अकबर को उपदेश देकर एक वर्ष में छः मास तक हिंसा बन्द करवाई । बहुत से राजाओं के राज्यों में अक्ते (व्रत विशेष ) पलाये गये। इस प्रकार के अहिंसा के उपदेश देने वाले महापुरुषों को क्या आप हिंसा-धर्म के समर्थक कहते हैं ? बलिहारी है आपकी बुद्धि की, आपके बिना ऐसे निःसार आक्षेप अन्य कौन करे ? कारण जैनेतर लोग तो जैनों को कट्टर अहिंसा धर्मी मानते हैं और आप उन्हें हिंसा-धर्मी कहते हो । यही आपकी कृतज्ञता (!) का परिचय है कि जिन महानुभावों ने आपके पूर्वजों को माँस मदिरादि का सेवन छुड़ाया उन्हें आप हिंसाधर्मी कहते हो । क्या दया-दया के रटनेवाले अपने जन्म से आज पर्यन्त पूर्वोक्त कार्यों का एक अंश मात्र भी अहिंसा का प्रचार करना बतला सकते हैं ? या दूसरों की व्यर्थ की निन्दा करना ही अहिंसा समझ रक्खी है ? प्र०-ऐसा तो नहीं; पर आप मर्तिपूजा में हिंसा करके धर्म मानते हो, इसीसे हम ऐसा कहते हैं ? उ०-सिद्धान्तों में मूर्तिपूजा की जो विधि बताई है, उसी Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर विधि से भक्त जन पूजा करते हैं। इसमें जल चन्दनादि द्रव्यों को देख के ही आप हिंसा २ की रट लगाते हो तो यह आपकी भूल है। यह तो पाँचवें गुणस्थान की क्रिया है पर छट्टे से १३ वें गुणस्थान तक भी ऐसी क्रिया नहीं है कि जिसमें जीवहिंसा न हो खुद, केवली हलन चलन की क्रिया करते हैं, उसमें भी तो जीव-हिंसा अवश्य होती है, इसी कारण से उनके दो समय का वेदनीकम का बंधन होता है । यदि साधु, श्रावक की क्रिया में हिंसा होतो ही नहीं तो वे समय २ पर सात कर्म क्यों बाँधते हैं ? इसका तो जरा विचार करो। जैसे पूजा की विधि में आप हिंसा मानते हो तो आपके गुरु-वंदन में आप हिंसा क्यों नहीं मानते हो ? उसमें भी तो असंख्य वायुकाय के जीव मरते हैं। साधु व्याख्यान देते समय हाथ ऊँचा नीचा करे, उसमें भी अनगणित वायुकाय के जीव मरते हैं। इसी तरह आँख का एक बाल चलता है तो उसमें भी अनेक वायुकाय के जीव मरते हैं। यदि आप यह कहो कि वंदना करने का, व्याख्यान देने का, परिणाम शुभ होता है; इससे उस हिंसा का फल नहीं होता, तो हमारी मूर्तिपूजा से फिर कौनसा अशुभ परिणाम या फल होता है, जो सारा पाप इसी के सिर मढ़ा जाय ? महाशय ! जरा समदशी बनो ताकि हमारे आपके परस्पर नाहक का कोई मत-भेद न रहे। प्र०-पूजा यत्नों से नहीं की जाती है। उ०-प्रभु पूजा सामायिक-पोसह प्रतिक्रमण गुरुवन्दनादि प्रत्येक क्रिया यत्नों से सोपयोग करनी चाहिये । पर अयत्ना देख उसे एक दम छोड़ ही नहीं देना चाहिये । जैसे:-श्रावक को (१९)-४० Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २९० सामायिक ३२ दोष वर्ज के करना कहा है। यदि किसो ने ३१ दोष टाले, किसी ने २९ दोष टाले, इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि एक दोष न टालने से सामायिक को ही छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार कई देश, काल ऐसे ही होते हैं कि, भनिच्छया जानबूझ के दोष का सेवन करना पड़ता है। जैसे साधुओं को पेशाब, टट्टी प्राम व नगर में नहीं परठना, ऐसा शास्त्रों में आदेश है, पर वे देशकाल को देख, जानबूझ कर इस दोष का सेवन करते हैं, ऐसे २ एक नहीं पर अनेकों उदाहरण विद्यमान हैं। प्र--सूत्रों में १२ कुल की भिक्षा लेना कहा है तब श्राप लोग एक जैन कुल की हो भिक्षा क्यों करते हो ? उ०-जैन कुल की भिक्षा लेना तो मना नहीं है न, जो १२ कुल की भिक्षा लेना लिखा है पर उस समय वे सब कुल प्रायः जैन धर्म पालन करते थे। उनका श्राचार, व्यवहार शुद्ध था और जैन मुनियों को बड़े ही आदर से भिक्षा दिया करते थे पर आज वे कई लोग जैन नहीं रहे, जिन के यहाँ ऋतुधर्म पालन नहीं होता हो, वासीविद्वल से परहेज नहीं, सुवासुतक (जन्म-मरण) का ख्याल नहीं, चार महा विगई आदि भभक्ष पदार्थों का त्याग नहीं, साधु को देख निंदा या दुगंच्छ करते हों अनादर से भिक्षा देते हों जिस कुल में भिक्षार्थ जाने से जैनधर्म व जैनसाधुओं की निन्दा होती हो ऐसे कुल में भिक्षा को जाना शास्त्रों में मना किया है। देखो "दशवकालिक सूत्र पांचवाँ अध्ययन पहला उद्देशा की सतरहवीं गाथा" तथो पूर्वोक्त कुल में भिक्षार्थ जाने से चतुर्मासिक प्रायश्चित होना भी निशीथ सूत्र में बतलाया है । . प्र०-सूत्रों में २१ प्रकार का पाणी लेना कहा है, आप केवल: ___ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर उष्ण जल हो लेते हो तो क्या इसमें आधाकर्मी का दोष नहीं लगता होगा ? उत्तर-२१ प्रकार का पानी लेना हम इन्कार नहीं करते है पर शास्त्रों में बतलाया वैसा पानी मिले तो लेना कोई दोष नहीं है, पर चूल्हों के पास अनेक प्रकार के पाणी एकत्र हो वैसा पानी लेना शास्त्रों में कहां भी नहीं कहा है कारण विस्पर्श होने से उसमें असंख्य त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं और अन्न संयुक्त पाणी में निगोदें जीव भी पैदा होते हैं और धोवण का काल भी थोड़ा है । वर्ण गन्ध रस स्पर्श पलटने से उसमें असंख्य जीव, पैदा होना आचारांग सूत्र में कहा है इसलिये जहां फाशुक धोवन न मिले वहा गरम पानी लेना मना नहीं है। अब रही श्राधाकर्मी की बात उसको भी सुन लीजिये कि न तो केवल गरम पानो लेने से आधा कर्मी दोष लगता है और न धोवण लेने से दोष से बच भी सकता है कारण बड़े-बड़े नगरों में गरम पाणी निर्दोष मिलता है तब छोटे गांवड़ों में धोवण भी दोषित मिलता हैं । गरम पानी पीने वालों को तो कहांकहां स्थावर जीवों का ही अपवाद से किंचित् दोष लगता है पर धोवण वालों को स्थावर जीवों के अलावे धोवण को काल के उपरान्त रखने से त्रसजीवों का भी पाप लगता है। कई लोग तो राख का, छाछ का, आटा का और साकर का पानी लेकर पीते हैं वे तो ऐसा पानी लाते हैं कि मानो प्रत्यक्ष में कच्चा पानी का ही सेवन करते हैं। हाँ, कपटाई और माया मृषावाद का पाप विशेष में सेवन करते हैं । बन्धुओं ! गामड़ों में जैन लोगों की बस्ती बहुत कम हो जाने से विहार के समय अपवाद में ऐसे दोष सबको Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० पु० वि० प्रश्नोत्तर २९२ लगते हैं उसकी आलोचना करे और शुद्ध फाशुक आहार पानी की गवेषण करेगा वह ही श्राराधक होगा ! शेष हलवाइयों की दुकानों पर वक्त बे वख्त फिरते रहना मानों एक जैनधर्म की, निन्दा करवा के मिध्यात्व का पोषण करना है । समझे न प्र० - मन्दिरों के लिये तो आपका कहना ठीक है, पर हम देखते हैं कि आपके संवेगी साधुओं के श्राचार में बड़ी शिथि लेता है ? उ०- हमारे साधुओं में आपने क्या आचार-शिथिलता देखी और आपके साधुओं में क्या उत्कृष्टता समझी, क्योंकि जमाने की हवा किसी एक समुदाय के लिये नहीं होती है, वह सबके लिये समान रूप में ही है । फिर भी आपको यह भ्रम-रोग हुआ हो तो कृपया बतलाइये कि उसका इलाज भी तैयार है ? 0 प्र० - आपके साधू विहार करते हैं, तब ऊँटगाड़ी और आदमी साथ में रखते हैं और उनकी बनाई रसोई से आहारपानी ले लेते हैं ? उ०- हमारे साधुओं के साथ भक्ति करने कराने वाले रहते हैं, जैसे कि तीर्थंकरों की सेवा में करोड़ों देव रहते थे, फिर जिनका पुण्य और श्रतिशय । पर आप बतलाइये कि आपके पूज्य फूलचन्दजी स्वामी श्री सम्मेतशिखर की यात्रार्थ और कलकत्ते की ओर पधारे। वहाँ रास्ता में बहुत से ग्राम मांसाहारी लोगों के आते हैं । मेरे खयाल से स्वामीजी ने उन मांसाहारी घरों का अन्न-जल तो नहीं लिया होगा । इस हालत में उनको आदमी रखना ही पड़ा और उन आदमियों की बनाई रसोई भी लेनी पड़ी। इसी भांति स्वामी घासीलालजी कराँची पधारे, तब Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर भी साथ में आदमी थे और उदार गृहस्थों ने रास्ते में गौचरी के लिये रुपये बँधाये थे । इस प्रकार दक्षिण विहारी साधुओं का हाल है और इस अपवाद से तेरहपन्थी साधु भी बच नहीं सके। उनके पूज्य जी के पीछे गाड़े और आदमी रहकर भोजन बनाके पूज्यजी के पात्र-पोषण करते हैं । यदि आप इसको अपवाद मानेंगे तो फिर दूसरों की व्यर्थ निन्दा क्यों ? संवेगियों में तो चतुर्विध-संघ का जाना आना कदीमी से है, पर आपने तो यह नया ही मार्ग निकाला है, इस पर भी दूसरों को निन्दा करना आपने क्यों पसन्द की है ? प्र०-आपके साधु हाथ में डण्डा क्यों रखते हैं ? उ.-यों तो साधुओं को गमनाऽगमन समय डण्डा रखना शास्त्रकारों ने फरमाया ही है, पर डण्डा रखने में प्रत्यक्ष कितने फायदे हैं---शरीर-रक्षा, संयम-रक्षा, नदी वगैरह उतरते पानी का माप, ब्रह्मचर्य की रक्षा, जीव-दया, जङ्गल में अकस्मात साधू बीमार हो जाय तो झोली कर उठाने में भी काम आता है और पूर्वोक्त कारणों में डण्डा रखना आप भी पसन्द करते हो, इतना ही क्यों आपके साधु रखते भी हैं। । प्र०-कई लोग कहते हैं कि धोवण पीना कठिन है, इसलिये संवेगी साधु गरम पानी पीते हैं ? . उ०-यह तो जिन्होंने अनुभव किया है वेही जानते हैं, क्योंकि धोवरण से इन्द्रियों को पोषण मिलता है । तब गरम पानी से इन्द्रियों का दमन होता है । जो वर्तमान धोवण होता है, इसमें अपकाय के तो क्या, पर त्रसजीव भी रहते हैं, जिसको फुवारा' कहते हैं और उनको तालाब कुंआ के किनारे गीली Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भू० पू० वि० प्रश्नोत्तर भूमि पर परठते हैं । वह भूमि बहुत दिनों की गीली होने से निगोद (नीलण फूलण) के अनन्त जीव संयुक्त होती है । उस घोवण के पानी एवं फुवारे परठने से एक ओर तो धोवण के स्पर्श से वे निगोद के अनन्त जीव मरते हैं, तब दूसरी ओर वे धोवण के त्रसजीव गायों आदि के खुरों से बुरी हालत में मरते हैं। इस प्रकार वनपाप की गठरी शिर पर उठाते हुए भी आप अपनेको उत्कृष्ट समझना इसमें सिवाय अज्ञानता एवं अन्ध पर. स्परा के और क्या हो सकता है इसके विषय में एक खास अनुभव घटना आपके सामने रख देता हूँ। जो खास कर मनन करने काबिल है। ___ एक छोटा गामड़ा में प्रोष्मऋतु के समय एक ओर से तो संवेगी मुनियों का आना हुआ तब उसी दिन उसी प्राम में स्थानकवासी साधुओं का पधारना हुआ पर श्रावकों के घर थोड़े और विवेक का भी अभाव था सिर्फ एक विधवा बहन स्थानकवासी साधुओं के परिचय वाली थी कि उसने अपने घर पर जाकर थोड़ा धोवण बनाया और वे साधु जा कर धोवण लाया पर गरमी के समय इतना पानी से क्या होने वाला था। साधुप्राम में जाट माली दरोगा वगरह इतर जातियों के वहाँ से और अन्त में कुंभारों के वहाँ से मिट्टी का पानी ले आये पर संवेगी साधु तो भूखे प्यासे ही बैठे रहे। इतने में एक श्रावक श्राया और कहने लगा कि- श्रावक-महाराज, आप भी गोचरी पधारो ? .. - महाराज- श्रावक, मैं घरों में जाकर पाया हूँ। किसी घर में गरम पानी नहीं मिला। फिर केवल गौचरी को ही क्या करें? Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर श्रावक-धारो मेरे साथ दरोगों के वहाँ से आपको धोवरण मिल जायगा। महाराज-दरोगा मॉस मदिरा तो नहीं खाते हैं न । श्रावक-ये तो उन लोगों में प्रथा है। 'महाराज-बस ? हम ऐसे घरोंका आहार पानी नहीं लेते हैं। श्रावक-हमारे महाराज तो वहां से धोवण चटनी, शाक और रोटो ले आये हैं फिर आप ही नहीं लेते हैं ऐसा क्या कारण है ? ___ महाराज--जिन घरों में मांस मदिरा खाते हों, वासी विद्वल नहीं टालते हो, सुवा-सुतक और ऋतुधर्म का परहेज नहीं रखा जाता हो, ऐसे घरों से आहार पानी साधुओं को नहीं लेना चाहिये क्योंकि ऐसे अशुद्ध श्राहार पानी खाने पीने से बुद्धि विध्वंस और चित्तवृति मलीन हो जाती है इसलिये शास्त्रकारों ने ऐसे घरों का आहार पानी लेना मना किया है। श्रावक-जब तो आपके लिये गरम पानी करना पड़ेगा पर इसमें प्रारंभ होगा? महाराज-मैं कब कहता हूँ कि तुम हमारे लिये गरम पानी करो। श्रावक-तो क्या आप हमारे ग्राम में भूखे प्यासे रहेंगे ? महाराज--इसमें क्या, हम साधु हैं । श्रावक-दूसरे महाराज तो हमारे यहाँ से धोवण ले गये । महाराज-वह धोवण किसके लिये बनाया था ? श्रावक--भद्रिकपना से सत्य कह दिया कि महाराज के लिये। महाराज-इसमें प्रारम्भ हुआ, वह पाप किसको लगेगा। • श्रावक-पर भारम्भ नहीं करे तो क्या इस गरमी में साधु ___ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २९६ प्यासा रहेगा । हम तो गृहस्थ हैं और प्रारम्भ में ही बैठे हैं धोवण बनाया तो इसमें हुआ क्या ? महाराज--नहीं। धोवण बनाने में तो कुछ नहीं परन्तु जो कुछ पाप और महापाप है तो गरम पानी बनाने में हैं। ____ श्रावक-नहीं महाराज हमारा प्राम छोटा है कभी साधु आते हैं तो हम धोवण भी करते हैं और गरम पानी भी करते हैं पर थोड़े दिनों पहिले आरजियाजी आये थे वे बाईकों गरम पानी करने के सोगन ( त्याग ) करवा दिया इसलिये बाई ने गरम पानी नहीं किया है। _ महाराज-क्यों भाई ! केवल गरम पानी का हो त्याग क्यों किया, क्या धोवण करने में पानी के जीव नहीं मरते ? और उसका पाप नहीं लगताहै ? श्रावक--धोवण बनाने में पानी के जीव तो मरते ही हैं। महाराज--फिर भारजियों ने धोवण करने के त्याग क्यों नहीं कराये ? श्रावक -महाराज ! हम तो गृहस्थ हैं । महाराज-अच्छा भाई धर्म-लाभ । उपरोक्त संवाद से आप समझ सकते हो कि कठिनाई धोवण पीने में है या गरम पानी पीने में । कदाचित् संवेगी साधुओं को गरम पानी मिल भी जाय तो उसको ठोरने में कितना समय चाहिये ? इस हालतमें भी यह कहदेना कि धोवण पीने में कठिनाई यह कितना अन्याय ? और अपनी शिथिलता का दोष औरों पर डालना यह कैसी माया कपटाई । .. प्र०-तब फिर कई लोग यह क्यों कहते हैं कि हमारी क्रिया Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर कठिन है जिन्होंसे नहीं पलती है वे लोग हमारे से निकल कर संवेगी बन जाते हैं। . उ०-यह केवल अपने भक्तों को आश्वशना देकर आंसू पूंछना ही है। भला, आपही सोचिये जिन्होंने दश बीस और तीसतीस वर्ष तक तो आपकी क्रिया पाली, आपकी समाज में उन्हों की बड़ी ही मान प्रतिष्ठा रही और आप लोग वाह-वाह करते थे जहाँ तक उन्होंने आपको समुदायका त्याग नहीं किया, फिर आपकी समुदाय का त्याग करते ही वे कैसे शिथिलाचारी हो गये ? इसको आप सच्चे हृदय से सोच सकते हो । यदि एक दो व्यक्ति के लिये तो श्राप स्वेच्छा कल्पना कर सकते हो और भद्रिक जनता उसे मान भी ले पर सैंकड़ों साधु निकल जाना और जिस समुदाय में जावें वहाँ प्रतिष्ठा प्राप्त करना यह कोई साधारण बात नहीं हैं । अब हम आपका भ्रम निवारणार्थ कतिपय उदाहरण यहाँ उद्धृत कर बतलाते हैं। संवेगी मुनियों की दिनचर्या स्थानकवासी साधुओं की दिनचर्या १-जितनी धर्म क्रिया करते हैं ०००स्थापनाचार्य नहीं रखते हैं वह स्थापनाचार्य के सामने इसलिये सब क्रिया अवि अदब के साथ करते हैं। वस्थ ही करते हैं । २-पिछली रात्रि में उठ कर ०००इस क्रिया को जानते भी इर्यावही पूर्वक कुसुमिणं नहीं हैं जा खास जरूरी है। दुसुमिणं० का काउस्सग्ग करते है। ३-जगचिन्तामणिका चैत्य- । ०००नहीं करते हैं। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु० पू० वि० प्रश्नोत्तर २९८ वन्दन जो वीतराग का xx भाव स्तव करते हैं। ४-भरहेसर की स्वद्याय जिसमें ०००नियमत स्वद्याय नहीं क उत्तम पुरुषों के गुणस्तव है ५-विधिपूर्वक प्रतिक्रमण (गई) विधि नहीं पर छोटा-सा प्रति __क्रमण करते हैं। ६-श्रीसीमंधरतीर्थकरका तथा ०००नहीं है। सिद्धाचल का चैत्यवन्दन । ७-क्रमशः प्रतिलेखन जिसमें | ०००न तो क्रम है और न हेतु जितनेपदार्थोकी प्रति लेखन ही है जहां बैठे वहां कपड़े की जाती है वह सब हेतु देख लेते हैं। सहित करते हैं। ८-गुरुवन्दन-स्वद्याय और विवस्था पूर्वक इसमें एक भी सज्जातरकाघर तथा सूक्षम ___ काम नहीं है । कार्य तक का भी गुरु श्रा देश लिया जाता है। ९-मन्दिर जाकर चैत्यवन्दन ०००मन्दिरों की निन्दा करते हैं। करते हैं (तीर्थकरों की xx भावस्तव-भक्ति। १०-पौरसी भणाणी मुँहपत्ती ०००समझते भी नहीं हैं। का प्रतिलेखन । ११-पठन पाठन करना। पठन पाठन करना। xx Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर १२-गोचरी-हाथ की कलाई पर । झोली हाथ में लटकती, पात्रों मोली, गुप्त पात्र और । की प्रसिद्धि, पडिला में तो जीव-दया निमित्त झोली समझते भी नहीं हैं। पर पडिला रखते हैं। १३-वासी विद्वल सुवा सुतक | इन दोषों से कोई भी दोष हो और ऋतुधर्म वाली के गोचरी ले लेते हैं जो निषेध हाथ से या घरों से भिक्षा किया कुल के वहां भी जा नहीं लेते हैं। कर भिक्षा ले लेते हैं। १४-गौचरी से आकर आलो- कार्य वही करते हैं पर विधि चन विधि पूर्वक करते हैं। नहीं जानते हैं। १५-जगचिन्तामणिका चैत्य- इस क्रिया स तो अज्ञात ही हैं वन्दन कर मुँहपत्ति का केवल थोडासा शब्दों से प्रतिलेखन पूर्वक पञ्चक्खांन पञ्चक्खांन पार लेते हैं । पारते हैं। १६-गौचरी करने के बाद बिना ०००इस बात को ये लोग सम चैत्यवन्दन किये पानी तक मते भी नहीं हैं क्रिया ता भी नहीं पी सकते हैं। कहाँ रही। १७-पठन पाठन । पठन पाठन । १८-विधिपूर्वक प्रतिलेखन स्व. प्रतिलेखन करते हैं पर विधि द्याय प्रत्याख्यान थंडिल पूर्वक नहीं, स्वद्याय का भी शुद्धि। नियम नहीं, थांडिल शुद्धि से तो अज्ञात ही हैं। १९-देववन्दन ( तीर्थंकरों की ०००नहीं करते हैं। स्तुति) Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नत्तोर २०-प्रतिक्रमण (देवसी) विधि- | विधि का क्रम नहीं है। पूर्वक । २१-चैत्यवन्दन ( चउकषाय ) ०००कुछ नहीं। २२-संस्तारा पौरसी। ०००कुछ नहीं। २३-पर्वादि तिथियों में बड़े देव- | ०००कुछ नहीं। वन्दन किये जाते हैं जिसमें दो दो तीन तीन घण्टे तक तीर्थंकरों को स्तुति वन्दन xx किये जाते हैं। २४-बड़ी दीक्षा के योगोद्वाहन ०००कुछ नहीं। में एक मास तक लगातार आबिल करते हैं। २५-कोई भी सूत्र पढ़ो उनके ०००समझते भी नहीं हैं। योगोद्वाहन करने पड़ते हैं जो श्रीभगवती सत्र के लगातार छः मास आबिल करने पड़ते हैं। उपरोक्त तालिका से आप समझ सकते हो कि स्थानकवासी साधुओं में ऐसी कोई भी धर्म क्रिया नहीं कि जो वह शास्त्रानुसार हो और जिसको संवेगी साधु नहीं करता हो, पर संवेगियों के अंदर ऐसी बहुत सी धर्म क्रियाएँ शास्त्रानुसार हैं कि जिसको श्राद्यविधि स्थानकवासी समझते भी नहीं हैं तो करना तो रहा ही कहां। ' फिरभी यह कहना कि हमारी कठिन क्रिया न पलने से स्थानकवासी साधु, संवेगी हो जाते है, यह कितना अन्याय, यह ___ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३०१ मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर कितना मिथ्याभिमान ? परन्तु आज भी स्थानकवासी समाज में ऐसे कई मुमुक्षु आत्मा हैं कि वे अच्छी तरह से समझते हैं कि संवेगियों की श्रद्धा और क्रिया शास्त्रानुसार है परन्तु क्या करें अब संवेगी बने तो इतना बड़ा प्रतिक्रमण और दूसरी भी क्रिया करनी पड़े इत्यादि विचार से वे इच्छाके न होनेपर भी बाड़ाबन्धी में अपने दिन निकाल रहे हैं। कभी तीर्थ और छोटे प्रामों में जाते हैं तब वे तीर्थंकरों की शान्त मूर्ति के दर्शन कर उल्लासित होतेहैं । प्र०-खैर । क्रिया श्राप के धर्म में ज्यादा है और हमारे साधु भी आपस में बातें करते हैं कि क्रिया का विधि विधान संवेगियों में अधिक है परन्तु यह तो आप को भी मानना पड़ता है कि तपस्या हमारे अन्दर ज्यादा है ? ___उ०-आप के अन्दर बाल-तप है क्योंकि शास्त्र में तो तीनोपवास के बाद एकान्त गरम पानी पीने का विधान है तब आप के अन्दर मुँह से और पत्रिकाओं में छपवाते हो कि अमुक महाराज ने एक मास एवं दो तीन चार मास के उपवास किया है और उस तपस्या के अन्दर खाटा, मोठा, चरका धोवण ही नहीं पर अधबिलोई छास तक भी पी जाते है । क्या यह समवायांग जी सूत्र समवाय ३० के अनुसार महामोहनीय कर्म बन्धका कारण नहीं है क्योंकि वहां स्पष्ट लिखा है कि तपस्वी नहीं और तपस्वी कहलावे तो महामाहेनीय (सितर कोड़ा कोड़ सागरोपम के) कर्म बन्धते हैं। तब संवेगियों के अन्दर एक उपवास से मास खामण दोमास तीनमास और चारमास की तपश्चर्या करने वाले भी सिवाय गरम पानी के कुछ भी नहीं पीते हैं साथ में आप की तपस्या तो केवल भूखा मरने की है क्योंकि आपके Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३०२ गुरुजी आंबिल एकासना तक के पचाक्खान तक भी नहीं करा जानते हैं और न कोई तपस्या का उद्यापनादि प्रभाविक विधान ही करते हैं जब संवेगियों में तपस्या के शुद्ध प्रत्याख्यान और तपस्या के बाद पूजा प्रभावना स्वमिवात्सल्य उज्जमना करते है बाना गाजा से मन्दिरों के दर्शन करते हैं। जिस चम्पाबाई की तपस्या का प्रभाव सम्राट् बादशाह अकबर पर हुआ था और उसने आचार्य श्री विजयहीरसूरिको आमन्त्रण पूर्वक बुलवा के भेट की एवं उपदेश सुना। फल स्वरूप में एक साल में ६ मास तक भारत भर में हिन्सा बन्ध करवाने का फरमान लिख दिया इतना ही क्यों, पर आचार्य श्रीजगच्चन्द्रसूरि की घोर तपश्चयों के कारण चित्तोड़ के महाराणा ने आप को 'सपाविरूद' दिग उनकी संतान में तप का करना सेकड़ों वर्षों से आज पर्यन्त चला आ रहा है। फिर भी संवेगी समुदाय में विशेष लक्ष ज्ञानाभ्यास की और दिया जाता है क्योंकि शास्त्रकारों का यही अभीष्ट है कि पहिले ज्ञान और बाद में क्रिया एवं तपस्या ज्ञान के अभाव में तपस्या केवल काया कष्ट एवं निःसार बतलाई है। प्रत्येक दीक्षित के पाठ में यही आता है कि दीक्षा लेते ही सब से पहिला सामायिकादि ग्यारांग या चौदहपूर्व का ज्ञान पढ़ा और बाद में चोथ छट्टमादि तपस्या की । जब आप अपनी समुदाय में देखिये धोवण और छास के आधार पर मास मास की तपस्या करने वालों को बोलने का भी होंसला नहीं । यदि उनकी प्रतिक्रमण की परीक्षा ली जाय तो १०० में पांच साधु साध्वियों के प्रतिक्रमण शायद शुद्ध मिलेंगे ? तब संवेगी साधुनों में आपको ऐसे सैंकड़ों साधु मिलेंगे जो उच्च कोटि के Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर विद्वान हैं और अनेक विषयों पर अनेकानेक ग्रन्थों को निर्माण कर साहित्य की सेवा करने वाले प्रसिद्ध हैं। और उन्हीं महापुरुषों का प्रभाव है कि आज संसार के साहित्य में जैन साहित्य का सर्वोपरी आसन समझा जा रहा है । इतना ही क्यों, पर आज तो पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वान उन धुरंधरों के रचित साहित्य की मुक्त कण्ठ से भूरि भूरि प्रशंसा कर रहे हैं। समझे न मेहरबान, यहां तो "ज्ञान क्रिया से मोक्ष" को मोक्ष मार्ग माना जाता है। प्र०--यह तो आप को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारे बनिस्बत श्राप के अन्दर आडम्बर विशेष बढ़ गया है ? उ.--हमारे तो तीर्थंकरों के समय भी यथावश्यक्ता आडंबर था ही जैसे सूरियामादि अनेक देवों ने भगवान के समवसरण में नाटक किया । श्रेणिक उदाइ चटेक दर्शानभद्र कूणिकादि अनेक भूपतियों ने भगवान् का वन्दन निमित नगरों को सुशोभित करना, सड़कों को छटकाना, पुरुषों और धूपों से दिशाएँ सुगन्धी मय बनाना, हस्ती अश्व स्थ और पैदल की सजावट करना, इत्यादि शंक्ख पोक्खली का स्वामिवात्साल्य द्रौपदो की सोलह सत्रह भेदो पूजा, धर्मचक्र इन्द्रध्वज आशोकवृक्ष भामण्ड. लादि सब प्रकार की सामग्री से जिन शासन की प्रभावना करते ही आये हैं। पूर्व जमाने में समाज की संख्या और समृद्धि विशाल थी । उस हालत में वे विशेषाडंबर करते थे आज हमारे पास जो है उस प्रमाण में हम भी करते हैं परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि जिस आडम्बर की जो लोक निंदा करते थे पाप और महापाप बतलाते थेवे हमारे से भी कई गुणांआगे पहुंच गये है। क्या Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर ३०४ किसी संवेगी साधुओं के चतुर्मास में और विशेष पर्युषण जैसे श्राराध्य दिनोंमें भट्टिये धधकती देखी या सुनी है जैसे स्थानकवासी साधुओं के चतुर्मास में देखी जा रही हैं । क्या किसी संवेगी साधुओं के तपस्या के पारणे में सैकड़ों लोग एकत्र होना देखा है जैसे स्थानकवासियों के यहां होता है। इसी प्रकार दीक्षा समय, पूज्य के मृत समय, इतना ही क्यों, पर हलते-चलते पूज्यजी एक नगर में पधारते हैं वहां पांच सात दिनोंमें हजारों का धूआँ करवा देते हैं । तेरहपन्थियों के पाट महोत्सव के दिन हजारों भावुक एकत्र होते हैं और रेल्वे को हजारों रू० किराये के देते हैं। अब सोचिये पूज्यजी के दर्शन का पुन्य ज्यादाहै या रत्वे के पैसों से पांचेन्द्रिय प्राणियोंकी हिंसा होगी उसका पाप ज्यादाहै फिर भी संवेगी समुदायतो बहुत प्राचीन वृद्धहै कि उनमें इतना आडम्बर नहीं रहा है पर हमारे स्थानकवासी और तेरहपन्थो अभी बालावस्था में हैं इसलिये आडम्बर और प्रारम्भ में संवेगियों से कई गुणे आगे बढ़े हुए हैं और न जाने भविष्य में और कहाँ तक बढ़ेगा क्यों ठीक है न मेहरबान ! फरमाइये और भी आपको कुछ पूछना है प्र०-मूर्तिपूजा का आप इतना आग्रह क्यों करते हैं ? क्या मूर्तिपूजा ने देश को कम नुक़सान पहुँचाया है ? पशु तो क्या पर नरबलि की प्रथा मूर्तियों द्वारा ही प्रचलित हुई है ? ____उ०-आप साधुओं का आग्रह क्यों करते हैं ? कारण, क्या पशु और क्या मनुष्यों का बलिदान और क्या मांस-मदिरा का प्रचार यह सब साधुओं द्वारा ही हुआ है और आज भी हजारों साधु मांस भक्षण करते हैं। प्र०-वे साधु हमारे जैन के एवं हमारी समुदाय के नहीं हैं ? Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ मू० पू० वि. प्रभोसर . उ०-तो क्या वे मूत्तियाँ हमारे जैन धर्म की हैं कि जिनके सामने पशु या नर बलि दी जाना बतलाते हो ? .. प्र०-मैं कब कहता हूँ कि वे जैन मूर्तियाँ हैं ? ___उ-तो फिर श्राप नरबलि का उदाहरण मूर्ति के साथ क्यों जोड़ देते हो ? यदि आप का यही श्राग्रह है तो आपके साधुनों के साथ भी माँस भक्षण की तुलना क्यों नहीं करते हो ? क्योंकि दुनियाँ में कई साधु भी माँस भक्षण करते हैं। वास्तव में यह आपकी अज्ञानता है कि आप बिना बिचारे यद्वतद्व बोल उठते हैं, फिर आपके घर पर आ पड़ती है तब लज्जित होना पड़ता है। वस्तुतः जैनमूर्तियों और जैन साधुओं का सत्कार-पूजा सात्विक पदार्थों से ही हुश्रा करता है और उनके निमित्त कारण से शान्ति, वैराग्य और आत्म-विकास होता है । समझे न भाई ? प्र०-क्योंजी, कई लोग यह कहते हैं कि मन्दिर मूर्तियों के कारण ही देश दरिद्रावस्था में आ पड़ा है, क्योंकि मन्दिरों के निर्माण में करोड़ों, अरबों रुपये लगा दिये हैं और यह द्रव्य मुट्ठीभर अनार्य लुटेरों ने खूब लूटा । दूसरे, इन मन्दिरों के पुजारियों वगैरह के लिये और यात्रार्थ घूमने में कितना खर्चा बढ़ा दिया है, क्या यह देश का कम नुकसान है ? उ०-आपके कथन से इतना तो स्वतः सिद्ध है कि मूत्तिपूजक समाज अपने द्रव्य बल से बड़ा ही सम्पत्ति सम्पन्न था कि वह चलते-फिरते हो करोड़ों रुपये मन्दिर मूर्तियों के निमित्त व्यय कर डालते थे कि जिनको न तो लुटेरे लूट सकते और न चौर ही चुरा सकते । हाँ, अनार्य लोगों ने धर्मान्धता के कारण भार्य मन्दिरों पर आक्रमण अवश्य किया, पर उन मार्य वीरों ने (२०)-४१ ___ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३०६ अपने धर्म की रक्षा के लिये प्राणों के रहते हुए उन मन्दिरों का रक्षण किया है। मूर्ति उस्थापक एवं मूर्ति भंजकों के हमलों से मन्दिर मूर्तिएँ कम नहीं हुये, पर बढ़ते ही गये इससे आप अनुमान लगो सकते हैं कि मन्दिर मूर्तियों के बनाने में आर्यों की सम्पत्ति बढ़ी है या घटी। अब जरा मूर्ति नहीं मानने वालों की ओर भी देखिये। आज सैकड़ों वर्षों से जो लोग मूर्ति नहीं मानते हैं और मन्दिर मूर्तियों के लिए जिन्होंने अपना द्रव्य व्यय नहीं किया है वे कितने धनाढ्य बन गये ? शायद देश की दारिद्रता का कारण उन कंजूम-मक्खी-चूम [जियों की शूमताही तो नहीं है कि वे स्वयं कंजूस होते हुए भी दूसरे उदारवृत्ति वालों की निन्दा कर देश के पुण्य को हटा रहे हैं ! फिर भी देश में अभी मन्दिर मूर्तियों के उपासक लोग विस्तृत संख्या में विद्यमान हैं और उनके घरों से प्रतिदिन थोड़ा बहुत द्रव्य,शुभ कार्यों में निकलता ही रहता है,और उसी पुण्य से उदार तो क्या पर कंजूस भी पैसा पात्र है एवं देश थोड़ा बहुत हराभरा नजर आता है। दूसरा तो क्या पर एक केवल श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय के एक साल भर का साढ़े तीन करोड़का खर्चा है, जो ३५० लखपति साल भर के धर्म कार्य में व्यय होते है अब हम थोड़ा आपसे भी पूछ लेते हैं कि हमारी तीर्थ यात्रा और मन्दिर तो आपकी कांनी आँख में खटक रहे हैं पर आपके यहाँ बड़े-बड़े स्थानक बँधाये जाते हैं, साधुओं की समाधियाँ, पादुकाएँ, और फोटू या चित्र बनाये जाते हैं, पूज्यनी के . दर्शनार्थी हज़ारों भक्त श्राते-जाते हैं लाखों करोड़ों रु० रेल्वे को किराया के दिये जाते हैं इत्यादि । इसका अर्थ क्या होता है ? । क्या देश की दरिद्रता में वृद्धि करने का तो इरादा नहीं है न! Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर वास्तव में न तो पुण्य कार्यों में द्रव्य व्यय करने से देश दरिद्र होता है और न मूंजी बनने से देश समृद्ध बनता है । शुभ कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग करने से देश के पुण्य बढ़ते हैं और ऐसे कार्य करनेवालों का इहलोक और परलोक दोनों में शीघ्रातिशीघ्र कल्याण होता है । समझे न भाई ? . .... प्र०-हम मूंनी रहने का कब कहते हैं ? ___उ०-तो फिर उपरोक्त प्रश्न का मतलब ही क्या होता है ? मुंजीपन भी कहाँ तक ? कोई तो कहता है कि हमारे सिवाय किसी को अन्न दान भी नहीं देना । कोई कहता है कि हमारी समुदाय के सिवाय कोई साधु ही नहीं है । कोई कहता है कि मन्दिरों में द्रव्य क्यों चढ़ाते हो,तो कोई कहता है कि यात्रार्थ क्यों तीर्थों पर भटकते हो, इत्यादि। यह कृत्य उदारता का है या कंजूसों का ! जैन धर्म कितना उदार है, कैसी वात्सल्य भावना रखता है, कारण कार्य को लेकर वे कितने विशाल भाव रखते हैं इन सब बातों को सोच समझकर उदारता पूर्वक, जैन मन्दिर मूर्तियों को सेवा पूजा भक्ति आदि करके जो मनुष्य जन्म मिला है इसे उत्तम साधनों द्वारा सार्थक बना लीजिये । समझा न । प्र०-आपके साधु पूजा में धर्म बताते हैं तो वे स्वयं पूजा क्यों नहीं करते हैं ? उ०-हमारे साधु भाव जा के अधिकारी हैं और भाव पूजा वे करते भी हैं ? प्र०-भाव पूजा के अलावा द्रव्य पूजा में भी आपके साधु धर्म बताते हैं तो धर्म कार्य तो उन्हें भी करना चाहिये ? . उ.-मैंने आपसे कहा था कि द्रव्य पूजा करने के वे अधिकारी Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू०५० वि• प्रभोत्तर ३०८ नहीं है । यदि ऐसा ही है तो फिर आपके साधु अभ्यागत गरीबों को दानदेने में पुण्य बताते हैं और स्वयं दान नहीं देते अतः उन्हें भी चाहिये कि अधिक से अधिक गोचरी लाकर उन अभ्यागत लोगों को दान देकर स्वयं भी पुण्योपार्जन करें। प्र०-ऐसा करना साधु का कल्प नहीं है ? ___उ०. तो जब मुँह से गृहस्थों को पुण्य बतलाना और स्वयं पुण्य कार्य न करना तथा दूसरों के कल्प के लिए कुतकें करना यह कहाँ का न्याय है ? - प्र०-वे अभ्यागत असंयति अवृत्ति हैं अतः हमारे साधु उन्हें आहार पानी नहीं देते हैं ? उ०-आपके महाराज का कल्प अर्थात् अधिकार न होने से वे पुण्य होने पर भी इस कार्य को नहीं करते हैं, पर आप जैसे उदार मनुष्य यदि यह पुण्य-कार्य करें उसमें पुण्य होता है या नहीं ? प्र०-पुण्य अवश्य होता है। उ०-तो बस, इसी प्रकार प्रभु पूजा के लिए भी समझ लीजिये कि साधुओं का कल्प अर्थात् अधिकार न होने के कारण वे द्रव्य पूजा नहीं कर सकते हैं पर अधिकार वाले गृहस्थ यदि द्रव्य पूजा करें तो उन्हें तो लाभ होता ही है । इतना ही क्यों पर आपके एक टोला का साधु दूसरे टोले के साधुओं (विसंभोगी) को तथा आर्याओं को आहार पानी नहीं देते हैं यदि किसी दिन आहार वच भी जाय तो जंगल में जाकर परठ देते हैं पर विसं. भोगी पाँच महाव्रतधारी साधु मानते हुए भी श्राहार पानी न तो देते हैं और न उनसे लेते हैं, किन्तु यदि कोई गृहस्थ उन साधु ___ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ मु. पु० कि० प्रभोसर साध्वियोंको आहार पानीदे तो उसमें उसे धर्मयापुण्य होताहै वा नहीं? . प्र०-क्यों नहीं अवश्य होता है। ____30-तो यहाँ भी आप यही बात जान लीजिये-साधुओं को द्रव्य-पूजा का अधिकार न होने से वे नहीं करते हैं पर गृहस्थ लोग अधिकाराऽवस्था होने से द्रव्य-पूजा करते हैं और उन्हें धर्म भी अवश्य होता है। ... प्र०-आपके साधु गृहस्थों को पूजा करने का उपदेश करते हैं वो क्या इसमें द्रव्य पूजा में काम आने वाले सचिन द्रव्यों की साधुओं द्वारा अनुमोदना नहीं होती होगी? .. ३०-इसमें साधु सञ्चित द्रव्यों की अनुमोदना नहीं करते हैं परन्तु श्रावक पूजा कर भगवान की भक्ति करते हैं उसी का उपदेश और अनुमोदन करते हैं । भला आप ही बतलाईये कि आपके साधु, श्रावकों को व्याख्यान श्रवण करने का उपदेश देते हैं और प्रतिज्ञा भी कराते हैं तो क्या इसका अनुमोदन भी आपके साधु करते होंगे कि “श्रावकजी आपने अच्छा काम किया कि आज व्याख्यान सुना।" . प्र०-हाँ ऐसा जरूर करते हैं। .... उ०-तो बताईये कि यह अनुमोदन आते-जाते जीव हिंसा हुई उसका है या व्याख्यान सुना उसका है ? प्र०-व्याख्यान सुनने का यह अनुमोदन है,नकि जीव हिंसाका। उ०-इसी प्रकार हमारे साधु भी प्रमु-पूजा का ही अनुमोदन करते हैं न कि सञ्चित द्रव्यों का। प्र०-पर सञ्चित द्रव्यों का उपमर्दन तो आपके मुनियों के उपदेश से ही हुश्रा है न ? Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३१० .. उ०-व्याख्यान में आना जाना आदि में जो जीव हिंसा हुइ वह आपके साधुओं के उपदेश से ही हुई है तो इस जीव हिंसा का पाप आपके साधुओं को लगता है वा नहीं ? - प्र०-हमारे साधु तो वीतराग की वाणी सुनने का अनुमोदन करते हैं, जीव हिंसा का नहीं। उ०-तो क्या हमारे साधु फिर हिंसा का अनुमोदन करते होंगे आपका ऐसा खयाल है ? यदि हाँ तो आपके मिथ्या पक्षपात की फिर कोई सीमा ही नहीं रही क्योंकि आपके व्याख्यान सुनने को आने जाने में और प्रभु-पूजा करने में कारण कार्य सहश अभेद होने पर भी आप तो निर्दोष और केवल हम ही सदोष ऐसा अनूठा न्याय कहाँ का है ? वास्तव में हमारे साधु भी प्रभु पूजा का ही अनुमोदन करते हैं न कि सञ्चित द्रव्यों के उपमर्दन का। प्र०-व्याख्यान में आने जाने में हिंसा तो होती है पर व्याख्यान श्रवण करने से ज्ञान भी तो होता है ? उ-यह तो हम पहिले हो कह पाए हैं कि ज्ञान होना श्रात्मा का उपादान है । व्याख्यान में एक प्रसङ्गऐसा भी आता है कि "प्रदेशीराजा की सुरीकान्ता रानी ने राजा को जहर दे दिया, या रावण सीता को ले गया। यदि इन व्याख्यानों को सुनकर कोई औरत अपने पति को विष दे दे, या कोई विषयी पुरुष सुन्दर औरत को उठा कर ले जाय, तो क्या यह व्याख्यान ही का ज्ञान नहीं है ? पर प्रभु-पूजा में ऐसी घटनाओं को स्वप्न भी नहीं, क्योंकि पूजक लोगों के आत्मा का ध्यान तीर्थक्करों की जन्म, राज्य, दीक्षा और सिद्धावस्था की ओर ही लगा रहता है । समझेन Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ मू० पू० वि० प्रश्नोसर माई साहिब ? फिर भी हमारे कहने का कोई यह अर्थ नहीं कि व्याख्यान सुनना बुरा है, किन्तु जब आप एक तरफी खींच रहे हैं, इसी लिए ऐसा एक उदाहरण दिया है। नहीं तो जैन लोग पूजा के समय पूजा करें, व्याख्यान के समय व्याख्यान सुनें और सदैव जिनाज्ञा को पालें, इसी में ही परम कल्याण है।। प्र-उत्तराऽध्ययन सूत्र में चार अङ्ग,मनुष्य-जन्म,' सूत्रों की श्रद्धा, संयम और वीर्य मिलना दुर्लभ कहा है। वहाँ मूर्ति-पूजा का मिलना दुर्लभ क्यों नहीं बतलाया है । ____उ०-पूजा तो इन चारों अङ्गों के अन्तर्गत आ गई है, पर आप यह बतावें कि इन चारों अङ्गों में दान, शील, तप आदि क्यों नहीं पाए और यह नहीं आने से आप इन्हें व्यर्थ ही मानते होंगे तो फिर व्यर्थ का यह कष्ट क्यों किया जाता है ? प्र०-दान, शील, तप श्रादि यदि चार अङ्गों में नहीं भी है तो क्या हुआ, दूसरे सूत्रों में तो हैं न ? । उ.-मूर्ति-पूजा भी चार अङ्गों में स्पष्टाक्षररूप में नहीं तो क्या हुश्रा, दूसरे सूत्रों में तो विस्तार से है और उन दूसरे सूत्रों पर श्रद्धा रखने से हो चार अङ्गों में दूसरा अङ्ग (सूत्रों की श्रद्धा) माना हुश्रा कहा जा सकता है। प्र०-आपका उत्तर सुनने में मुझे बड़ा आनन्द होता है। आपकी युक्तिएँ प्रबल और अकाट्य हैं । न्यायपूर्वक दूसरों को वर्क करने को स्थान नहीं मिलता है। उ०-मुझे भी इस बात का हर्ष है कि आपने न्याय को हृदय में स्थान दिया है । अतः मैं मेरे समय का सदुपयोग होना समझता हूँ, और भी कोई पूछना हो तो पूछिये । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ भू.पू. वि. प्रभोत्तर प्र०-शास्त्रों में तीर्थ चार प्रकार के बताए हैं, वहाँ शत्रु. जय और गिरनार का नाम नहीं है ? उ.-वे चार तीर्थ कौन हैं ? कृपया बताइये ? प्र०-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । उ०-इन चार तीर्थों में तीर्थङ्कर तो रह ही गए, बतलाइये । वे किस तीर्थ में हैं ? - प्र०.- तीर्थङ्कर साधु-तीर्थ में समझे जाते होंगे। उ०-तो फिर "नमो अरिहंताणं" और "नमो लोए सव्व साहूणं" ये दो पद पृथक २ क्यों कहे जाते हैं, एक ही क्यों नहीं कहा जाता है ? : प्र०-आप तो ऐसा उत्तर देते हैं कि हमको उल्टा झमेले में डाल देते हैं। न तो चार तीर्थों में तीर्थङ्कर अन्तर्गत होते हैं और न उनका स्वतंत्र नाम है । यदि इन्हें साधु-तीर्थ में समझे तो नवकार में दो पद कहना व्यर्थ हो जाता है । अब आप ही बताइये कि इसका क्या रहस्य है ? | उ०-तीर्थङ्कर हैं वे तीर्थ-पति एवं तीर्थ स्थापक हैं और वे स्थापित तीर्थ चार प्रकार के हैं। जब शत्रुञ्जय गिरनार आदि तीर्थों पर तीर्थङ्करों की मूर्तिएँ स्थापित होने से वे तीर्थ-पतिः एवं सीर्थाऽधिराज कहाते हैं, तब चतुर्विध तीर्थ जैसे तीर्थङ्करों की भक्ति कर लाभ उठाते हैं, वैसे ही इन तीर्थों को सेवा-भक्ति करके भी लाभ उठा सकते हैं और उठा रहे हैं। क्यों समझे न भाई साहिब ? . प्र०-खैर ! यह तो आपका कहना ठीक है, पर हमारे पूज्यजी महाराज फरमाते हैं कि जैन सूत्रों में चाहे "तुंगियानगरी ___ ww Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर के श्रावकों ने जिनप्रतिमा की पूजा की हो, चाहे द्रौपी ने, चाहे आनन्द और चाहे अम्बड़ ने, चाहे सुरियाम, चाहे शक्रेन्द्र ने पूजा की हो, पर ये सब चरित्राऽनुवाद है।" यदि विधिवाद में कहीं पर प्रतिमा पूजन लिखी हो तो बतलाओ, हम मानने को तैयार हैं । कहिये इसका क्या जबाब देते हो ? उ०- पहिले आप अपने पूज्यजी से यह तो समझ चुके हैं न कि विधिवाद किसे कहते हैं और चरित्राऽनुवाद किसे कहते हैं और किसी वस्तु का विधि-वाद न होने पर उसको चरित्राऽनुवाद से मानते हैं या नहीं ? प्र० - हाँ, मैंने समझ लिया है । विधि-वाद उसे कहते हैं कि जिसका संघ को उद्देश्य कर तीर्थङ्करों व गणधरों ने विधान करना बतलाया हो, उसे विधि-वाद कहते हैं और कई एक व्यक्तियों ने अपने जीवन में जो कुछ कार्य किया हो, उसे चरित्राऽनुवाद कहते हैं। समाज को यह श्रावश्यक नहीं कि यदि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में जो कुछ किया, उसे स्वयं भी करे, जैसे-सुरियाम, शकेन्द्र, द्रौपदी या मृगवती, श्रानन्द या अम्बड़ और तुंगियानगरी के श्रावक या सावत्थी के श्राबकों ने जिन-प्रतिमा को पूजी तो इससे हम सब समाज भी मूर्तिपूजक बन जाये । उ०- यह सवाल आपने केवल मूर्ति-पूजा के लिये ही शोध निकाला है, या आपके और विधानों के लिए भी लागू हो सकता है ? प्र० - हाँ, हमारे और विधानों के लिए भी लागू हो सकता है, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३१४ पर आप यह बतलावें कि हम किस चरित्राऽनुवाद का अनुकरण करते हैं ? ९० - आप दिनभर मुँहपर मुँह-पत्ती बाँधने का आग्रह करते हो, यह किस विधि-वाद का पाठ है और आपके, श्रावक की सामायिक पौसह किस विधि-वाद के अनुसार है ? 1 प्र० -- मेघकुमार की दीक्षा के समय आठ पुड़ की मुँहपत्ती से मुँह का बाँधना लिखा है और यह पाठ सूत्रों का है । सोमिल ब्राह्मण ने काष्ठ की मुँह पत्ती से मुँह बाँधा था । गौतम स्वामी ने मृगवती रानी के कहने से मुँह बाँधा था और श्रावक के सामायिक पौसा प्रत्याख्यान का वर्णन आनन्दश्रावक के अधिकार में श्राता है। उ०- - मेघकुमार के अधिकार में हजामत करने के समय नाई ने मुँह पर आठवाला वस्त्र बाँधा और सोमलने मिथ्या - प्रव्रज्या के समय काष्ठ की मुँह पत्तो बाँधी, परन्तु सम्यक् दृष्टि देवता ने उन्हें मिथ्यात्व कहा है और इस मिथ्या दशा को त्यागने के लिये ४ दिन तक समझाया । आखिर पाँचवें दिन यह बात सोमल के मम में आगई कि मेरी यह मान्यता मिथ्या है । तब उसने उस मिथ्या प्रवृत्ति अर्थात् मुहबांधने का त्याग कर फिर सम्यक्त्व धारण कर लिया तथा गौतम स्वामी ने जो अपना मुख बाँधा 粉 थो, वह दुर्गन्ध के कारण ही बाँधा था। फिर भी यह उदाहरण तो सबके सब चरित्राऽनुवाद के ही है, न कि विधि वाद के । अत्र आगे आपके श्रावक सामायिक पौसह और प्रतिक्रमण करते हैं; ये किस विधि-वाद के अनुसार करते हैं और इसके विधान का देख किस शास्त्र में है, कृपया बताइये ? Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर प्र०-मैंने सुना है कि प्रतिक्रमण करना आवश्यक सूत्र में बतलाया गया है। उ०—अच्छा तो लीजिये ये ३२ सूत्र, इनमें आपका आवश्यक सूत्र भी है, जिसका भाषाऽनुवाद आपके पण्डित मुनि श्री अमोलखऋषिजी ने किया है। इसमें से एक अक्षर तो निकाल के बता दो कि इसमें श्रावक के प्रतिक्रमण, सामायिक और पोसह का उल्लेख है ? ___प्र०-आवश्यक सूत्र को हाथ में उठा कर अथ से इति तक पढ़ लिया, पर कहीं एक अक्षर भी श्रावक के सामायिक, प्रतिक्रमण और पोसह का नहीं मिला । तब लाचार हो दूसरा रूप बदला और हिम्मत कर कहा कि इसमें तो शायद नहीं है, पर इससे क्या हुआ, आनन्द और सक्ख श्रावक के अधिकार में ____उ०-अरे भाई ! वहाँ भी विधान नहीं है और यदि नामोल्लेख है भी तो यह चरित्राऽनुवाद है, विधि-वाद नहीं और आप तो चरित्राऽनुवाद को मानने से इन्कार है तथा केवल विधि-वाद का प्रामह किये हुए हैं, किन्तु विधि-वाद में कहीं इनका ( सामायिक, पोसह और प्रतिक्रमण का ) नामोनिशान भी नहीं है, किन्तु फिर भी उन्हें तो मान लेना और परमेश्वर का पूजा के लिए विधि-वाद और चरित्राऽनुवाद का झमेला खड़ा करना यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? प्र०-तो क्या हमारे सामायिक, पोसह और प्रतिक्रमण चरित्राऽनुवाद से किये जाते हैं और इसी भांति मापके यहाँ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ मू० पू० वि० प्रश्नोतर मूर्ति-पूजा भी चरित्राऽनुवाद के आधार पर ही की जाती है। क्यों यह ठीक है न ? ____उ--नहीं, मूर्ति-पूजा के लिए तो जैसे चरित्राऽनुवाद है, वैसे विधि-वाद भी है। देखो, महानिशीथसूत्र में मन्दिर बनवाने वाले को बारहवाँ स्वर्ग मिलना बतलाया है और प्रभु-प्रतिमा की आठ प्रकार से पूजा करना लिखा है तथा सत्रह प्रकार की पूजा का विधान रोजप्रश्नी-सूत्र में बताया है । प्रमाद के वश होकर साधु हमेशां मन्दिर न जाय तो उसके लिए छट्ट का प्रायश्चित का विधान भी महाकल्पादि सूत्रों में वर्णित है और ये सब के सब विधि-वाद के द्योतक हैं। प्र०-पर महानिशीथसूत्र और महाकल्पसूत्र तो ३२ बत्तीस सूत्रों में नहीं हैं इसलिए हम इन्हें प्रामाणिक नहीं मानते हैं। उ०-- आप नहीं मानें तो क्या हुआ, क्या अखिल शासन का अधिकार आप पर ही अवलंबित है। यों तो दिगम्बर कहते हैं कि हम वस्त्र रखने वालों को साधु ही नहीं मानते हैं, और तेरहपन्थी कहते हैं कि जीव वचाने का उपदेश देनेवाले को हम साधु नहीं मानते हैं तो आप क्या इनका कथन भी सत्य मानोगे ? प्र०-नहीं इनका कहना बिल्कुल मिथ्या है। उ-तो फिर आपका कहना भी कौन सत्य मानेगा ? हमारे लिए तो आप भी इन्हीं की कोटि में ही हैं। क्योंकि दिगम्बरशास्त्र ही नहीं मानते हैं तब श्राप ३२ सूत्र वे भी मूलपाठ मानने का श्राग्रह करते हो । तो क्या ऐसे तूटे हुए एक एक अंग पर अखिलशासन क आधार समझा जा सकता है ? कदापि नहीं। मिसाल है कि Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ मू० पू०वि० प्रश्नोत्तर एक तीटोड़ी नाम का खुद्र जीव सोने के समय दोनों पैर आकाश की ओर ऊँचे कर देता है उसका अभिमान है कि श्राकाश खड़ा है वह मेरे पैरों के आधार पर ही है नहीं तो कभी का टूट पड़ता " बस इसी कहावत को आप ठीक चरितार्थ कर रहे हैं कि इस बात को हम नहीं मानें। पर आप पर शासन का आधार क्या ? कुछ भी नहीं । प्र० - हमारे पूज्य घासीलालजी महाराज ने हाल ही में "श्री उपासकदशाङ्गसूत्र" की संस्कृत में टीका, छाया तथा हिन्दी गुजराती में अनुवाद लिख कर मुद्रित करवाया है । उसमें से भी कई एक प्रश्न श्रापको पूछते हैं । कहिये ! क्या आप कृण कर उत्तर दे सकेंगे ? उम्मे- क्यों नहीं खुशी से उत्तर दूँगा; पूछिये ! प्र० - पूर्वोक्त " उपासकदशांगसूत्र" पुस्तक के पृष्ठ ४७ पर हमारे पूज्यजी ने लिखा है कि: www. 66 - उस बुद्धदास को ही जिनदास ने अपनी स्वभाव से भद्रा सुभद्रा नाम की पुत्री विवाह विधि से प्रदान करदी और विविध प्रकार के रत्न, सुवर्ण, हीरे आदि के आभूषणों के साथ दास, दासी, आसन, यान, आदि तथा पूंजरणी. डोरासहित मुखवस्त्रिका से शोभाय मान करके कुल की रीति के अनुसार सम्मान के साथ ससुराल भेजदी" - इस लेख से यह पाया जाता है कि पूर्व जमाना में जैन लोग अपनी पुत्रियों का व्याह कर ससुराल भेजते थे तब रत्नादि के Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू०पू० वि० प्रभोत्तर ३९८ साथ पूंजणी श्रीर डोरासहित मुँहपत्ती से शोभायमान करके हो भेजते थे, इससे यह सिद्ध होता है कि मुँहपत्ती में डोराडान उसको मुँहपर बाँधना बहुत प्राचीन समय से प्रचलित है। इस हालत में आप इस रिवाज को नया क्यों बतलाते हो ? . ___उ०--पूंजणी और डोरासहित मुखवस्त्रिका से शोभायमान कर ससुराल भेजने का अर्थ क्या होता है ? क्या हाथ में पूंजी और मुंहपर डोरावाली मुँहपत्ती बन्धाकर उस सुभद्रा को सुशोभित कर ससुराल भेजी; यही अर्थ होता है न ? प्र-कुछ देर चुप रह कर और सोचकर बोला कि नहीं जी, ऐसा कभी हो सकता है । पूंजणी आदि उसके साथ में दी थी। उ-तो उसने उन्हें साथ में रक्खा ? या बक्स में बन्द कर दिया । '' प्र-रत्न आदि जेबरों के साथ उसको भी बक्स में बन्द कर रख दिया होगा। ___उ०-तो फिर 'शोभायमान" करके लिखा है इसका क्या अर्थ हुआ ? क्योंकि वस्त्राऽऽभूषण तोधारण करने से सुशोभित होता है यदि कोई वस्त्र आभूषणों को बक्स में बन्द कर बारात आदि में आय तो क्या कोई बराती उसे शोभायमान कह सकता है ? प्र--नहीं । वस्त्र आभूषण तो पहिनने से ही शोभायमान दीखता है। _____उ०-तब पूंजणी, और डोरासहितमुँहपत्ती को बक्स में रख कोई कैसे शोभायमान दीख सकता है ? . प्र०--तो मानलो कि सुभद्रा ने पूंजणी हाथ में और डोरा सहित मुंहपत्ती मुंहपर बाँध ली होगी और इसी से वह शोभाय ___ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर - - मान दीखतो हो तो क्या हर्ज है ? क्योंकि आरजियोंजी महाराज भी जब रवाना होते हैं तब इसी तरह शोभायमान दिखते हैं । उ.---श्राग्रह के वशीभूत हो जाते हैं उनके लिये हर्जा और हांसी कोई वस्तु ही नहीं है पर किसी मध्यस्थ पुरुषसे पुच्छे कि हमारे श्रारजियां, हाथ में पूंजणी (ओघा) और मुँहपर मुँहपत्ती बान्धकर विहार करता हैं वे कैसे शोभायमान दीख पड़ती हैं ? तब ही आपको मालूम होगा कि जैनमुनियों का वेश देवताओं को भी वल्लभथा पर कुलिंग धारण करने से आज मनुष्यों एवं पशुभों को भी अरूची का कारण हो रहा है । खैर प्राजियों की बात छोड़ो, क्योंकि वे लोक व्यवहार को छोड़ दिया अतएव उनके लिये कुछ नहीं कहना है पर सुभद्रा तो गृहस्थ थी क्या गृहस्थों का ऐसा व्यवहार किसी सिद्धान्त व इतिहास में आपने देखा है ? यदि सुभद्रा को सुशोभित करना ही पूज्यजी का उद्देश्य है तो सुभद्रा के लिए इस लेख के लिखने में पूज्यजी महाराज का हृदय कुछ संकीर्ण मालूम होता है अन्यथा डोरा सहित मुंहपत्ती लिखी वहाँ पर मुँहपत्ती पर कुछ सजमा सतारा और मोतियों का काम किया हुश्रा लिख देते तो सुभद्रा की शोभा और भी बढ़ जाती। पर शायद पूज्यजी महाराज ने पीछे होने वाले सुधारकों और टीकाकारों के लिए इतनी जगह रख छोड़ी होगी नहीं तो वे विचारे फिर पूज्यजी से अधिक क्या लिख सकेंगे ? प्र०-क्या मुंहपत्ती पर सलमा-सितारा या मोतियों का काम भी हो सकता है ? उ०-क्यों नहीं-शोभायमान तो तभी हो सकती है । खैर ! पर आपने पूज्यजी महाराज से यह भी तो निर्णय कर लिया ___ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___व० प्रश्नोत्तर १२० है न ? कि यह मुँहपत्ती किस समुदाय या किस टोला के आम्नाय की थी। क्योंकि यदि छोटी मुंहपत्ती थी तो वह देशो साधुओं की निशानी है, और बड़ी हो तो प्रदेशी साधुओं का मार्क है तथा लम्बी थी तो तेरह पन्थियों की निशानी होती है। कहिये । सुभद्रा के मुहपत्ती कौन सी था। . प्र०-अजी महाराज ! सबसे पहिले तो छोटी मुंहपत्ती ही थी, बाद में प्रदेशी साधुओं ने अपनी उत्कृष्टता बतलाने के लिए बड़ी मुँहपत्ती और तेरहपंथियों ने लम्बी मुँहपत्तो बना डाली है। उ.-तो क्या आप देशो साधुओं के भक्त हैं ? प्र०-इससे आपको क्या मतलब है । उ०-मतलब कोई नहीं; केवल आप छोटी महपत्ती का पक्ष लेते हो इससे कहता हूँ। कि आप देशी साधुओं के भक्त है। प्र०-इसमें पक्ष करने की क्या बात है। हमारे पज्यजी के कई एक फोटू विद्यमान हैं जिनमें छोटी मुंहपत्ती हैं और श्रीशंकर मुनिजी ने सचित्र मुखवस्त्रिका निर्णय"नामक पुस्तक में भगवान ऋषभदेव और गजसुखमाल आदि के, तथा प्र० ब० मुनिश्रीचौथमलजी ने स्वलिखित "भगवान् महावीर यांचा सन्देश" नामक पुस्तक में भगवान महावीर के मुंहपर भी डोरा सहित छोटो मुँहपत्ती बँधाई है जो देशी साधु बाँधते हैं। ____उ०-पर भाई साहिब ! इस टीका के लिखने वाले पज्यजी तो प्रदेशी साधु हैं। भला वे इतनी बड़ी सेणीश्राविका को छोटी मुंहपत्ती बँधाकर अपने समुदाय में से कैसे जाने देंगे; यह भी आपने कभी सोचा है ! प्र०-खेर ! कुछ भी हो यह हम आपस में निपट लेंगे, पर Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर मुँहपत्ती में डोरा डालकर बांधने की प्रवृत्ति तो जरूर प्राचीन है यह तो आप मानते हैं न ? उ०- यह प्रवृत्ति प्राचीन है अथवा अर्वाचीन, इस विषय में तो मैंने एक स्वतन्त्र पुस्तक लिखी है । परन्तु इस बात की पुष्टि के लिए आपके पूज्यजी ने कुछ भी प्रमाण नहीं दिया है । तो हम उसे प्राचीन कैसे मानलें ? प्र० - प्रमाण क्यों नहीं दिया है यानि जरूर दिया है । देखो "श्री उपासक दशांगसूत्र" में निम्न लिखित प्रमाण दिया है: - "जिस नगरी में भगवान् महावीर ने “डोरा सहित मुखवस्त्रिका " बांध कर विधि पूर्वक सामायिक करने से अनन्त कर्मों की निर्जरा होती है । ऐसा उपदेश महाराज कूणिक को दिया था" -- उपासक दशांग सूत्र पृष्ठ ५४ X X X जयपठ्ठे मुँहपति सदोरगं बंधए मुहे निच्चं "पृष्ठ २१३” अर्थात् खास भगवान् ने कूणिक को कहा है कि डोरा सहित मुँहपत्ती मुँह पर बाँध के सामायिक करने से अनंत कर्मों की निर्जरा होती है तथा गुरु के लक्षण बतलाते हुए स्वरचित संग्रह गाथाओं में बतलाया है कि जयगा के लिए डोराडाल मुँहपत्ती हमेशा बांधी रक्खे वही साधु एवं गुरु कहला सकता है। इस से अधिक क्या प्रमाण चाहते हो ? उ०- वाह ! आपका प्रमाण बड़ा हो जबर्दस्त है । जैसेकिसी ने कहा कि मेरी मां सती है । दूसरे ने पूछा कि इसका सबूत ? इस पर वह वक्ता कट बोल उठा कि मैं कहता हूँ (२१) ४२ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३२२ कि मेरी मां सती है इससे अधिक प्रमाण क्या चाहते हो ? बस ठीक यही बात आप पर भी चरितार्थ होती है। इससे ज्यादा श्राप या आपके पूज्यजी भी क्या प्रमाण बतला सकते हैं। शास्त्रीय और ऐतिहासिक प्रमाण तो अति दुर्लभ हैं किन्तु पौने तीन सौ वर्षों पूर्व किसी श्रापके पूर्वजों ने डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती बांधी हो उसका भी कोई चित्र या हस्त लिखित प्रमाण नहीं बतला सकते हो । इससे शायद यह भ्रम होता है कि आपके पूर्वजों को इतना भी ज्ञान नहीं था, अन्यथा आपके पूज्यजी की भाँति टीका बनाकर आपके प्रमाण के लिए छोड़ जाते तो इसवक्त आपको कम से कम पौने तीन सौ वर्षों का प्राचीन प्रमाण तो उपलब्ध हो ही जाता पर करे क्या, या तो उनको वत्सूत्र भाषण का थोड़ा बहुत भय होगा या इतनी कुतकें उनके मंगज में पैदा ही नहीं हुई होंगी । प्र० - तो क्या हमारे पूज्यजी ने यों ही लिख दिया कि सुभद्रा को पूंजणी और डोरा सहित मुँहपती से शोभायमान कर ससुराल भेज दी ? उ०- हाँ ! यों ही नहीं लिखते तो पूज्यजी को कोई प्रमाण देना था । देखिये - श्री भगवती सूत्र शतक ११ उद्देश्या ११ में राजकुमार महाबल का आठ राजकन्याओं के साथ लग्न होना और उसमें से प्रत्येक कन्या के पिता का अपनी २ पुत्री को १९२-१९२ वस्तुओं का दत्त दायजा देना मूलसूत्र के पाठ में लिखा मिलता है। जिसमें बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी वस्तु का उल्लेख है पर पूंजणी और डोरासहित मुँहपती की कहीं गन्ध भी नहीं आती है । इसी प्रकार अन्तगढ़दशाङ्गसूत्र में सुलसा के छः पुत्रों के विवाह प्रसङ्ग ३२- ३२ कन्याओं के Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर पिता का दत्त दायजा देने का अधिकार है पर डोरावाली मुँहपत्ती और पूंजी का वहाँ भी जिक्र नहीं है । तब आपके पूज्यजी को केवल अनोखा यह स्वप्न कैसे आ गया ? प्र० -- शायद महाबल का विवाह जैनेतरों के यहाँ हुआ हो और जैनों के घरों में सिवाय सुभद्रा के कोई कन्या जन्मी ही नहीं हो और इसी कारण सूत्रों में पूंजी और डोरा वाली मुंहपत्ती से शोभायमान कर कन्या को ससुराल भेजने का अधिकार न आया हो तो यह संभव हो सकता है । उ०- - वाह ! भाई वाह ! यह ठीक कहा । आपके अर्वाचीन पूर्वजों ने पूर्व किसी गति में रह कर तो कुदरत को भी उपदेश दे दिया होगा कि लाखों वर्षों तक जैनियों के घरों में एक सुभद्रा के सिवाय और किसी कन्या का जन्म तक भी नहीं होने दिया, खैर ! पर जब राजा श्रोणिक की रानिएँ काली, महा काली, नन्दा र सुनन्दा ने दीक्षा ली तो उनके साथ श्रोघा, पात्रा तो दिये पर आप की पूंजी और डोरा सहति मुंहपत्ति क्यों भूल गए ? क्योंकि आपकी मान्यतानुसार दीक्षा के समय तो उनकी खास जरूरत होती है । शायद आपके पूज्यजी अब उन शेष सूत्रों की भी टीकाएँ करेंगे तब ऐसा लिख देंगे और यह भी आपके लिए प्रमाणार्थ उपयोगी बन जायगा । वास्तव में न तो भगवान महावीर ने कूणिक को मुँह बाँधने का उपदेश दिया है और न किसी जैनशास्त्र में गुरु के लक्षण वर्णन में मुँहपत्ती बाँधने का जिक्र आया है । और न सुभद्रा को हाथ में पूँजी तथा डोरासहित मुँहपत्ती देकर शोभायमान बताई थी । और न यह शोभायमान के कारण ही हैं। पर यह Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पु० वि० प्रश्नोत्तर ३२४ तो आजकल स्थानकवासी साधु जब तडातड़ मुँहपत्ती का डोरा तोड़ मूर्तिपूजा स्वीकार कर रहे हैं तब अवशिष्ट साधु मण्डली को इस प्रवृत्ति से रोकने के लिए ही या अबोध लोगों को आश्वासन देने के निमित्त यह मिथ्या प्रपञ्च रचा है। किन्तु सौभाग्यवश अब स्थानकवासी समाज भी पहिले जैसा अज्ञान नहीं है कि पूज्यजी जैसों की स्वकपोलकल्पित गाथाओं पर तनिक भी विश्वास करले । वे लोग तो पूज्यजी को प्रमाण पूछते हैं कि पौने तीन सौ वर्ष पहिले के किसी ग्रन्थ, शास्त्र या इतिहास में कोई प्रमाण हो तो बताओ ! अन्यथा केवल श्राप के कहने मात्र से कैसे मान लें कि पूर्व जमाना में डोरा डाल मुँहपत्ती मुँहपर बाँधी जाती थी, और इसके जवाब के लिये आपके पूज्यजी के पास प्रमाणका पूरा प्रभाव ही है । जब हाथ में मुँहपत्ती रखने के सैकड़ों प्रमाण विद्यमान हैं, तब मुँहपत्ती बाँधने का एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं। स्थानकवासियों के धर्म प्रवर्तकगुरु स्वयं लौंकाशाहने किसी भी अवस्था में डोरा डाल दिनभर मुँहपर मुँहपत्ती नहीं बाँधी थी, और न लौंकाशाहके बाद २०० वर्षों तक किसीने भी मुंहपर मुंहपत्तो बाँधी, यही क्यों लौंकामतके श्रीपूज्य और यती वर्ग आज भी सैकड़ों विद्यमान हैं किन्तु वे मुंहपर मेहपत्ती बाँधनेका घोर विरोध करते हैं और डोरा डाल मुंहपत्ती बाँधने वालों से प्रमाण पूछते हैं कि वे किस प्रमाण से मुंहपर डोराडाल मुंहपत्ती बाँधते हैं। यदि आपके पूज्यजी महाराज में कुछ भी ताकत है तो वे पहिले अपने पूर्वजोंकी संतानको प्रमाण बता कर उनसे डोराडाल मुंहपत्ती महपर बंधावे, बादमें दूसरोंसे प्रश्न करें । महासती सुभद्राको पूंजणी और डोरासहित मुंहपत्ती से शोभायमान करने का पूज्यजी ने मिथ्या Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर प्रयत्न किया है क्योंकि आपके पूज्यजी के कथनाऽनुसार निश्चय हो जाता है कि महासती सुभद्रा परमेश्वर की त्रिकाल पूजा करने वाली थी, समझे न मेहरबान ! प्र०-अरे ! भाई ! यह क्या कहते हो कि सुभद्रा पूजा किया करती थी। पूज्यजी महाराज ने सुभद्रा का मूर्तिपूजना कहाँ पर लिखा है ? उ०-पूज्यजी खुल्लम-खुल्ला तो कब लिख सकते हैं पर सत्य की झलक किसी प्रकार से आगे आए बिना नहीं रह सकती है। प्र-तो अच्छा बताइये यह सत्य की झलक कहाँ से श्रा रही है ? उ०-लीजिये:-"श्रीउपासकदशाङ्गसूत्र" पृष्ठ ४९ पर आपके पूज्यजी महाराज लिखते है। “सुभद्रा ललाट फलकाऽवस्थितं तिलक, तस्य मुनेललाटे संलग्नम्" हिन्दी:-सुभद्रा के ललाट में लगा हुआ तिलक मुनि के ललाट में भी लग गया" इसका अर्थ यही होता है कि महासती सुभद्रा जिस समय परमेश्वर की पूजा कर आई, और उसी समय मुनि भिक्षार्थ उस के घर पर गए, और उनकी आँख से फूस (तनखा) निकलाते वक्त उसका गीला तिलक मुनि के ललाट पर लग गया था । क्या पूज्यजी के इस कथन से महासती सुभद्रा का पूजा करना सिद्ध नहीं होता है ? (अपितु अवश्य होता है) प्र०-क्या आपके यहाँ औरतें भी हमेशा पूजा करती हैं ? उ०-यह आपने कैसा अज्ञातपने का प्रश्न किया क्योंकिधर्म Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३२६ क्रिया के लिए क्या स्त्री क्या पुरुष सभी स्वतंत्र हैं । अपना षट्कर्म तो सब-कोई करते हैं । यदि औरतें सामयिक, पौषह, प्रतिक्रमण, प्रभु पूजा आदि धर्म कार्य करें तो इसमें आश्चर्य करने की क्या बात है। आपने महासती द्रौपदी की कथा नहीं सुनी है कि वह विवाह जैसे राग-रंग, धाम-धूम के समय में भी स्वयम्वर मण्डप में जाने के पहिले अपने घर देरासर और नगर मन्दिर की पूजा करने गई. थी तो अन्य दिनों की तो बात ही क्या है ! प्र०-क्या बिना पूजा के औरतें तिलक नहीं करती हैं ? उ०-हाँ, पूजा नहीं करने वाली स्त्रियां ललाट पर तिलक नहीं करती; किन्तु केवल कपाल पर सौभाग्य-बिन्दो लगाती है। स्वयं सुभद्रा भी जब ससुराल गई है तो उसके तिलक का वर्णन आपके पूज्यजी ने नहीं किया है क्योंकि तिलक तो पूजा के समय ही किया जाता है और उस समय शायद सुभद्रा ने पूजा पहले करली होगी। इससे रवानाके समय तिलक का वर्णन पूज्यजी ने नहीं किया है । सौभाग्य बिन्दी तो स्त्री का शृङ्गार है अतः बिन्दी हर समय लगा सकती है और पूर्व में जो हमने "उपासक दशांग सूत्र” का तिलक वाला उद्धरण दिया है वह पूजा करने के समय का है। क्यों समझे न ? अब जरा आप अपने पूज्यजी से पूछो कि आप३२ सूत्र मानने का तो आग्रह करते हैं पर उपासकदशाङ्गसूत्र की टीका की ओट में "चम्पा नगरी का यह कल्पित इतिहास" कहाँ से ढूंढ निकाला है ? क्योंकि उस इतिहास के पृष्ट ४४ पर एक केवली के मुंह से मरकी की शान्ति के लिए आश्विनवदी ८ अष्टमी को श्रांविल करना बतलाया है, यह किस प्रमाण से। क्योंकि जैनागमानुसार जैन लोग 'आश्विनसुदि ७ और ८ को आंबिल श्रीली का प्रारंभ बताते हैं । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ० शायद, यह कारण तो न हो कि कई स्थानकवासी भाई भी श्रश्विन सुदि ७ से प्रारंभ होने वाली आंबिल ओली में शामिल हो जाते हैं, उन्हें रोकने के लिए ही अपना ओलि तप कृष्णपक्ष से पृथक् प्रारम्भ किया है । अथवा आपके ही समुदाय के प्र० मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने एक नया “श्रीपाल " कविता बद्ध बनाया है उसमें विल तप की महिमा श्रश्विन शुक्लपक्ष से लिखी है। क्या उसी का विरोध तो पूज्यजी ने कृष्णपक्ष लिख कर नहीं किया है ? प्र० - बिल तो जब कभी करे, तभी अच्छा है । उ०- हाँ यह बात तो ठीक है, पर आंबिलतप आश्विन कृष्णाऽष्टमी से प्रारम्भ करवाना इसका क्या रहस्य है ? शायद यही तो न हो कि जिसको चोथमलजी स्वामी शुक्लपक्ष बतलावें तो पूज्यजी उससे उल्टा कृष्णपक्ष ही बतावें ताकि दोनों समुदाय के लोग आपस में मिल नहीं सकें । प्र० - जो कुछ हो परन्तु हमारे पूज्यजी ने कोई यों ही तो नहीं लिखा है, वे तो इतिहास के बड़े जानकार हैं, अतः सोच समझ कर ही लिखा होगा ? उ - क्यों नहीं ऐसे विद्वान् जब इतिहास के जानकार हैं तब उनके कहने में शंका को स्थान ही क्यों मिले ? इसीसे तो आपके पूज्यजी ने उ० पृ० ४८ पर लिखा है: "बेटी ! अपने घर में बुद्धदेव की उपासना होती है, तुम भी उन्हीं की उपासना किया करो" । अर्थात् सुभद्रा की सासु सुभद्रा को कह रही है कि अपने घर में Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३२८ बुद्धदेव की उपासना होती है तुम भी करो । परन्तु इसका क्या मतलब हुआ ? उपासना स्वयं बुद्धदेव की होती थी या उनको मूर्ति की । यदि बुद्धदेव की मूर्ति थी तो बुद्धके पूर्व जैनों में मूर्तिपूजा विद्यमान होना ऐतिहासिक साधनों से सिद्ध हो चुका है। इसलिये आपके पूज्यजी की ऐतिहासिकता के विषय में कुछ अधिक न कह कर इतना ही कहना पर्याय है कि सुभद्रा के समय बुद्ध का जन्म हुआ था या नहीं, बुद्ध का समय और सुभद्रा का समय को मिलाने से आपको ज्ञात होगा कि सुभद्रा के समय बुद्धदेव का जन्म भी नहीं हुआ था तो उनका मत और मूर्तियों के लिए तो कहना ही कहाँ रहा ? फिरभी इसे जरा किन्हीं प्रामाणिक ऐतिहासिक साधनों पर निर्णीत कर बतलावें कि सुभद्रा के समय कौनसा बुद्धदेव था ? प्र०-हमारे समुदाय में तो साधुनों को वन्दना “तिक्खुता" के पाठ से करते हैं और हमारे पूज्यजी महाराज ने इसी पुस्तक के पृष्ट ३६ पर लिखा भी है कि:__"गुरुओं के पास आकर "तिक्खुता" के पाठ से उन्हें वन्दन करते हैं ? पर आप “तिक्खुतो" न कह कर “इच्छामि खमासमणो" कहते हो, यह क्यों ? उ०-"तिक्खुतो" तो ठीक, पर पाठ से वन्दना करने का क्या अर्थ है ? प्र०-हमारे पूज्यजी महाराज ने ऐसा लिखा है। .. उ० -आपके पूज्यजी महाराज का ज्ञान तो अपार है, पर आपको ही किसी ने समझाया तो होगा कि “तिक्खुता" के पाठ से वन्दन किस तरह की जाती है ? Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर प्र०-"तिक्खुता" का पाठ बोलना और तीन बार ऊठबैठ के वन्दना करना। उ०-इस प्रकार किसी सूत्र में किसी ने वन्दना की है ? प्र०-हाँ बहुत से सूत्रों में ऐसा पाठ है । उ०-भला एक पाठ तो बतला दीजिये ? प्र०-लीजिये-"श्री उववाइ सूत्र" में राजा कूणिक भगवान को वन्दना करते हैं जैसे कि "समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो अायाहिणं पयाहिणं करति करता वंदति णमसंति वंदित्ता नमंसित्ता णिचासण गइदूरे सुस्मुसमाणं नमसमाणं अभिमुहा विणएण पंजलिउड़ा पज्जुबासँति" श्री उववाइसूत्र पृष्ट ९० मुनि श्री अमोलखर्षिजी कृत हिन्दी अनुवाद उ०-इसका मतलब क्या हुआ ? प्र०-कूणिक राजा ने श्रमण भगवंत महावीर को मर्यादा सहित तीन बार प्रदक्षिणा की,और प्रदक्षिणा करके वन्दन किया। उ०-तो जब आप अपने पूज्यजी को यही कहते हो न कि कूणिक ने तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दना की थी। इससे यह तो साबित नहीं होता कि आप भी स्वतंत्र अपने पूज्यजी को वन्दना करते हो। प्र०—क्यों हमारी वन्दना कैसे नहीं हुई ? उ०-आपने तो कूणिक की प्रदक्षिणा की बात सुनाई है। उसे वन्दना करना कैसे कहा जा सकता है। और यदि सच पूछा जाय तब तो यह उल्टो एक प्रकार से पूज्यजी का श्राप द्वारा किया गया अपमान है क्योंकि मुँह से दूसरों की प्रदक्षिणा का Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३३० उदाहरण देकर स्वयं न करना यह कैसी भक्ति है ? वास्तव में कूणिक ने वन्दन किया था उसका उल्लेख उसी प्रकार गणधरों ने किया है कि उन्होंने तीन प्रदक्षिणा कर बादमें विधि पूर्वक वन्दन किया। दूसरों को यह पाठ बोलने के लिये है या इसके अनुसार वर्तन करने के ( आचरण करने के ) लिए है । पर आपके यहाँ ( स्थानकवासी समाज में ) यह एक अन्ध परम्परा चल रही है कि जब श्रावक आकर साधुत्रों के सामने "तिक्खुतो" पाठ कह दे तब वन्दना हो जाती है और इसी झूठी परम्परा के कारण पूज्यजी ने भी लिख दिया है कि तिक्खुता के पाठ से वन्दन करें। पर आपके ही समुदाय के मुनिश्री अमोल खर्षिजी ने श्रीश्रावश्यकसूत्र के पृष्ठ ४५ पर लिखा है कि "गुरु आदिको वन्दन नमस्कार करते समय कहना कि: " इच्छाकारेण संदिसह भगवान् अज्ज्ञ 'विहं अभितर देवसियं खमरं " इच्छ" खामेमि देवसियं जं किंचि पत्तियं पर पत्तियं भत्ते पाणे विणए वेयावच्चे आलावे संलावे उच्चासरणे समासणे अंतरभासाए उवरीभासाए जं किं च मझ विणिय परिहीणं सुहूमं वा वायरंवा तुम्भे जाह अहं न याणामि तस्समिच्छामि दकड़ें" [ 'यद्यपि यह मूल पाठ अशुद्ध है, पर जैसा स्वामीजी ने छापा है वैसा ही यहाँ लिख दिया है ] उपर्युक्त विधि वर्त्तमान जैनों में विद्यमान है । इतना ही क्यों, पर इसके पूर्व इच्छामि खमासमणो और सुहराइ सुहदेवसि एवं दो विधान और भी किये जाते हैं। १ अब्भुहिहि भोमि, ऐसा पाठ होना चाहिये । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर मेहरबान ! जरा पक्षपात छोड़ एवं निर्णय बुद्धि रख, विचार करो ताकि आपका मालूम हो जाय कि शुद्ध सनातन एवं सत्य वस्तु क्या है । प्र० - हमारे पूज्यनो ने गुरु के लक्षणों में पृष्ट २१२ पर लिखा है कि : ३३१ " भक्ति भाव से साथ चलने वाले गृहस्थों का, तथा अपने लिए बनाया हुआ आहार, नहीं लेने वाले होते हैं" फिर आप (जैन) तो संघ में तथा विहार में साथ चलने वालों से आहार पानी ले लेते हो यह क्यों ? उ०- यह केवल कहने मात्र के लिए और आप जैसे भोले भावुक भक्तों को अपनी उत्कृष्टता बतलाने के लिए ही है । अन्यथा आपके पूज्य जवाहरलालजी म० जोधपुर का चौमासा कर वहाँ से विहार करके दो मोल नागौरी वेरा पर ठहरे और जोधपुर के भक्तों ने स्पेशियल द्वारा वहां पहुंच रसोई बनाई और उस रसोई से आपके साधुओं ने पात्रा भर २ कर गोचरी ली। शायद इसके लिये ही तो वह उल्लेख न किया हो पर स्वामी फूलचन्दजी जब करांची गए तब रास्ते में मांसाहारियों के ग्राम होने के कारण अपने साथ में गृहस्थों को रक्खे थे और उनसे अपनी गोचरी लेते थे तथा इसी तरह शिखरजी के रास्ते में दूसरा खास आपके इस सूत्र को छपाने वाले पूज्य घासीलालजी अपने शिष्यों के साथ करांची गए तब रास्ता में मांसाहारियों के ग्राम आये थे जगह गृहस्थों को साथ रक्खे और उनसे गोचरी ली। इस हालत में भी यदि आपके पूज्यजी महाराज दूसरों को उपदेश दें या उनकी निन्दा करें तो इसमें कौनसी सभ्यता है ? Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३३२ प्र० – पृष्ठ २२८ पर हमारे पूज्यजी महाराज लिखते हैं कि " वीतराग भगवान की भक्ति करनी चाहिए, उनका दर्शन करना चाहिए और उनके वचन सुनना चाहिए" इनमें बचन सुनना और -भक्ति करना तो हमसे बन सकता है पर दर्शन कैसे हो सकते हैं क्योंकि वे तो मोक्ष में पधार गए हैं। इसका क्या उत्तर है ? उ०- यह तो आप अपने पूज्यजी से ही पूछें कि वे आपको इस पंचम आरा में भी कोई वीतराग बतलादें। यदि आप उन्हें नहीं पूछकर मुझे ही पूछते हो तो चलो हमारे साथ मन्दिर में, हम आपको शान्तमुद्राऽवस्थित पद्मासन विराजमान बीतराग के दर्शन करवा दें। बिना इसके आपके पूज्यजी का पाठ सार्थक नहीं हो • सकता है समझेन । प्र० - पृष्ठ २३८ पर हमारे पूज्यजी ने गृहस्थों के लिए - सातवें व्रत में केवल २६ द्रव्य रखना ही लिखा है तो क्या इस से अधिक की जरूरत हो तो हम रख सकते हैं या नहीं ? उ० – श्रावक जितना कम द्रव्य रक्खें, उतना ही अच्छा है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे२६ द्रव्योंसे अधिक नहीं रख सकें या जिन २६ द्रव्यों का आपके पूज्यजी ने नाम लिखा है उन्हें ही रक्खें | किन्तु जिस किसी को २६ द्रव्य में से किसी द्रव्य की आवश्यकता न हो वह उसे नहीं रक्खे और २६ द्रव्यों से इतर किसी अन्य द्रव्य की आवश्यकता हो तो उसे रख ले | अब यदि किसी को १२५ दव्य की आवश्यकता हों या किसी को ६ द्रव्य की ही जरूरत हों तो वह उतने ही रख सकता है । पूज्यजी ने तो जो २६ द्रव्य लिखे हैं वे श्रानन्दजी के रखने के अनुसार बिना सोचे समझे लिख दिये हैं और ज्यों त्यों करके अपनी Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर टीका के कलेवर को बढ़ाने की कोशिश की है। यदि आपके पूज्यजी से आप कभी मिलें तो इस विषय में प्रसङ्गोपात पूछें कि व्रतों की विधि में इन २६ द्रव्यों का विधान किस सूत्र में लिखा है तथा क्या कोई व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार द्रव्य नहीं रख सकता है ? विश्वास है तब आपको सच्चा ज्ञान हो जायगा । प्र० - पृष्ट २४८ पर हमारे पूज्यजी ने - " सामायिक करने के समय साधु हो तो उन्हें वन्दना करके और यदि साधुन हो तो श्री वर्धमान स्वामी को वन्दना करके उनसे सामायिक की श्राज्ञा लेकर सामायिक करे " - यह लिखा है तो फिर आप स्थापनाजी. क्यों रखते हो ? | उ०- वाह वाह । श्रापके पूज्यजी की यह विद्वत्ता कम नहीं है । क्योंकि आपके पूज्यजी ने साधुओं के दूसरे नम्बर में श्री वर्धमान स्वामी को समझा है कि “साधु न हो तो वर्धमानस्वामी को वन्दना कर काम चला लेना” परन्तु भला तुम जब वन्दना करते हो तब दो वार प्रवेश और एक बार निखमण किसके अवग्रह से करते हो ? क्या वर्धमानस्वामी की स्थापना करते हो ? या किसी आकाश में ही उनकी कल्पना कर लेते हो ? विशेष इस विषय में मैं पहिले ही खुलासा कर चुका हूँ कि स्थापना की परमावश्यकता है । प्र० - पृष्ट २७८ पर आनन्दश्रावक ने "दहीबड़ा" खाना रक्खा है और हमारे पूज्यजी ने भी इसका समर्थन किया है तब आप इसमें पाप क्यों बतलाते हो ? उ०- यह आपके पूज्यजी की आन्तरिक भावना का प्रदर्शन है कि सूत्र में तो दहीबड़ा का नाम निशान भी नहीं है और Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३३४ आपने चट से लिख दिया कि दहीवड़ा खाना आनन्द ने रखा है शायद आपके पूज्यजी को दहीबड़ा विशेष रुचिकर होगा; अन्यथा देखिये मूलसूत्रः"ननत्थ सेहंब दालियं बेहि अबसेसं परिमाणं करइ" स्वामी अमोलखर्षिजी कृत हिन्दी अनुवादः "जेमने की विधि का प्रमाण करते वक्त दाल के बड़े तथा पुड़े रक्खे और जेमन के प्रत्याख्यान, "उपासकदशांग सूत्र पृष्ठ १५" - यह भी आपके ही घर का अनुवाद है किन्तु इसमें दहीबड़े का नाम तक नहीं मिलता है। अब आपके पूज्य जी द्वारा किया गया उक्त मूल पाठ का अर्थ भी देख लीजिये:___"फिर जेमन विधि का परिमाण किया कि दाल के बने हुए और अधिक खटाई में डाले हुए पदार्थ जैसे दहीबड़ा के अतिरिक्त और सब जेमन विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।" पृष्ट २७९" ___ उपरोक्त मूल सूत्र के पाठ में दही, छास, आदि खटाई का नाम तक नहीं है। स्वामी अमोलखर्षिजी के हिन्दी अनुवाद में भी दही छास आदि खटाई का खटास नहीं है, फिर नये विद्वान् पूज्यजी ने यह दहीबड़ा कहाँ से निकाल दिया और क्यों कर विरक्ताऽवस्था में दहीबड़े पर सहसा रुचि दौड़ गई ? प्रियवर ! सांप्रतिक वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म यंत्र द्वारा शोध कर यह जाहिर कर दिया है कि ऐसे पदार्थों के मिश्रण से असंख्य जीवोस्पति होती है। फिर समझ में नहीं आता है कि पूज्यजी महाराज अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन ऐसी भद्दी बातों में क्यों करवा रहे हैं। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर - प्र०-पृष्ट ३३४ पर हमारे पूज्य जी महाराज ने लिखा है: "अन्नउत्थिय परिग्गहियाणिं अरिहन्त चेइयाणिवा वंदित्त एवा नमंसितए वा" इस पाठ का हिन्दी अर्थः-अन्य यूथिकों द्वारा स्वीकृत अर्थात् अन्यतीथिक साधुओं में मिले हुए अरिहन्त चैत्य ( जैन साधुओं) को तथा उपलक्षण से अवसन्न पार्श्वस्थ आदि को भी वन्दन नमस्कार करना नहीं कल्पता है।" तब फिर आप वहाँ चैत्य का अर्थ जिन-प्रतिमा क्यों करते हो ? उ०-इसके लिए अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मैं इस प्रश्नोत्तर माला में पहिले ही खुलासा कर चुका हूँ। दूसरा “मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास” नामक पुस्तक में आनन्द श्रावक के अधिकार में प्रामाणिक प्रमाणों द्वारा अच्छी तरह से इस बात का विवेचन कर दिया है। फिर भी आप का विश्वास यदि पूज्यजी महाराज पर ही हो तो आपके पूज्यजी के भी बड़े पूज्यजी (जो इस अलग समुदाय के स्थापक हैं) श्रीहुकमीचन्दजी महाराज ने अपने हाथों से २१ सूत्र लिखे हैं जिनमें आपने “ उपासकदशाङ्ग सूत्र" भी लिखा है, उसमें पूज्यजी महाराज ने निवालिस (निर्मल) हृदय से लिख दिया कि अन्यतोत्थियों से ग्रहण की हुई जिन-प्रतिमा आनन्द श्रावक को वन्दन नमस्कार करना नहीं कल्पता है । वह हस्तलिखित प्रति बहुत काल तक पूज्यश्रीलालजी महाराज के पास रही थी बाद में स्वामी डालचन्दजी ने जब ब्यावर में स्थिरवास किया तब पूज्यजी ने वह प्रति स्वामी डालचन्द जी महाराज को दे दी थी। कृपा कर आप और आपके पूज्यजी महाराज, पहिले उस सूत्र को प्रति को देख लें ? Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३३६ ___ आगे आपके पूज्यजी महाराज, चैत्य शब्द का अर्थ के लिए तथा तीर्थङ्करों की मूर्तियों की पूजा के लिए यद्वा तद्वा शब्द लिख अपने मगज की सब शक्ति का व्यय कर चुके हैं। किन्तु फिर भी मूर्ति का विषय इतना व्यापक सिद्धान्त है कि आपको इस विषय का पूर्णतया अभ्यास करने में बहुत समय की आवश्यकता है क्योंकि मूर्तिपूजा शास्त्रों से सिद्ध है सो तो है ही; किन्तु आज तो अनेक पुरातत्त्व विशारद पौवत्यि और पाश्चात्यों की शोधखोज से इतने ऐतिहासिक साधन उपलब्ध हुए हैं कि भगवान महावीर के पूर्व भी जैनों में मूर्तिपूजा खास धर्माराधन का एक अंग समझा जाता था। इस विषय में यदि विशेष जानना हो तो देखो "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास प्रकरण पाँचवा।" इसके पढ़ने से आपको पूर्ण सन्तोष हो जायगा कि जैनों में मूर्तिपूजो का मानना सनातन से चला आया है। यदि आपके पूज्यजी महाराज का विशेष आग्रह आनन्दश्रावक के अधिकार में आया हुश्रा अरिहन्तचैत्य के बारे में ही है जिसका अर्थ पूज्यजी ने जैन साधु किया है और इसे सिद्ध करने को इधर उधर की ऊट पटांग अनेक बातें लिखी हैं, पर पहिले अपने घर में तो देख लेते कि हमारे पूर्वजों ने जैन मूत्रों में जहाँ चत्य शब्द आया है वहाँ उसका अर्थ साधु किया है या प्रतिमा ?-उदाहरण के तौर पर देखिये:(१)-स्थानकवासी साधु अमोलखर्षिजी - श्रीउववाई सूत्र में 'चइया' (चैत्य) शब्द का अर्थ यक्ष का ___ मन्दिर किया है। -श्री उववाइ सूत्र में पूर्णभद्र चैत्य का अर्थ किया है-मन्दिर। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भू० ५० वि० प्रश्नोत्तर -श्रीप्रभव्याकरण सूत्र पृष्ट ८ में चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया है। -श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र पृष्ट १२२ में चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया है। (२)-स्थानकवासी साधु जेठमलजी ने समकितसार प्रन्थ के पृष्ट १०६ पर चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया है। आगे १२४ पृष्ठ पर भी चैत्य का अर्थ प्रतिमा पुनः पृष्ठ १२६ पर भी चैत्य शब्द का अर्थ प्रतिमा ही किया है। (३)-स्थानकवासी समाज के प्रसिद्ध विद्वान् स्वामि रत्नचन्द जी शतावधानीजी ने अपने अर्द्धमागधी कोश में चैत्य का अर्थ इस प्रकार किया है कि "अरिहंत चेइया (पु० ना०) अर्हचैत्य-अरिहंत संबंधी कोइपण स्मारक चिंह्न" (४)--आप स्वयं पूज्यजी ने भी इसी उपासकदशांग सूत्र के ___पृष्ठ ६ पर पूर्णभद्र चैत्य का अर्थ मन्दिर ही किया है । इसके अलावा विद्वानों ने इस बात को स्वीकार कर ली है कि चैत्य का अर्थ प्रतिमादि स्मारक चिन्ह ही होता है यदि विशेष देखने की इच्छा हो तो उन्हें "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक के पृष्ट ९९ से देखना चाहिये । ___ प्र०-हमारे पूज्यजी महाराज ने उपासकदशांग सूत्र में लिखा है कि वीतराग देव की सावध पूजा करने वाले संसार में चिरकाल भ्रमण करेगा ? उ०-आप ही बतलाइये कि सावध पूजा किसको कहते हैं ? उ-जिस पूजा में हिंसा होती हो ? (२२)-४३ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३३८ उ०- जब तो श्री वीतराग देव को वन्दन करने वाले भी संसार में भ्रमण करेगा ही । क्योंकि वन्दना करने में भी तो ऊठ-बैठ करने में असंख्य वायुकाय के जीवों की हिंसा होती है, समझे न । प्र० - पूजा करने में तो वायुकाय के अलावा जल पुष्प अग्नि के जीवों की भी हिंसा होती है ? उ०- भगवान् ने यह कब फरमाया था कि वायुकाय के जीवों के लिये तुम्हें छूट है कि कितने ही जीव मरे पर तुम्हें पाप नहीं लगेगा । प्रः – - वीतराग की वन्दन करने में अध्वसाय शुभ होने से उस हिंसा का पाप नहीं लगता है पर पुन्य एवं शुभ कर्म बंधते हैं । उ०- तो क्या पूजा करने में हमारे परिणाम खराब रहना आप समझते हैं ? प्र० - नहीं । परिणाम तो खराब नहीं रहता है । - फिर आपके वन्दना करने में वायुकाय के जीवों की हिंसा हो उसका तो श्रापको पाप नहीं लगे और हमको पूजा करने में पाप लग जाय यह किस कोस्ट का न्याय है । जरा हृदय पर हाथ धर आपही सोचें कि उत्सून भाषण करना, परमेश्वर की भक्ति का निषेद करना, और इस कारण से बेचारे भद्रिक लोगों को बहका कर धर्म से पतित बनाने वाले तो संसार में भ्रमण नहीं करे पर संसार से पार हो जायगा, और पूर्णभक्ति से परमेश्वर की सेवा पूजा भक्ति, चैत्यवन्दन स्तुति स्तवनादि क्रिया करने वाले संसार में भ्रमण करेगा | क्या आपकी अन्तरात्मा इस बात को स्वीकार कर लेगा, सच्चे दिल से आप ही कह दीजिये ? प्र० - मेरी आत्मा तो इस बात को स्वीकार नहीं करती है 111 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर पर क्या करें हमारे पूज्यजी महाराज कहें उसे स्वीकार तो करना ही पड़ता है। उ०-यह तो आप जैसा से ही बन आसकता है कि समझ लेने पर भी आप मिथ्या हट को नहीं छोड़ते हो और पूज्यजी की लीहाज में आकर अपना अहित करने को तैयार हो रहे हो । पर याद रखो इसका नतीजा इस भव और परभव में क्या होगा। अभी भी आपके लिये समय है, सोचो समझो और सत्य को ग्रहण करो। मुझे तो आपकी दया आरही है क्योंकि आप सच्चे जिज्ञासु हैं इसलिये ही कहना है कि आप परमेश्वर की पूजा कर आपना कल्याण करें, फिरतो श्रापकी मरजी। प्र०--बस ! अब मैं आपको विशेष कष्ट देना नहीं चाहता हूँ क्योंकि मैं आपके प्रारंभिक प्रश्नोत्तर से ही सब रहस्य समझ गया, पर यदि कोई मुझ से पूछ ले उस को जवाब देने के लिये मैंने आप से इतने प्रश्न किये हैं। आपने निष्पक्ष होकर न्यायपूर्वक जो उत्तर दिया उससे मेरी आन्तरात्मा को अत्यधिक शान्ति मिली है। यह बात सत्य है कि बीतराग दशा की मूर्तियों की उपासना करने से आत्मा का क्रमशः विकास होता है । मूर्ति बिना क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, क्या समाजी और क्या क्रिश्चियन किसीका भी काम नहीं चल सकता। चाहे वे प्रत्यक्ष में माने,चाहे परोक्ष में माने पर मूर्ति के सामने तो सबको शिर अवश्य झुकाना ही पड़ता है । मैं भी आजसे मूर्ति का उपासक हूँ और मूर्तिपूजा में मेरी दृढ़ श्रद्धा है-आप को जो कष्ट दिया, तदर्थ क्षमा चाहता हूँ। और अब तो मेरे भोजन का समय हो गया है वास्ते रजा लेता हूँ। ___ उ-अच्छा भाईसाहब । आप गुणग्राही हैं और सत्य को ग्रहण करने वाले हैं इसलिए मैं मेरी टाइमको सफल समझता हूँ। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार मैं कहता हूँ कि शाबास! वीर शाबास !! मूर्त्ति पूजा में दृढ़ श्रद्धालु होना और उसका उपासक बनना यह आपकी कर्त्तव्य-शीलता भवभयभीता और सत्य को स्वीकार करने की सद्बुद्धि है । एवं यह आपका आत्महित कार्य प्रशंसनीय भी है । फिर भी आपको जरा यह बतला देना चाहता हूँ कि, जैन मन्दिर मानने में जैनियों को हानि है या लाभ? इसे भी जरा ठेर कर एकाग्र ध्यान से समझें । ( १ ) गृहस्थों को अनर्थ से द्रव्य प्राप्त होता है । और वह अर्थ में ही व्यय होता है, अर्थात् प्राय व्यय दोनों कर्म बन्धन के कारण हैं । इस हालत में वह द्रव्य यदि मन्दिर बनाने में लगाया जाय तो सुख एवं कल्याण का कारण होता है । क्योंकि एक मनुष्य के बनाये हुए मन्दिर से हजारों लाखों मनुष्य कल्याण प्राप्त करते हैं । जैसे श्रबु आदि के मन्दिरों का लाभ अनेक प्रेज तक भी लेते हैं । ( २ ) जैन मन्दिर में जाकर हमेशां पूजा करने वाला, न्याय, पाप और अकृत्य करने से डरता रहता है, कारण उसके संस्कार ही ऐसे हो जाते हैं । (३) मन्दिर जाने का नियम है, तो वह मनुष्य प्रति दिन थोड़ा बहुत समय निकाल वहाँ जा अवश्य प्रभु के गुणों का गान करता है और स्वान्तःकरण को शुद्ध बनाता है । ( ४ ) हमेशां मन्दिर जाने वाले के घर से थोड़ा बहुत Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ मु० पू० वि० प्रश्नोत्तर द्रव्य शुभ क्षेत्र में अवश्य लगता है, जिससे शुभ कर्मों का संचय होता है । ओर सुख पूर्वक धर्म साधन भी कर सकता हैं। (५) मन्दिर जाकर पूजा करने वालों का चित्त निर्मल और शरीर अरोग्य रहता है, इससे उसके तप, तेज और प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। - (६ ) मन्दिर की भावना होगी तो वे नये २ तीर्थों के दर्शन और यात्रा भी करने अवश्य जायंगे। जिस दिन तीर्थयात्रा निमित्त घर से रवाने होते हैं उस दिन से घर का प्रपश्च छूट जाता है । और ब्रह्मचर्य व्रत पालन के साथ ही साथ, यथाशक्ति तपश्चर्या या दान आदि भी करते है, साथ ही परम निवृत्ति प्राप्त कर ज्ञान-ध्यान भी किया करेगा । (७) आज मुट्ठी भर जैन समाज की भारत या भारत के बाहिर जो कुछ प्रतिष्ठा शेष है वह इसके विशालकाय, समृद्धिसम्पन्न मंदिर एवं पूर्वाचार्य प्रणीत प्रन्थों से ही है। (८) हमारे पूर्वजों का इतिहास, और गौरव इन मन्दिरों से ही हमें मालूम होता है। (९) यदि किसी प्रान्त में कोई उपदेशक नहीं पहुँच सके वहाँ भी केवल मंदिरों के रहने से धर्म अविशेष रह सकता है, नितान्त नष्ट नहीं होता है। (१०) आत्म कल्याणमें मंदिर मूर्ति मुख्य साधन है। यथारूची सेवा पूजा करना जैनों का कर्तव्य है चाहे द्रव्य पूजा करे एवं भाव पूजा पर पूज्य पुरुषों को पूजा अवश्य करे। ... (११) जहां तक जैन समाज, मन्दिर-मूत्तियों का भाव भक्ति से उपासक था वहाँ तक, आपस में प्रेम, स्नेह, ऐक्यता, ___ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३.४२ संघ- सत्ता, जाति संगठन तथा मान, प्रतिष्ठा, और तन मन एवं धन से समृद्ध था । ( १२ ) एक पक्ष तो जिन तीर्थकरों का सायं प्रातः समय नाम लेता है, उन्हीं की बनी मूर्तियों की भर पेट निन्दा करता है, और दूसरा पक्ष तीर्थंकरों के मूर्ति की पूजा करता है परन्तु प्रति पक्षियों के अधिक परिचय के कारण पूर्ण आशातना नहीं टालने से आज उभयपक्ष इस स्थिति को पहुँच रहा है । (१३) आज इतिहास के साधनों से जो जैनियों का गौरव उपलब्ध होता है उसका एक मात्र कारण उनके मन्दिरों के निर्माण एवं उदारता ही है । (१४) आज अंग्रेज और भारतीय विद्वानों पर जैन धर्म का जो प्रभाव पड़ा है, जैन धर्मोपासकों की धवल कीर्ति के जो गुण-गान गाये जाते हैं, तथा भूतकालीन जैनों की जो जहुजलाली और गौरव का पता पड़ता है उसका सारा श्रेय इन्हीं जैन मन्दिरों को है। जैनों के इतिहास का अनुसंधान भी इन्हीं मन्दिरों से हो सकता है। जैनों ने मन्दिर, मूर्ति को मोक्ष का साधन समझ 'असंख्य द्रव्य इस कार्य में व्यय कर भारत के रमणीय पहाड़ों और राजा महाराजाओं के विशाल दुर्गों में, जैन-मंदिरों की प्रतिष्ठा करवाई हैं । (१५) जैन मन्दिर मूत्रियों की सेवा पूजा करने वाले बिमारावस्था में यदि मन्दिर नहीं भी जा सकते हैं तो भो उनका परिणाम यही रहेगा कि आज मैं भगवान का दर्शन नहीं कर सका यदि ऐसी हालत में उसका देहान्त भी होजाय तो उसकी गति अवश्य शुभ होती है । देखा मंदिरों का प्रभाव ? Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ मू० पु० वि० प्रश्नोत्तर अन्त में श्रीमती शासन देवी से हमारी यही नम्र प्रार्थना है कि वे हमारे भाइयों को शीघ्र सद्बुद्धि दें, जिससे पूर्व समय के तुल्य ही हम सब संगठित हो, परम प्रेम के साथ शासन सेवा करने में भाग्यशाली बनें। ॐ शान्ति ! शान्ति !! शान्ति !!! SHTRA ताणtangapanREE ANNEnaty Heats Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति मूर्त्ति पूजा विषयक प्रश्नोत्तर समाप्तम Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ क्या जैनतर्थिंकर भी डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती बाँधते थे ? Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द साधु इस पुस्तक के लिखने का खास कारण हमारे स्थानकवासी ही हैं क्योंकि कई दिनों तक तो स्थानकवासी साधु मुँहपर मुँह बाँधने का कारण हमसे उपयोग नहीं रहना ही बतलाते थे और बाद में साध्वी के साड़ो के डोरे का नाम लेकर डोरा की सिद्धि करने लगे, और अब साधुधों के ही नहीं किन्तु खास तीर्थकरों के मुँहपर डोराडाल मुँहपसी बाँधे हुए कल्पित चित्र बनवा के पुस्तकों में मुद्रित करा रहे हैं। इनमें पूज्य जवाहिरलालजी महाराज ने " सचित्र अनुकम्पा विचार” नामक पुस्तक में श्राचार्य केशीश्रमण के, मुँहपर मुँहपती बंधने का चित्र छपवाये हैं । प्र० ब० चोथमलजीने भगवान् महावीर के और श्रीशंकर मुनिजी ने भगवान् ऋषभदेव आदि के कल्पित चित्र बनवा कर इनके मुँहपर मुँहपत्ती बँधवा दी है। ऐसी हालत में इन मिथ्या पुस्तकों से गलतफहमी न फैल जाय, इस उद्देश्य को लक्ष्य में रख मैंने श्रागमिक एवं ऐतिहासिक साधनों के आधार पर यह छोटी सी पुस्तक लिखी है। इसको श्राद्योपान्त पढ़ कर मुमुक्षु भव्यजन सत्याऽसत्य का निर्णय कर सत्य को ग्रहण करें । यही मेरी हार्दिक शुभ भावना है । किमधिकम् ! मुनि ज्ञानसुन्दर - Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान-पुष्पमाला पुष्प नं० १६६. क्या जैनतीर्थङ्कर भी डोराडाल DARE DI मुँहपर मुंहपत्ती बांधते थे जैन-धर्म में श्रमण दो प्रकार के बतलाये हैं-(१) अचे " लक, (२) सचेलक । जिनमें (१) अचेलक, तीर्थकर और जिनकल्पी साधु, वे बिलकुल वन पात्रादि किसी प्रकार की उपाधि पास में नहीं रखते हैं। (२) सचेलक-स्थविरकल्पी साधु जो जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इस तरह उपाधिधारक होते हैं । ये कम से कम एक वस्त्र, एक पात्र और ज्यादा से ज्यादा चौदह उपकरण रखते हैं । इन उपकरणों को रखने का हेतु और प्रमाण भी शास्त्रकारों ने स्पष्ट बतला दिया है । इन चौदह उपकरणों में मुँखवत्रिका भी एक है, जिसका प्रमाण अपने हाथ से एकविलस्त और चार अंगुल का है तथा रखने का हेतु उड़ते हुए मच्छर, मक्खी, पतङ्ग आदि जीवों की रक्षार्थ बोलते समय मुंह के आगे रखने का है, जैसे-पात्रा-आहार आदि लेने और खाने के समय काम आते हैं। रजोहरणशरीर पूँजने को या काजा रज लेने के समय काम आता है । इसी तरह मुंखवत्रिका भी बोलते समय मुँह के आगे रखने के काम में आती है। और यह प्रवृत्ति तीर्थकर भगवान के समय से विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक तो अविच्छिन्नरूप से Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख वस्त्रिकाधिकार ३४८ चली आरही थी। जिसके शास्त्रीय और ऐतिहासिक सैकड़ों प्रमाण अद्यावधि मी उपलब्ध हैं। कई एक लोगों का कहना है कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में श्रीमान् लौकाशाह हुए, उन्होंने अपना एक नया मत निकाला । उस समय मुँहपत्ती में डोरा डाल दिन भर मुँह पर बाँधने की एक नई रीति चलाई थी, परन्तु यह बात प्रमाण-शून्य केवल कल्पना मात्र ही है, क्योंकि लौकाशाह ने जब अपना नया मत निकाला था, तब उनकी मान्यता के विषय में लौंकाशाह के समकालीन अनेक विद्वानों ने अपने २ ग्रंथों में सविस्तार चर्चा की है । उन्होंने लिखा है कि लौंकाशाह, जैनाश्रम, जैनागम सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान और देव-पूजा कतई नहीं मानता था। लौकाशाह गृहस्थ था, और जब वह सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमणादि भी नहीं मानता था, तो मुँहपत्ती बाँधने की बात ही कहाँ रही ? यदि लौकाशाह ने मुँहपर मुँहपत्ती बाँधी होती, तो पूर्वोक्त बातों के साथ तत्कालीन लेखक उस समय के लिए बिलकुल नई इस प्रथा की चर्चा भी जरूर करते, परन्तु उन लेखकों ने ऐसा कहीं नहीं लिखा है । अतः यह बात स्वयं प्रमाणित होती है कि लौंकाशाह खुद मुंह-पत्ती नहीं बाँधी थी, किन्तु उनके बाद में २०० वर्ष पश्चात् यह प्रथा चालू हुई; इसका निर्णय आज अनेकों प्रमाणों से हो जाता है। वि० सं० १५७८ में लौकागच्छीय यति श्री भानुचन्द्र ने भी देखो वि० सं० १५४३ में पं० लावण्य समय कृत चौपाई, और वि० सं० १५४४ में 3० कमल संयम कृत चौपाई, तथा लोकाशाह के समकालीन मुनि वीकाकृत भसूत्र निवारण बत्तीसी । भादि ___ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ क्या तीर्थ० मुं. मुं० बा० लोकाशाह के विषय में बहुत कुछ लिखा है । यद्यपि इन्होंने लौकाशाह द्वारा निषेध सामायिकादि पूर्वोक्त क्रियाओं का कोई स्पष्ट विरोध नहीं किया है तथापि दबी जबान से इन्हें स्वीकार करते हुए भी "मुंहपत्ती दिनभर मुँहपर बाँधना" इस विषय का तो कहीं आंशिक उल्लेख भी नहीं किया है । यह भी हमारी उपर्युक्त मान्यता को ही परिपुष्ट करता है । कि "मुँहपत्ती बाँधने का रगड़ा लौंकाशाह के बाद का है। लौकाशाह के समय का या उससे पूर्व का नहीं" इसमें यह एक प्रबल प्रमाण है । दूसरा फिर सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि "लोकाशाह की परम्परा सन्तान में यति और श्रीपज्य आदि हैं, वे डोराडाल दिन भर मुँहपर मुँहपत्ती नहीं बाँधते हैं, और न मुंहपत्ती बाँधने वालों को श्रेष्ठ समझते हैं। यही नहीं, किन्तु उल्टा ऐसा करने वालों का घोर विरोध करते हैं । और स्पष्ट शब्दों में यह घोषित करते हैं कि श्रीपूज्य शिवजी और वजरंगजी ने अपने शिष्य धर्मसिंह और लवजी को अयोग्य समझ कर गच्छ से बहिष्कृत किया था और इसीसे धर्मसिंह ने आठ कोटि और लवजी ने मुँहपर मुंहपत्ती बाँधने की नई कल्पना कर, जिनाज्ञा और लौंकाशाह की मान्यता का भङ्ग कर उत्सूत्र की प्ररूपणा को थी, जिससे ही वे निन्हवों को पंक्ति में समझे जाते हैं। ___ श्रीमान् लौकाशाह के जोवन सम्बन्ध में हमें करीब २८ लेखकों के लेख प्राप्त हैं, किंतु उनमें केवल अर्वाचीन दो लेखकों के सिवाय सभी लेखकों का यही मत है कि लौकाशाह गृहस्थ था। और गृहस्थाऽवस्था में ही उसका देहान्त हुआ था। जब गृहस्थ रहते हुए लौकाशाह ने सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण, Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख वस्त्रिकाधिकार ३५० प्रत्याख्यान, आदि क्रियाएँ भी नहीं मानीं, तो मुँहपर मुंहपत्ती बांधने को तो उसे कोई आवश्यकता ही शेष नहीं रही। (१) स्था० साधु अमोलखर्षिजी ने अपने "शास्त्रोद्धारमीमासा" नाम के प्रन्थ में पृष्ट ६९ पर लिखा है कि लौंकाशाह ने १५२ मनुष्यों के साथ मुंहपर मुँहपत्ती बाँध दीक्षा ली किन्तु आपने यह नहीं बताया कि लौंकाशाह ने कब ? कहाँ ? और किससे दीक्षा ली । (२) स्था० साधु मणिलालजी अपनी “प्रभुवीर पटावली" नामक पुस्तक पृष्ट १७० पर लिखते हैं कि लोकाशाह ने अकेले पाटण में जाकर यति सुमतिविजयजी के पास वि. सं. १५०९ श्रावण सुदि ११ को यति दीक्षा ली" आपके कथनानुसार यदि लौंकाशाह ने यतिदीक्षा ली भी हो तो यह नि:संदेह है कि लौकाशाह मुँहपत्ती हाथ में ही रखते थे। ___ इस प्रकार उपर्युक्त इन्हीं दो महाशयों ने लौकाशाह कों दीक्षा लेने का लिखा है । परन्तु स्था० साधु संतबालजी तथा वाड़ीलाल मोतीलाल शाह अपने लेखों में लिखते हैं कि “लौकाशाह बिलकुल वृद्ध और अपंग था इससे यति दीक्षा नहीं ले सका" इस प्रकार शेष जितने भी लेखक हैं उन सबका यही मत है कि लौंकाशाह ने दीक्षा नहीं ली, किंतु गृहस्थ दशा में ही काल किया। अब यह सवाल पैदा होता है कि जब सब लेखक यही लिखते हैं कि “लौंकाशाह ने दीक्षा नहीं ली" तो फिर केवल स्था. साधु अमोलखर्षिजी और मणिलालजी ये दोनों ही लौकाशाह के दीक्षा लेने की नयी कल्पना क्यों करते हैं ? । इसका Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ क्या० तीर्थ० मुं० मुं० बो निराकरण यों है कि-इन दोनों महाशयों ने अपनी २ पुस्तकों में लिखा है कि-धर्मस्थापक गुरु और गच्छस्थापक लौकाशाह गृहस्थ नहीं परन्तु साधु होना चाहिये, अतः गृहस्थ गुरु का कलंक अपने पर से मिटाने के लिए ही इन्होंने यह नयी कल्पना की है। किन्तु खास देखा जाय तो लौकाशाह ने न तो दीक्षा ली, और न उन्होंने कभी मुंहपर मुँहपत्ती बांधी थी और न लौकाशाह के समय मुँहपत्तो बिषयक कभी कहीं बाद विवाद हुआ । जैसे मूर्ति श्रादि के विषय में हुआ था। प्राचीन जमाने के कई स्थानकवासी भोले थे अतः सरल हृदय से सत्य बात साफ २ कह देते थे कि हमारा उपयोग न रहे इससे डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती बांधते हैं । और बाद में कई एक यह दलील करने लगे कि-साध्वी के साड़ा में डोरा डालने का शास्त्र में उल्लेख नहीं होने पर भी जब वह डोराडाल के बांधा जाता है तो इसी भांति यदि मुँहपत्ती में डोराडालने का शास्त्रीय विधान न हो पर सदा उसे मुँहपर रखने के लिए डोराडाल दिया जाय तो क्या हर्ज है ? किन्तु इस प्रश्न का यह प्रत्युत्तर है कि साध्वी के साड़ा में डोरा डालना यह नई प्रथा नहीं किन्तु खास तीर्थङ्करों के समय की है, और साध्वी को तो लज्जा का स्थान ढंकना जरूरी भी है, पर साधुत्रों का मुँह तो कोई लज्जा का स्थान नहीं है कि जिसे मुंहपत्ती में डोरा डाल के ढांका जाय ? साध्वी साड़ा में डोरा डाल के वांधे यह प्रक्रिया कोई लोक विरुद्ध भी नहीं हैं किन्तु साधु मुँहपत्ती में डोरा डाले यह तो शास्त्र के साथ लोक विरुद्ध भी है । साध्वी के साड़ा में डोरा डालने का श्राज पर्यन्त भी किसी ने विरोध नहीं किया, किन्तु मुंहपत्ती में ___ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख वस्त्रिकाधिकार डोरा डालने का केवल जैनाचार्यों ने ही नहीं किन्तु स्वयं लौकागच्छ के प्राचार्यों ने भी सख्त विरोध किया है । क्यों कि साध्वी के साड़ा में डोरा डालना कोई कुलिङ्ग ( खराब-लक्षण ) नहीं किन्तु साधु के मुंहपर डोराडाल मुँहपत्ती बाँधना कुलिङ्ग और शासन की अवहेलना करवाना है। - कई एक लोग कहा करते हैं कि खुले मुँह बोलने से वायुकाय के जीवों की विराधना होती है। इससे डोरा डाल मुंह पर मुँहपत्ती बाँधी जाती है। यदि सचमुच यही कारण हो तो फिर साध्वी के साड़ा का उदाहरण क्यों दिया जाता है ? क्यों कि वायुकाय के जीवों की हिंसा और साध्वी के साड़ा के डोरे का कोई सम्बन्ध नहीं है । अधोभाग- सभ्य मनुष्य का लज्जा स्थान है अतः सिवाय जिन-कल्प साधु के, हरेक मनुष्य इसे सर्वदा ढंका रखता है, परन्तु लौकिक व्यवहार में सदा सर्वदा अपना मुँह कौन छिपाये रखता है ? इसे प्रत्येक बुद्धिशील स्वयं सोच सकता है। अब रहा वायुकाय के जीवों का सवाल ?-सो वायु काय के जीवों का शरीर आठस्पर्शी * है, और भाषा का पुद्गल है, चौस्पर्शी न तो चौस्पर्शी पुद्गलों से आठस्पर्शी शरीर वाले जीव मर नहीं सकते हैं। यदि भाषा का योग प्रवत्त'ने से एवं अन्य पुद्गल मिल जाने से चौस्पर्शी पु० अठस्पर्शी होजाते हैं तो फिर मुँहपत्ती बांधने से वायुकाय के जीवों की हिंसा (विराधना) रुक नहीं सकती है । क्यों कि जहां थोड़ा भी अवकाश है वहाँ वायुकाय के असंख्य जीव भरे पड़े हैं । * देखोः--भगवती सूत्र शतक १२-५। + पनवणा सूत्र पद १२ व पावणा सूत्र पद पहिला । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ क्या ती• मुं० Y० बाँधते थे ____ जैसे:-मुँह की पोलार में, नाकको पोलार में, कॉन की पोलार में, आंखों की पलकों में, इत्यादि शरीर के अनेक अङ्गों में वायुकाय के असंख्य जीव रहते हैं और भाषा प्रारंभ-अर्थात् कण्ठ से निकलते ही मुंह में के वायुकाय के जीव मर जाते हैं। तथा वे पुद्गल वस्त्र की मुँहपत्ती तो क्या पर यदि लोह की भी मुँहपत्ती लगाई जाय तो भी निकलने से रुक नहीं सकते। हां ! यह उपाय हो सकता है कि यदि मुँह की पोलार को वस्त्रादि ठूस ठांस कर भर दी जाय तो इन जीवों की रक्षा हो सकती है। परन्तु ऐसा दया पात्र न तो आज तक कोई नजर आया, और न फिर आने की संभावना है। __ वास्तव में मुँहपत्तो से जो मुँह बाँधा जाता है वह वायु काय के जीवों की रक्षा का कोई कारण नहीं है किन्तु मिथ्यात्व का उदय होने पर जो खोटी बात पकड़ ली है उसे हठधर्मी से अब नहीं छोड़ना ही है। क्यों कि यदि ऐसा न होता तो जो साधु सदा मौन व्रत रखते हैं या श्रावक मौन-व्रत से सामायिक करते हैं, उनको फिर मुँहपर मुँहपत्ती बांधने की क्या जरूरत हैं। ? क्यों कि उनका सिद्धान्त तो यह है कि खुले मुँह बोलना नहीं चाहिए, किन्तु जब मौन-व्रत ही है तो फिर न तो बोलना और न वायु काय के जीवों का मरना होता है, ऐसी हालत में मुंहपर मुँहपत्ती बांधने से सिवाय नुकसान के कोई फायदा नहीं है। वायु-काय जीवों के शरीर वादर होते हुए भी वे इतने सूक्ष्म है कि छदमस्थों के दृष्टि में नहीं आते हैं । यह बात खुद तीर्थकरोंके कहने से आज भी हम ज्यों की त्यों मानते हैं । जब तीर्थ. (२३)-४४ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरों का व्याख्यान ३५४ कर खुद घण्टों तक व्याख्यान देते हैं और उस समय न तो उनके पास कोई वस्त्र रहता है और न मुँहपत्ती, तथा न ३४ अतिशयों में ऐसा कोई अतिशय बताया है कि तीर्थङ्कर घंटों तक व्याख्यान दे किन्तु उनके बोलने से वायुकाय के जीव न मरे । तीथङ्करों के हलते चलते फिरते और बोलते समय असंख्य वायुकाय के जीव मरते हैं। और इसी से उनके समय समय पर वेदनी कर्म का बन्धन होता है । किन्तु जरा पक्षपात और हठवादिता का चश्मा उतार कर यदि सोचें तो ज्ञात होगा कि जिन तीर्थङ्करों ने वायुकाय के जीवों का अस्तित्व हमें बतलाया है तथा चलने फिरने से उनकी विराधना होना दिखाया है वे स्वयंभी कुदरती कार्यों में योगों की प्रवृत्ति से असंख्य जीवोंके मरने से नहीं बच सके हैं। ऐसी दशा में आप जैसे अल्पज्ञ जीव कपड़े का एक टुकड़ा मुँहपर बांध उस कुदरती जी हिंसा को कैसे रोक सकते हैं ? । परन्तु जिन लोगों में यह कुप्रवृत्ति चालू है वह उनकी -शास्त्रीनभिज्ञता का परिचायक है और क्षणिक मानसिक कल्पना द्वारा विचारे भद्रिक जीवों को घोर उल्टे मार्ग में लगाया है । असल में तो मुँह पर कपड़े की पट्टी बांधना यह मुँहपत्ती नहीं पर एक प्रकार का कुलिङ्ग है । इससे कपड़े पर श्लेष्म लगने से असंख्यात समुत्सम त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है और इससे कर्म-बन्धन का कारण होता है। और जैन धर्मकी अवहेलना करने से मिध्यात्व का दोष भी लगता है । तथा यह कुप्रथा आरोग्यता की दृष्टि से यदि देखा जाय तो भी स्वास्थ्य को बड़ी हानिकर सिद्ध हुई है । तथा सूक्ष्मदृष्टि से यदि देखा जाय तो यह आत्मघात एवं संयमघाति क भी है । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या० ती ० मु० मु० बाँधते थे स्थानकवासी भाई मुँहपत्ती रखने के असली स्वरूप को समझ नहीं सके हैं कि जैन साधु या श्रावक मुँहपत्ती क्यों रखते हैं । यदि वे ( स्था० ) कुछ जानते हैं तो इतना हो कि हमारे पूर्वज मुँहपर मुँहपत्ती बांधते थे और खुला मुँह बोलने से जीव मरते हैं। इस लिए चाहे बोलो या मौन रक्खो, चाहे दिन हो चाहे रात, चाहे जागृत या सोते पर मुँहपर मुँहपत्ती बांधे रखना ही मोक्षका कारण मान लिया है। यदि साधुओं को प्रतिलेखन करते समय जब मुँहपत्ती खोली जाती है तब भी उस समय कोई गृहस्थ मुँह देख नहीं ले इस लिए मुँह पर कपड़ा डाल दिया जाता है। बस ! अंध परम्परा, और गतानुगति इसी का ही नाम है । ३५५ मुँह - पत्तो का आदर्श (महत्त्व ) और इसके पीछे जो विशुद्ध भावना रही है वह हमारे स्थानकवासी भाई नहीं समझते हैं । स्थानकवासी साधुओं को अभीतक इस बात का ज्ञान ही नहीं है कि जैन साधु मुखवखिका क्यों रखते हैं ? और वह किस २ क्रिया में काम आती है ? । स्थानकमार्गी श्रावक सामायिक, पौष, प्रतिक्रमण आदि जब करते हैं तब मुँहपत्ती हो तो भी काम चलता है और न हो तो भी काम चल सकता है । एक कपड़े को घाटा ( किनारा) मुँहपर लपेट देने पर भी सामायिकादि क्रियाएं वे कर सकते हैं । परन्तु जैन श्रावकों के तो विना मुँहपत्ती सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ हो ही नहीं सकती; और न साधुओं के प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, संथारा पौरसी, आलोचनादि क्रियाएं हो सकती हैं। जब स्थानकमार्गी भाई दिन में दो वक्त मुँहपत्ती को इधर Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंहपत्ती का रहस्य ३५६ ट कर । उधर देख के कृतकार्य हो जाते हैं तब मूर्तिपूजक समाज में कोई भी क्रिया करो, पर प्रत्येक क्रिया के प्रारम्भ में मुँहपत्ती प्रतिलेखन द्वारा अशुभ भावना को हटा कर शुभ भावना द्वारा आत्म-विशुद्धि करके ही क्रिया क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है। . अब जरा ध्यान लगा के जैनियों की मुंहपत्ती की प्रतिलेखन क्रिया को सुन कर समझने का कष्ट करें । . "मुंहपत्ती का प्रतिलेखन करते समय की विधि में सर्वप्रथम मुँहपत्ती खोते ही अनुभव से विचार किया जाता है कि "सूत्र अर्थ सच्चा श्रद्धहू. कामराग, स्नेहराग, दृष्टि गग, परित्याग करूँ। मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय का परित्याग करूँ। कुगुरु. कुदेव, कुधर्म का परित्याग करूँ। सुगुरु, सुधर्म, सुदेव, अंगीकार करूँ। ज्ञानविराधना, दर्शन विराधना, चारित्र विराधना का परित्याग करूँ। ज्ञान, दर्शन, चारित्र अंगीकार करूँ। मनदंड, वचनदंड, कायदंड का परित्याग करूँ। मनगुनि, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, अंगीकार करू" इस प्रकार ये २५ बोल कह के मुँहपत्ती का प्रतिलेखन करने के बाद मुंहपत्ती द्वारा शरीर का प्रतिलेखन किया जाता है । तद्यथाः कृष्ण, नील, कापोतलेश्या, ऋद्धिगारव रसगारव, साता गारव, मायाशल्य, निधानशल्य, मिथ्या दर्शन शल्य, हास्य रति, श्रारति, भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ पृथ्वी, अप, तेज व यु.वनस्पति और त्रसकाय की विराधना इन २५ बोलों का परित्याग करूx x इनका विधान किसी जैनमुनियों से हासिल करे कि कौन से बोल किस प्रकार किस स्थान बोला जाता है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ क्या ती० मुं• मुं० बाँधते थे . इस प्रकार उपयुक्त इन ५० बोलों द्वारा आत्मा को निर्मल पवित्र और विशुद्ध करके, बाद में श्रावक सामायिकादि क्रियाएँ करते हैं, और साधु “गोचरी' जाना, पञ्चख्खाँण, पारना, संथारा पौरसी करना, आदि जो क्रियाएँ करते हैं उस समय इस प्रकार भावना पूर्वक मुँहपत्ती का प्रतिलेखन करते हैं। समझे न । अब यह बात हम हमारे पाठकों पर छोड़ देते हैं कि मुँह पत्ती का महत्त्व, सत्कार, और उपयोग किस समुदाय में विशेष है ? इसे स्वयं सोच ले । अब रहा खुले मुँह बोलने का सवालखुले मुंह बोलने की कोई भी समुदाय श्राज्ञा नहीं देता । यदि कोई व्यक्ति प्रमाद के कारण खुले मुंह बोला हो तो आलोचना कर शुद्ध हो सकता है । पर इसका अर्थ यह नहीं कि किसी को खुले मुंह बोलता देख आप सदा सर्वदा के लिए दिन भर मुँह पत्ती में डोरा डाल मुंह पर बांधले । यदि ऐसा ही है तो चरर का पल्ला इधर उधर उड़ता देख उनसे वायुकाय के जीवों की हिंसा को कल्पना कर कोट, कुर्ता, और चोलपटे के झपेटे में वायुकाय के जीवों को मरता देख, धोती, पाजामा और शिर के बाल इधर उधर होने से असंख्य वायुकाय के जीवों की हत्या का विचार कर पगड़ी, साफा , टोप और टोपी ही क्यों न पहनली जाय, जिससे इन असंख्य वायुकाय के जीवों का बचाव सहज ही में होजाय । यदि यह कहा जाय कि ऐसा करने से साधु को कुलिङ्ग रूपी मिथ्यात्व का सेवन करना पड़ता है जो वायुकाय के जीवों की विराधना से भी घोरतर पाप का कारण है तो फिर मुँहपत्ती में डोरा डाल मुँहपर बांधने से भी कुलिङ्ग रूपी मिथ्यात्व का Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुँहपत्ती से दया ३५८ पाप क्यों नहीं समझा जाय - हमारी राय में तो अवश्य सम ना ही चाहिए । हमारे स्थानकमार्गी भाई मुँहपती द्वारा किस हद तक दया पालते हैं इसे सुनिये:- आपने कई चक्की चलाने वाली औरतों को मुहपत्ती बांधने का उपदेश दिया है और बतलाया है कि चकी चलाने वाली कहीं खुले मुँह गीत आदि गाकर वायुकाय के जीवों की हिंसा न करलें । तथा रसोई करने वाली कई औरते भी रसोई बनाते समय भी मुँहपर मुँहपत्ती बाँधती हैं । यही क्यों पर साधु या गृहस्थ मुँहपर मुँहपत्ती बान्धी हुई रखते हुए भी वादविवाद में मिथ्या बोलना कठोरवाक्य असत्य भाषा सावद्य वचन बोलने का जितना ख्याल न रखते हैं उतना मुँहपत्ती बाँधने का आह करते हैं शायद् पूर्वोक्त बोलने से भी खुले मुँह बोलने का पाप अधिक हो या मुँह पर मुहपत्ती जोर से बाँध लेने से पूर्वोक्त पापकारी वचन बोलने का पाप नहीं लगता हो कारण पाप भी मुँहपत्ती से डरता हो ? क्यों यही न या और कोई रहस्य है । प्रिय पाठक वृन्द ! आपने देख लिया यह अनूठा दयाधर्म जो चक्की चलते वक्त एकेन्द्रियादि लाखोंजीव मारे जायँ - रसोई में देहधारी अनेक प्राणी स्वाहा होजाय तो परवाह नहीं, पारस्परिक वैमनस्य से मनुष्यों की शिर फुड़ौवल बन जाय तो कोई हर्ज नहीं, किन्तु स्थानकमार्गी संसार के अनन्य उपकारी अदृष्ट कार्य केबल खुले मुह बोलने से वायुकाय के जीव न मरें यही इनका परमोत्तम दया धर्म है (1) वायुकाय के जीवों की रक्षा करना बुरा नहीं पर बहुत अच्छा है किन्तु मिथ्या कदामह कर अन्य सजीवों को और a Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ क्या० ती. मुं. मुं. बांधते थे ? विशेष जिनज्ञा की उपेक्षा करना यह दया नहीं पर दया को ओट में मिथ्यात्व का पोषण है ।। सज्जनों! स्वामीरत्नचन्दजी शताऽवधानी ने अर्धमागधी कोष प्रथम भाग में एक श्रावक के उत्तरासन का फोटो दिया है । उसे देख कर आश्चर्य होता है कि एक शाताऽवधानी जैसे विद्वान् को भी पक्षपात का कितना मोह है, कि उस उत्तरासन में न तो मूर्ति और न मुँहपत्ती का विषय है किन्तु फिर भी समझ में नहीं आता कि शास्त्र का नाम लेकर ऐसा भद्दा चित्र क्यों प्रकाशित करवाया गया है ? श्रावक का उत्तरासन अच्छा शोभनोय होता है, परन्तु शताऽवधानोजो ने तो एक कपड़े को गले में डाल मुँह पर धाटा सा लगा दिया है । समझ नहीं पड़ता कि ऐसी भद्दी आकृति किस आधार से बनाई है। जैनों में दो दो हजार वर्षों की प्राचीन उत्तरापन की बहुत सी प्राकृतिएं हैं। पर ऐसा उत्तरासन तो कहीं भी देखने में नहीं आया। हमारे स्थानकमार्गी भाईयों को मुँहपर मुँहपत्ती बाँधने का समर्थक कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिला तो उन्होंने कई एक स्वकपोल कल्पित चित्र बनवा कर सचित्रप्रन्थ छपवा, खास तीर्थङ्करों के मुँहपर डोराडाल मुँहपत्ती बँधे हुए चित्र छपा दिये हैं । ऐसा करने में पूज्य जवाहिरलालजी, * प्र०व० चौथमलजी + और मुनि शंकरलालजी का नाम विशेष प्रसिद्ध है। इन महानुभावों ने भगवान ऋषभदेव, बहुबलर्षि, प्रश्नचन्द्रमुनि, पाँच गण्डव, केशीश्रमण और महावीर प्रभु के मुँहपर डोरा. सचित अनुकम्पा विचार + प्रभु महावीर संदेश सचित्र मुख वास्त्रिका निर्णायादि पुस्तकों । जो मुझे हाल ही में मिली उनके उत्तर रूप में ही प्रस्तुत पुस्तक लिखी जा रही है। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नाम की अपेक्षा स्थापना ३६० वाली मुँहपत्तो बाँधने के कल्पित चित्र तैयार करवा के उनके फोटू अपने प्रन्थों में दे दिए हैं। और इनसे भोली भोली भद्रिक जनता और बहिनों को बहकाया जाता है कि मुँह पर मुँहपत्ती केवल हम ही नहीं किन्तु तीर्थङ्कर भी बाँधते हैं तथा यह प्रथा हमने नहीं किन्तु खास तीर्थङ्करों ने जारी की है । इस प्रकार अनेक खरे-खोटे माया जाल रच ये अपना उल्लू सीधा करते हैं । परन्तु इनके ऐसा करने से भी हमें तो एक फायदा ही हुआ है वह यह कि मूर्त्ति का सख्त विरोध करने वाले स्थानकवासी भी अब यह मानने लगे हैं कि लिखने को अपेक्षा चित्र चित्रण से अधिक ज्ञानोपलब्धि होती है और इससे वे अपनी पुस्तकों में मुँह बँधे चित्र देने लगे हैं । जैसे सूत्रों में तीर्थङ्करों की ध्यानावस्था का वर्णन किया है किन्तु उस पाठ को पढ़ने की अपेक्षा उस पाठाऽनुकूल निर्मित चित्र को देखने से विशेष और सुगमतया हमें ज्ञान होता है । बस यही कारण हमारी मूर्ति मान्यता का है। दूसरा उदाहरण फिर देखिए एक सूत की माला के मरणका पर हम अरिहन्त सिद्धादि का ध्यान करते हैं किन्तु उसमें अरिहन्तादि की प्रकृति का सर्वथा अभाव है, तब ध्यान कैसे किया जाता है । किन्तु जब तीर्थङ्करों की मूर्ति द्वारा तीर्थकरों की ध्यानावस्था का ध्यान किया जाय तो उसमें हन्तादि की आकृति से ध्यान सुगम हो जाता है । ऐसी दशा इस सुगम मार्ग का अवलम्बन छोड़, एवं आकृति को वन्दना पूजना से लाभ न उठाना यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है । तीर्थङ्कर चाहे समवरण स्थित हों, चाहे उनका ध्यान माला के मणकों पर करो, चाहे तीर्थकरों का चित्र या मूर्ति हो, पर उनकी सच्ची भक्ति का Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ क्या० ती. मुं. मुं० बान्धते थे ? लाभ तो भक्त जनों की भावना पर ही निर्भर है। यह समझना दुर्लभ नहीं है कि भाव तीर्थङ्करों में गुण हैं, वे आदर्श हैं छदमस्थ मनुष्यों के दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। छदमस्थ लोक तीर्थङ्करों के गुणों का आरोप तीर्थङ्करों के शरीर में करके ही उनको वन्दनादि कर लाभ उठाते हैं, इसी भाँति मृत्ति में भी तीर्थकरों के गुणों का आरोप कर भक्त जन लाभ उठा वे तो किसी प्रकार से अनुचित नहीं हैं । देखिये:-अशरीरी सिद्ध हैं, उनका रूप रंग नहीं हैं, उनके गुण आदर्श हैं, छदमस्थों के नजर नहीं आते हैं, फिर भी अपने मन मन्दिर में उनके गुणों की कल्पना (मूर्चि) स्थापन कर, वन्दन पूजन करते हैं। आदर्श गुणों पर मन स्थिर रहने की अपेक्षा, मूर्ति में गुणों का अरोप कर उस पर मन स्थिर रखा जाय तो अधिक समय तक स्थायी रह सकता है । हमारे स्था० साधुओं ने अपनी पुस्तकों में जीते हुए साधुओं के मुँह पर मुँहपत्ती बँधाई है, पर जब वे वहाँ से काल कर सिद्धों में गए हैं तो उन्हें पहचानने के लिए वहाँ सिद्धों को मूर्ति विराजमान की गई है, जैसे कि आजकल मन्दिरों में सिद्धों को मूत्तिएँ हैं, इससे इतना तो सिद्ध जरूर होता है कि बिना मूर्ति हमारे स्था० भाई भी सिद्धों को पहिचान नहीं सकते हैं । अर्थात सिद्धों को वन्दना करने को मूर्ति की आवश्यकता तो उन लोगों को भी है और विना मूर्ति के इनका काम चल नहीं सकता, किन्तु साथ में श्रापको यह भय भी है कि हमारी पुस्तकों में हमारे हाथों से सिद्धों की मूर्तिओं की आकृति दी हुई देख कर कहीं लोग मूर्तिपूजक न बन जायँ, इस भय से चित्र के साथ यह ऑर्डर भी लिख दिया है कि ये चित्र मात्र देखने के लिए हैं न कि वन्दना करने के लिए । परन्तु यहाँ एक यह Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन चित्रों का विवरण ३६२ प्रश्न होता है कि यदि किसी सहृदय भक्त को सिद्धों की या अपने श्राचायों की आकृति देख वन्दना करने का भाव उमड़ पड़े तो उसे लाभ होगा या मिथ्यात्व लगेगा ? | शास्त्रकारों के मतानुसारतो मूर्त्ति का निमित्त पाकर सिद्धों को 'नमोत्थूणं' देने से बड़ा भारीलाभ ही है । पर स्थानकवासी भाई इस प्रकार सिद्धों को मूर्ति के सामने 'नमोत्थूणं' देने में क्या समझते होंगे ? मेरे खयाल से तो वे भी इस बात को बुरा नहीं समझेंगे, क्योंकि इस बात को बुरा समझते तो सिद्धों की मूर्ति का चित्र कभी नहीं देते ? मित्यात्व का पोषण प्रसंगोपात यहाँ पर मैं मेरे पाठकों को यह बतलादेना चाहता हूँ कि आधुनिक कई मन चले स्थानकवासी साधुओं ने अपनी पुस्तकों में बिना प्रमाण यानि कपोल कल्पित अनेक चित्र ऐसे छपवाये हैं कि जिससे जैन धर्म और जैन तीर्थङ्करों की अन्य धर्मियों द्वारा हांसी एवं श्रवज्ञा करवा के करने का दुःसाहस किया है उन चित्रों से नमूना के ज्यों के त्यों यहाँ दे दिये जाते हैं जो एक तो भगवान् महावीर के मुँह पर मुँहपत्ती बंधी हुई और दूसरा मुनिगज सुखमाल के मुँह पर मुँहपत्ती और उपर सिद्धों की मूर्ति का है जो पाठक इस चित्र में देख सकते हैं । मात्र दो चित्र बतौर ( १ ) चित्र पहिला - भगवान् महावीर के मुँहपर डोरा वाली मुँहपत्ती का - आत्मबन्धुओं ! समुदायिकता और संकीर्णता की भी कुछ हद हुआ करती है पर आपतो बड़ी हिम्मत कर उसके ही परे चले गये जरा आप निर्पक्ष हो अपने ही हृदय पर हाथ रख ठीक विचार करावें कि आपके चित्रानुसार भगवान् Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्थानकवासियों ने बिनाआधारबनाये हुए कल्पितचित्रों का नमूना । जैनागमोंमें मुह बांधने का उदाहरण * जनसुकमाचता प्र० ब० मुनिश्री चोथमलजी कृत 'भगवान महावीर यांचसन्देश' नामक पुस्तकमें छपा हुआ यह चित्र है। हजामत करते समय मुंह बान्धा है। श्री ज्ञानसूत्र अध्ययन पहिला के मूलपाठानुसार नाइ ने H.S . श्रीशंकरमुनिकृत "सचित्रमुखवस्त्रिकानिर्णय' नामक पुस्तक में यह चित्र मुद्रित हुआ है। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन चित्रों का सम्बन्ध --- - स्थानकमार्गी - आपने अपनी पुस्तक में हमारे साधु चारजियों की मूर्ति, पादुका समाधि और फोटूओं को क्यों छपवाये हैं ? - मूर्तिपूजक - इससे आपको क्या नुकसान हुआ ? -- स्थानक० - नुकसान हो या न हो पर आपको क्या अधिकार है कि किसी समुदाय के नेताओं के इस प्रकार चित्र आन छपा सको ? -मूर्तिपूजक क्या आपने इन नेताओं की रजिस्ट्री करवाली है कि सिवाय आपके इनको देख भी न सके ? कृपया रजिस्ट्री का नम्बर तो बतलाइये ? - स्था० – देख तो सकते हैं परन्तु श्रापका विचार शायद इन चित्रों को छपवाकर हम लोगों को मूर्ति अक बनाने का हो । - मूर्ति० - मूर्तिपूजक बनाने की क्या बात है, आपका अखिल समाज शुरू से ही मूर्तिपूजक है क्योंकि पूर्वाचार्यों ने जब से आपके पूर्वजों (त्रिआदि थे) को मांस मदिरादि बुरे आचरणों से छुड़वाकर वासक्षेप पूर्वक जैन बनाये थे, उसी दिन से आप मूर्तिपूजक हो हैं । यद्यपि बूरी संगति की वजह से आज आप परमेश्वर की मूर्ति मानने से दूर भाग रहे हैं तथापि आपका हृदय तो मूर्तिपूजा की ओर रजू है । इसीसे ही तो आप अपने पूज्य पुरुषों की मूर्ति पादुका समाधि और फोटू खिंचवाकर इनका पूज्य भाव से सत्कार करते हो और इन निर्जीव स्मारकों को अपने पूज्य मान रहेहो। क्या यह मूर्तिपूजा नहीं है ? - स्था० - हम लोग हमारे पूज्यपुरुषों की मूर्ति, पादुका, समाधि और चित्रों को न तो साधु समझते हैं और न इनको वन्दन पूजन ही करते हैं । - मूर्ति - फिर क्यों कहा जाते हैं कि ये हमारे साधुओं के Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) चित्रादि है यदि नहीं तो ये सब व्यर्थ ही क्यों बनाये जाते हैं ? -स्था० न तो हमारे साधु अपनी मूर्ति, पादुका, समाषि और चित्र बनवाते हैं और न वे ऐसा करने का उपदेश ही देते हैं और न उनको वन्दन नमस्कार ही करते हैं । -स्था० www -- मूर्ति० - यदि आपके साधुओं को अपनी मूर्ति, पादुका, समाधि और फोटूओं द्वारा अपनी पूजा करवाना इष्ट नहीं है तो फिर इन मूर्ति आदिक किसके उपदेश से किसने बनवाई ? -यह तो भक्त लोगों ने अपनी भक्ति से बना ली हैं । - मूर्ति० - मूर्तियें तो भक्त लोगों ने अपनी भक्ति के वशीभूत होकर बना ली होगी परंतु इन फोटुत्रों से तो प्रत्यक्ष मालूम होता है कि आपके पूज्य जी ने सावधानी से बैठकर रूची पूर्वक फोटू खिंचवाया है | यदि ऐसा नही होता तो इसका पूर्ण रूप से विरोध करते ताकि अत्र तक एक भी फोटू नहीं मिलता। इसके बदले में आपने तो बहुत साधुओं के फोटुओं का ग्रूप बनवाकर मूल्य पर बिकवाने का भी अनुमोदन किया और वे प्रप आज भी भक्तों के घर २ में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। उन्हीं से ही प्रस्तुत दो प्रप हमको प्राप्त हुए हैं वे आपके सामने विद्यमान हैं । स्था० - खैर ! कुछ भी हो परन्तु आपके मंदिर बनवाने में व मूर्तिपूजा करने में जितना प्रारम्भ होता है उतना हमारे पूर्वोक्त कार्यों में नहीं होता है । - मूर्ति ० -सच बतलाओ जब इनको श्राप मानते ही नहीं तो फिर इनके बनवाने का क्या मतलब है ? - स्था० - मतलब क्या ! ये हमारे उपकारी पुरुष हैं। उन्हीं की स्मृति के लिये ये सब बनवाये जाते हैं ? - मूर्ति० - हाँ यह ठीक है । परंतु फिर आप आरंभ की बात Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) क्यों करते हैं ? यह तो आपको ही ज्ञात है कि यदि बड़ी दुकान में खर्चा अधिक है तो लाभ भी अधिकाधिक ही होता है । और छोटी दुकान में थोड़ा खर्चा होता है तो लाभ भी उतने ही प्रमाण में होता है । पर व्यवहारिक दृष्टि से तो दोनों समाज एक कोटि के ही व्यापारी कहे जा सकते हैं। फिर हमको आरंभी और आप मूर्तिपूजक होते हुए भी अनारंभी कहना यह किस अदालत का इन्साफ है ? जरा हृदय पर हाथ रख कर सोचो एवं समझो स्था० - श्रजी आरंभ की बात नहीं है, परन्तु श्राप तो मूर्ति को परमेश्वर समझकर पूजा करते हैं । मूर्ति० – जब आप अपने पूज्य पुरुषों के चित्रों को देखते हो का उस समय इन्हें क्या समझते हो ? WA - स्था०-हम हमारे पूज्यादि के चित्रों को हमारे पूज्यादि नहीं समझते हैं वे तो रंग या स्याही से रंगित कागज के टुकड़े हैं। - मूर्ति० - यदि उन चित्रों को स्याही से रंगित कागज ही समझते हो तो फिर हज़ारो रुपये खर्च कर, छः काया के जीवों का श्रारंभ कर उसे बनाने का इतना कष्ट क्यों किया जाता है ? उसे पैरों के तले न डाल कर, सुन्दर मकान में लटका कर इतना सरकार क्यों किया जाता है ? और उसी चित्र की कोई बे दबी करता है तो श्राप नाराज क्यों होते हैं ? - स्था० - नहीं जी, हमतो नाराज नही होते हैं । - - मूर्ति० - आपने तो अपने हृदय को बड़ा ही कठोर बना लिया मालूम होता है यदि मुसलमानों की मसजिद के चित्र का कोई अपमान करता है तो उसे कोई भी मुसलमान सहन नहीं कर सकता है पर आप तो उनसे भी आगे बढ़ गये हैं। बलिहारी है आपके गुरु भक्ति की । परन्तु शायद् यह तो आपके कहने मात्र Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ही है। यदि ऐसा नहीं होता तो श्राप ऐसा कभी भी नहीं कहते कि हमारे पूज्य पुरुषों के चित्र आपने अपनी पुस्तकों में क्यों दिये ! -स्था०-हमने आपसे यह सवाल मान-अपमान के लिए नहीं किया है पर आप ऐसे उदाहरण देकर हमारी समाज को मूर्तिपूजक बनाना चाहते हैं और भद्रिक लोगों पर ऐसे उदाहरणों का प्रभाव पड़ जाना भी स्वाभाविक ही है। -भूति-भद्रिक लोगों की तो बात ही आप रहने दीजिए क्योंकि उनका हृदय हमेशा मूर्तिपूजक ही होता है। चूंकि आप विद्वान हैं इसलिए सत्य बतला दीजिये कि तीर्थङ्कर जो कि निश्चय ही मोक्ष गये हैं उनकी मत्तिये या चित्र और आपके पूज्य पुरुषों की जो जाति का भी पता नहीं हैं। उनकी मतियों आदि इन दोनों में क्या अंतर है ? और दर्शकों की भावना में क्या असमानता है ? -स्था० -- गुणीजनों के प्रति पूज्य भाव रखने की भावना वो दोनों की सदृश एवं अच्छी है। -मूर्ति-क्या यह बात आपने सच्चे दिल से कही है। -स्था०-जी हां। -मूर्ति०-बस ! ये चित्र इस हेतु को लक्ष में रखकर छपवाये गये हैं। दूसरा कोई कारण नहीं है। और इस बात के लिये आपको बड़ी भारी खुशी मनानी चाहिये कि जिन उत्सूत्र प्ररूप एवं शासन भंजकों का मुंह देखने में भी लोग पाप सम. मते थे उन्हीं के लिए सैकड़ों रुपये खर्च कर इतना बड़ा संग्रह किया है । और इस प्रत्यक्ष प्रमाण से आप जैसे मताप्रहियों का सहसा हृदय पलट जाय । बस इसलिए इन चित्रों को यहाँ देने में आपका या अन्य किसी का दिल दुःखा हो तो हम मांफी माँगने को भी तैयार हैं। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ क्या० ती० मुँ० मु० बान्धते थे ? महावीर यदि ऐसी संकीर्णवृति रखते तो चालीस करोड़ जनता उनके झंडा के नीचे आ सकती ? कदापि नहीं । दूसरा आप यह बतलावे कि भगवान् महावीर ने अगर डोरा डाल मुँहपत्ती मुँहपर बान्धी थी तो छदमस्थावस्था में या केवलावस्था में बांधी थी ? यदि इदमस्थावस्था में बांधी तो रजोहरण चोलपटा क्यों नहीं । कारण मुँहपर मुँहपत्ती और अधोभाग बिलकुल नग्न यह शोभा नहीं देता है। अगर केवलावस्था में कहो तो जब भगवान् दीक्षा धारण की उस समय इन्द्र महाराज ने एक देव वस्त्र आप के कन्धे पर डाला उसका उपयोग तो भगवान् ने नहीं किया पर साधिक एक वर्ष के बाद वह स्वयं गिर गया तदान्तर भगवान अचेल ही रहेथे कैसे वन सकता है क्योंकि आपके कथनानुसार भगवान् की केवलावस्था में भी मुँहपर मुँहपत्ती बांधी हुइथी । इससे वे अचेलक नहीं पर सचेलक ही हुए । तीसरा आपके पूर्वज और आप मुँहपर मुँहपत्ती बांधने का खास कारण बोलते समय उपयोग न रहना ही बतलाते हो तो क्या भगवान् महावीर को भी आप इसी कोटी के समझ रखा है न । शायद वे समवसरण में घंटों तक व्याख्यान देते समय कहीं उपयोग शून्य हो खुल्ले मुँह न बोल जाय । क्यों तीर्थङ्करों के मुँह पर डोरावाली मुँहपत्ती बाँधने का कारण यही है या अन्य हेतु हैं धन्य (1) है आपकी बुद्धि को, आप जैसे सुपुत्र के सिवाय तीर्थङ्करों को अचेल अवस्था में उपयोग शून्यता के कारण डोरा - डाल मुँह पर मुँहपत्ती कौन बँधावे । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलित चित्रों का कारण ? - ३६४ ___ श्वेताम्बर और दिगम्बर तो अपने भगवान् महावीर को दीक्षा समय से निर्वाण समय तक अचेल ही मानते हैं इतना ही क्यों पर लौकागच्छोय संघ भी तीर्थकर महावीर को अचेलक (वस्त्र मुक्त) ही मानते हैं तब स्थानकमार्गी समाज को मुँहपर डोराडाल दिन भर मुँहपत्ती बाँधने का कोई भी प्रमाण शास्त्र एवं इतिहास नहीं मिला और इधर अच्छे अच्छे विद्वान् एवं प्रतिष्ठित स्थानकवासी साधु मुँहपत्ती का मिथ्या डोरा तोड़ तोड़ कर मूर्तिपूजा स्वीकार करने लगे इस हालत में कई लोगों ने भगवान महावीर के मुंहपर डोरावाली मुँहपत्ती बांधने के कई कल्पित चित्र बना कर भद्रिक जनता को बहका रहे हैं कि भगवान् महावीर भी मुंहपर मुंहपत्ती बाँधते थे । शायद स्थानकवासी समाज ने अपने एक अलग ही महावीर की कल्पना करली हो जो स्थानकवासी समाज के सदृश उपयोग शून्य होगा और इसी कारण उन स्थानकवासी समाज के अल्पज्ञ महावीर को डोराडाल मुंहार मुंहपत्ती बाँधनी पड़ी हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है और उसी उपयोग शून्य अल्पज्ञ महावीर का चित्र बना के स्वामि चौथमलजी ने अपनी पुस्तक में मुद्रित करवाया हो, यह बात मानने में कोई हर्ज भी नहीं है पर जैनश्वेताम्बर दिगम्बर और लौकागच्छीयों को सावधान रहना चाहिये ऐसे महावीर को वे हर्गिज जैन तीर्थङ्कर नहीं समझे कि जिनके मुंहपर डोरावाली मुंहपत्ती बाँधी हो, वे तो स्थानकवासी समाज के कल्पित महावीर है। स्थानकवासी भाई मुंह पर डोराडाल मुँहपत्ती बाँधने की सिद्धी के लिये महावीर का कल्पित चित्र बनाया पर इससे झगड़ा Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बान्धी, और न आपकी संतान आज पर्यन्त बांधती है सं०१७०८ में लवजीर्षि ने डोरा डाल मुहपर ASE pranateYOOOOK इन चारों के आदि पुरुष लोकाशाह ही हैं न तो आपने कभी मुहपत्ती मुहपत्ती बांधीथी जिसमें जो मतभेद है वह चित्र से देख सकते हैं। SCREE- EADARASSIONA लौंकामत के साधु | स्था० देशी साधु । साधमार्गी प्रदेशी सा | तेरह पंथी साधु Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार चित्रों का सम्बन्ध - लौकागच्छीय एक व्यक्ति - क्योंजी ! आपने हमारे गुरुजी चित्र के साथ इन तीन मुँह बँधे साधुओं के चित्र क्यों लगा दिये हैं ? - भूर्तिपूजक - क्यों आपको क्या हर्ज हुआ ? -- लौं० - ये साधु हमारी पंक्ति के नहीं हैं। -मूर्त्ति०- क्या आपको दीखता नहीं है कि इन प्रत्येक साधुओं के बिच बिच में एक एक दीवार खड़ी हैं। शायद आप इन साधुओं को भूमि पर भी खड़ा रहने देना नहीं चाहते हो । यह एक आश्चर्य की बात है कि इस बीसवीं शताब्दी में विरोधी धर्म के साधुओं के साथ भी हाथ से हाथ मिलाये जाते हैं तो यह वोनों साधु तो अपने को लौंकाशाह के अनुयायी होना बतलाते हैं, फिर आपका हृदय इतना संकीर्ण क्यों हैं । - लौं० - ये तीनों साधु हमारे लौंकाशाह के अनुयायी नहीं है पर लौकाशाह की आज्ञा भंजक हैं और इनका वेश एवं आचरण भी हमारे से भिन्न हैं । मूर्त्ति० - लोकाशाह ने तीर्थङ्करों की आज्ञा नहीं मानी, इन तीन साधुओं के श्राद्यपुरुषों ने लौंकाशाह की श्राज्ञा का मंग किया | अतएव आप सब हैं तो एक ही बेलड़ी के फल न ? लौं०-- आपका यह कहना ठीक नहीं हैं क्योंकि लौंकाशाह ने कब डोराडाल मुँह पर मुँहपत्ती बाँधी थी। जब इन तीनों के गुरुओं ने स्वयं डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती बांध कुलिंग धारण किया वह इनकी शकल से ही श्राप देख सकते हो। इतना ही नहीं पर इन लोगों ने तो एक और ही जबर्दस्त जुल्म कर डाला है कि तीर्थङ्कर महावीर को भी अपने सदृश उपयोगशून्य समझ डोराडाल मुँहपत्ती मुँहपर बंधवादी है क्या Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ( २ ) ऐसे साधु हमारे लौंकाशाह के अनुयायी बन सकते हैं ? कदापि नहीं। मूर्त्ति० - इसी से ही तो हमने आप चार साधुओं के अलग अलग चित्र दिये हैं कि डोराडाल मुँहपत्ती मुँहपर बांधने वाले महावीर किस साधुओं के तीर्थङ्कर हैं। मुँहपत्ती का निशान मिलाने से - तो यही मालुम होता है कि यह महावीर नं २ के देशी साधुओं के ही हैं क्योंकि महावीर के मुँहपत्ती छोटी बंधाई है जैसे देशी साधु थे । सवाल यह होता है कि श्राप तो मुँहपत्ती हाथ में रखते हो इसलिये मुँहपत्ती बांधने वाला महावीर के साथ आप का कोई भी सम्बन्ध नहीं है पर विचारे परदेशी साधु या तेरपन्थियों का क्या हाल होगा। क्या वे छोटी मुँहपत्ती वाले महावीर को अपना तीर्थङ्कर मान लेगा ? या अपने सदृश बड़ी यां लंबी मुँहपत्ती वाले कोई अन्य महावीर की अलग ही कल्पना करेगा जैसे देशी साधुओं के लिये महावीर का चित्र है । - देशी साधुओं का भक्त - क्योंजी ! आपने हमारे साधु के पास परदेशी साधु या तरहपन्थी साधु को क्यों खड़ा कर दिया है । क्या इससे हमारे साधु का अपमान नहीं हुआ है ? - मूर्ति० - हाय ! हाय !! इन साधुओं के अन्तर में इतना बड़ा लक्कड़ खड़ा होने पर भी एक दूसरा साधु को देखने मात्र से न जाने पाप का पहाड़ टूट पड़ता हो । यह कैसी साधुता । यह कैसी जगत-बन्धुता । हमने तो देशी परदेशो साधुत्रों को एक पाट पर विराजमान हो व्याख्यान देते देखा है, फिर आप अन्तर में लक्कड़ होने पर भी एक दूसरे देखने में ही अपना अपमान समझते हो । अफसोस ३ । खैर आप कुच्छ भी समझें । मैंने तो केवल महावीर के मुँहपर बन्धी हुई डोरा वाली मुँहपत्ती का मिलाने के लिये ही आप लोगों के साधुओं का चित्र दिया है Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और यह देशी साधुओं के लिये फायना मंद भी है क्योंकि यह महावीर देशी साधुओं के सिद्ध हुए हैं। ___-परदेशी साधुओं का भक्त । -कुच्छ भी हो पर जिस देशी साधुओं के साथ हमारे परदेशी साधुओं का संभोग ही नहीं है, उसके पास हमारे साधुओं को खड़ा कर देना, इसके लिये तो हम आपको अवश्य जवाब पूछेहोंगे। ___-मूर्ति०वाह ! वाह !! मेहरबान । आपने ठीक कहाँ। इस बीसवी शताब्दो में ८४ जाति के महाजन शामिल बेठ भोजन कर सकते हैं, मुशाफरखाने में हिन्दू मुसलनमान साथ में ठेर सकते हैं। इस हालत में आपके साधुओं के विच एक बड़ी खाई होने पर भी एक भूमिपर खड़ा रहने में इतना मान अपमान? शायद आपको यहतो दर्द नहीं है कि वे महावीर देशी साधुओं के सिद्ध होगये । -तेरहपन्थी साधुओं का भक्त-- नं१-२-३ के महावीर को हम तीर्थङ्कर कभी नहीं मानेगे क्योंकि महावीर वही हो सकता है कि जिसके लम्बी मुँहपत्ती हो जैसे कि हमारे पूज्यजी महाराज बांधते है। पर हमारेसाधु को आपने इन मिथ्यात्वियों के पास खड़ा कर दिया यह ठीक नहीं किया इससे तो हमारा अपमान होता है। -मूर्ति-अरे भाई ! आप इन तीनों को साधु सममें या मिथ्यात्वी पर मनुष्यत्व के नाते से तो आपके साधु मनुष्य हैं और ये तीनों साधु भी मनुष्य हैं। मनुष्य के साथ मनुष्य भूमि पर खड़े है । इस में मान अपमान की तो क्या बात है। --एक व्यक्ति - चाहे कुच्छ भी हो पर हमारे साधुओं का चित्र देने का आपको क्या अधिकार है। क्या इस बात का हम आपको जवाब नहीं पुछ सकते है ? Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -मूर्ति-बतलाओ तो सही कि यहाँ आप एक के भी साधु है कहाँ ? क्या आप आकाश से तो बातें नहीं कर रहे है। --एक व्यक्ति-ये आपने चार साधुओं का चित्र दिया है न। मूर्ति--स! आप अपने पूज्य विद्वानों से पूछ के बात करो। क्या इस कागज स्याही के चित्रों को आप अपने साधु मान कर मान अपमान समझते हो इस हालत में शायद् इसी प्रकार कल पाषाण की मूर्ति को भी आप भगवान् मानने नहीं लग जाओ। -एक-नहीं जी हम पाषाण की मूर्ति को कभी भगवान नहीं समझते हैं। -मूर्ति--तो फिर इस स्याही और कागज के चित्रों को आप अपने साधु कैसे समझते हो। यदि जैसे स्याही और कागज के चित्र को आप अपने साधु समझ, मान अपमान का खयाल करते हो और इस से आपको यह बोध हो जाता है कि यह स्याही और कागज के चित्र से ही हमारी आत्मा पर असर पड़ता है इसी प्रकार तीर्थंकरों की पाषाणमय प्रतिष्ठित मति का भी अन्तरात्मा पर प्रभाव अवश्य पड़ता है तो आपके और हमारे बिच में कोई मतभेद नहीं है। यदि इस बात को आप स्वीकार करलें तो इन चित्रों से यदि आपको दुःख हुआ हो उसकी हम आप से क्षमा की अवश्च प्रार्थना कर आपको सन्तुष्ठित कर देगा। नहीं तो आपको यह कहने का कोई भी अधिकार नहीं है कि हमारे साधुओं को इन साधुओं के साथ क्यों खड़े किये हैं। आप तो इस को स्याही और कागज ही समझे कि मान अपमान के खयाल ही नहीं पैदा हो फिर भागे. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ क्या. ती. म. मुं. बाँधते थे ? कम नहीं हुआ पर इससे तो झगड़ा और भी बढ़ गया क्योंकि यह मुँहपत्ती तो देशी स्थानकवासी समुदाय की छोटी हैं अब प्रदेशी समुदाय वालों को बड़ी मुँहपत्ती वाले महावीर का चित्र तथा तेरहपन्थी लोगों को लम्बी मुंहपत्ती वाला महावीर की कल्पना करनी पड़ेगी, क्योंकि लौं कामत के साधु, देशीसाधु, प्रदेशी साधु और तेरहपन्थी साधुओं के मुँहपत्ती का मार्क एक नहीं पर भिन्न भिन्न है जिसका चित्र आपके सामने विद्यमान हैं। (२) चित्र दूसरा-मुनि गजसुखमाल का है आप ध्यानास्थिति होने पर भी आपके मुंहपर मुंहपत्ती बँधादो है शायद् इनका यह मतलब हो कि बिना मुँहपत्ती बाँधे किसी कि मोक्ष ही नहीं होती हो पर इसमें भी एक त्रुटी तो रह ही गई। कारण मुनि गजसुखमाल कर्म क्षय कर मोक्ष में गये अर्थात् सिद्ध हुए उनकी पहिचान के लिये सिद्धशीला पर सिद्धों की मूर्ति स्थापित की पर उस सिद्धों की मूर्ति के मुहपर मुहपत्ती बंधाना तो भूल हो गये यदि यह भूल न करते तो यह भी सिद्ध हो जाताकि मुँहपत्ती डोराडाल मुंहपर केवल तीर्थकर ही नहीं पर सिद्ध के भी मुँहपत्ती बँधी रहती है और चलती कल्म में उस सिद्धों की मूर्ति के मुंहपर मुँहपत्ती करवा देते तो न लगता अधिक खर्चा और न रहती किसी प्रमाण की आवश्यकता जैसे कि तीर्थङ्कर महावीर और मुनि गजसुखमाल के चित्र में आप कर बतलाया है। ___ मुनि गजसुखमाल के चित्र से एक निर्णय सहज में ही हो जाता है और वह यह है कि हमारे स्थानकवासीभाई बिना मूर्ति तो सिद्धों को पहचानभी नहीं सकते हैं इसीसे ही आपको गजसुस्त्रमाल मुनि सिद्ध होने की साबुती में सिद्धों की मूर्ति स्थापन करनी पड़ी Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ नाइ का मुंह बांधना। है जैसे कि जैन लोग अपने मन्दिरों में सिद्धों की मूर्ति स्थापन करते हैं हमारे स्थानकवासियों का इस चित्रमय सिद्धों की मूर्ति और जैन के मन्दिरोंमें पाषाणमय सिद्धोंकी मूर्ति में कोई भेद नहीं है भेद है तो केवल हमारे स्थानकवासियों के हट कदाग्रह का है। (३) चित्र तीसरा-राजा श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार ने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेने का निश्चय किया इस हालत में राजा श्रेणिक ने दीक्षा का महोत्सव कर नाई को बुलाया और बोर्डर दिया कि दीक्षा योग्य बाल छोड़ के मेघ कुमार की हजामत बनावो। तब नाई ने हाथ पग धोकर आठ पुड़ के कपड़ा से मुँह बांध कर मेघ कुमार की हजामत कर रहा है यह दृश्य तीसरा चित्र में बतलाया है इसका वर्णन श्री ज्ञातासूत्र पहिला अध्ययन में है तथा इसी प्रकार श्री भगवतीसूत्र शतक ९ उद्देशा ३३ में जमोली क्षत्री कुमार के अधिकार में आता है जैन सूत्रों में हजामत करने के समय अपनी मुँह की दुर्गन्ध रोकने के लिये केवल नाइ ने ही आठ पुड़ के कपड़ा से मुंह बांधने का उल्लेख मिलता है न कि साधु श्रावक का। इन तीनों चित्रों को साथ में देने का सिर्फ इतना ही कारण है कि जैन सूत्रों में दीक्षा के समय नाइ ने आठ पुड के वस्त्र से मुँह बांधा जिसका प्रमाण तो हमने सत्र ज्ञाताजी तथाभगवती जी का प्रमाण दे दिया है पर भगवान महावीर और मुनि गजसुखमाल के मुंह पर मुंहपती किस प्रमाण से बँधाइ है वह हमारे स्थानकवासी भाइ बतलावें वरना अपनी अज्ञता एवं उपयोग शुन्यता का कलंक तीर्थकर जैसे महापुरुषों पर लगाया है जिस Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ क्या ती. म. मुं. बाँधते थे? का प्रायश्चित कर उत्सूत्र रूपी बज्रपाप से बच कर अपना कल्यान करे। अस्तु-प्रसंगोपात्त हम इतना कह कर पुनः प्रकृत विषय पर आते हैं कि शायद हमारे स्था० भाइयों को यह विश्वास होगा कि इन कल्पित चित्रों को सब संसार एवं विद्वद् समाज नहीं तो भोले भाले साधुमार्गी लोग तो मान ही लेंगे कि डोराडाल मुंहपर मुँहपत्ती बाँधना स्वामी लवजी से ही नहीं किन्तु भगवान ऋषभदेव और प्रभु महावीर से चला आता है। क्योंकि इन चित्रों में आदि, अन्तिम तीर्थंकरों के मुँहपर डोरासहित मुँहपत्ती बंधी हुई है और दूसरी बात यह है कि भूतकाल का तो कोई प्रमाण नहीं मिले, परन्तु भविष्य में तो आज के ये चित्र भी प्राचीन हो जायंगे तब तो प्रमाणिक समझे जायंगे न ? तथा आज जो भिन्न२ धर्मों का इतिहास लिखा जा रहा है कम से कम उनमें तो एक ऐसे धर्म का भी उल्लेख' हो जायगा कि भारत में बोसवीं शताब्दी में एक ऐसा भी धर्म है जिसके उपासक दिन भर मुँहपर मुँहपत्ती बाँधे रखतेहै और इनकी पुस्तकों में ऐसे चित्र हैं कि इन के ज्ञानी तीर्थङ्कर भी उपयोग शून्यता के कारण डोराडाल मुँह पत्तो मुँहपर बाँधते थे बस इन्हीं सब कारणों से ये कल्पित चित्र तैयार कराए गए हैं । पर फिर भी इनमें एक त्रुटि अवश्य रह गई है। वह यह कि यह प्रवृत्ति एक पूज्य हुकमीचन्दजी महाराज के सिंघाड़ा वाले साधुषों से ही शुरु हुई है। और शेष कितनेक स्थानकमार्गी इसका विरोध भी करते हैं। वे कहते हैं कि तीर्थङ्कर न तो पास में कपड़ा रखते थे और न वे मुँहपत्ती बाँधते थे। स्वामी अमोलखर्षिजी ने राजप्रश्नी सूत्र के हिन्दी अनुवाद पृष्ट २०८ पर अपनी ओर से Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धों की मूर्तियों के मु० कु० । ३६८ लिखा है कि तीर्थकर बिलकुल वस्त्र नहीं रखते थे, इसी प्रकार और भी अनेक सम्प्रदायों का इसमें विरोध है । यदि स्वामीजी मुनि सम्मेलन में इस बात के लिये सबकी सम्मति लेते तो कम से कम स्थानकमार्गी तो इस बात का विरोध नहीं करते कि तीर्थंकर मुँहपर मुँहपत्ती नहीं बाँधते थे । कई एक सज्जन यह सवाल करते हैं कि यदि मूर्ति पूजकों ने सिद्धों की मूर्ति को मुकुट कुण्डल पहना दिये तो हमने उन्हें मुँहपर मुँहपत्ती बधां दी इसमें बुरा क्या किया ? इसके उत्तर में प्रश्नकर्त्ता को पहिले मूर्ति पूजकों से यह समझाना चाहिए कि वे मुकुट कुण्डल क्यों पहनाते हैं ? सुनिये:- मूर्ति-पूजक मूर्ति में चारों अवस्थाओं का आरोप करते हैं । स्नात्र के समय जन्मावस्था, मुकुट-कुण्डल के साथ राजावस्था, अष्ट प्रतिहार के समय अरिहन्ताऽवस्था, और ध्यान के समय सिद्धावस्था, ये चारों अवस्थाएं क्रमशः तीर्थंकरों की थीं और शास्त्रों में इसका उल्लेख है । पर तीर्थकरों के मुँहपर डोराडाल मुँहपत्ती बांधना यह कौनसी अवस्था तथा किस शास्त्र का उल्लेख है ? क्योंकि तीर्थकरों ने गृहस्थावास में छदमावस्था में, या कैवल्यावस्था में कभी मुँहपत्ती नहीं बांधी थी । फिर समझ में नहीं आता है कि तीर्थकरों के मुँहपर मुँहपत्ती किस अवस्था की है ? जगत् पूज्य विश्वोपकारी तीर्थकरों की सूरत नाहक भद्दी बनाना यह केवल अपनी संकीर्ण वृत्ति का ही परिचय है । एवं अपने क्षुद्राभिप्रायों का दोष महापुरुषों पर लगाना महान् निन्द्य कर्म है । क्या हमारे स्थानकमार्गी भाई इस संकीर्णता को दूर कर कभी इस बात को समझेंगे १ । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या ती० मुं० मुं० बान्धते थे? सज्जनों! जमाना सत्यवाद-प्रमाणवाद और इतिहासवाद, का है । इस समय प्रत्येक पदा की पड़ताल हो रही है । सूक्ष्म से सूक्ष्म बात की आज छानबीन हो रही है। प्रत्येक लेख, श्राकृति, अब इतिहास की कसौटी पर कसी जा रही है । अपनी अपनी मान्यता को सिद्ध करने को श्राज हरेक समुदाय ऐतिहासिक साधन संग्रह कर रहेहैं, पौर्वात्य और पाश्चात्य पुरातस्त्रहों की शोध खोज से अनेक मूर्तियों, चित्र, सिके, शिलालेख प्राचीन प्रन्थादि की सामग्री प्राप्त हुई है । और इन साधनों द्वारा आज प्राचीनता का निर्णय हो सकता है । :: क्या हमारे स्थानकमार्गी भाई भगवान ऋषभदेव से महावीर तक किसी तीर्थक्करों के मुँहपर मुंहपत्ती बांधने का एक भी ऐतिहासिक प्रमाण उपस्थित कर सकते हैं ? यदि नहीं तो फिर ये कल्पित चित्र किस आधार से बनाए गए हैं, और ऐसे कृत्रिम चित्रों को क्या कीमत हो सकती है ? तीर्थ करों के प्रादुर्भाव को तो बहुत समय बीत गया है, पर विक्रम की अठारहवीं शताब्दी अर्थात् स्वामी लवजी के पूर्व का भी कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि किसी जैनाचार्य-साधु या श्रावक ने किसी समय मुँह पर रोराडाल मुँहपत्ती बांधी थी। और इसके विरुद्ध हाथ में मुंहपत्ती रखने के प्रमाण प्रचुरता से मिल सकते हैं। उदाहरणार्थ कुछ नमूने आगे चल कर दिखावेंगे। (२४)-४५ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशास्त्रों का प्रमाण मुखवस्त्रिका के विषय शास्त्रीय 'प्रमाण' सबसे पहिला यह निर्णय कर दिया जाय कि स्थविर कल्पी साधुओं को कितने उपकरण विशेषमें कितनी मुँहपक्षियों रखनी चाहिये । यथा 66. " समस्स सुविहियस तु पडिग्गह धारिस्स भवति भाभंडोवहि उवकरणं, पडिग्गहो १, पादबंधणं २, पादकेसरिया ३, पाठवणं ४ च, पडलाई तिन्नेव ५, यत्ताणं च ६, गोच्छश्रो ७, तिन्निव य पच्छाका १०, रोहरणं ११, चोलपट्टकं १२, मुहांतकमादीयं १३, इयंपिय संजयस्स उवबूहणढाए " उपरोक्त पाठ में सुविहित-संयमी साधू को संयम धर्म की रक्षा करने के लिए उपकरण रखने को कहा है सो पात्र, व पात्रों को बांधने को कपड़े की झोली, पात्रों को प्रमार्जन करने के लिए ऊन के कपड़े का टुकड़ा जिसको पात्र केशरिका कहते हैं, कंबल के खड पर पात्र रक्खें उसको पात्र स्थापन कहते हैं । गौचरी जावें तब झोली व पात्रों के ऊपर आच्छादन करने के लिये कम से कम तीन पड वाले वस्त्र को पडले भेद से पाँच या सात पडवाले पडले रखने में सुचित्रा रज, छोटा बड़ा जीव या जलादि वस्तु आहार पर गिरने न पावे इसलिये गौचरी जावें तब पडलों से पात्रों को अवश्य श्र च्छादित करें, गौचरी लाकर पात्रे रक्खे तब उपर से ढ़कने के वस्त्र को रजस्त्राण कहते हैं, अथवा पात्रों को बांधने के बीच में कहते हैं, ऋतु श्राते हैं, उससे — ३७० Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ क्या ती. मुं. मुं० बान्धते थे। वन लपेटा जावे उसको रजत्राण कहते हैं, अर्थात् ये दोनों काम में आ सकते हैं, गोचरो के बाद में पाने बांध कर ऊपर से ऊंन का वन खंड बांधने में आता है, उसको गोच्छा कहते हैं, तथा दो सूत की घ एक ऊन की कम्बल ऐसो तीन चहर रखने में आती हैं, और रजोहरण, चोलपट्टा, मुंहपति श्रादि यह उपकरण संयम के आधार भूत होने से परिग्रह रूप नहीं हैं। श्री प्रश्नव्याकरण पृष्ट १४८ .. इस मूल पाठ-टीका और भाषा में साधु को एक मुँहपत्ती रखनी लिखी है यही बात स्था० साधु अमोलखषिजी ने अपने हिन्दी अनुवाद में लिखी है और श्वे स्था० तेरह पन्थियों की मान्यता है कि जैन साधु एक मुँहपत्ती रखते हैं अब देखिये - - - * स्था• साधु अमोलखर्षिजी ने इस प्रभव्याकरण सूत्र का हिन्दी अनुवाद किया है परन्तु आप शब्दोंका अर्थ करने में भी अभी अनभिज्ञ है कारण 'गाच्छाओं' का अर्थ होता है पात्रों पर ऊन के दो टुकड़े जो गुच्छा. कार कर बांधा जाता है कि जिसमें जोवादि की विराधना न हो, आपने अर्थ किया है। पात्र पूजने की पुजनी, जो पहिले पान केसरिका मा चुकी है। 'पिडलाई' का अर्थ है गोचरी के समय पात्रों की झोली पर जीव रक्षा निमित डाला जाता है आपने इसका अर्थ किया है पात्रों के लपेटा जो रजस्तान आगे अलग कहा है 'पदठवणं' का अर्थ होता है ऊंन का खण्ड कपड़ा कि जिसपर माहार के पात्र रक्खे जाते हैं स्वामीजी ने 'पाद ठवणं' को अर्थ किया है पाट पटला, तो क्या अन्य उपकरणों की भांति स्वामीजी पाट पाटला रख कर ग्रामों-ग्राम साथ लिये फिरते होंगे? इत्यादि पर इस अन्ध परम्परा में पुच्छता है कौन, न तीर्थंकरों की भाज्ञा न आचार्यों की आज्ञा जिसके दिल में आया वह स्वेच्छा घसीट मारता है। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों का प्रमाण । ३७२ भगवान के कथनानुसार गोतम स्वामी मृगापुत्र को देखने के लिये मृगाराणी के वहां गये उस समय मृगाराणी गौतम स्वामि से कहती है "मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी-एहणं तुम्भे भंते ! मम अणुगच्छई जहाणं अहं तुम्भे मियापुत्तं दारगं उवदसेमि, ततेणं से भगवं गोयमे मियादेवि पिठो समणु गच्छित्ति, ततेणं सा मियादेवी तं कट्ठसगडियं अणुकढमाणी, अणुकद्दमाणी जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छिति उवागच्छित्ता चउप्पुडेणं वत्थेणं मुंह बंधेति, मुहबंध माणी भगवं गोयमं एवं बयासी-तुम्भे वि णं भंते ! मुंहपोशियाए मुंहबंधइ, ततेणं से भगवं गोयमे मियादेवीए एवं वुत्तसमाणे मुहपोतियाए मुंहबंधति, ततेणंसा मियादेवी परमुही भूमिघरस्स दुवारं विहाडेति. ततेणं गंधे निगच्छति से जहा नामए अहिमडेति" ___ भावार्थ-मृगा राणी ने गौतमस्वामी को कहा कि हे भगधन् ! आप मेरे पीछे २ आओ मैं मेरा पुत्र श्रापको बतलाऊँ, ऐसा कह कर मृगाराणी मृगापुत्र के लिए आहारादि भोजन की हाथ गाड़ी खींचती हुई आगे चली, गौतमम्वामा उसके पीछे २ चले, जहाँ भूमिघर ( भोयरा) का दरवाजा था, वहां आये; वहां आकर चार पड़ वाले वस्त्र से मृगापुत्र के शरीर की दुर्गन्धी का बचाव करने के लिए मृगारानी ने पहले अपना मुंह बांध लिया, फिर गौतमम्वामी को भी कहा कि हे भगवन् आप मी Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ क्या० ती० मु० मु० बाँधते थे ? अपनी मुँहपत्ति से अपना मुँह बाधो, ऐसे मृगाराणी का बचन सुन कर गौतमस्वामी ने भी अपनी मुँहपत्ति से अपने मुँह को बांध लिया, उसके बाद मृगाराणी ने भूमिघर को पीठ देकर के पिछाड़ी हाथ करके दरवाजा खोला तब उसमें से सर्प के मुद्दे से भी अधिक दुर्गन्धि निकली और मृगापुत्र को महान् तीव्र वेदना को भोगता हुआ गौतमस्वामी ने देखा, देख कर शुभ कर्मों की विटम्बना से विशेष वैराग्य भावना करते हुए वहाँ से निकल कर भगवान् श्री वीर के पास प्रभु श्री विपाक सूत्र श्र० १–१ प्रष्ठ २७ इस सूत्रार्थ में मृगाणी स्वयं वस्त्र से मुँह बांधकर बाद गौतम - स्वामी को कहा भगवान् आप भी मुँहपति से मुँह बाँध लो, अब विद्वानों को सोचना चाहिये कि गौतम स्वामी के पहले से मुँह पर में आये । हत्ती बाँधी हुई होती तो रांणी ऐसा क्यों कहती कि आप भी मुँहपत्ति से मुँह बांध लो और मुँहपत्ति उपरोक्त प्रश्नव्याकरण सूत्र के पाठानुसार गौतमस्वामी के एक ही थी न कि दो अतएव गौतमस्वामी के हाथ में मुँहपती थी उससे दुर्गन्ध की बचाव के लिये उस मुँहपती मुँह बांध लिया अर्थात् मुँहपती को तीखुनी कर मुँह और नाक छादित कर लिया जैसे कि रानी मृगा ने अपना मुँह बाँधा था यह एक साधारण मनुष्य के समझ में श्रवे जैसी सादी और सरल बात है कि जैन शास्त्रानुसार जैनमनि सनातन से मुँहपत्ती हाथ में ही रखते आये हैं। पर वि. सं. १७०८ स्वामी लवजी ने अपनी पत मिटाने को मुँहपत्ता मुँहपर बाँध के अनंते तीर्थकर गणधर पूर्वाचार्य और लोकाशाह की आशा का भंग कर कुलिंग की प्रवृत्ति कर डाली और वह प्रवृत्ति Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों के प्रमाण ३७४ आज कई समझदार जानते हुए भी मात्र मतपक्ष के कारण भूट 'मूट चला रहे हैं श्रागे देखिये " जे भिख्खुवा भिख्खुणी वा ऊसासमाणे वा णीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जम्भायमाणे वा उडोपण वा वायणिसग्गे वा करेमाणे पुव्वमेव श्रासयं वा पोसयं वा पाणिया परिपिहित्ता तो संज यामेव उससेज वा जाब वायणिसग्गं वा करेज्जा " श्री आचारोगसूत्र श्रु० भ० ११ उ० ३ पृष्ठ २४७ इस पाठ में साधुसाध्वी को उश्वास, निश्वास लेते, समय खासी, छींक, उबासी, डकार वातोत्सर्ग करते पहिले मुँह व अधोभाग हाथ से ढाक कर पीछे यत्नापूर्वक करने का कहा है, इससे साबित होता है कि साधु साध्वियों के मुँह हमेशा खुले रहते हैं परन्तु बंधे हुए नहीं यदि बंधेहुए होते तो उश्वासादि लेते समय हाथ से मुँह ढांकने को सूत्रकार कभी न कहते और यहां तो खास मूलपाठ में मुँह आगे हाथ रखने का खुला शब्दों में कहा है, इसलिये मुँहपत्ति हाथ में रखना ही निश्चय होता है, यहां पर सूत्र -कार महाराज का खास अन्तर आशय यही है कि उश्वास या छींक वगैरह करते हाथ से मुंह ढांकना, और यही बात शक्रेन्द्र के प्रश्न के उत्तर में कही है जरा निर्पक्ष होकर देखिये “ सकेणं भंते । देविंदे देवराया किं सावज्जं भास, भासति । श्रणवज्जं भासं भासति १ गोयमा सावज्जं पि भासं भासति, अरणवज्जं पि भासं भासति ! से केठठे भंते! एवं बुच्चर - सावज्जं पि जाव ण < . Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ क्या ० ती. मुँ० बाँधते थे ? वज्जपि भासं भासति ? गोयना जाहेणं सकेदेविंदे देव राया मुहुम कार्य अणिजूहिताणं भासं भासति ताहेणं सकेदेविंदे देवराया सावज्जं भासं भासति - जाहेणं सके देविंदे देवराया सुहुमकायं निजूहिताणं भासं भासति ताणं सर्वदेविदे देवराया अणवज्जं भासं भासति से तेलट्ठे जाव भासति " श्री भगवती सूत्र श० १६० २ गौतम स्वामि ने भगवान् से प्रश्न किया कि शकेन्द्र भाषा बोलता है वह सावधं है या निर्बंध ? हे गौतम शक्रेन्द्र मुंह आगे हाथ रख कर बोलता है वह निर्वद्य भाषा है और मुंह आगे हाथ दिया बिना बोलता है वह सावद्य भाषा हैं इस सूत्रार्थ में स्पष्ट लिखा है कि मुँह आगे हाथ रख बोले वह निर्वद्य भाषा है पर मुँह बन्धने की गंन्धतक भी सूत्र में नहीं है फिर भी हमारे स्थानकवासी भाई अभी सावद्य निर्वद्य के मतलब को नहीं समझते हैं वे तो अपने मताग्रह से केवल मुँहपर मुँहपत्ती । दिन भर बान्धने में ही सब कुछ समझ रक्खा है । भले विचारो कि किसी मनुष्यने मुँहपर हाथ कपड़ा या मुखवत्रिका बान्ध कर भी • कहा कि इस जीव को मारडालो और किसीने खुल्ले मुंह कहा कि इस जीव को मत मारो अर्थात् बचाओ अब आपके हिसाब से आप सावध और निर्वद्य भाषा किसको कहोगे ? क्या मुँह बान्ध कर जीव मारने की भाषा को निर्वद्य कहोगे या खुल्ले मुँख जीव बचाने वाले की भाषाको निर्वद्य कहोगे ? यदि बोलते समय खुल्ने मुँह नहीं बोलना ही आपका इष्ट है तो मौन व्रत से Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शानों के प्रमाण ३७६ सामायिक या पाँच सात दिन की तपश्चर्या करने वाले साधुओं को दिन रात मुँह बान्ध कर असंख्य समूच्छिम जीवों की हिंसाका पाप शिर पर क्यों उठाना चाहिये । फिर आगे चल कर देखिये “जे भिखु । अचेल परिबुसिए तस्सणं भिखुस्स एवं भवति, चाएमि अहं तणफासंअहियासित्तोए सियंफासं अहियासिताए उसण्णफासं अहियासिताए एवं दंसमस्सका अहियासिताए एगंत्तरे अण्णेरे विरुवरुवेफांसं अहियासिताए हिरिपडि छादणंच अहं णो संचाएमि अहियसिताए एवं से कप्पइ कडिबंधणंधारित्ताए" आचारांगं सूत्र श्रु०१-८-. जो साधु अचल (वसरहित) रहने वाला है ऐसा वह विचार करे कि मैं तृण परिसह शीतोष्ण परिसह दंस मसग (मच्छरादि) श्रादि और और परिसह को तो सहन करलुंगा पर गुह्य प्रदेश (पुरुष चिन्ह ) रुपी लज्जारूप परिसह को सहन करने में असमर्थ हूँ ऐसे साध को एक कटि-बन्ध यानि एक हाथ का चोडा और कटि प्रमाण लम्बा वस्त्र, रखना कल्पता है । इस सुत्र पाठ में केवल एक कटिबंध वस्र साधु रख सकता है अब सोचिये आपके मुंहपत्ती का डोरा कहाँ रहा है क्या आप ऐसे साधुओं को साधु समझोगे या नहीं यदि जैनशास्त्रानुसार वे साधु हैं तो आप डोरा का हट करते हो वह बिलकुल मिथ्या ही ठेरेगा। समझा न भाई साहिब । कितनेक अज्ञ लोग मुँहपत्ती में डोरा के साथ साध्वियों के साडाके डोराकी तुलना करते हैं उन महानुभावों को सोचना Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ क्या० ती• मुं० मु० बान्धते थे ? चाहिये कि मुंख बन्धन की खास ज़रूरत होती तो कटिबन्ध के साथ मुंहपत्ती का भी शास्त्रकार उल्लेख करते परन्तु गुह्य प्रदेश और मुख दोनों लज्जा का सदृश्य स्थान नहीं हैं लोक व्यवहार में भी गुह्य प्रदेश को आच्छादित किया जाता है तब मुंह सदैव खुलाही रहता हैं इस सूत्रार्थ से स्पष्ट सिद्ध होता है कि जैन साधुओं को मुखबन्धन की आवश्यकता नहीं हैं। कई अज्ञात लोग भगवती सूत्र श० ९-३३ में तथा ज्ञाता सूत्र अध्ययन पहिला में जमाली और मेघकुमार के दिक्षा समय हजामत करने वाला नाई ने अठपुडा पोतिया से मुंह वान्धने का पाठ देख बिचारे भद्रिक जैनों को बेहका देते हैं कि देखो सूत्र में मुँह बान्धना लिखा है पर उस नाई के पास तो राचोनी भी थी यदि उसी पाठ से मुँहबान्धना साबित किया जाता हो तो उसी पाठानुसार मुंह बन्धन के साथ एक राचोनी भी रखनी चाहिये क्योंकि.यह विधान उस स्थान पर विद्यमान है। कई लोग सोमल ब्राह्मण जो पहले भगवान् पार्श्वनाथ का श्रावक था बाद उसने तापस्वीत्व स्वीकार कर मुंह पर काष्ट की मुंहपत्ती हमेशां नहीं पर कुछ समय ( उस मत की विधि ) के लिये मुंह पर बान्धता था ( यह क्रिया वेदान्तियों में शंखमत की है ) और इस प्रकार काष्ट की मुँहपत्ती बान्धने वाले को शास्त्रकार स्पष्ट शब्दों में मिथ्यात्वी बतलाया है फिर भी सोमल ब्राह्मण को देवताने समझाया वह चार दिन नहीं समझा पर पांचवे दिन ठीक समझ कर उस तापसी दीक्षा एवं काष्ट की मुंहपत्ती का परित्याग कर दिया और उस मिथ्या सेवन की आलोचना नहीं की जिससे वह मर कर शुक्रनामक विरोधी देव हुश्रा पर जिन्हों को सैकड़ों वर्ष हुए Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों के प्रमाण ३७८ समझाते हुए भी नहीं समझते हैं उन्हों को क्या गति होगी वह अतिशय ज्ञानी ही जानते हैं । कई लोग यह कह उठते हैं कि मुंहपत्ती मुँह पर बॉधनी नहीं कहीं पर हाथ में रखनी भी तो कहीं लिखी है उन महानुभावों के लिये हम यहाँ जैन शास्त्रों के पाठ लिख कर यह बतलावेंगे कि जैनसाधु मुँहपत्ती हाथ में ही रखते हैं यथा . "तो सूरी दंती दंतुन एहिं पिट्टोवरी कुप्परसं ठिएहिं करेहिं रयहरणंठवित्ता वामकरानामिनाए मुंहपत्ती नंबंति धरितु सम्म उबप्रोगपरो सीसं अद्धावणयकायं इकिकवयं नमुक्कारपुव्वं तिन्नि वारे उच्चारावेई" ऊपर के पाठ में दीक्षा लेने वाला अपने धर्माचार्य महाराज के समक्ष अपने दोनों हाथोंकी कोणियों को अपने पेटपर स्थापन करके, याने-दोनों हाथ जोड़े हुए जीमणे स्कंध को लगाता हुआ रजोहरण रख्खे और डावे हाथ की अनामीका अंगुली पर मुंह पत्ती को लटकाती हुई धारण करके उपयोग सहित नीचा नमा हुआ एक एक महाव्रत को नवकार सहित तीन तीन दफे उच्चारण करे । इस पाठ में मुँहपत्ती हाथ में रखने का लिखा है, सो जब बोलने का काम पड़े तब उपयोग सहित मुँख को यत्न करके, याने-मुँहपत्नी से मुंख को ढक कर बोले, इसलिये । "श्री अङ्गचूलिया सूत्र दीक्षाधिकारे" यदि कइ भाई यह कह दें कि पूर्वोक्त सूत्र बत्तीस सूत्रों में नहीं है इसलिए इस अधिकार को हम नहीं मानते हैं। पर यह केवल अपनी मान्यता का बाधक होने से ही कहा जाता है यदि Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ क्या० ती० मुं० मुं० बान्धते थे ? ऐसा न हो तो उन भाइयों को बतलाना चाहिये कि आपको ३२ सूत्रों में दीक्षा और बड़ी दीक्षा देने का विधान किस सत्र में है? जब दीक्षा देने का काम पड़ता है तब तो पूर्वोक्त सूत्र आप प्रमाणिक मानते हो। और तब विधान के विषय में आपकी कल्पित मान्यता की पोल खुल जाती है तब आप कह उठते हैं कि हम इस सूत्र को नहीं मानते हैं । इस लचर दलीलों को सिवाय भोली भाली बेहनों या अपठित भद्रिकों के सिवाय विद्वान कदापि नहीं मान सकते हैं यदि आप का यही आग्रह हो तो लीजिये आपके माने हुए ३२ सूत्रों में मुख्य सूत्र का प्रमाण "अणुनवितु मेहावी, पड़िच्छन्नमि संबुडे" 'हत्थगं' संपमज्जिता, तत्थ भुजिज्जा संजयं".. "श्रीदशवकालिक अ० ५ उ० : गाथा ८३ भावार्थ-गौचरी गया हुआ साधु किसी कारण वशात् वहाँ गौचरी करनी चाहे तो गृहस्थ की आज्ञा लेकर छान्दित मकान में 'हत्थर्ग' हस्तगत है मुँखवस्त्रिका । जिससे हस्त पदादि प्रमार्जन कर वही आहार कर लेते हैं । स्वामि अमोलखर्षिजी अपने हिन्दी अनुवाद करते समय हिन्दी भाषा में 'हत्थगं' ? शब्द का अर्थ करना हो छोड़ दिया है जैसे सुरियामदेव के पूजा में पुष्यों का मूल पाठ होने पर भी उसका अर्थ करना छोड़ दिया और यह प्रक्रिय यहां से ही नहीं पर इस कल्पित मत के प्रारम्भ से ही चली आई है। उपरोक्त प्रमाणों से निःसन्देह सिद्ध है कि जैनश्रमण मुख Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. शास्त्रों के प्रमाण । ३८० पत्रिका हाथ में रखते हैं और बोलने के समय मुह आगे रख यत्नपूर्वक निर्वद्य भाषा बोलते हैं। ___अब कतीपय प्रमाण हम स्थानकवासियों के माने हुए मूल सूत्र तथा अनुवाद किये हुए सूत्रों के यहां पर उद्धृत कर देते हैं कि जो लोग केवल अन्ध परम्परा के पिच्छे चलने वाले हैं उनके भी ज्ञान चक्षु खुल जाय । मुँहपत्ती के विषय स्थानकवासियों के माने हुए सूत्रों के प्रमाण। "कुइए ककराइए छीए" हिन्दी अ० “खुल्ले मुंह बोला हो-छींक उबासी ली हो इत्यादि" स्वामी अमोलखर्षिजीकृत हिन्दी अनुवाद भावशक सूत्र पृष्ठ ५५ । यह पाठ प्रतिक्रमणसूत्र का है और दिन रात्रि के अन्त में सदैव बोला जाता है यदि डोराडाल मुंहपत्ती दिन रात्रि मुंह पर बन्धी हुई हो तो उघाड़े मुंह बोलने का प्रायश्चित क्यों कहा जाता, इससे साबित होता है कि साधु मुँहपत्ती हाथ में रखते हैं और कदाचित् अनोपयोग से खुले मुंह वाला हो उसका ही मिच्छामि हुकडं दिया जाता है । आगे नमुकारसी श्रादि प्रात्याख्यानों के प्रागार के विषय में आप फरमाते हैं कि "अन्नत्थणाभोगेणं, सहस्सागारेणं" हिन्दी अनुवाद-भूल कर अनायास खाने में श्राजवे और Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ क्या० ती• मुं• मुं० बान्धते थे। सहसास्कार वर्षाद में या दुग्धादि परिवर्तन करते समय अनायास उछल कर छांटा मुह में पड़ जाय । स्था० मान्य-आवश्यक सूत्र पृष्ट ४० इस बात को साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी समझ सकता है कि वर्षाद की छांट या दुधादि की छाँट उच्छल कर मुँह में पड़ जाय क्या इससे मुंहपत्ती हाथ में रखनी सिद्ध होती है ? या मुँह पर बाँधनी ? यदि मुंह पर मुंहपत्ती बाँधी हुई होती तो वर्षाद या दूध का, छाँटा मुंह में कैसे गिर जाता, इससे स्पष्ट सिद्ध है कि मुंहपत्ती हाथ में रहती है जबी तो गमना-गमन के समय वर्षाद का छाँटा अनायास मुंह में जा गिरे इस बात का प्रत्याख्यान में श्रागार बतलाया है । आगे और लीजिये । "साहरणं दंत पहोयणाय, संपुच्छणा, देहपलोयणाय ॥३॥ हिन्दी अनुवाद-संबाधन, हड्डो मांस त्वचा व रोम को सुख होवे वैसे तेलादि के मर्दन बिना कारण करे तो १५ दंत प्रधावन अंगुली श्रादि से दांत मंजन करे सो १५ x x काँच (आरिसा) पानी आदि में अपने शरीर का प्रतिबिंब देखना ।। स्था० अनु० दशवकालिक सूत्र अ० ३ पृष्ट १० दंत धावन और आरिसादि में शरीर देखना यह मुँह खुल्ला रहने से बनता है या मुँह बन्धा हुश्रा से ? पाठक स्वयं विचार सकते हैं ? इस लेख से भी मुंहपत्ती हाथ में रखना सिद्ध होता है । इसी विषय के उल्लेख निशीथ सूत्र में भी बहुत मिलते हैं. देखिये "जे भिख्ख मुहे वीणियं वाएइ, वायंतं वा साइज्जा Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० शास्त्री के प्रमाण ! ३८२ ॥ ४८ ॥ जे भिक्खु दंत बीरिणयं वाएइ, वार्यतं वा साइज्जइ ॥४६॥ एवं उद्ववीणियं ॥ ५० ॥ एवं खास विणीयं ॥ ५१ ॥ । ” अर्थ - "जो कोई साधु मुँख को वीना नामक वादित्र जैसा बना कर बजावे, बजाते को अच्छा जाने ॥ ४८ ॥ ऐसे ही दंत को, होठ को नाक को, काँक्ष को, हाथ को, नख को, बीना की तरह बजावे, बजाने को अच्छा जाने ४९-५१" निशीथ सूत्र उ० ५ पृष्ट ४६ यदि मुँहबन्धा हो तो वे साधु मुँह से दांतों से । बिना कैसे बजाता और शास्त्रकार प्रायश्चित क्यों कहते इससे साबित होता है कि जैनसाधु हमेशां खुल्ले मुँह और हाथ में ही मुँहपत्ती रखते थे और मुँहपत्ती रखने का हेतु यह है कि बोलते समय मुँह आगे रख यत्न से बोले । " जे भिक्खू विभूसा वडियाए अप्पणोदते घसेज्ज वा घसेज्ज वा जाब साइज्जइ ॥ १४० ॥ जे भिक्खू विभूसा वडियार अपणोदते सीउदग वीयडेण वा जाव पधोवंतं वा साइज्जइ ॥ १४१ ॥ जे भिक्खू विभूसा बडि - या अपणोदते तेलेण वा जाव फुमेज्ज वा जाब साइज || १४२ ॥ " " जो साधू विभूषा के लिए अपने दांत को घसे घसते को अच्छा जाने || १४० ॥ जो साधु त्रिभूषा के लिए अपने दांत कोचित ठण्डे पानी से ( या ) गरम पानी से धोवे, धोते को अच्छा जाने ॥ १४१ ॥ जो साधु विभूषा के लिए अपने दांत Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ क्या० ती० म ० म० बान्धते थे ? को खटाई दे, रंगे, रंगते को अच्छा जाने ॥ १४२ ॥" तो प्रायश्चित आता है। निशीथ सूत्र उ० ५ पृष्ट १७६ अब जरा ध्यान लगा कर सोचे कि यदि साधुत्रों का मुंह बन्धा हो तो शोभा के लिए उपरोक्त कार्य क्यों करते और सूत्रकारों ने इनका प्रायश्चित क्यों कहते इस सूत्रार्थ से तो यही स्पष्ट होता है कि जैनमुनि हमेशां से मुंहपत्ती हाथ में ही रखते आये हैं। फिर लीजिये "जे भिक्खु णिग्गंथीणं, आगमणं पहंसि दंडगं वा लट्टियं वा रयहरणं वा मुहपति वा अण्णयरं वा उवगरण जावं ठवेइ ठवंतवा साइज्जई" "नीशीथ सूत्र उ० ४ सूत्र २६ पृष्ट ४३" हिन्दी अनुवाद-जो साधु । साध्वी के आने के रास्ते दंडा लकड़ी रजोहरण मुँहपत्ती आदि उपकरण स्थापन करे (मम्करी के वास्ते) स्थापन करतो को अच्छा जाने" ____ यदि साधु-साध्वियों के मुंहपत्ती मुँह पर बान्धने का रिवाज होता तो साधु साध्वी के आगमन समय रास्ता में मुँहपत्ती क्यों रखता पर जैसे दंडा रजोहरण पास में पड़ा था इस भांति मुंह. पत्ती भी हाथ में ही थी कि वह साध्वी के आने वाले रास्ता पर रखदी इस पाठार्थ से निःसदेह निश्चय होजाता है कि जैन साधु मुँहपत्ती हाथ में ही रखते थे। "जयं चरे जयं चिट्टे, जयं आसे जयं सए । जयं भुंजतो भासंतो, पाव कम्मं न बंधइ ॥८॥ ___ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भन्य धर्मियों के प्रमाण! ३८४ इस पाठ में भासंतो' का अनुवाद स्वामिजी ने यत्न से भाषा समिति युक्त बोले किया है यदि मुंह बन्धा हो, तो फिर यत्न क्यों कहते। यत्नपूर्वक बोलने का तो जब ही कहा जा सकता है कि मुँहपत्ती हाथ में हो और बोलने का काम पड़े तब यत्नपूर्वक बोले यही शास्त्रकारों का अभीष्ट हैं । __इत्यादि हमारे स्थानकवासियों के माने हुए सूत्रों में और विशेष आपके हो किया हुआ हिंदी अनुवाद में पूर्वोक्त प्रमाणों से और इनके अलावा और भी बहुत प्रमाणों से निःशंकतया सिद्ध होता है कि जैन साधु साध्वियां हमेशा मुँहपत्ती हाथमें ही रखते थे और श्रावक श्रविकाएं सामायिक पोसह समय मुँहपत्ती हाथ में रखते थे और बोलने के समय मह आगे रख यत्नपूर्वक बोलते थे एवं आज भी वह प्रवृति और मान्यता ज्यों की त्यों जैन समाज में विद्यमान हैं। __ आगे चल कर हम अन्यमियों के शास्त्रों के थोड़े बहुत प्रमाण लिख देते हैं कि जैनमुनियों के मुँहपत्ती के विषय में के लोग क्या कहते हैं। अन्य धर्मियों के धर्म शास्त्रों में जैनमुनियों की मुँहपत्ती "दधानी मुमति मुखे, विभ्राणो दंडकं करे। शिरसो मुंडन कृत्वा, कुत्तौच कुश्चका, दधनं । श्री माल पुराण अ० ७९ गाथा ३३ इस श्लोक में मुंह पर मुँहपत्ती ( बोलते समय ) और एक हाथ में दंडा (गमन समय ) रखना बतलाया है। पर मुंह पर ___ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ क्या तीर्थ० मुं० मुं० बाँ० मुँहपत्ती बान्धना नहीं लिखा है इसी भाँति आज भी जैनसाधु बोलने के समय मुंहपर मुंहपत्ती रखके बोलते हैं यदि स्थानकवासी इस पाठ की ही शरण लेते हैं तो 'दंड करे' यानि हाथ में दंडा रखना स्पष्ट लिखा है तो हाथ में दंडा भी रखना चाहिये और दंडा हाथ में रखेगा तो मुंहपत्ती भी हाथ में ही रखनी पड़ेगी। और भी लीजिये.. मुडंमलीन वस्त्रं च, गुपीं पात्र समन्वितं । दधान पुंजिका हस्ते, चालियं च पदे पदे ॥ वस्त्रयुक्त तथा हस्तं, तिप्प माणं मुखे सदा । धर्मेति व्याहरंतं, नमस्कृत्य स्थितं हरे॥ शिवपुराण ज्ञान संहिता अ० २१-२.३ भावार्थ-मुडा हुआ मस्तक, मलीन वन,गुप्तपात्र,समभाव, और रजोहरणसंयुक्त पग पग पर देख के चलते हैं-हाथ में वन (मुंहपत्ती) है बोलते समय शीघ्र मख के आगे रखते हैं नमस्कार करने वालों को धर्म (धर्मलाभ) करना कहने का व्यवहार है। इन श्लोकों से भी यही पाया जाता है कि जैनमुनि मुँखवत्रिका सदैव से हाथ में ही रखते थे जब ही तो पुराणकारों ने इस बात का उल्लेख किया है तथा नाभानरेश के पण्डितों ने भी जैनशास्त्रों के अलावा इन श्लोकों के आधार पर ही इस विषय का फैसला दिया है कि जैनमुनियों का पक्ष बलवान है अर्थात् जैनमुनि मुँहपत्ती हमेशां हाथ में ही रखते आये हैं।। इन पुराणों को हमारे स्थानकवासी भाई पांच हजार वर्षों के प्राचीन मानते हैं (वास्तव में इतने प्राचीन नहीं हैं ) यदि (२५)-४६ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण | ३८६ आपकी कल्पना सही है तो पांच हजार वर्षों पूर्व जैनमुनि मुँखवस्त्रिका हाथ में रखते थे इसके साथ दंडा हाथ में, पात्रों की झोली गुप्त और नमस्कार करने वाले को धर्मलाभ दिया करते थे । क्या हमारे स्थानकवासी भाई इन प्रमाणों से पूर्वोक्त धर्म विधान मानने को तैयार हैं ? अर्थात् यदि आत्म-कल्याण की अभिरुची है, तो वे अवश्य नानेगा । और मानना ही चाहिये । आगे हम कुछ प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों को मयचित्रों के यहां उद्धृत करेंगे | मुँहपत्ती के विषय में ऐतिहासिक प्रमाण ( १ ) श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरहपंथी इस बात को स्वीकार करते हैं कि तीर्थकर दीक्षा समय से ही अचेलक ( निर्वस्त्र ) रहते थे और घंटों तक व्याख्यान दिया करते थे । अतएव उनके न थी मुँहपत्ती और न था डोरा । ( २ ) शास्त्रीय प्रमाणों से भी यही सिद्ध होता है कि साधु और श्रावक धर्म - क्रिया करते वक्त मुँहपत्ती हाथ में रखते हैं । बोलते समय सिर्फ मुँह के सामने रख यत्ना पूर्वक बोलते हैं । इस विषय के विशेष शास्त्रीय प्रमाणों के लिए मुनिश्री मणिसागरजी म० रचित "आगमानुसार मुँस्ववस्त्रिका निर्णय " नामक बृहद् ग्रन्थ देखना चाहिए जो कि कोटा से मुफ्त मिलता है । ( ३ ) - ऐतिहासिक प्रमारणों से भी यह सिद्ध नहीं होता है कि किसी जैन तीर्थङ्कर साधु या श्रावक ने मुँहपत्ती में डोरा डाल मुँह पर बाँधी हो । क्योंकि आज भगवान् महावीर स्वामी के Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ क्या ती० मु० मु० बाँधते थे समय की अनेक तीर्थङ्करों की मूर्तिएँ मिलती हैं, यदि भगवान् यह प्रथा उस समय ऋषभदेव मुँह पर मुँहपत्ती बाँधते थे और से चली आती है तो ऋषभदेव की मूर्ति के मुँह पर पत्थर की मुँहपत्ती अवश्य होनी चाहिए। जैसे कि स्था० साधु हर्षचंदजी की पाषाणमय मूर्त्तिमारवाड़ के गीरी ग्राम में इस समय विद्यमान है। और उस मूर्त्ति के मुँह पर डोरावाली पाषाण पर मुँहपत्ती मूर्ति के साथ हो चित्री हुई है । यह साधु और इसकी यह मूर्ति इस बीसवीं शताब्दी को ही है । क्योंकि इस समय जिस समुदाय वाले मुँह पर मुँहपत्ती बाँधते हैं; यह प्रति कृति उसी समुदाय के एक साधु की है। जब तीर्थकरों की मूर्ति के मुँह पर मुँहपक्षी नहीं है तो इससे स्पष्टतया सिद्ध होता है कि किसी तीर्थङ्कर, गणधर, साधु या श्रावक ने लवजी के पहिले कभी मुँह पर मुँहपत्ती नहीं बाँधी थी, और अब जो मुँह पर मुँहपत्तीयुक्त तीर्थङ्करों के चित्र बनवाए गए हैं वे इस मुँह पर मुँहपत्ती धारक नवीन स्था० सम्प्रदाय के साधुओं की ही एक मानसिक कल्पना मात्र हैं । (४) यद्यपि स्थानकमार्गी अपने आपको लौकाशाह की संतान बताने का दम भरते हैं, परन्तु लौंकाशाह के सिद्धान्त भी इनको सर्वथा मान्य नहीं हैं। क्योंकि न तो लौंकाशाह ने कभी मुँह पर मुँहपत्ती बाँधी थी और न लौंकाशाह के अनुयायी श्राज पर्यन्त बाँधते हैं। इतना ही नहीं लेकिन वे तो उल्टा मुँहपक्षी बाँधने वालों का सख्त विरोध करते हैं । इस हालत में स्थानक - मार्गियों को या तो लौकाशाद का अनुयायी नहीं बनना चाहिये, Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण। ३८८ या मुँहपत्ती में डोराडाल के मुँह पर बाँधना नहीं चाहिए, किन्तु उसे उनकी भाँति हाथ में ही रखना चाहिये। (५) उपकेशपुर (ओसियां) के मन्दिर के रङ्ग मण्डप में एक आचाय व्याख्यान दे रहे हैं, स्थापनाजी सामने हैं, हाथ में मुँहपत्ती है और कई श्रावक व्याख्यान सुन रहे हैं ऐसा पाषाण मय दृश्य है । श्रोसियाँ का यह मन्दिर प्रायः २४०० वर्षों का प्राचीन है और इस बात को डंके की चोट से बताता है कि उस समय जैन श्रमण मुंहपत्ती हाथ में ही रखते थे । देखो चित्र को (६) कण्ह (कृष्ण) श्रमण (साधु) की एक २००० वर्षों की प्राचीन मूर्ति मथुरा के कंकाली टीना के अन्दर से खोद काम करते अंग्रेजों को मिली है, जो अब सरकारी म्यूजियम में सुरक्षित है इसके भी हाथ में मुंहपत्ती है । देखो चित्र (७) कुंभारियाजी का मन्दिर बहुत प्राचीन है जिसके मण्डप की छत में एक प्राचार्य तथा साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाएं विशाल संख्या में जो पाषाण में खुदाई का काम कर बनाए गए हैं, वे अद्यावधि भी स्पष्ट दिखते हैं, पर इन सबके हाथों में ही मुखवत्रिका है । देखो चित्र (८)अजारी में वादी वेताल शान्तिसूरि की यारहवीं शताब्दी में बनी एक मूर्ति है जिसके हाथ में मुंहपत्ती है । -देखो चित्र (8) पाटण में आचार्य ककमरि की पाषाणमय मूत्तिएं है जिनके हाथों में मुहपत्तिएं हैं। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूना खडो का लेप लग जाने से फोटू साफ नहीं आया है। तीर्थश्री ओसियाँ के प्राचीन मन्दिर में जैनाचार्य केसामने स्थापनाजी और हाथ में मुँहपती हैं यदि यह मूर्ति जो मन्दिर की मूल प्रतिष्ठा के समय बनाई गई हो तो इसको आज २३९३ वर्ष हुए निःशंक कहा जा सकता हैं । तथापि यह प्राचीनता का एक सबल प्रमाण है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास २२०० वर्षों की प्राचीन मर्तियां RELATERATAXKOROLAT-IKETARATHI TADALA IR ?118612XX EESOLAR AAP मथुरा के कंकालीटीला के खोद काम से एक वंश विशेष मिला है जो चित्र ऊपर दिया गया है इसमें ऊपर के भाग में समवसरण के दोनों बाजु तीर्थङ्करों की मूर्तियां हैं। नीचे जैन श्रमण कृष्णार्षि की मूर्ति जिसके एक हाथ में रजोहरण और दूसरे हाथ में मुखवस्तिक है । विद्वानों का मत है कि यह वि० सं० के पूर्व दो शताब्दियों जितना प्राचीन है। इस प्राची. नता से सिद्ध है कि जैनसाधु मुँहपत्ती कदीम से हाथ में ही रखते थे। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास । चतुर्विध संघ के हाथ में मुंहपती। Y RELELU यह चित्र कुम्भारियाजी के प्राचीन मन्दिर के रंगमण्डप की छत में शिल्पकाल का उत्कर्ष समय का है। आचार्य व्याख्यान दे रहे हैं और चतुविध श्रीसंघ व्याख्यान सुन रहे हैं। इन सबके मुँहपती हाथ में ही है। यह मन्दिर बहुत पुराना है। उस समय जैन श्रमण मँहपती हाथ में ही रखते थे क्या हमारे स्थानकवासी भाई लवजी (वि० सं० १७०८) के पूर्व समय का Jain E कोई ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण पेश कर सकते हैं ? नहीं। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास जैनाचार्य के व्याख्यान समय हाथ में मुखवस्त्रिक ___अंजारी नामक प्राचीन तीर्थ में एक जैन मन्दिर के अन्दर धाराधीश भोज राजा प्रतिबोधक और वृहद् शान्ति के कर्ता जैनाHd चार्य वादी वैताल शान्ति सूरि की पाषाणमय मूर्ति के एक हाथ में मुखवस्त्रिका और दूसरे हाथ में दशवैकालिक सूत्र की प्रथम als गाथा “धम्मोमंगलमुक्कीटुं” का पन्ना है। आपका समय विक्रम की ग्यारवीं शताब्दी का है जिसको नौ सौ (९००) वर्ष जितना र गहरा समय हुआ है। AथाCHACY COM Private & Personel US ON Jain Educationauntemational javorary.org Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास + GETHERSTISASTER BASH STET STETE SEACHER प्राचीन जैनाचार्यों के हाथ में मुँहपत्ती र ह्याला विष्टिया सु पिनार्थ संद निःपाका ऊसुविध கனக்கச்கச் प्रथम चित्र में एक आचार्य अपने शिष्य व श्रावक श्राविकों को उपदेश कर रहे हैं। यह चित्र पाटण के ज्ञान भंडार की प्राचीन ताड़पत्र की प्रति पर से लिया गया है । दूसरे चित्र में आचार्यश्री के सामने स्थापनाजी और एक मुनि के हाथ में ताड़पत्र का सूत्र है और वह वाचना ले रहा है। नीचे के भाग में तीन साध्वी हैं और कुछ श्रावक श्राविकाएँ हैं । यह चित्र भी ताड़पत्र की प्राचीन प्रति पर से लिया गया है । कॉपी राईट श्री साराभाई नवाब. 999999999999999969660 ACB CBSEPa Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास BAC000009 X9500 900 प्राचीन जैनाचार्य के हाथ में मुँहपत्ती 雨雨區 600 500 500 500 500 SAAR ચિત્ર પર સાધુ, સાધ્વી અને શ્રાવિક पहिला चित्र गणधर सौधर्मास्वामी और उनके शिष्य जम्बू स्वामी का है। ईडर के ज्ञान भण्डार की प्राचीन प्रत पृष्ट १०९ से यह चित्र लिया गया है । वह प्रति ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत प्राचीन और महत्व की है । 1 दूसरा चित्र आचार्य कालिकसूरि और राजा ध्रुवसेन का है इसी ध्रुवसेन राजा के कारण कालकाचार्य ने चोथ की संवत्सरिकी थी जिसको आज करीबन १५०० वर्ष हुए हैं। यह चित्र भी पूर्वोक्त ईडर की प्राचीन प्रत से लिया गया है । कॉपी राईट श्री साराभाई नवाब. වහ්ම මනල Aga 09 Desese solo period Odowo Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ क्या ती० मुं० मुं० बाँधते थे (१०) आबू देलवाड़ा के सुप्रसिद्ध मन्दिर में जैनाचार्यों की ग्यारहवीं शताब्दी की मूर्तिएँ हैं पर मुँहपत्ती तो उनके भी हाथों में ही है। (११) आचार्य जिनेश्वरमूरि, हेमचन्द्रमूरि,धर्मघापमूरि और जिनवल्लभमूरि के बहुतसे चित्र बारहवीं शताब्दी के मिले है उनके भी हाथों में मुहपत्ती है। . (१२) वि० सं० ९३४ का लिखा हुआ एक कल्पसूत्र है जिसमें जैनाचार्यों के कई चित्र पर मुंहपत्ती सबके हाथों में ही हैं। (१३) पाटण, खंभात, ईडरादि के प्राचीन ज्ञान भण्डारों से श्रीमान् सारा भाई नबाब ने बड़ा भारी भगीरथ प्रयत्न कर जैन चित्रों का संग्रह कर 'जैनचित्र कल्पद्रुम' नामक पुस्तक प्रकाशित की हैं, जिसमें बहुत से मुनियों के प्राचीन मूर्तियों और कल्प सूत्रादि हस्त लिखित सूत्रों की प्रतियों से उसी आकृति के ब्लाक बना के चित्र दिये हैं उसमें से पंचमगणधर श्रीसौधर्म स्वामी आचार्य काल कसूरि श्रादि नमूने के तौर पर ४ चित्र यहाँ भी दिये गये हैं जो आपके सामने विद्यमान हैं। ये चित्र भले ही उस समय के न हों और बाद में बनाये गये हों, पर मुँहपत्ती मुँह पर बाँधने वाले स्वामि लवजो से सैकड़ों वर्ष पूर्व के जरूर हैं और इन चित्रों से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जैनश्रमण सदैव सनातन से मुँहपत्तो हाथ में ही रखते थे, जिनको अधिक चित्र देखने हों उनको पूर्वोक्त नबाब भाई की पुस्तक को देखना चाहिये कि जिसमें भगवान् गौतम स्वामी प्राचार्य स्थुलभद्र जैसे प्राचीन महापुरुषों के भी कई चित्र दिये हुए हैं। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण। ३९० . (१४) तीर्थ श्री कापरडाजी का भीमकाय मन्दिर के रंग मण्डप में एक आचार्य को पाषणमय व्याख्यान देते हुए की मूर्ति है उसके भी हाथ में मुँहपती है। यह प्राकृति सत्रहवीं शताब्दी की बतलाई जाति है वहाँ तक मुँहपत्ती हाथ में ही रखी जाती थी। . (१५) इस तरह विक्रम पूर्व चौथी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक के सैंकड़ों प्रमाण आज विद्यमान हैं और मुंहपत्ती सभी के हाथों में ही है । क्या हमारे स्थानकमार्गी भाई एक भी ऐसा प्रमाण पेश करसकते हैं कि जो ऐतिहासिक होने के साथ २ स्था० मार्गियों की मान्यता मानने वाले भाइयों को अपनी मान्यता पर विश्वास रखाने को समर्थ हो सके ? यदि नहीं तो फिर नाहक की “मैं मैं तूं हूं" में अमूल्य समय और अलभ्य मनुष्य जन्म को न गँवा सीधे जैनधर्म की ही शरण आना चाहिए जिससे वे अपना तथा पर का कल्याण साधने में सशक्त हों। (१६) स्थानकमागियों के अन्दर ऐसे बहुत से मुमुक्षु हुए हैं कि जिन्होंने, शास्त्र, इतिहास और अनुभव से सत्य का संशो. धन कर मुँहपत्तो का डोरा त्याग कर शाखाऽनुसार मुँहपत्ती हाथ में रखने का मार्ग स्वीकार किया है, वे भी साधारण श्रेणी के नहीं किन्तु पूज्य बूंटेरायजी महाराज, पूज्य मूलचन्दजी महाराज पूज्य वृद्धिचन्दजी महाराज, पू० आत्माराम जी महाराज, धर्मसिंहजी म०, सोहन वि० म०, अजीतसागरजी महा०, रत्नचन्द्रजी महा० सरीखे सैंकड़ों मुनिवर हुए हैं, जिनका अमर नाम और यश आज भी जैन साहित्याऽऽकाश में ही सुरक्षित और चमत्कृत नहीं वरन् गर्जना कर रहा है। इन सबके चित्र आगे लौकाशाह के जीवन में दिये जायेंगे। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ क्या ती• मुं० मुं० बाँधते थे ... आगे इतिहास की सूक्ष्म शोध खोज करने पर भी हमें यह कहीं पर पता नहीं मिलता है कि विक्रम की अट्ठारहवीं शताब्दी पूर्व किसी जैनाचार्य ने डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती बाँधी हो ? यहाँ पर मैं मेरे पाठकों के अवलोकनार्थ भगवान महावीर के पश्चात प्रत्येक शताब्दी के जैनाचार्यों के थोड़े-थोड़े नामोल्लेख करने का प्रयत्न करूँगा जिससे निर्णयार्थी स्वयं विचार कर सकेगा कि कहाँ तक मुँहपत्ती हाथ में रखने की प्रवृत्ति थी जिसको अखिल श्वेताम्बर समाज मानता था और बाद में किस समय मुँहपत्ती मुंह पर बाँधने का रिवाज हुआ और इस रिवाज के बारे में जैन समाज का कैसा सख्त विरोध था और आज भी है जिन प्राचार्यों के यहाँ नामोल्लेख करूँगा उनके अस्तित्व के विषय में ऐतिहासिक प्रमाण नीचे फुटनोट में दे दिये जायंगे कि पाठकों को पढ़ने में और भी सुविधा रहे । भगवान महावीर के पश्चात् पहिली शताब्दी__ गणधर सौधर्माचार्य१, चरमकेवली जम्बु स्वामी, आचार्य स्वयंप्रभसूरि२ प्रभवाचार्य, आचार्य रत्नप्रभसूरि३, कनकप्रभ १-द्वादशांगी के रचयिता तथा वीरात् २३ वें वर्ष में भद्रेश्वर स्थित मूर्ति की प्रतिष्ठा के कर्ता। २-श्रीमाल नगर के राजा प्रजा ९०००० घरों को प्रतिबोध कर जैन बनाये और वहाँ भगवान ऋषभदेव के मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई। और पद्मावती नगरी में यज्ञ में बलिदान होते लाखों प्राणियों को अभयदान दिलाकर ४५००० अजैन कुटुम्बों को जैन बनाये और यहाँ शान्तिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई ( उपकेशगल्छ पट्टावली) ३-इन्होंने उपकेशपुर में ३८४००० घरों को मांस मदिरा छुड़ाकर Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण ३९२ सूरि४, शय्यम्भवाचार्य ये सब मूर्तिपूजक आचार्य थे और मुँख. वत्रिका हाथ में रखनेवाले ही थे। इनके शासन में बौद्ध, वेदान्ति और आजीवकों के साथ चर्चा का भी उल्लेख मिलता है पर वस्त्र रखना या न रखना, मूर्ति मानना या नहीं मानना, मुंखवत्रिका हाथ में रखना या मुँह पर डोरा डाल बाँधने का कहीं पर भो वाद विवाद की गन्ध तक भी नहीं मिलती है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि उस समय अखिल जैनों की एक ही मान्यता थी । जिनकल्पी वस्त्र नहीं रक्खे, स्थविर कल्पी रक्खे, मूर्ति सर्वत्र मानी जा रही थी और मुंखवत्रिका क्रिया समय या बोलते वक्त मुँह आगे रक्खी जाती थी। भगवान् महावीर की दूसरी शताब्दी श्राचार्य यशोभद्रसूरि, यक्षदेवसूरि १ संभूतिविजयसरि भद्रजैन बनाये और वहाँ पर महावीर मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई वे लोग क्रमशः महाजनवंश उपकेशवंश या ओसवंश के नाम से मशहूर हुए (उपकेशगच्छ पट्टावलि ) ४-आपके उपदेश से कोरंटपुर नगर में महावीर मंदिर तैयार हुआ और वीरात् ७० वर्ष में भाचार्य रत्नप्रभसूरि के करकमलों से प्रतिष्ठा हुई ( कोरंटगच्छ पटावली) ५- यश स्थम्भ के नीचे रही हुई शान्तिनाथ की मूर्ति के दर्शन मात्र से प्रतिबोध पाकर प्रभवाचार्य के पास दीक्षा ले क्रमशः जैनाचार्य हुए ( दशवकालिक चूलका) १-आपने सिन्धभूमि में भ्रमण कर वहाँ के राजा रुद्राट्र और राजकुमार कक्वको तथा हजारों लाखों मांस आहारियों को जैनधर्म में दीक्षित - कर सैकड़ों जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। (जैन जाति महोदय) Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ क्या ती० मुँ० मुँ० बाँधते थे ? बाहुसूरि२ स्थुलीभद्र ये सब मूर्तिपूजक और हाथ में मुँहपत्ती रख्नने वाले ही थे । भगवान् महावीर की तीसरी शताब्दी -- श्राचार्य महागिरि सुहस्तीसूरि ३ ककसूरि४ आदि थे सत्र आचार्य हाथ में मुँहपत्ती रखने वाले ही थे । भगवान् महावीर की चौथी शताब्दी आचार्य सुस्थी सूरि५, सुप्रतिबुद्धसूरि६, दीनसूरि, देवगुप्तसूरि७, आदि ये सब मूर्तिपूजा के प्रचारक और हाथ में मुहपत्ती रखने वाले ही थे । २- आप ने सम्राट चन्द्रगुप्त को जैन बना कर भारत के बाहर जैनधर्मं का प्रचार करवाया। तीन छेद सूत्र और दश नियुक्तियों का निर्माण किया जिनमें से आज भी कई विद्यमान हैं । - सम्राट सम्प्रति को जैन बनाकर मेदनी जैन मन्दिरों से मंडित करवाई तथा सम्राट ने अनार्य प्रदेशों में जैन धर्म की ध्वजा फहराई | ४ - आपने कच्छ देश में विहार कर लाखों नये जैन बनाये और हजारों जिन बिंबों की प्रतिष्ठा करवा के जैनधर्म की अबाध उन्नति की । ५ - आप श्री ने कलिंगपति महाराजा खारवेल को जैन धर्म की दीक्षा देकर जैन धर्म की बड़ी भारी प्रभावना करवाई जिनका शिलालेख उडीसा प्रान्त के खंडगिरि की हस्ती गुफा से मिला है। जिसकी प्राचीनता और महत्वता ने भारत और योरोप में खूब चहल पहल मचा दी है । ६ - आपने सूरिमंत्र का एक करोड़ जाप किया जिससे निग्रन्थगच्छ का नाम कोटीक गच्छ हुआ आप महान् प्रभाविक पुरुष हुए। ७ - आप श्रीमान् ने सौराष्ट्र लाटादि प्रदेशों में भ्रमण कर लाखों Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण | भगवान् महावीर की पाँचवी शताब्दी कालकाचार्य, इन्ददीनाचार्य, वृद्धवादीसरि९, सिद्धसूरि, सिद्धसेन, दिवाकर १०, पादलिप्तसूरि११ आदि ये सब सूरीश्वर मूर्ति उपासक और हाथ में मुँहपत्ती रखने वाले थे । भगवान् महावीर की छठी शताब्दी आचार्य व स्वामि १, बज्र सेनसूरि २, विमलसूरि ३, देवगुप्त ३९४ नये जैन और हजारों जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवा कर धर्म को खूब प्रसारित किया । ८ - आप श्री ने श्री पद्मवणाजी सूत्र को संकलित किया । आपका अपर नाम श्यामाचार्य भी था । ९ - आपने महान् पंडित सिद्धसेन को शास्त्रार्थ में जीत अपना शिष्य बनाया | १० - आपने सम्राट् विक्रम को अपना भक्त बनाया तथा साहित्य के आप धुरंधर पंडित थे । आपने सम्म त तर्क जैसा न्याय का अपूर्व ग्रन्थ बनाया । ११ - आपकी स्मृति में आज पालीताना नगर विद्यमान है, निर्वाणकलिका ग्रन्थ भी आपका ही बनाया हुआ है । १ - यह प्रसिद्ध आचार्य हैं | दुष्काल में संघ का रक्षण और जिन मन्दिर के लिये पुष्प लाकर बौद्ध राजा को जैन बनाया । २ -यह भी प्रसिद्ध आचार्य हैं। दुष्काल में सुकाल की सूचना देकर चन्द्र, नागेन्द्र, निवृति और विद्याधर नाम के चार शिष्यों को दीक्षा दी । ३ – आपने १०००० श्लोक प्रमाण का 'पउमचरिय' नामक प्राकृत भाषा का ग्रन्थ बनाया । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ क्या ती. मुं. मुं. बांधते थे ? सूरि४,आर्य खंदिल५, आर्य रक्षित६, आर्य जज्जगसूरि७ आदि सब प्राचार्य मूर्तिपूजक और हाथ में मुँहपत्ती रखने वाले ही थे। भगवान् महावीर की सातवीं शताब्दी__ आचार्य चन्द्रसूरि८, सामंतभद्रसूरि९, वृद्धदेवसूरि १०, मानदेवसूरि११, मानतुंगसूरि१२, कक्कसूरि१३, गन्धहस्तीप्राचार्य १४ ४-बज्रपेन के ४ शिष्यों को ज्ञानाभ्यास करवा कर उनके चार कुल स्थापित किये । आज जितने गच्छ हैं वे सब चन्द्रकुल में हैं और इन सब पर आचार्य देवगुप्तसूरि का महान् उपकार है। . ५-आप श्री ने माधुरी वाचना कर जैन धर्म पर महान् उपकार किया है। ६-आपने जैनागमों के चारों अनुयोग अलग अलग कर साधारण बुद्धि वालों पर भी असीम उपकार किया है। -आपने सत्यपुर ( सांचौर ) में मंत्री नहाड के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा करा कर भव्य जीवों के कल्याण करने में मुख्य निमित्त बन गए। ८-आपके कारण कोटीगच्छ का नाम चन्द्रगच्छ हुआ। ९-आपके बनवास करने से चन्द्रगच्छ का नाम बनवासीगच्छ हुआ। १०-आप बड़े भारी प्रभाविक हुए, कई राजाओं पर आपका प्रभाव पड़ता था। ११-आपने नाडौल में रहकर लघुशांति स्तव बनाकर शाकम्भरी के संघ के उपद्रव की शान्ति करवाई। १२-आपने श्री भक्तामर स्तोत्र बना के जैन धर्म का प्रभाव डालकर एक राजा को जैनधर्मी बनाया। १३-मापने लाखों नये जैन श्रावक बनाकर शासन की प्रभावना की। १४-आपने सब से पहिले आगों पर टीकाओं की रचना की। ___ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण। ३९६ आदि आचार्य मूर्तिपूजक और हाथ में मुँहपत्ती रखने वाले हो थे। इस शताब्दी में साधुओं को वस्त्र नहीं रखने की एकान्त खेंच करने वाला दिगम्बर मत का प्रादुर्भाव हुआ और वह चर्चा उसी समय से प्रारंभ हो गई परन्तु मूर्ति या मुँहपत्ती के बारे में चर्चा तक भी किसी ने न की इससे स्पष्ट है कि मूर्तिपूजा करना और मुंहपत्ती हाथ में रखने में अखिल शासन एक मत था । भगवान् महावीर की आठवीं शताब्दी-- ___ आचार्य देवानन्दसूरि, सर्वदेवसूरि१, सिद्धमूरि२, मलवादी सूरि, वीरसूरि, यक्षदेवसूरि ये सब आचार्य वीर आज्ञाधारी हाथ में मुंहपत्ती रखने वाले ही थे। भगवान् महावीर की नववीं शताब्दी-- विक्रमसूरि, नरसिंहसूरि, समुद्रसुरि, नन्नप्रभसूरि३, रत्नप्रभसूरि ये सब आचार्य हाथ में मुँहपत्ती रखने वाले ही थे । इस शताब्दी में कई साधु चैत्यवासी भी थे उनकी चर्चा इस समय के ग्रन्थों में विद्यमान है परन्तु मूर्ति या मुंहपत्ती की चर्चा इस समय खोजने पर भी नहीं मिलती है, कारण उस समय अखिल जैन श्वेताम्बर समाज मूर्तिपूजक और हाथ में मुंहपत्ती रखने वाला ही था । -यह कोस्टगच्छाचार्य हैं और बोथरा संकलेचादि २१ जैन जातियों के संस्थापक हैं। २-इन्होंने जैन धर्म की बड़ो भारी प्रभावना की। क्योंकि, आप लब्धि पात्र थे। ३-यह कोरंटगच्छ के आचार्य हैं और इन्होंने १०.०० ब्राह्मणों को जैन बनाये थे। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या ती. मुं. मुं० बाँधते थे भगवान् महावीर की दशवीं शताब्दी___ धनेश्वरसूरि४, यक्षदेवसूरि, कालकाचार्य, देवर्द्धिगणि क्षमण और यक्षदेवाचार्य८ ये सब श्राचार्य मूर्ति उपासक और हाथ में मुंहपत्ती रखने वाले ही थे । इस शताब्दी में पञ्चमी की संवत्सरी चतुर्थी को करने का उल्लेख ग्रन्थों में मिलता है क्योंकि यह नयी प्रवृति हुई थी पर मूर्ति या मुंहपत्ती को कहीं भी चर्चा नहीं इसका कारण एक ही है कि मूर्ति और मुँहपत्ती विषय सब श्वेताम्बर जैनों की एक ही मान्यता थी। भगवान् महावीर पश्चात् ग्यारहवीं शताब्दी आचार्य हरिभद्रसूरी१, जिनभद्रगणि, क्षमाश्रमण२, देला - ४-श्री शत्रुजय महात्म्य नामक ग्रन्थ की रचना आप श्री ने ही की थी। ६-आपने राजा ध्रुवसेन के कारण पञ्चमी के स्थान में चतुर्थी को संवत्सरी की वह आज पर्यन्त चालु ही है। ७-आपने वीरात् ९४० वर्ष वल्लभी नगरी में आगमों को पुस्तका रूढ किया। -आपके पास देवर्द्धिगणिजी ने एक पूर्व सार्थ और आधा पूर्व मूल का अभ्यास किया था। १-प्रसिद्ध १४४४ प्रन्थों के का। इनके समय के लिए नई बोध वाले कुछ भागे बढ़े हैं। २-यह प्रसिद्ध भाष्यकार हैं। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण। ३९८ महत्तर३, सिद्धर्षि४, सत्यमित्रसूरि५, देवगुप्ताचार्यादि६ ये सब मूर्तिपूजा प्रचारक और हाथ में मुँहपत्तो रखने वाले ही थे। इस शताब्दी में चैत्यवासियों का जोर बढ़ जाने से हरिभद्रसूरि ने उनके विरोध में पुकार उठाई पर मूर्ति या मुँहपत्ती के विषय में किसी ने एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया कि इस समय मूर्ति नहीं मानने वाला या मुँहपत्ती मुँहपर बाँधने वाला कोई व्यक्ति है ? भगवान् महावीर की बारहवीं शताब्दी-- ___ रविप्रभसूरिख, स्वातिप्राचार्य८, सिद्धसूरि९, नन्नप्रभाचार्यादि१० ये सब मूर्ति पूजक और हाथ में मुंहपत्ती रखने वाले ही थे। भगवान् महावीर के बाद तेरहवीं शताब्दी प्राचार्यबप्पभट्टसूरि १०, शीलगुणसरि११, कक्कसरि१२, ३-आप चूर्णिकार के नाम से मशहूर हैं । ४-उमितिभव प्रपंच कथा के रचयिता। ५-आपके समय में पूर्व ज्ञान का विच्छेद हुआ। ६-आपने हजारों नये जैन बना अनेक मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। ७-आप महान् प्रभाविक हुए। ८-लापने पूर्णिमा के एवज़ में पाक्षी चतुर्दशी स्थपित की। ९-आप महान् धर्म प्रचारक एवं प्रभाविक हुए । १०-ग्वालियर के राजा आम को जैन बनाकर धर्म का प्रचार करवाया। भगवान् ऋषभदेव के मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई। . 1-आप पाटण संस्थापक राजा बनराज चावडा के गुरू थे। पंचासरा पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा भी आप ही ने करवाई थी। १२-अपने लाखों अजैनों को जैन बनाके उपकेशवंश की वृद्धि और जैन धर्म का प्रचार बढ़ाया। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ क्या ती० मुँ० मुँ० बाँधते थे ? देवगुप्तसूरि१३ ये सर्वाचार्य मूर्ति के उपासक और हाथ में मुँहपत्ती रखने वाले थे । भगवान महावीर की चौदहवीं शताब्दी आचार्य शीलांगसूरि १ सर्वदेवसूरि देवगुप्रासूरि हरिभद्रसूरि (द्वितीय) इत्यादि यह सब मूर्ति मानने वाले और मुँहपत्ती हाथ में रखने वाले ही थे । भगवान महावीर की पन्द्रहवीं शताब्दी महर्षि २, यशोभद्रसूरि ३, सिद्धसूरि ४, वीरगणि५, सर्व देवसूरि६, उद्योतनसूरि७, शोभनमुनिट, सिद्धसूरि९, कक्कसूरि १० ये सब प्रभाविक आचार्य मूर्तिपूजा प्रचारक ही थे । १३ -- राव गोसलभाटी आदि को उपदेश द्वारा जैन बनाकर आर्यगौत्र ( लुणावत ) की स्थापना की । - १ – आपने वि० सं० ९३३ में आचारांगादि सूत्रों पर टीकाएँ रचीं । २ - कर्म विपाक ग्रन्थ के कर्ता । ३ - मालानी प्रान्त से जैन मन्दिर को विद्याबल से उड़ा के नडलाई में रखा वह आज भी विद्यमान है । ४ - पाटण के महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा कारक । ५ - योगबल और अनेक विद्याओं के पारगामी | ६ - वटवृक्ष के नीचे आठ शिष्यों पर वासक्षेप दे आचार्य बनानेवाले । ७ - वटवृक्ष के नीचे ८४ शिष्यों को भाचार्य पद देनेवाले । ८ - संस्कृत साहित्य की प्रौढ़ सेवा करनेवाले । ९ - नये जैन बनाके छाजेड़ गौत्र स्थापन करनेवाले | १० - लाखों जैन बनाकर वागरेचांदि गौत्र संस्थापक और पंच प्रमाण अन्थ के कर्ता । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण भगवान महावीर की सोलहवीं शताब्दी आचार्य वर्धमानसूर ११, पार्श्वनागसूरि १२, देवगुप्तसूरि १३, जिनेश्वरसूरि १४, अभयदेवसूरि १५, द्रौणाचार्य १६, सूरा - चार्य १७, बादी वैतालशान्तिसूरि १८, नमिसाधु १९, नेमि - चन्द्रसूरि २० इत्यादि ये महान् प्रभाविक आचार्य जैनधर्म के कट्टर प्रचारक हुए । यहाँतक न तो मूर्त्ति विषयक खण्डन-मण्डन था और न थी मुखवfत्रका की चर्चा । --- भगवान महावीर की सत्रहवीं शताब्दी आचार्य ४०० अभयदेवसूरि १ ( मलधारी ), ककसूरि, ११ - आचार दिनकर ग्रन्थ और आबू पर विमलशाह के मन्दिरों की प्रतिष्ठा आप श्री ने ही करवाई | १२ - आत्मानुशासन ग्रन्थ के निर्माता । १३ - नौ पद प्रकरण ग्रन्थ के रचयिता । १४ - आपने वि० सं० १०८० में जालौर में रहकर हरिभद्रसूरि कृत अष्टकों पर टीकाएँ बनाई । तथा जिन चैत्यवन्दन नामक ग्रन्थ की रचना की । १५ - नौ अंग- सूत्रों पर टीकाओं के रचयिता । १६ - अभयदेवसूरि की रची टीका के संशोधनकर्ता । १७ ----धारा की राज सभा में विजय पताका फहराने वाले । - राजा भोजको प्रतिबोध और वृहद् शान्ति के कत्ती । १८ १९ - रुद्राट् के काव्यालङ्कार पर टीका रचयिता । २०- उत्तराध्ययन सूत्र की टीका बनाई । २१ - अजमेर के राजा जयसिंह ने आपके उपदेश से अपने राज्य में जीव दया की घोषणा करवाई । मेड़ता के मन्दिरों की प्रतिष्ठा आप ही के करकमलों से हुई । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या ती• मुं० मुं• बान्धते थे! चन्द्रसूरि ३, विजयचन्द्रसूरि ४ (आर्य रक्षित), जिनवल्लभसूरिष, जिनदत्तसूरि ६, हेमचन्द्रसूरि ७, देवगुप्तसूरि आदि ये सब प्राचार्य मूर्तिपूजा के पक्के समर्थक और हाथ में मुँहपत्ती रखने वाले ही थे, इस शताब्दी में अनेक वादविवाद खण्डन-मण्डन पैदा हुए जैसे चन्द्रसूरि ने पूर्णिमियागच्छ की स्थापना की। विजयचन्द्रसूरि ने आंचलगच्छ का प्रवृत्ति की जिसमें श्रावक को पौषध व सामायिक में चरवाला मुंहपत्ती रखने का निषेध किया, भगवान महावीर के पाँच या छः कल्याणक की चर्चा, औरतों को प्रभु पूजा करना या नहीं करने का वाद विवाद हुआ। परन्तु मूर्तिपूजा और मुँहपत्ती के विषय में किसी प्रकार का खण्डन या मण्डन उस समय के साहित्य में दृष्टि गौचर नहीं होता है । अतएव उस समय मूर्तिपूजा और मुँहपत्ति हाथ में रखना शास्त्र सम्मत अखिल श्वेताम्बर समाज के लिए सर्वमान्य ही था। ३-आपने पूर्णिमा की पाक्षी करके एनिमियागच्छ की नींव डाली। ४-आपने श्रावों के सामायिक पौसहादि व्रत में चरवाला मुंहपत्ति का निषेध कर आँचल गच्छ अलग निकाला । ५-आपने संघ पटकादि कई ग्रन्थों का निर्माण किया। . -आपने संदोहदोहावलो आदि कई ग्रन्थों की रचना की और आप बड़े दादाजी के नाम से मशहूर हैं। ... .-अनुयोगद्वार सूत्र की टीका कर्या। (२६)-४७ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण । भगवान महावीर की अठारहवीं शताब्दी आचार्य जयसिंहसूरि १, हेमचन्द्रसूरि २, जगच्चन्द्रसूरि ३, वादी देवसूरि४, जीवदेवसूरि५ कक्कसूरि६, जिनपत्तिसूरि७, अभयदेवसूरिट, भुवनचन्द्रसूरि ९, विजयचन्द्रसूरि १० आदि ये सब आचार्य मूर्तिपूजा प्रचारक और हाथ में मुँहपत्ती रखनेवाले ही थे B आपने १- आप पाटण के नरेश सिद्धराज जयसिंह के परम माननीय थे । बहुत अजैनों को जैन बनाये और पक्षीसूत्र के वृत्तिकर्ता भी थे। २- भाप कलीकाल सर्वज्ञ विरुदधारक साढ़े तीन करोड़ श्लोकों के रचयिता और महाराज कुमारपाल के गुरू थे । ३ – आपकी कठोर तपश्चर्या से मुग्ध बन चितौड़ के महाराणा ने तपा विरुद दिया जिससे वडगच्छ का नाम तपागच्छ हुआ । ४ - आपने ८४ वादियों को पराजय कर वाद विरुद हसिल किया। स्याद्वाद रत्नाकर जैसे न्याय के ग्रन्थ रचयिता और फलौदी तीर्थ के पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा के कर्त्ता थे । ૪૨ ५- आप बड़े ही योगी और विद्यालब्धि सम्पन्न थे । एक समय ब्राह्मणों ने धर्मान्धता के कारण एक मृत गाय को सूरिजी के उपाश्रय में डलवादी तब सूरिजी ने परकाय प्रवेश विद्या बल से उसी गाय को शिवालय में ढालदी। इस चमत्कार को देख ब्राह्मण सूरिजी के पक्के भक्त बन गये । ६ -- आप उस समय राजगुरु के नाम से प्रख्यात थे आचार्य हेमचन्द्रसूरि और महाराज कुमारपाल आपको बहुमान पूर्वक वन्दन करते थे । ७ - आपने संघ पटुक पर विस्तारवाली टीका रची। 3- यह मल्लधारी अभयदेवसूरि महान् प्रभाविक हुए 1 ९ -- मंत्री आसपाल और वस्तुपाल तेजपाल के गुरू थे 1 १० - वृद्ध पोसालिया शाखा के आदि पुरुष थे आपकी परम्परा में Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या सी० मुँ. मुं० बान्धते थे! भगवान महावीर की उन्नीसवीं शताब्दी प्रभाचन्द्रसूरि १ मलिसेनसूरि २ मेरुतुजसूरि ३ सोमतिलकमूरि ४ सिद्धसरि ५ आदि प्राचार्य मूर्ति उपासक और हाथ में मुंहपत्ती रखने वाले ही थे। भगवान महावीर की बीसवीं शताब्दी___ आचार्य सोमसुन्दरसूरि६, मुनिसुन्दरसरित, रत्नशेखरसरिट, मानसागरसरि९ सिद्धसूरि आदि प्राचार्य मूर्तिपूजक और हाथ में मुँहपत्ती रखने वाले ही थे। इस शताब्दी में लोकाशाह हुआ और मूर्तिपूजा के विरोध में पुकार उठाई और इसी शताब्दी में मूर्तिपूजा विषयक खण्डन-मण्डन प्रारम्भ हुआ इसके पूर्व मूर्तिपूजा के विषय में किसी प्रकार की चर्चा या खण्डन-मण्डन जैन साहित्य में नहीं मिलती है। आचार्य ज्ञानसागरसूरि ( यति ज्ञानजी ) हुए जो लौकामाह के गुरू थे। १-आपने प्रभाविक चरित्र नामक ऐतिहासिक ग्रंथ की रचना की। २-आप बड़े ही प्रभाविक और अनेक ग्रन्थों के कर्या हुए। ३--प्रबन्ध चिन्तामणि और विचार श्रेणी के कर्ता। ४--जिन प्रभसूरि ने पद्मावती देवी के वचन से जाना कि इस समय भरतक्षेत्र में तपागच्छ का अभ्युदय होगा। इस कारणसे अपने बनाये हुए आगम स्तवादि स्तोत्र आचार्य सोमतिलकसूरि को अर्पण किये । __ ५--श्री शत्रुजय तीर्थ के पन्द्रहवें उतारक समरसिंह के धर्मगुरू और आप ही के कर कमलों से इस महान् तीर्थ की पुनः प्रतिष्ठा हुई। ६-प्रसिद्ध राणकपुर के त्रिलोक्यदीपक मन्दिर की प्रतिष्ठा कारक । ७--अध्यात्म कल्पद्रुम ग्रन्थ के कर्मा। , --श्राद्ध विधि भादि अनेक ग्रन्थों के निर्माता । ९--ौंकायाह के गुरू। - - Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण । भगवान् महावीर की इकवीसवीं शताब्दी. आचार्य हेमविमलसूरि१, आनन्दविमलसूरि२, उपाध्याय विद्यासागर३, विजयदानसरि, जयकेशरीसूरि, कक्कसूरि, देवगुप्तमुरि इत्यादि ये सब आचार्य मूर्तिपूजक और हाथ में मुंहपत्ती रखने वाले हीथे। इस शताब्दी में मूर्तिपूजा के विषय में खण्डन-मण्डन चालू था पर मुंहपत्ती तो क्या मूर्तिपूजक और क्या मूर्तिपूजक सब लोग हाथ में हो रखते थे। इस शताब्दी तक मुँहपत्ती विषय की किसी ने भी चर्चा नहीं की थी। भगवान् महावीर की बावीसवीं शताब्दी___ आचार्य विजयहीरसूरि४, विजयसेनसूरि५, उदयसिंह, फनक -आपके चरणों में लौं कामत के ३७ साधओं ने जैन दीक्षा ग्रहण की थी। २-आप क्रिया उद्धारक हुए और आपके पास कुल ७८ लौकामत के साधुओं ने पुनः दीक्षा ली थी। ३-आपने जैसलमेर, मारवाड़ और मेवाड़ में बहुत श्रावक जो तपागच्छ के थे और वे अन्य मत के उपासक बन गये थे, उनको पुनःः तपागच्छ में स्थिर किये। ४-प्रसिद्ध यवन सम्राट अकबर को प्रतिबोध कर तीर्थों के रक्षण निमित्त फरमान या एक वर्ष में छ:मास जीव दया के परवाने और लौंकामत के पूज्य मेघजी आदि अनेक साधुओं ( शाह वाड़ीलाल मोतीलाल लिखित ऐतिहासिक नोंध पृष्ट १० अनुसार ५०० साधुओं) को पुन: मूर्तिपूजक बनाके जैन दीक्षा दी। भाप बड़े ही प्रभाविक आचार्य हुए। ५-बादशाह अकबर के पास रह कर हमेशा उपदेश देने वाले। ६-श्राद्ध प्रतिक्रमण भाष्य के कर्ता। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ क्या ती. मुं. मुं.बाँधते थे ! कुशल, जयसोमसूरि, कल्याणसागरसूरि८, सिद्धसूरि, उ० समय सुन्दर९, परमयोगि आनन्दघनजी१०, महोपाध्याय यशोविजयजी११, पन्यास सत्यविजयगणि१२ आदि ये सबमूर्तिपूजक और हाथ में मुँइपत्ती रखने वाले थे। इस शताब्दी में भी मूर्ति पूजा का खण्डन-मण्डन जोर से था परन्तु मुँहपत्ती की चर्चा बिल्कुल नहीं थी। कारण अखिल जैन श्वेताम्बर समाज मुंहपत्ती हाथ में रखने वाला ही था परन्तु इस शताब्दी के अन्त में स्वामि लवजी ने डोराडाल दिनभर मुंहपर मुँहपत्ती बाँधने की नयी प्रथा चलाई उसके बाद इस विषय की चर्चा शुरू हुई है। पाठको ! आप इस उपरोक्त भगवान महावीर प्रभु के पश्चात् क्रमशः बावीस शताब्दियों और इन शताब्दियों में धुरंधर विद्वानाचार्यों की नामावली से स्वतः समझ गये होंगे कि इन शताब्दियों में साधुओं को वस्त्र रखना यो न रखना, भगवान महावीर के पांच या छः कल्याणक मानना, स्त्रियों को प्रभु पूजा करना या नहीं करना, सामायिक के समय श्रावकों को मुँहपत्ती चरवला रखना या नहीं रखना, मूर्तिपूजा मानना या नहीं मानने के मतभेद जिस-जिस समय और जिस-जिस पुरुष के द्वारा उत्पन्न हुए वे .. ७-भक्तामर स्तोत्र की टीका कर्ता। ८-वर्धमानशाह जामनगर वाले के बनाये मन्दिर को प्रतिष्ठा कर• खाने वाले । ९-प्रसिद्ध कवि तथा अष्टलक्षी के कर्ता। -१०-प्रसिद्ध अध्यात्म-योगी अनेक स्तवन पदों के रचयिता। "-परम गीतार्थ और ११० प्रन्थों के निर्माता । १२-क्रिया उद्धारक। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण । ४०६ बावीसवीं शताब्दी तक ज्यों के त्यों चले आये परन्तु डोरा डाल दिनभर मुँहपत्ती मुँहपर बाँधने का न तो किसी ने दुराग्रह किया और न इस बात का साहित्य के अन्दर खण्डन- मण्डन का किसी ने एक शब्द तक भी उच्चारण किया है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि भगवान् महावीर के बाद इकवीस सौ वर्ष तक तो किसी ने डोरा डाल दिनभर मुँहपत्ती मुँहपर नहीं बाँधो थी पर बावीसवीं शताब्दी के अन्त में स्वामि लवजी ने डोराडाल दिनभर मुहपत्ती मुंह पर बाँधने की कुप्रवृति चलाई और उसी समय से इस विषय का खण्डन- मण्डन प्रारम्भ हुआ । यदि कोई भाई अपनी अल्पज्ञता के कारण यह सवाल करे कि जो भगवान् महावीर के पश्चात् बावीस शताब्दियों के अन्दर के चाचायों के नाम दिये गये हैं वे सब के सब मूर्तिपूजक और हाथों में पती रखने वालों के हैं पर इस समय के बीच कहीं मुंहपत्ती मुंह पर बान्धने वाले आचार्य भी हुए होंगे ? अव्वल तो ऐसे कहने वालों को अपने श्राचार्य होने का एकाध प्रमाण देना चाहिये जैसे कि हमने पूर्वोक्त बावोस शतादियों में हुए आचायों के अस्तित्व के फुट नोट में प्रमाण दिये हैं। दूसरा इन बावीस शताब्दियों की प्रचलित क्रिया में थोड़ा भी रद्दोबदल हुआ कि उनकी चर्चा उसी समय प्रारम्भ होना हम ऊपर बतलाये हैं तो मुहपत्ती के विषय में यदि पहिले डोरा - बाल मुँहपती मुँह पर बाँधी जाती हो और बाद में किसी ने डोरा फेंक कर मुंहपत्ती हाथ में रखनी शुरू कर दी हो तो उसका समय व श्रादि पुरुष बतलाना चाहिये और जिस समय डोरा तोड़ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ हाथ में मुंहपत्ती रक्खी हो उस समय इसका खंडन-मंडन भी : अवश्य हुआ हो, ऐसा उल्लेख बतलाना चाहिये । क्या ती मुँ० मु० बाँधते थे ? " यदि यह कहा जाय कि डोरा डाल मुंहपती मुंहपर बाँधने वाले थोड़ी संख्या में थे तब बहुत संख्या वाले जो हाथ में मुंहपत्ती रखने वाले अपनी प्रवृति की पुष्टि और आपसे खिलाफ वालों का खंडन-मंडन किया होगा पर यह तो कभी भी नहीं हो सकता कि इतना बड़ा जबर्दस्त परिवर्तन हो और उभय पक्ष शान्ति धारण कर एक शब्द तक उच्चारण न करे । वास्तव में भगवान् श्रादीश्वर से भगवान् महावीर और आपके पश्चात् बावीसवीं शताब्दी तक किसी जैन ने डोराडाल दिन भर मुंहपत्ती मुंह पर नहीं बाँधी थी । यह कुप्रथा स्वामि लवजी द्वारा (वि० सं० १७०८ से ) ही शुरू हुई है । जब स्वमत के शास्त्रों, परमत के शास्त्रों और ऐतिहासिक साधनों से यह स्पष्ट सिद्ध है कि डोराडाल दिनभर मुंहपत्ती मुँह पर बाँधना प्राचीन नहीं पर अर्वाचीन अर्थात् वि० की अट्ठारहवीं शताब्दी में प्रचलित हुई है तब भगवान ऋषभदेव, बाहुबली, ब्राह्मी, सुन्दरी, प्रश्नचन्दराजर्षि, केशीश्रमण, भगवान् महावीर और अरएक कामदेव श्रावकों के डोरा वाली मुंहपत्ती बँधाने के कल्पित चित्र बनवा कर उन महापुरुषों को अन्य धर्मियों से निंदा करवाने का काम सिवाय मूर्खता के क्या हो सकता है? इस बात को हमारे स्थानकमार्गी भाई फिर खूब सोचें, समझें और मनन करें । यदि उन कल्पित चित्रों को अजमेर के स्था० साधुसम्मेलन के बीच रक्खे जाने तो ज्ञात होता कि स्थानकमार्गी समाज, विशेषतया स्थानकवासी साधु इन चित्रों से सहमत हैं या इनका एक दम Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण। विरोध करते हैं। जाने दीजिए साधुओं को आज भी स्थानकवासी कान्फरेन्स की जनरल सभा में भगवान ऋषभदेव से भगवान महावीर के जितने कल्पित चित्र जो उनके मुंहपर डोरावाली मुँहपत्ती के बनाये गये और पुस्तकों में दिये गये हैं उन्हें रखकर उनको मानने के मत लीजिये आपको कितने मत मिलते हैं। मेरे खयाल से विरोध में ९८ मत और शायद हो दो मत पक्ष में मिलेंगे क्योंकि अब स्थानकवासी समाज इतना अज्ञान और हटपाही नहीं रहा है कि तीर्थकरों को इतने अज्ञान और उपयोग शून्य मानने को तैयार हो । कारण मुहपत्ती में डोराडाल दिनभर मुंहपर बान्धी है उन का खास ध्येय यही था कि उपयोग न रहने से खुल्ले मुह न बोला जाय। तो क्या यह उपयोग शून्यता तीर्थंकरों के लिए भी कही जा सकती है या स्थानकवासियों के तीर्थकर ही कोई अलग हो और वे उपयोग शन्य हों, इसी कारण वे मुहपत्ती में डोरा डाल दिनभर बान्धी रखते हों तो बात ही दूसरी है वरन् जैन तीर्थकर, गणधर, साधु-साधी, भावक और श्राविकाओं ने न तो आज पर्यन्त डोरा डाल दिनभर मुंहपत्ती मुहपर बाँधी थी और न भविष्य में बांधेगे। इतना ही क्यों, पर डोरा डाल मुंहार दिनभर मुंहपत्ती बाँधने वालों को उत्सूत्र प्ररूपक निन्हव और कुलिंगी समझते हैं। __सज्जनो! यह बात तो एक साधारण मनुष्य भी समम सकता है कि किसी भी धर्म की प्रचलित क्रिया में जब थोड़ा ही फेरफार होता है तो उसकी चर्चा भी उसी समय प्रचलित हो जाती है । जैसे, जैनधर्म में भगवान महावीर के समय जमाली व गोशाला भगवान् से खिलाफ हुए तो उनकी चर्चा भी उसो समय Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०९ क्या सी० मु. मुं० बान्धते थे ? से प्रारम्भ हुई जो आज भी उपलब्ध है । बाद में श्वेताम्बर दिगम्बरों का मतभेद हुआ तो उसका भी खण्डन मण्डन उसी वक्त से शुरू होगया। तदन्तर गच्छों का प्रादुर्भाव हुश्रा और उसके अन्दर जो प्रचलित क्रियाओं में रहोबदल हुआ तो उसी समय उनके चर्चा के प्रन्थ बन गये। श्रीमान् लौकाशाह ने जैन सिद्धांत के विरोध में जब अपना उत्पात मचाया तो उसका भी खण्डन मण्डन उसी समय से चल पड़ा, पर भगवान् आदिनाथ एवं महावीर के समय से विक्रम की अठारहवीं शताब्दो अर्थात् स्वामी लवजी के पूर्व समय तक किसी भी साहित्य में मुंहपत्ती विषयक खण्डन-मण्डन दृष्टि गोचर नहीं होता है। यदि पहिले मुंहपत्ती बाँधी जाती थी और बाद में किसी प्राचार्य ने खोल कर हाथ में लेने कीरीति चलायी होती तो उसका भी जरूर विरोध होता और बाँधने वाले तथा खोलने वालों का पारस्परिक खण्डन मण्डन भी चलता, परन्तु जब इसका सर्वथा अभाव है तो फिर कैसे मान लिया जाय कि इस प्रक्रिया में भी रद्दोबद्दल हुआ था। वस्तुस्थिति के देखने से तो यही पता पड़ता है कि सर्व प्रथम तो मुंहपत्तो हाथ में रखने की प्रक्रिया ही जारी थी किन्तु बाद में जब गच्छ एवं गुरु द्वारा तिरस्कृत हुए स्वामि लवजी ने इसके मूल रूप में कुछ भेद डाला ता उसका विरोध भी उस समय हुआ था जो श्राज के प्राप्त प्रमाणों से जाहिर होता है, जैसे कि लौंकाशाह ने सर्व प्रथम मूर्ति का विरोध किया तो उस समय का इतिहास इस बात को डंके की चोट बताता है कि जैनों में मूर्ति विरोधी सबसे पहिला लौकाशाह ही हुआ। और मुँहपती में डोरा बाल दिनभर, मुँहपर बाँधने वाला सब से पहिला ___ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण ४१० 1 यति लवजी हुआ । उक्त दोनों व्यक्तियों के पहिले न तो मुंहपत्ती बाँधने वालों का अस्तित्व था और न मूर्ति विरोधियों का अस्तित्व था, किन्तु बाद में ही इनसे यह प्रवृत्ति चली है । ये सब अपने दोष छिपाने के लिए ही तीर्थङ्कर जैसे महापुरुषों के कल्पित चित्र तैयार करवाए गये हैं और इनसे अन्य धर्मियों को हंसाने का तथा जैन शासन को नीचा दिखाने का बड़ा दुःसाहस किया गया है। हम पूछते हैं कि क्या आपकी यह नीति वस्तुतः ठीक है ? यदि नहीं तो इसके लिए ऐसा करने वालों को प्रायश्चित्त करना चाहिये और यह सत्य है तो स्वामी लवजी ( अर्थात् अट्ठारहवीं शताब्दी) के पूर्व का इसका समर्थक कोई प्रमाण पेश करना चाहिए कि जिससे डोरा डाल मुंहपत्ती का मुंहपर बाँधना सिद्ध हो । स्थानकमार्गियो ! आपकी मुँहपर मुँहपत्ती बांधने की अनुचित प्रवृत्ति से आज कई लिखे पढ़े स्थानकवासी साधुओं के उपासक लोग, सामायिक पौसह प्रतिक्रमणादि क्रियाओं से वंचित रहते हैं, क्योंकि जब वे इतिहास देखते हैं तो मुँह पर मुँहपत्ती बांधने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है तथा खास लौंकाशाह के बाद भी २०० वर्षों तक इसका अस्तित्व नज़र नहीं आता है, एवं जब लौकान्छीय श्रीपूज्यों और यतियां से जाकरके वे पूछते हैं तो उनसे भी कोरा जवाब मिलता है कि लौंकाशाह ने भूल कर भी मुंहपत्ती मुंहपर नहीं बांधी थी, यह प्रथा तो स्वामी लवजी ने चलाई है, तो लिखे पढ़े मेजुयेट बोल उठते हैं कि हम कोई लकीर के फकीर नहीं है कि जो इस अंध परम्परा में विश्वास रख कर इस कुप्रथा को सदा के लिए गले से चिप- Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४११ क्या ती० मुँ० मुँ० बान्धते थे ! 99 टाए रक्खें । हम तो सत्य धर्म के उपासक हैं जिस धर्म में सत्य का प्रभास और उसकी सिद्धि का कोई प्रमाणिक प्रमाण मिल जाता है बस वही धर्म हमारे गले का हार है नहीं तो इस प्रमाण शून्य प्रथा को कौन अपनायेगा ? इस प्रकार के निर्भीक प्रत्युत्तर को सुनकर यदि तुम्हारे में कुछ शक्ति शेष है तो दिखादो ऐसा उत्तर देने वाले अपने भाईयों को कि इसका कोई प्रबल प्रमाण बतलावें कि जिसे देख कर वे निःशंक बन जांय । श्रन्यथा वे " श्रतो भ्रष्टस्ततोभ्रष्टः बन कर कभी वे खुद भ जैन धर्म से हाथ धो बैठेंगे। जैसे लाला लाजपतराय और लाला सागरचन्द जैसे विद्वानों के उदाहरण आपके सामने विद्यमान हैं। ये दोनों विद्वान स्थानकवासी समाज के नेता थे और अपनी समाज की पूर्वोक्त संकीर्णवृत्ति के कारण ही लाला लाजपत - रायतो समाजी और लाला सागरचन्द ने मुसलमान धर्म को स्वीकारकर जैनों को ही नहीं पर हिन्दू समाज को भी बड़ा भारी नुकसान पहुँचाया है । क्या हमारा स्थानकमार्गी समाज अब भी सावधान होगा ? क्या अब भी कुप्रथा को तिलांजली देकर और सनातन जैनधर्म को समझ कर स्थानकमार्गी समाज उस रास्ते पर चलने को कटिबद्ध होगा ? मुहपत्तिविषयक कई बार शास्त्रार्थ भी हुए, पर स्थानकवासी भाई पराजय हो जाने पर भी अन्य स्थान पर जाकर कह देते हैं कि शास्त्रार्थ में क्या धरा है ? हम करते हैं वह शास्त्रानुसार ही करते हैं । पर जहां ऐसे विषय में सत्ताधारी नरेश या पण्डित मध्यस्थ न हों वहां जय पराजय का सम्पूर्ण निर्णय नहीं हो सकता है । पर एक समय ऐसा अवसर मिल गया कि न्याय Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभा का फैसला । ४१२ शील नाभा (पंजाब) नरेश की राजधानी नाभा में इधर जैनाचार्य श्री विजयवल्लभ सूरिजी ( उस समय के मुनि श्री वल्लभ विजयजी महाराज ) उधर स्थानकवासी पूज्य सोहनलालजी म० अपने विद्वान शिष्य मुनि श्री उदयचन्दजी के साथ नाभा में पधार गये । इन दोनों महात्माओं के आपसी प्रश्नोत्तर का कार्य नाभा नरेश की राज सभा के पण्डितों पर रख दिया गया जिसमें जय पराजय कानिर्णय नाभानरेश की मारफत उनकी सभा के विद्वान पण्डित करें। बस ! उन्होंने जो फैसला दिया उसको अक्षरशः यहां उतद्ध कर दिया जाता है। फैसला शास्त्रार्थ नाभा. ॐ श्रीगणाधिपतये नमः श्रीमान्मुनिवर वल्लभविजयजी! पंडित श्रेणि सरकार नाभा इस लेख द्वारा आपको विदित करते हैं । गत संवत्सर में आपने हमारे यहां श्री १०८ मन्महाराजाधिराज नाभानरेशजी के हजूर में ६ (छः) प्रभ निवेदन करके कहा था कि यद्यपि जैन मत और जैन शास्त्र भी सर्वथा एक हैं परब्च कालान्तर से हमारे और दुढियों में परस्पर विवाद चला पाता है बल्कि कई एक जगह पर शास्त्रार्थ भी हुमा परन्तु वह बात निश्चय नहीं हुई कि अमुक पक्ष साधु है। श्रीमहाराज, की न्यायशीलता और दयालुता देशांतरों में विख्यात है इससे हमें आशा है कि हमारे भी परस्पर विवाद का मूल आपके न्याय प्रभाव से दूर हो जावेगा, भगवदिच्छा से इन दोनों में Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ क्या ती० हैं ० म बाँधते थे? ढुंदियों के महंत सोहनलालजी यहां आये हुए हैं, उनके सन्मुख ही हमें इन ६ (छः) प्रश्नों का उत्तर जैन मत के शास्त्रानुसार उनसे दिलाया जावे । आपके कथनानुसार उक्त महतजी को इस विषय की इत्तला दीगई, आपने इतला पाकर साधु उदयचन्दजी को अपने स्थानापन्न का अधिकार देकर उनके हानि लाभ को अपना स्वीकार करके शास्त्रार्थ करना मान लिया था। - तदनंतर श्री १०८ श्रीमन्महाराजाधिराजजी की आज्ञानुसार हम लोगों को शास्त्रार्थ के मध्यस्थ नियत किया गया । तिस पीछे कई दिन तक हमारे सामने आपका और उदयचंदजी का शास्त्रार्थ होता रहा। शास्त्रार्थ के समय पर जो परिणाम आपने दिखलाये सो शास्त्रविहित थे। आप को उक्ति और युक्तियें भी निःशंकनीय और प्रामाण्य थीं । प्रायः करके श्लाघनीय हैं ।। उक्त शास्त्रार्थ के समय पर और इस डेढ वर्ष के अंतर में भी जो इस विषय को विचारा है उससे यह बात सिद्ध नहीं हुई कि जैन मत के साधुओं को वार्तालाप के सिवाय अहोरात्र अखंड मुख बंधन और सर्व काल मुख पोतिका के मुख पर रखने की विधि है। केवल भ्रांति है। केवल वार्तालाप के समय ही मुख वस्त्र के मुख पर रखने की आवश्यकता है हमारे बुद्धि बल की दृष्टि द्वारा यह बात प्रकाशित होती है कि आपका पक्ष ढूंढियों से बलवान है। ___ यद्यपि "श्रापका और ढूंढियों का मत एक है और शास्त्र भी एक हैं इसमें भी सन्देह नहीं, साधु उदयचंदनी महात्मा और शान्तिमान है परंच आपने जैन मत के शास्त्रों में प्रतीव ___ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामा नरेश का फैसला ४१४ परिश्रम किया है और आप उनके परम रहस्य और गूढार्थ को प्राप्त हुए हैं। सत्य वोही होती है जो शास्त्रानुसार हो और जिसमें उसके कायदों से स्वमत और परमतानुयायिओं की शंका न हो। शास्त्र के विरुद्ध अंधपरंपरा का स्वीकार करना केवल हठ धर्म है। पूर्व विचारानुसार जब आप का शास्त्र और धर्म एक है उसके कर्ता आचार्य भी एक हैं फिर आश्चर्य की बात है कि कहा जाता है कि हमारे आचार्यों का यह मत नहीं है और ना वो इन प्रन्थों के कर्ता हैं। आप देखते हैं कि हमारे भगवान् कलकी अवतार की बाबत जहां आप देखोगे एक ही वृत्त पावेगा, ऐसे ही आप के भी जरूरी है। श्राप के प्रतिवादीके हठके कारण और उनके कथनानुसार हमें शिवपुराण के अवलोकन की इच्छा हुई। बस इस विषय में उसके देखने की कोई आवश्यकता नहीं थो। ईश्वरेच्छा से उसके लेख से भी यही बात प्रगट हुई कि वस्त्र वाले हाथ को सदा मुख पर फैकता है इस से भी प्रतीत होता है कि सर्व काल मुख वस्त्र के मुख पर बांधे रखने की आवश्यकता नहीं है किन्तु वार्तालाप के समय पर वस्त्र का मुख पर होना जरूरी है। आप के शास्त्रार्थ से एक हमें बड़ा भारी लाभ हुवा है कि हमें मालूम हो गया कि जैन मत में भी सूतक पातक ग्रहण किया है और जैनी साधुओं को उन के घरों के आहारादि के लेने की विधि नहीं है। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ क्या सी. मुं• मुं० बाँधते थे ? व्यतीत संवत्सर के जेष्ठ मुदी पञ्चमी सं० १९६१ को जो शास्त्रार्थ मध्य में छोड़ा गया जिसका यह प्राशयथा कि ढूंढियों की ओर से सदा मुख बन्धन की विधि का कोई प्रमाण मिले सो आज दिन तक कोई उत्तर उन की तरफ से प्रगट नहीं हुआ, अतः उन की मुकता आप के शास्त्रार्थ के विजय की सूचिता है। बस इस विषय में हमारी संमति है और हम व्यवस्था याने फैसला देते हैं कि आप का पक्ष उन की अपेक्षा बलवान् है, आप की विद्या की स्फूर्ति और शुद्ध धर्माचार की नेष्टा अतीव श्रेष्टतर है । प्रायः करके जैन शास्त्र विहित प्रतीत होता है और है। इत्यलम् १८ पौह सं० १९६२ मु० रियासत नाभा । । पण्डित भैरवदत्त. | २ पण्डित श्रीधर राज्य पण्डित नाभा. हस्तातर ३ ३ पण्डित दुर्गादत्त, पंडितों के । ४ पण्डित वासुदेव. । ५ पण्डित बनमालिदत्त ज्योतिषी. उक्त फैसले के पाने पर श्रीमुनि वल्लभविजयजी ने श्रीमान नाभा नरेश को एक पत्र लिखा, उस की नकल भागे देते हैं। श्रीमान् महाराजा साहिब नाभापतिजी जयवन्ते रहें, और राय-फोट से साधु वनभविजय की तरफ से धर्मलाभवांचना । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभा नरेश का फैसला ४१६ देवगुरू के प्रताप से यहां सुख शान्ति है, और आप की हमेशा चाहते हैं । समाचार यह है कि श्राप के पंडितों का भेजा हुआ फैसला पहुँचा, पढ कर दिल को बहुत आनन्द हुआ, न्यायी और धर्मात्मा महाराजों का यही धर्म है, कि सत्य और झूठ का निर्णय करें जैसा कि आपने किया है, कितने ही समय से बहुत लोगों के उदास हुए दिल को आप ने खुश कर दिया, इस बारे में आप को बार बार धन्यवाद है। अब इस फैसले के छपवाने का इरादा है, सो रियासत नाभा में छपवाया जावे या और जगह भी छपवाया जा सकता है । आशा है कि इसका जवाब बहुत जल्द मिले । ता० १८-१-१९०६, द. वल्लभविजय, बैन साधु । पूर्वोक्त पत्र के उत्तर में नाभा नरेश ने पण्डितों के नाम पत्र लिखा, उसकी नकल नीचे मुजब है: ब्रह्ममूर्त पण्डित साहिबान कमेटी सलामतनम्बर ११९३. , इन्दुल गुजारिश पेशगाह खास से इरशाद सायर पाया कि बाबा जी को इत्तला दी जावे कि जहां उनकी मनशा हो वहां इसको तबध करावें, यह उन को अखतियार है, जो कुछ पंडतान ने बतलाया वह भेजा गया है, लिहाजा मुतकलिफ खिदमत हूँ कि आप बमनशा हुक्म तामील फर्मावें, १० माघ संवत् १९६२ अज सरिशतह ड्योढी पन्नालाल, सरिशतहदार । ... इस पत्र के उत्तर में कमेटी पंडितान ने श्रीमुनि वल्लभविजयजी के नाम पत्र लिखा, उसकी नकल यह है-"ब्रह्म स्वरूप बाबा साहिबजी श्रीमहात्मावल्लभविजयजी साहिब साधु सलामत.नं ७७६ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या० ती. मुं. मु • बान्धते थे ? सरकार बाला दाम हश्मतहू से चिट्ठी श्रापको पेश होकर बदी जवाब बतवस्सुल ड्योढ़ी मुबारिक व हवालह हुक्म खास घदी इरशाद सदर हुश्रा कि बाबजी को इतला दी जावे कि जहाँ उनका मनशा हो तब करावें, बखिदमद महात्माजी नमस्कार दस्त बस्तह होकर इल्तिमास किया जाता है कि जहाँ आपका मनशा हो छपवाया जावे, और जो फैसला तनाजअ बाहमी साधुश्रान् महात्मा का जो जैनमत के अनुसार पण्डितान ने किया था, आपके पास पहुँच चुका है मुतजअ हो चुका है, तहरीर ११ माघ संवत् १९६२, द. सपूर्णसिंह अज सरिशहत कमेटी पण्डितान ॥ जिस प्रकार नाभा का फैसला हुआ और इस में स्थानकवासियों का पराजय हुआ था इसी प्रकार पटियाला इलाका के समाना शहर में भी शास्त्रार्थ हुआ उस में भी स्थानकवासियों का हो पराजय हुआ था और बात भी ठीक है कि जिन लोगों ने जैन-शास्त्र विरूद्ध आचरण को है उन लोगों का पराजय होता ही है क्योंकि डोराडाल दिनभर मुँहपत्ती बांधने में न तो जैन-शास्त्र सहमत है न परधर्म के शास्त्र । और न ऐतिहासिक साधनों के प्रमाण ही सम्मत हैं इतना ही क्यों पर यह प्रथा लोक विरूद्ध भी है इस कुलिंग की स्थान स्थान निंदा और अबहेलना होती है जैन धर्म की निंदा और हँसी करवाई है तो ऐसे कुलिंग धारियो ने ही करवाई है इन लोगों के लिये हमें दया आती है शासन देव इन को सद्बुद्धि प्रदान करे इन के अलावा और क्या किया जाय । . * ऐसे फैसलों से और ऐतिहासिक साधनों से इन कल्पितमत (२७)-४८ - - - Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण | ४१८ इस नाभानरेश व परितों के फैसले से पाठकवर्ग और विशेषकर हमारे स्थानकवासी भाई ठोक तौर पर समझ गये होंगे कि जैनशास्त्रों व अन्यधर्म के ग्रन्थों के आधार पर दिया हुआ फैसला साफ-साफ पुकार रहा है कि जैन मुनियों के मुखवस्त्र का सनातन से हाथ में और बोलते समय मुँह आगे रखना ही विधान है । यदि फिर भी किसी भाई का आग्रह हो तो जैनियों की [ स्थानकवासी ] की चारों और पोल खुलने लगी और समझदार भव भीरू स्थानकवासी साध एक के पीछे एक मुहपती का मिथ्या डोरा तोड़ कर मूर्तिपूजा के उपासक बनने लगे । इस हालत में स्थानकवासियों के पास दूसरा कोई उपाय न रहा जिस से रहे हुए भबोध लोगों को कुछ भी आश्वासन देकर उन के चल चित को स्थिर कर सके । फिर भी यह करना इन लोगों के लिए जरूरी था अतएव हाल ही में इन लोगों ने 'पीतांवर पराजय' नामक एक छोटा सा ट्रस्ट छपवाया जिस में विल्कल कल्पित और असभ्य शब्दों में आप अपनी जय और जैन मुनियों का पराजय होने का मिथ्या प्रयत्न किया है पर अब जनता एवं विशेष स्थानकवासी समाज इतना अज्ञानान्धकार में नहीं है कि नामानरेश की सभा के पण्डितों के हस्ताक्षर से दिया हुआ फैसला और खास नामानरेश के साथ पत्र व्यवहार द्वारा महाराज नामानरेश ने अपनी सभा के पण्डितों द्वारा दिया हुआ न्यायपूर्वक फैसला को छपाने की इजाजत दें। उस फैसला को असत्य समझे और स्थानकवासी कई मत्तग्रही लोगों को कल्पित एवं बिलकुल झूठी बातें को सत्य समझ ले ? यदि स्थानकवासी भाई जैनमुनियों को पराजय और अपनी जय होना घोषित करते हैं तो उनको चाहिये कि नाभानरेश की सभा के किसी पण्डित का दिया हुआ फैसला कि एक लाइन तक भी जनता के सामने Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ क्या ती० मैं मुं० बाँधते थे ओर से शास्त्रार्थ करने को एक पंच प्रतिक्रमण पढ़ो हुआ मुनि भी इस प्रकार का न्यायालय में शास्त्रार्थ करने को तैयार है। ___एक अंग्रेज ने सूरि सम्राट आचार्य श्री शान्तिसूरि से प्रश्न किया कि आपके धर्म में और तो सब अच्छा है पर कई लोग मुँह पर कपड़े का एक टुकड़ा दिनभर बांध रखते हैं इसका क्या मतलब है । सूरिजी ने कहा कि वे लोग इससे जीव दया पालना कहते हैं इस पर डॉक्टर साहब ने कहा कि मेरे स्त्रयाल से इससे जीवदया नहीं, पर जीवहिंसा विशेष होती है क्यों कि दिन भर कपड़ा मुँहपर बान्धने से वह गीला हो जाता है और उसमें असंख्य जीव पैदा होते हैं और वे सब मुंह की गरम हवा से मर जाते हैं और वह गन्धी हवा वापिस मुंह में जाने से स्वास्थ्य को हानि भी पहुँचतो है । इस लिये इस प्रथा को चलाने वाला रखे । यदि आपका यह कहना हो ति मध्यस्थ पण्डितों के अन्दर से सब के सब नहीं किन्तु कुछ पण्डितों ने फैसला दिया है परन्तु आप उन मध्यस्थ पण्डितों से किसी एक का तो इस फैसला के विषय में विरोध हो तो उनके हस्ताक्षर से जाहिर करें वरना अब थोथो बातों और मिथ्या लेखों से जनता को भ्रम में डाल देने का जमाना नहीं है कि नाभानरेश की सभा के नियत किये हुए मध्यस्थ पण्डित उभय तरफ की दलीलें सुन निपक्ष भावों से फैसला दें और उस फैसला को छपवाने को खास नाभा नरेश अपनी अनुमति दें उसको तो जनता असत्य समझले और प्रमाण शून्य मनः कल्पित बिलकुछ झूठो बातें पर सहस दुनिया विश्वास करले ? इससे तो ऐसी रद्दी पुस्तकें प्रकाशित करवाने वालों की उल्टी हंसी होती है फिर भी यह लोग युक्ति मशहूर है कि "हारिया जुवारी दूना खेले" इसी युक्ति को हमारे स्थानकवासी कई मतग्राही लोग ठीक चरतार्थ कर रहे हैं तथापि इस सस्यता के युग में सदैव सत्य की हो जय हो रही है। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० शास्त्रों के प्रमाण । ४२० जानकार नहीं पर बिलकुल अज्ञानी था और आज पर्यन्त इस प्रथा को पालने वाले भी इस बात को नहीं समझते यह ही एक आश्चर्य की बात है । इत्यादि । ___अन्त में मैं मेरे स्थानकवासी भाइयों को नम्रता और प्रेम पूर्वक कहूँगा कि कृपया श्राप जैन, जैनेतर शास्त्रीय एवं ऐतिहासिक प्रमाणों और विशेष जमाने की ओर खयाल कर देखिये जैन मुनियों की पवित्रता और उनके वेश के सामने देव, देवेन्द्र एवं नर, नरेन्द्र सिर झुकाते थे। तब आज आपके इस जैन शास्त्रों के विरुद्ध एवं लोकनिन्दनीय वेश को देस्त्र तटस्थ विद्वानों को किस प्रकार घणा आती है और वे किस प्रकार सहसा बोल उठते हैं कि यह कैसा धर्म है इतना ही क्यों पर कई लोगों ने तो अपने ग्रन्थों में यहां तक भी लिख दिया है कि "The Dhoondia ascetic is a disgusting object He wears a screen of cloth called Muhpattee, tied over his mouth. His body and clothes are filthy in the last degree and covered with vermin." Rasmala 1878. इस लेख का भावार्थ ऐसा है कि-"ढूंढियों के साध घृणा करने योग्य हैं वे अपने मुंह को एक प्रकार के कपड़े से ढंका रखते हैं कि जिसको वे लोग मुंहपती कहते हैं और शरीर तथा कपड़े तो इतने मलीन रखते हैं कि उनमें जूए आदि जीक पैदा हो जाते हैं। "फॉर्बस साहब की रासमाला ई. सन् १८७४" Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ क्या ती• मुं० मुँ० बाँधते थे हां मताग्रहो लोगों को अपने अवगुण नहीं दिखते हैं तथापि ऐसे निपक्ष लोगों के वाक्यों पर ध्यान लगा कर देखने से साफ साफ मालूम हो जायगा कि ऐसी कुप्रवृति शास्त्र विरुद्ध तो है ही पर साथ में लोक विरुद्ध होने के कारण ही मध्यस्थ लोगों को अपने इस प्रकार के उद्गार निकालने पड़ते हैं खैर ! " गई को जान दो, राख रही को" इस लोक युक्ति पर लक्ष देकर अब भी अपनी प्रवृति को सुधारो और जैन शास्त्रानुसार साधुओं का पवित्र वेश को धारण कर स्व पर का कल्याण करने में समर्थ बनो, यही हार्दिक भावना है। यदि आप में एक दम इतनी उदारता न हो तो कम से कम लौकाशाह कि 'जिनके आप अनुयायी होने का दावा करते हों' उन्हीं की परम्परा के श्री पूज्यादि आज विद्यमान हैं उनकी आज्ञा का पालन कर इस कुलिंग से तो बचने की उदारता बतलाओ। ॥ इति ॥ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशष्ट ___ जैनागमों, अन्यमत के शास्त्रों, और ऐतिहासिक साधनों में डोराडाल दिनभर मुँहपत्ती मुँहपर बाँधने का कोई भी प्रमाणिक प्रमाण नहीं मिलता है लेकिन सर्वत्र हाथ में मुँहपत्ती रखने के एवं बोलते समय मुँह के सामनेरख कर यत्ना पूर्वक बोलनेके प्रमाण प्रचुरता से दृष्टिगोचर हो रहे हैं और वे हैं भी सभ्य समाज के विश्वसनीय । इस हालत में भी हमारे भाई अपनी कृत्रिम मान्यता को सत्य ठहराने के लिये, ऐतिहासिक प्रमाणों की परवाह न करते हुए, जैनागमों के व अन्यधर्मियों के शास्त्रों के बिलकुल झूठे अर्थ कर, बिचारे भद्रिक लोगों को धोका देने का मिथ्या प्रयत्न कर रहे हैं । फिर भी यह एक आश्चर्य की बात है कि कई विद्वान एवं लिखे पढ़े कहलाते हुए भी मिथ्या प्रवृति के लिए बुगलों की भांति मौन साधन कर बैठे हैं। ___ आगे चल कर हम यह भी देख रहे हैं कि कई अज्ञ लोग तो पूर्वाचार्यों रचित ग्रन्थों के नाम लेकर बिचारे भोले भाले लोगों को यों वहका रहे हैं कि मुँहपत्ती में डोराडाल उसे मुँहपर केवल हम ही नहीं बाँधते हैं पर मूर्तिपूजक आचार्य भी इसी प्रकार बाँधते थे। तब ही तो उन्होंने अपने प्रन्थों में इस विधान Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४२३ का उल्लेख किया है, और उन आचार्यों के असली श्राशय को नहीं समझते हुए कई लॉग अपनी पुस्तकों में ऐसा छपवा भी दिया है और कई स्थानों पर अर्थ के बदले अनर्थ भो कर डाले. हैं, फिर भी झूठे कभी सच्चे बन ही नहीं सकते हैं। उन पूर्वा-चार्य के प्रन्थों से देखा जाय तो किसी हालत में डोराडाल दिन भर मुँहपत्ती मुँह पर बाँधनी सिद्ध नहीं होती हैं । दूसरा जब जैनागम लेखबद्ध किये गये थे, वे प्रायः ताड़पत्रों पर ही लिखाये गये थे और वे लम्बे ज्यादा और चौड़े कम थे जिनको यदि एक हाथ से पकड़ा जाय तो दोनों किनारे नीचे गिर कर टूट जाने का डर था श्रतएव उन ताड़पत्रों को दोनों हाथों से दोनों किनारे पकड़ कर व्याख्यान में बोचे जाते थे । इस दशा में मात्र व्याख्यान के समय वे लोग मुँहपत्ती को त्रिकोनी कर कानों के छेद्रों में डाल देते थे कि जिससे सूत्रों का रक्षण हो खुल्ले मुँह बोला न जाय और सूत्रों पर मुँह का थूक भी न लग सके तथा स्थापना प्रतिलेखन समय अपने नाक की वायु स्थापन जी को न लगने के कारण, यो मकान का कचरा जो बहुत अस का पड़ा हुआ हो खराब रज उड़कर मुँह में पड़ जाती हो और थंडिल की भूमिका दुर्गन्धमय हो, इस हालत में जैनमुनि वस्त्र से मुँह आछादित कर सकते हैं और वे उतने ही समय के लिये,.. न कि दिनभर डोराडाल मुँहपत्ती मुँहपर बाँधी हो अर्थात् न तो किसी जैनाचार्य ने अपने ग्रन्थ में डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती दिन भर बाँधना लिखा है और न उन्होंने या उनकी परम्परा में आज पर्यन्त किसी ने बाँधी है । परन्तु हमारे स्थानकवासी भाइयों को डोराडाल दिनभर Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४२४ मुंहपत्तो मुंहपर बाँधने का कोई भी प्रमाण नहीं मिला तब वे इस अपवाद मार्ग को बिना समझे, इसी का नाम लेकर अपने भक्तों को बहका देते हैं कि देखो मूर्तिपूजक आचार्य भी लाभ समझ के थोड़ी देर के लिये मुँहपर मुंहपत्ती बाँधते थे और उसमें फायदा समझते थे । दिन भर बाँधने में तो अधिक फायदा है तो इसमें शंका ही क्यों करना चाहिये इत्यादि ? इस पूर्वोक्त कुयुक्ति से तो उन भाइयों की अनभिज्ञता ही जाहिर होती है क्योंकि उन्होंने अबी उत्सर्गोपबाद को समझा तक भी नहीं है । यदि कारणवसातू अपवाद रूप थोड़े समय के लिये जो कार्य किया गया हो पर कारण के अभाव उस अपबाद रूप कार्य को सदैव के लिये करना और उसमें अधिक फायदा सममना या भद्रिकों को समझाना इसके सिवाय अनभिज्ञता ही क्या हो सकती हैं ? यदि ऐसा ही हो तो बतलाइये-- (१) थोड़ी देर के लिये किया हुए विहारकों दिन रात्रि करते ही रहना ? (२) थोड़ी देर के लिये किया हुश्रा आहार पानी दिन रात्रि में करते ही रहना ? (३) थोड़ी देर के लिये ली हुई दवाइ दिन रात्रि लेते ही रहना ? (४) थोड़ी देर के लिये की हुई प्रतिलेखन दिन रात्रि करते ही रहना ? (५) थोड़ी देर के लिये दिया हुश्रा व्याख्यान दिन रात्रि देते . ही रहना ? Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ परिशिष्ट ( ६ ) थोड़ी देर के लिये रजोहरण से लिया हुआ काजा दिन रात्रि लेते ही रहना ? इत्यादि समय समय पर करने योग्य क्रियाओं को हमारे स्थानकवासी भाई दिन रात्रि तक वही क्रिया करना स्वीकार कर लेंगे ? यदि नहीं तो फिर यह उदाहरण आगे क्यों रखा जाता है कि मूर्तिपूजक आचार्य जिस समय ताड़ पत्रों पर सूत्र थे और व्याख्यान के समय मुँहपत्ती से मुँह श्राक्छादित किया करते थे, इसलिये हम भी दिन रात्रि डोराडाल मुँहपत्ती मुँह पर बाँधी रखते हैं । समझना इतना ही है कि अपवाद है वह श्राफत समय के लिये है प्रत्युत हमेशा के लिये नहीं । फिर भी हमारे स्थानकवासी भाई क्या यह बतलाने का थोड़ा ही साहस कर सकेंगे कि किसी जैनाचार्य या लोकागच्छ के आचार्य ने व्याख्यान के समय के अतिरिक्त मुँहपत्ती में डोरा तो क्या, पर मुँहपत्ती के कोने भी कानों के छिद्रों में डाल मुँह छादित कर व्याख्यान के पाटे के सिवाय एक कदम भी - गमनागमन किया था ? क्या आहार बिहार निहार के निमिक्त उपाश्रय के बाहार उसी अवस्था में एक कदम भी भरा था ? और इसी कारण किसी विधमियों ने उनकी निन्दा की थी ? जैसे डोरा डाल मुँहपत्ती मुँहपर बाँधने वालों की इस प्रवृत्ति के प्रारंभ से आज पर्यन्त हो रही हैं। तीसरा स्थानकवासी मित्रों ने अपनी पुस्तकों में जिन जिन आचायों के ग्रन्थों के नाम लेकर मुँहपत्ती मुँहपर बाँधना सिद्ध करने का मिथ्या प्रयत्न किया हैं वह भी केवल भद्रिक जनता को Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४२६० धोखा ही दिया है । अथवा यह भी हो सकता है कि आज संशोधकयुग में कई स्थानकवासी भाई मुँह पर दिनभर मुँहपत्ती बाँधी रखना कल्पित समझ कर इस कुप्रथा का त्याग कर मूर्त्तिपूजक समाज में चलेगये, और जा रहे हैं। पर शेष भ्रमित चित वालों को आश्वासन देने के लिये ही यह व्यर्थ प्रयत्न किया गया हो । परन्तु यह सब स्वप्नवत् कल्पना ही है । ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैं इन सबका खुलासा यहाँ नहीं करता हूँ परन्तु मैं मेरे पाठकों को इतना ही कह देना पर्याप्त समझता हूँ कि इस विषय में विद्वान् मुनिश्रीमणिसागरजी महाराज ने " श्रागमानुसार मुखवखिका निर्णय" नामक वृहद् ग्रन्थ प्रकाशित करवाया है उसको मंगवा कर पढ़िये और वह प्रन्थ कोटे से मुफ्त मिलता है । प्रस्तुत ग्रन्थ पड़ने से अब्वल तो आपको स्थानकवासी समाज की सत्यता मालूम हो जायगी कि वे लोग एक मिथ्या बात को किस प्रकार सत्य करना चाहते हैं दूसरा यह भी ज्ञान हो जायगा कि न तो किसी जैनाचार्यों ने दिनभर मुँहपत्ती मुँहपर बाँधी थी और न इसका विधान ही किसी प्रन्थ में लिखा है । यह तो हमारा कमनसिव हैं कि विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में तीर्थङ्करों की और खासकर लौकागच्छ के प्राचायों को आज्ञा का भंग कर स्वामी लवजी ने हाथ में मुँहपत्तो रखने की कठिनाइयों को सहन न करते हुए उस श्रापत्ति को मिटाने के लिये ही डोराडाल दिन भर मुँहपत्ती को मुँहपर बांधकर स्वयं कुलिंग धारण कर अन्य धर्मियों से जैनधर्म की निंदा करावाई है और अन्ध परम्पर में विश्वास रखने वाले कई जानते व अनजानते भी इस कुप्रथा को झूठमूठ ही चला रहे हैं परन्तु समझदार लोग तो इस कुप्रथा को Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ परिशिष्ट काल्पनिक एवं मिथ्या समझ मुंहपत्ती के डोरे को तोड़ शुद्ध सनातन मार्ग का अवलम्बन कर स्वपर का कल्याण करना ही अच्छा समझा और समझते हैं। इतना ही क्यों पर इस कार्य करने वालों की शुभ नामावली और कतिपय चित्र हम श्रीमान् लोकाशाह के जीवन पर ऐतिहासिक प्रकाश नाम की पुस्तक में दे दिये हैं उस को देखें और पढ़कर असत्य का त्याग और सत्य को स्वीकार करें । यही हार्दिक शुभ भावना है। ॥ इति ॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ---..--- -- TORRPORRORS ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ - ~ इति क्या जैन तीर्थङ्कर डोराडाल मुँहपत्ती मुँहपर बाँधते थे? AAmanvaramnnnnnnnnnnwww Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब के पूर्ण परिश्रम और सदुपदेश द्वारा श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला-फलोदी (मारवाड़ ) से आज पर्यन्त मुद्रित हुई पुस्तकों का संक्षिप्त सूचीपत्र विभाग पहिला तात्विक विषय की पुस्तकें १ शीघ्रबोध भाग १ला २ शीघ्रबोध भाग शा ३ शीघ्रबोध भाग ३ ( १ ॥ ) ४ शीघ्रबोध भाग ४था ५ शीघ्रबोध भाग ५वां ६ शीघ्रबोध भाग ६ ७ शीघ्रबोध भाग ७वां ८ शीघ्रबोध भाग ८वां २ १1) ९ शीघ्रबोध भाग ९वां १० शीघ्रबोध भाग १०वां ११ शीघ्रवोध भाग ११वां १२ शीघ्रबोध भाग १२वां १३वां १३ शीघ्रबोध भाग १४ शीघ्रबोध भाग १४वां १५ शीव्रबोध भाग १५वां १६ शीघ्रबोध भाग १६वां १७ शीघ्रबोध भाग १७वां १८ शीघ्रबोध भाग १८वां १९ शीघ्रबोध भाग १९वां २० शीघ्रबोध भाग २०वां २१ शीघ्रबोध भाग २१वां २२ शीघ्रबोध भाग २२वां < १ ॥ ) ४) २३ शीघ्रबोध भाग २३ २४ शीघ्रबोध भाग २४ २५ शोघ्रबोध भाग २५ २६ सुखविपाक सूत्रमूल २७ दशवेकालिक सूत्र- मूल २८ नन्दीसूत्र मूल पाठ २९ समवसरण प्रकरण ४२ आनन्दघन चौबीसी ४३ आनन्दघन पदमुक्तावलि ४४ जड़ चैतन्य का संवाद A ३० द्रव्वानुयोग प्रथम प्र० ३१ द्रव्यानुयोग द्वितीय प्र० ३२ तत्वसार संग्रह प्रथम भाग ३३ तत्त्वसार संग्रह दूसरा भाग ३४ कर्म ग्रन्थ हिन्दी अनुबाद ३५ नयचक्रसार हिन्दी अ० 1) ३६ तत्वार्थ सूत्र हिन्दी अ४ ३७ व्यवहारसमकित के ६७ बोल - ) ३८ तत्वार्थसूत्र मूल भेट ३९ कक्काबतीसी सार्थ ४० दशवैकालिकसूत्र ४ अ० ४१ पैंतीस बोल का थोकड़ा " 10) 1). भेट => =) =) 1) 17 ) 1) भेट =) भेट =) =) Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचीपत्र ४३० विभाग दूसरा-ऐतिहासिक विषय की पुस्तकें । १ उपकेशगच्छ लघुपटावलि -) | १९ , , , २ दानवीर जगडूशाह ३ जैनजाति निर्णय प्रथमांक 1) | २१ , , ४ जैनजाति निर्णय द्वितीयांक २२ जैनजाति महोदय प्रकरण १ला ५जैनजातियों का सचित्र इ० ) ६ ओसवालजाति समय निर्णय =) २रा ७ उपकेशवंश का इति० ) .८ बालके मन्दिर का इति० भेट ४था ९ कापरड़ातीर्थ का इति० ।) ५ वां १० धर्मवीर समरसिंह इति० ) २० " ६हा ११ जैसलमेर का विराट संघ २८ मूर्तिपूजा का प्रा० इति०२ २ १२ रत्नप्रभसूरि की जयन्ती | २९ मूर्तिपूजा विषय प्रश्नोत्तर १३ ओसवालोत्पत्ति शंका० सं० ३० क्या जै० ती० मुं. मुं०बाँधते थे १४ प्राचीन जैन इ० संग्रह भाग १ ३१ श्रीमान् लोकाशाह के० इ. ३२ ऐतिहासिक नोंध की ऐति० . १६ , , ३ ३३ कडुआमत की पहावलि ४ | ३४ गोडवाड़ के जैनों और सादड़ी के लौंका० इ० । विभाग तीसरा औपदेशिक पुस्तकें । १ स्तवन संग्रह भाग १ ) । ७ जैन मंदिरकीचौरासीआशातना)। २ , , , २ .) ८ चैत्य वंदनादि ३ , , , ३ ) ९ जैन स्तुति ४ दादा साहिब की पूजा भेट १० सुबोध नियमावली ) ५ देवगुरु वन्दनमाला ) ११ प्रभु पूजा विधि ६ जैन नियमावली ॥ १२ व्याख्याविलास प्रथमभाग ) Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ १३ व्याख्याविलास दूसरा भाग =) १४ तीसरा भाग =) चौथा भाग =) १५ 99 -१६ ओशियो ज्ञानभंडार की लिस्ट भेट भेट 59 -१७ तीर्थमाला यात्र स्तवन १८ स्वाध्याय संग्रह गड़ली संग्रह १९ राइदेवसी प्रतिक्रमण -२० वर्णमाला २१ स्तवन संग्रह भाग ४ २२ महासती सुरसुंदरी कथा २३ पंच प्रतिक्रमण सूत्र 29 5" २४ मुनिनाम माला २५ शुभमुहूर्त शुकनावली २६ पंच प्रतिक्रमण विधिसहित भेट " "; 29 "" २७ प्राचीन छंद गुणावली भा. १ =) २८ २ २९ "" ३० ३१ , ३२ "" 19 ३३ धर्मवीर शेठ जिनदत्त =) ३४ दो विद्यार्थियों का संवाद = ) ३५ जैन समाजको वर्तमान दशा =) -३६ स्तवन संग्रह भाग ५ "" "" 22 " 59 39 "" 23 :> 19 33 =) "" ) ॥ ४ =) =) 35 "" "" >> 39 =) सूचीपत्र ३७ जिनगुण भक्ति बहार भा. १ भेट २ ३८ "" 99 "" ३९ कायापुर पट्टन का पत्र )#1 ४० शान्तिधारा पाठ भेट ४१ कापरडा तीर्थ स्तवनावली) ४२ श्री नंदीश्वरोपका महोत्सव भेट ४३ श्री वीरपार्श्व निशानी =) ४४ नित्यस्मरण पाठमाला ४५ उगता राष्ट्र ४६ लघु पाठमाला ४७ भाषण संग्रह भाग १ ५३ गुणानुराग कूलक ५४ शुभगीत भाग १ ५५ २ ४८ 99 "" 25 ४९ नौपदी की अनुपूर्वी ५० मुनि ज्ञानसुंदर (जीवन) भेट ५१ अर्द्ध भारत की समीक्षा =) ५२ पाली नगर में धर्म का प्रभाव भेट 39 "" 99 )# yu ५६ ३ )" 99 ५७ राईदेवी प्रतिक्रमण विध स. भेट ५८ आदर्श शिक्षा भेट ५९ श्री संघ को सिलोका ६० जिनेन्द्र पूजा संग्रह ६१ महादेव स्तोत्र " 99 =) "" =) Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचीपत्र विभाग चौथा चर्चा विषयक पुस्तकें। १ श्री प्रतिमा छत्तीसी ) | १६ विनंति शतक २ श्री गयवर विलास ) १७ तीन चतुर्मास का दिग्दर्शन भेट ३ दान छत्तीसी )॥ १८ हित शिक्षा प्रश्नोत्तर ॥) ४ अनुकंपा छत्तीसी ) १९ व्यवहार की समालोचना =) ५प्रश्नमाला स्तवन -) २० मुखवस्त्रिका नि०निरीक्षण -) ६ चर्च का पब्लिक नोटिश ) २१ निराकार निरीक्षण भेट • लिंग निर्णय बहुत्तरी -) | २२ प्रसिद्धवक्ता की तस्करवृत्ति-) ८ सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली ॥) २३ धर्त पंचोंकी क्रांतिकारी पूजा भेट ९ बत्तीस सूत्र दण ३) २४ वाली संघ का फैसला भेट १० डंका पर चोट २५ समीक्षा की परीक्षा , " आगम निर्णय प्र. अङ्क ३) २६ लेखसंग्रह भाग १ ला १२ जैन दीक्षा )। ॥ २७ , , २रा १३ कागद, हुंडो, पेट, परपेट, २८ , , ३ रा और मेझरनामा ॥) | २९ जैन मन्दिरों के पुजारी =) १४ तीन निर्मामा लेखों का उत्तर भेट | ३० श्री वीर स्तवन भेट १५ अमे साधु शा माटे थया , ३१ हाँ! मूर्ति पूजा शास्त्रोक्त है।) भेट Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्रक पृष्ट पंक्ति ५ ७ २१ ५ अशुद्धि पाषण सहिब भाद्रिक पात्रिका साहब शुद्धि আমায साहिब भद्रिक पत्रिका साहिब ११ २० १६ २१ शताब्दी हिताचार्य मूर्तिपूजा देव २२ २७ ४ १ शतान्दा हितचार्य मुर्तिपूजा देवा परिक्षा मज्जा हंसूरि शीलांका अनुगृहार्थ न्दैः २८ २८ ८ १० परिक्षा मन्जसा हंससूरि शीलाना अनुग्रहार्थ २८. १३ सूरि प्रणम्प २८ १३ पणम्य Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति शुद्धि २८ २८ २८ २३ २४ २४ श्रीगुरुणामनुगृहान्द श्रीगुरुणामनुग्रह त लिखते लिख्यते गर्थ गार्थ २९ २४ ३६ ४२ ४३ ११ २ १९ ४३ २० पकारायादि मांडगार्थः पकरायाऽऽदिमांगाडपतन्यते र्थः तन्यते प्ररूपण प्ररूपणा श्राठत्राटि आठकोटि संदह संदेह मुंद मुह पुर्णवा पूर्णता येषां भास्ति येषामस्ति व अर्हति तां य+ त्व तीर्थकरो तीर्थकरो वेडी त+कि ती+किं एब एवं हरुणं रुहणं प्रमाजी प्रमार्जी स्तूभ नमोत्थूणं नमोत्थुम् अर्हति कृतां ४३ २४ येत्वं वेडी ४७ ९ ५० २२ ५२ . १८ ५४ १९ ५६ ५ ५८ ११ ५९ १ स्तूप Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ शुद्धि सिद्धायतन गामिक क्षेम ६२ ६३ ६८ ६८ पंक्ति अशुद्ध सिद्धयत १७ गागिक ११ क्षम १ . चतुथ १६ काxका कहीं कैसी १६ . पुरुषों २३ नमना २० शा-शा २२ पश्चरक्खाण ८ णु+ग ७२ ७३ ७४ ७८ ७९ चतुर्थ की + को केही कैसे पुष्पों नमूना श-श पच्चक्वाण ण+गा युज्यते युज्यते ८३ ८३ ८४ ११ तङ्ग हलधरा वा ८५ ८७ ८७ ९. ति ११ १८ . हलदरा २३ व १२ . रणा २१ कुड़ा १६ मति सहायिक अत्यान्तसमथ १० व्यवेदं कुरडां मति सहायक अन्तान्ताऽसमर्थ ८९ वेदं Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ८९ ९३ ९८ ९८ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ पंक्ति २१ २३ १ ९ १ १७ २५ १४ ६ १०६ २३ १०८ १८ १०९ १११ 3 ११३ १२० १२१ १२१ १२२ १० १२४ २१ १२५ १३ १२७ १५ १२८ १३९ ६ १८ ४ ११ १५ अशुद्धि श्रवक ( ४ ) ग्ण सादार गाव पाटुका तात वंद लागडे तस्कार उसकी सो श्रऊट यन माणि नेमि नेमि नेमि मूर्ति लिखा मोघ स्कंदिल का वं शुद्धि श्रावकों णा सादर गति पादुका ज्ञाता वंद लगाड़े तस्कर उसका इसी आऊट येन मणि नमि नमि नमि मूर्ति शिलालेख मेघ स्कंदिला के वर्ष Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पृष्ठ १४७ १५० १५८ पंक्ति १-६ ९ १७ पुरातत्वको मूर्तिपूजा स्त्रीप्राकार १६२ १६ सिद्धि १६४ १६५ १६७ १६८ १६८ अशुद्धि कुट पुरात्वको मूर्ति जा स्वीकार सिद्ध २२ छाड़ ति पज्य शुकरन घढी मूर्ति जा वनाने में निकलाते छोड १२ मूर्ति १७४७ १७४ १७६ १७६ शुकरात घड़ी मूर्तिपूजा हिंसा होती है निकालते मुद्रा उसने वल्लीण भावाओ ३६ १८१ १९० १९९ १८ १५ १९९ उनके कल्लीण মাম্ব ३३ जन पलट मूर्ति जैनयो १९९१८ २०३ २१ २०९ २०९ २३ २५१ २३ पूजन पलटा मूर्तियों जैनियों Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट २५७ २५८ क्ति २१ . ६ अशुद्धि यन्न । पण्डव स्नान पण्डव २६५ शुद्धि यत्ना पांडव स्नात्र सूत्र उसको पांडव २१ २६६ २८४ २८४ ३०३ १८ १७ उसका पंडव सोलह भेदा १८ भेदी ३२० मुह ३४५ ___ २ बाँधत बाँधते Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फार्म छपजाने के पश्चात् आये हुए पत्रों से ग्राहकों की शुभ नामावली १० श्रीमान् हमीरमलजी धनरूपमलजी १ वन्शीलालजी बोहरा १ प्रेमराजजी देसरडा १ गंभीरमलजी मुथा १ मेघराजजी मुनौयत धनराजजी कांसटिया १ १ १ १ १ १ १ १ 57 "" 57 29 97 "" " 39 "" "" " "" बतावरमलजी लोढ़ा रत्नचन्दजी लोढ़ा मुनिलालजी बाफना मुनिलालजी जबलपुरवाला प्रेमचन्दजी रांका मुल्तान मलजी मुनीम केसरीमलजी चोरड़िया अजमेर पीपाड़ " ,, " पाली "" 39 29 19 99 तीर्थ कापरड़ाजी बीलाड़ा Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....................... सचित्र श्रोसवाल कुल भूषण - धर्मवीर समरसिंह यह एक मौलिक ऐतिहासिक ग्रन्थ है । यों तो समरसिंह के विषय में कई एक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, परन्तु इस ग्रन्थ की रचना शैली वास्तव में कुछ निराली ही है। इसमें २५०० ढाई हजार वर्ष पूर्व की ऐतिहासिक घटनाएं, जैन धर्म एवं ओसवाल जाति पर बड़ा भारी प्रभाव डाल रही है। इसके पढ़ने से पाठकों के हृदय में एक ज़बरदस्त बिजली का सा असर होगा। समाज उत्थान के लिये ऐसी पुस्तकों का पढना परमावश्यक है। इसमें ४०० पृष्ठ व ८ चित्र होते हुवे भी प्रचार निमित्त मूल्य मात्र रु० १।) रक्खा गया है। शेष पुस्तकों के लिए सूचीपत्र देखिये जो इसी पुस्तक के अन्त में छपा है। मिलने का पता - श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला मु० फलोदी [ मारवाड़ ] ................ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0000000000000000000000000000000 booo 1000.00 0000.00 मुद्रकशम्भूसिंह भाटी आदर्श प्रेस, कैसरगंज, अजमेर 8000000000000 10000000000000000000000000000000000002000 SS