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________________ मू० पू० वि० प्रश्नोचर २०६ को नमस्कार करते हो तो मूर्ति भी उन्हीं सिद्धों को है फिर उसे नमस्कार वन्दन आदि क्यों ने किया जाय ? हमारी राय में तो जरूर करना चाहिये। __ भाई साहिब ! किन्हीं विद्वानों के पास कुछ काल रह कर पहिले जरा जैन शास्त्रों को खूब समझलो कि मति कारण है और सिद्ध कार्य हैं और "कारणकार्ययोरभेदः" इस न्याय के अनुसार दोनों का कार्य कारण रूप अभेद ( एकी भाव ) सम्बंध है, जैसे आपके गुरुजी का जड़ शरीर और रजोहरण, मुंहपत्ती श्रादि कारण है और संयमादि गुण कार्य है, इस प्रकार कुछ समम बूम कर शंका करो। अन्यथा व्यर्थ का वितण्डावाद खडा करने में मुंह की खानी पड़ती है । अच्छा ! आगे चल कर मैं आपको इस विषय को समझाने के लिए एक उदाहरण फिर बतलाता हूँ कि पहिले श्राप बताइये कि आपके जो सूत्र हैं वे अमूर्ति हैं या मूर्ति ? प्र०-सूत्र कोई मूर्ति थोड़े ही हैं । उ०-तो क्या अमूर्ति हैं ? प्र०-क्या आप सूत्रों को मूर्ति मानते हो। उ०-वेशक ! क्योंकि सूत्रों के पन्नों की और अक्षरों की आकृति है या नहीं ? प्र०-आकृति तो है। उ०-तो बस होगया; आकृति और मूर्ति कोई भिन्न दो वस्तुए नहीं हैं किन्तु श्राकृति मूर्ति शकल स्थापना आदि सब एकार्थी पर्यायवाची शब्द हैं। प्र०-अच्छा सूत्रों के पन्नों को तो आप मूर्ति मानते हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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