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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
पर जब सूत्रों के पन्ने ही नहीं थे और सूत्रों का ज्ञान कण्ठस्थ था उस समय के हमारे पूर्वज क्या मत्ति मानने वाले थे। .
उ०-हाँ, वे भी मूर्तिपूजक ही थे। प्र०-वे कैसे मूर्तिपूजक थे।
३०-यद्यपि पन्ने तो नहीं थे किन्तु फिर भी वे शब्दोचारण में "क" को क और "ख" को ख उच्चारण करते थे। यह भी तो क और ख की मूर्ति ही है । कारण, क की आकृति को क कहना और ख की आकृति को ख कहना यही तो मूर्ति है । मूर्ति का अर्थ है कि अमुक आकृति द्वारा अमुक भावों का ज्ञान होना भाव तो है कार्य और जिस आकृति द्वारा उसका ज्ञान होता है वह कारण है समझे न ?
प्र०-यदि हम मूर्ति को कारण मान भी लें तो भी इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि हम उन सूत्रों के पन्नों को पुष्पादि से पूजें। ____न०-भल ही पुष्पादि से मत पूजो पर जिस कारण से
आपको ज्ञान प्राप्त हुआ उसका उपकार मानना तो आपका कर्तव्य है न ?
प्र०- हाँ, उपकार तो जरूर मानना ही चाहिए ।
उ०-परन्तु उपकार बिना पूज्य भाव आए नहीं माना जा सकता है।
प्र०-हाँ, पूज्य भाव तो श्राता हो है।
उ०-तो बस ! कारण के प्रति पूज्य भाव पैदा होना ही कारण की पूजा है। फिर वह चाहे द्रव्य पूजा करे चाहे भाव
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