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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर तो जरा विचार करें कि मूर्तिपूजक लोग इससे अधिक क्या करते हैं ? वे भी तो मूर्ति में आदर्श गुणों का आरोप कर उन्हीं गुणों का वन्दन , जन करते हैं।।
प्र०-हमारे गुरुजी तो बोलते चालते हैं, मूर्ति क्या भी बोलती है ? ___ उ०-बोलने चालने में तो योगोंकी चञ्चलता होनेसे हिंसा होती है और उनसे उल्टा कर्मों का बन्धन होता है और इन कर्म बन्धन से बचने के लिए ही आपके गुरुजी और अध्यात्म योगी बन सके तो कुछ समय के लिये मौन व्रत धारण करते हैं । अब आप ही बताइये कि ज्यादा बोलना अच्छा है, या नहीं बोलना अच्छा है ?
प्र०-हमारे गुरुजी तो उपदेश करते हैं जिससे सुनने वालों को ज्ञान होता है क्या आपकी मूर्ति भी कोई उपदेश करती है जिससे कि उसके उपासकों को उपदेश हो।
उ०-उपदेश तो मात्र निमित्त है उपादान तो प्रात्मा ही है कई लोग मूर्ति द्वारा तीर्थंकरों के स्वरूप चिन्तवन से वैराग्य को प्राप्त कर लेते हैं तब कई लोग साधुओं के व्याख्यान से राग द्वेष कर कर्मबन्धन कर बैठते हैं । आपके गुरुजी के उपदेश करने पर भी कई लोग उनकी तारीफ और कई लोग निंदा करते हैं जो आप प्रत्यक्ष में भी देख रहे हैं, पर मूर्ति ध्यान स्थित होने पर भी उनके चरणों में सारा विश्व सिर मुकाता है । यदि उपदेश नहीं देने के कारण ही आप मूर्वि को नहीं मानते हैं तब तो सिद्धों को भी नहीं मानना चाहिए कारण वे भी उपदेश नहीं देते हैं। किन्तु उन्हें तो तुम दिन में कई बार “नमोत्थुणं" देते हो इसका फिर क्या अर्थ हुआ ? यदि उपदेश न देने पर भी तुम उन सिद्धों
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