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प्रकरण तीसरा जैनागमों में शाश्वति जिनप्रतिमाएँ
विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी के मध्यकाल तक तो जैनागम
अर्धमागधी भाषा और विवरण संस्कृत एवं प्राकृत भाषा ही में था, बाद में श्री पार्श्वचन्द्र सूरि ने जनोपकार के लिए गुर्जर गिरा में टब्बा (अनुवाद) बनाया | पर आपका यह उपकार कई लोगों को उलटा अपकार के रूप में परिणित होगया । क्योंकि कई लोगों ने आपके बनाये टब्बे को रद्दोबदल कर स्वेच्छा नये-नये मत-पन्थ निकाल कर शासन को छिन्न-भिन्न कर डोला । लौंकाशाह के अनुयायियों को भी आपके टब्बे का ही सहारा मिला और काशाह के मतविरोधी यति धर्मसिंहजी ने पूर्व टब्बे को रद्दोबदल कर अपना नया मत निकाला और धर्मसिंहजी ने श्री पार्श्वचन्द्र सूरि कृत टब्बे में स्वेच्छा फेरफार कर अपने नाम से टब्बा बना लिया। स्वामी भीखमजी ने धर्मसिंहजी केटब्बे को रद्दोबदल कर अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग पकाने को अपना मत चला दिया । पर यहां तक तो जैनागमों की प्रति हस्तलिखित हो थीं कि जिसके दिल में आया वैसा ही उतारा कर वे प्रतियां अपने पुट्ठों में बांध पास रख लेते थे और अपने अनुयायियों को भगवान के नाम पर वे पुस्तकें दिखा कर विश्वास दिला दिया करते थे कि देखो सत्रों में यह बात ( अपनी मान्यता ) भगवान ने फरमाई है, इस पर भद्रिक जनता विश्वास
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