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________________ प्रकरण तीसरा ३८ कर उन वाडाबन्धी में बंध जाती थी । कारण उन अझ लोगों में निर्णय-बुद्धि तो थी नहीं । जिसका अधिक परिचय था, उनके अनुयायी बन जाते थे । कहा भी है कि दुनिया झुकती है पर मुकाने वाला होना चाहिए । वि० सं० १९३२ में सब से पहिले मुर्शिदाबाद निवासी बाबू धनपतसिंहजी की द्रव्य सहायता से जैनागम मूल टीका और टब्बा सहित छपवाये गये, जिसका संशोधन लौंकागच्छीय आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के विद्वान शिष्य रामचन्द्र गणि तथा आपके शिष्य नानचन्दजी ने बड़ी सावधानी से किया था और वे आगम प्राय: जैनश्वेताम्बर समाज में सर्वत्र माननीय बन गये । पर काशाह के अनुयायी होने का दम भरने वाले कितनेक स्थानक - वासी भाइयों को उन लौकागच्छीय विद्वानों के संशोधित आगमों से सन्तोष नहीं हुआ । शायद् इसका कारण यह हो कि उन आगमों में मूर्तिपूजाविषयक मूलपाठ और उनका अर्थ ज्यों का त्यों है, इन्हीं कारणों को लेकर पसन्द नहीं हुए हों । इसी कारण स्थानकवासी साधु अमोल खर्षिजी ने दक्षिण हैदराबाद में स्थित रह कर सूत्रों का हिन्दी अनुवाद करना प्रारम्भ किया, पर जब इस बात का पता स्थान० समाज को लगा तो सामयिक पत्रों में इस आशय के नोटिस जाहिर हुए कि जैनागमों का हिन्दी अनुवाद किया जाय तो उसके लिए अच्छे संस्कृत के विद्वान पण्डितों और टीकाओं की सहायता अवश्य लेनी चाहिए कि वे कम से कम स्थानकवासी समाज में तो सर्वमान्य हो ही जाँय । कारण स्वामीजी की योग्यता से स्थानकवासी समाज भली भांति परिचित था, क्योंकि इसके पूर्व स्वामीजी की ओर से अन्य विषय पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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