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आगमों का मुद्रित समय
कई पुस्तकें मुद्रित हो चुकी थीं, उनमें आपकी योग्यता का दर्शन भली-भाँति होचुका था इसलिए ही ऐसी नोटिसें निकालनी पड़ी थीं । इस हालत में आपके किये हुए हिन्दी अनुवाद जो छप चुके थे उनको रद्दी खाते में (पुड़ियां बांधने में) छोड़ देना पड़ा । बाद कई सस्ते भाड़े के पण्डित तनख्वाह से रख कर वि० सं० १९७७ में अनुवाद को काम प्रारम्भ हुआ और उसी रूप में जैनागमों का हिन्दी अनुवाद छपवाया गया कि जिसकी सम्भावना पहिले से ही लोगों ने कर रखी थी । आपने अपनी पाण्डित्यता की प्रसिद्धि के लिए केवल टाइटल पेज पर हो नहीं पर प्रत्येक सत्र के प्रत्येक पन्ने पर अपना नामाङ्कित करवाया, जिससे वर्तमान और भविष्य में लोग यह समझें कि इन सूत्रों का हिन्दी अनुवाद करने वाला कोई बड़ा भारी विद्वान होगा ? ऐसी आत्मश्लाघा पूर्व जमाने में न तो श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणजी ने की थी और न कलीकाल सर्वज्ञ भगवान हेमचन्द्र सूरि ने की थी कि जिनके अध्यक्षत्व में लाखों करोड़ों श्लोक केवल लिखे गये थे ही नहीं पर उन्होंने अनेक विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना भी की थी ।
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जब कोई विद्वान उन हिन्दी अनुवाद को हाथ में लेकर पढ़ता है तो दो चार पेज पढ़ कर शिर धुणाके उनको एक ताक पर रख छोड़ना ही पढ़ता है, क्योंकि न तो उसमें मूल पाठों का सिलसिलेवार दाल मिलता है, न ठीक अर्थ मिलता है, न शब्द ही शुद्ध हैं, और न भाषा ही शुद्ध है। भला जिसको हस्व-दीर्घ का भी भान न हो, वह जैनागम के गम्भीर भावों को कैसे समझ सकें पर स्वामीजी को इन बातों से सम्बन्ध ही क्या ? वे तो येन केन प्रकारेण मूर्तिपूजा के पीछे पड़े हुए हैं। जहाँ जहाँ मूर्तिपूजा का
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