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________________ ( ५२ ) के कल्पित चित्र बनवा कर पुस्तकों में लगा दिये गये है" उसके पूर्ण प्रतिकार एवं खण्डन के लिये मुनि श्री ने "क्या जैन तीर्थडर डोरा डाल मुँहपत्ती मुँह पर बांधते थे ?” शीर्षक पुस्तक लिख कर इसी के साथ सङ्कलित करने का कष्ट किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मिथ्या प्रवृत्ति को चलाने वाले महानुभावों के हृदय इसे पढ़ कर विचलित हो जायेंगे किन्तु मैं समझता हूँ. कि यदि वे निष्पक्ष दृष्टि से इस विषय को श्राद्योपान्त पढ़ने की स्थिरता रखेंगे तो उनका वह भ्रमजाल दूर हो जायगा । मुँह पर डोरा डाल मुँहपत्ती बांधने की प्राचीन प्रथा अठारहवीं शताब्दी के पूर्व कहीं नहीं उपलब्ध होती है । क्योंकि इस शताब्दी के पूर्व के किसी भी आचार्य ने इसका कभी अवलम्बन नहीं लिया था । इस पुस्तक में इसी बात को सिद्ध करने के लिये ऐसे अनेक ऐतिहासिक प्रमाण दिये है कि जिनके सामने सबको नत मस्तक होना पड़ता है, साथ ही इसके, वीर की प्रथम शताब्दी से लेकर १७ वीं शताब्दी तक के कई चित्र देकर इस कृति को और अधिक गौरवान्वित सिद्ध करने का परिश्रम उठाया है । इन सबको पढ़ कर आपके यह बात गले बैठ जायगी कि जैन श्रमण सदैव मुँहपत्ती अपने हाथ में रखते थे, इसी बात को हर तरह से प्रमाणित करने के लिए लेखक श्री ने भगवान् महावीर से लेकर बाईस शताब्दी तक के आचार्यों का परिचय दे दिया है । मुँहपत्ती बांधने की प्रथा अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में खामी लवजी ने चलाई उसी की पुष्टि के लिए आधुनिक समय में स्थानक मार्गियों ने भगवान महावीर के मुँह पर ढोरेवाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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