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विधर्मियों को जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा दे जैन बनाया। इस प्रकार जैन धर्म का प्रचार करते हुए आप एक समय चक्रेश्वरी देवी की प्रेरणा से ५०० मुनियों के साथ क्रमशः विहार कर किसी भी परिषह और कठिनाईयों की परवाह न करते हुए मरुभूमि में पधारे। उस समय मरुभूमि में जिधर देखो उधर वाममागियों के अखाड़े जमे हुए थे। यज्ञ यागादि में लाखों मूक प्राणियों का बलिदान और व्यभिचार करने में धर्म बतलाया जाता था। मांस मदिरा के लिए सबको छूट थी-ऐसी हालत में विषय वासना ग्रस्त प्राणियों के लिए और क्या कामना, शेष थी जो वे मनमानी करने में हिचकते। उस समय का नया वसा हुआ उपकेशपुर प्रधान रूप से वाममार्गियों का केन्द्र था अतः आचार्य रत्नप्रभसूरि अपने शिष्य मण्डल के साथ सर्व प्रथम वहीं पधारे पर उन पाखण्डियों के साम्राज्य में आपको कौन पूछता ? । वहाँ तो उन्हें शुद्ध आहार पानी की भी कमी थी--अतः स्वयं आचार्यश्री ने तथा शेष साधुओं ने एक पहाड़ी पर कठोर तपश्चर्या प्रारंभ करदी। इधर देखा जाय तो निमित कारण१ भी सानुकूल मिल गया कारण कार्य को लेकर आपकी तपश्चर्या का प्रभाव उस जनता पर इस तरह पड़ा कि वे सबके सब सूरिजी के पास आए और सूरिजी ने उन्हें प्रभावोत्पादक धर्मोपदेश सुनायाऔर राजा-प्रजा को मिथ्यात्वका त्याग करवाकर प्रायः ३८४००० तीनलाख चौरासी हजार घरवालों को वास क्षेप पूर्वक जैन बनाया । जिन लोगों के शक्ति तन्तु-वर्ण, जाति, और ऊँच नीचादि कई विभागों में विभक्त थे उनका संगठन , देखो--जैन जाति महोदय ग्रंथ ।
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