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किया, उस संगठित समाज का नाम "महाजनसंघ" रक्खा और उसके आत्म-कल्याण के लिए भगवान महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा भी करवाई। इस घटना को समय वीर निर्वारण के बाद ७० वर्ष का था । यह घटना खास उपकेशपुर में घटी थी इस कारण कालान्तर में वे लोग अन्यान्य स्थानों को चले जाने से "उपकेशवंशी" नाम से कहलाए और उसी "उपकेशवंश" का अपभ्रंश " ओसवाल" शब्द बना जो सर्वत्र प्रचलित है। क्योंकि मन्दिर मूर्तियों के शिलालेखों में इस ज्ञाति का प्राचीन नामोल्लेख प्रायः " उपकेशवंश" शब्द से ही हुआ सब जगह नजर आता है और ऐसा होना सम्भव भी है तथा - बाद में उपकेशपुर या इसके आस पास विचरने वाले साधुओं - का समूह भी " उपकेशच्छ" के नाम से विख्यात हुआ जो आज भी इसी प्राचीन नाम से विद्यमान है ।
श्राचार्य रत्नप्रभसूरि अपने जीवन में अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर लाखों मांस, मदिरा और व्यभिचार सेवियों को शुद्ध "सनातन धर्म" की राह पर लाये थे और अन्तिम समय में श्री शत्रुञ्जय तीर्थ पर एक मास का अनशन कर ८४ वर्ष की आयु पूर्ण कर वीर निर्वाण सं० ८४ माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन इस नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्गवास किया था । आचार्यश्री के स्वर्ग प्रयाण कर लेने पर अवशिष्ट साधुमण्डली -को तथा सकल श्रावक समुदायको महान् दुःख हुआ परन्तु "अन्ततोगत्वा" फिर भी "शेरों की सन्तान भी शेर ही होती हैं" इस युक्ति 'अनुसार "प्रारब्ध मुत्तमजनाः न परित्यजन्ति" इस नीतिवाक्य १ देखो - जैन जाति महोदय तथा जयन्ति महोत्सव पुस्तकें |
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